मौर्य काल, प्राचीन भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण दौर था, जिसे कला, वास्तुकला और शासकीय व्यवस्थाओं में अद्वितीय उपलब्धियों के लिए जाना जाता है। इस काल में, विशेष रूप से सम्राट अशोक के शासनकाल में, भारतीय संस्कृति और वास्तुकला पर गहरा प्रभाव पड़ा। अशोक स्तंभ, स्तूप और इस समय के अन्य स्मारक भारतीय कारीगरी और धार्मिक विचारधाराओं की अद्भुत झलक पेश करते हैं। इस लेख में, हम मौर्य कला और वास्तुकला, विशेष रूप से अशोक स्तंभ और स्तूप के बारे में चर्चा करेंगे, और इनके ऐतिहासिक महत्व और वास्तुशिल्प की उत्कृष्टता को समझेंगे।
कला और स्थापत्य में मौर्य युग का योगदान
मौर्य युग (ई० पू० 323-184) भारतीय कला और स्थापत्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण समयकाल था। इस युग में कला के क्षेत्र में कई नये प्रयोग किए गए, जो आज तक हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं। इस समय, पाषाण का प्रयोग किया गया, जिससे कलाकृतियाँ स्थायी और मजबूत हो सकीं। इससे पहले, कला में लकड़ी, मिट्टी की ईंटें और घास-फूस का उपयोग किया जाता था, जिनकी वजह से आज वह कलाकृतियाँ हमें नहीं मिल पातीं।
मौर्य युगीन कला को दो प्रमुख श्रेणियों में बाँटा जा सकता है, जिनमें दरबारी कला और लोक कला शामिल हैं। आइए, अब हम इन दोनों कलाओं के बारे में विस्तार से जानते हैं।

दरबारी कला: राजकीय स्मारक और संरचनाएं
दरबारी कला, मौर्यकाल की राजकीय कला थी। इस प्रकार की कला में राजाओं और शासकों द्वारा निर्मित स्मारक, स्तंभ, स्तूप, और गुहा विहार शामिल होते थे। इन्हें मुख्य रूप से धार्मिक और राजनीतिक उद्देश्य से बनाया जाता था। मौर्यकाल में सबसे प्रसिद्ध स्मारक ‘अशोक स्तंभ‘ हैं, जिन्हें पाषाण से अत्यंत सुंदर तरीके से उकेरा गया था। इन स्तंभों पर अशोक के धर्मादेशों को अंकित किया गया, जिनका उद्देश्य धर्म प्रचार करना था।
इसके अतिरिक्त, मौर्य युग के दौरान कई बड़े स्तूपों का निर्माण हुआ, जिनमें सबसे प्रसिद्ध ‘सांची का स्तूप‘ है। यह स्तूप बौद्ध धर्म के प्रचार और शिक्षाओं को फैलाने का कार्य करता था। इन स्मारकों को देखकर यह स्पष्ट होता है कि मौर्य काल में स्थापत्य कला को एक नया आकार मिला था, जिसमें पाषाण और अन्य ठोस सामग्री का उपयोग किया गया था।
लोक कला: सामान्य जनता की कला
लोककला, मौर्य युग की दूसरी महत्वपूर्ण कला श्रेणी थी। यह कला स्वतंत्र कलाकारों द्वारा बनाई जाती थी, और इसमें सामान्य जनता की रुचियों और आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता था। लोक कला में मुख्य रूप से यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाएँ और मिट्टी की मूर्तियाँ बनाई जाती थीं। ये मूर्तियाँ धार्मिक विश्वासों और दैनिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रदर्शित करती थीं।
लोक कला का उद्देश्य आम जनता को आकर्षित करना था और इसलिए यह सस्ती सामग्री से बनती थी। यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाओं में पुरुष और महिला देवताओं की मूर्तियाँ शामिल थीं, जो समृद्धि और खुशहाली के प्रतीक मानी जाती थीं।
मौर्य युग में कला का योगदान
मौर्य युग ने भारतीय कला और स्थापत्य को एक नया दिशा दी। इस काल के दौरान पाषाण का उपयोग कला में किया गया, जिससे कला का जीवनकाल लंबा हो गया। मौर्यकाल की कलाकृतियाँ आज भी हमारी धरोहर का हिस्सा हैं। इन कलाकृतियों से हमें मौर्यकाल की कला, संस्कृति और धार्मिक मान्यताओं के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
इस प्रकार, मौर्य युग ने न केवल कला और स्थापत्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया, बल्कि यह एक नया दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया, जिसमें पाषाण का स्थायित्व और मजबूती दिखती है।
राजप्रासाद और मौर्यकाल की वास्तुकला
मौर्यकाल की वास्तुकला और विशेषकर राजप्रासादों का इतिहास भारतीय कला और स्थापत्य के महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में सामने आता है। मौर्यकाल में, विशेषकर अशोक के समय में, जो अवशिष्ट स्मारक हमें मिलते हैं, वे इस युग की भव्यता और वास्तु कौशल को दर्शाते हैं। मौर्यकाल के भवनों और संरचनाओं के बारे में जानकारी मुख्य रूप से यूनानी लेखकों के विवरणों से प्राप्त होती है।
कौटिल्य का वास्तु विवरण
कौटिल्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र‘ में दुर्ग निर्माण की विधि का विस्तार से उल्लेख किया था। उन्होंने नगर की संरचना के बारे में बताया कि नगर के चारों ओर गहरी खाई (परिखा), ऊँचे चबूतों (वप्र) पर बने प्राकार, और प्राकार में द्वार, कोष्ठ, और अट्टालक (बुर्ज) होने चाहिए। यह विवरण काल्पनिक नहीं, बल्कि वास्तविकता पर आधारित था। मौर्य शासकों द्वारा नगर और दुर्ग का निर्माण इसी प्रकार किया गया होगा, और इस बात की पुष्टि यूनानी-रोमन लेखकों के विवरण से होती है।
पाटलिपुत्र और राजप्रासाद का विवरण
चंद्रगुप्त मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र (अब पटना) का वर्णन यूनानी इतिहासकार स्ट्रेबो ने किया था। उन्होंने कहा था कि पाटलिपुत्र गंगा और सोन नदियों के संगम पर स्थित था। यह नगर चौकोर आकार का था और इसके चारों ओर लगभग 700 फीट चौड़ी खाई थी। नगर के चारों ओर लकड़ी की दीवारें बनी हुई थीं, जिनमें बाण छोड़ने के लिए सुराख थे। पाटलिपुत्र में 64 द्वार और 570 बुर्ज थे। यहाँ चंद्रगुप्त मौर्य का भव्य राजप्रासाद था, जो एक विशाल भवन-समूह था।
राजप्रासाद की भव्यता और निर्माण
पाटलिपुत्र का राजप्रासाद एक विशाल और भव्य भवन था जिसमें बड़े-बड़े कमरे थे। इन भवनों में सोने की लतापत्रावली और चाँदी की चिड़ियाँ बनी हुई थीं। यहाँ का मुख्य भवन एक बड़ा मण्डप था, जो लकड़ी के ऊँचे चबूतों पर स्थित था। यह राजप्रासाद एक सुंदर पार्क के बीच स्थित था, जिसमें छायादार और हरे-भरे वृक्ष लगे हुए थे। यहाँ कई सरोवर भी थे, जिनमें विभिन्न प्रकार की मछलियाँ पाली जाती थीं। इस प्रकार, पाटलिपुत्र का राजप्रासाद अपनी भव्यता और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध था।
खुदाई और वास्तु अवशेष
पाटलिपुत्र के पास स्थित बुलन्दीबाग और कुम्रहार में की गई खुदाई से मौर्यकाल के भवनों के अवशेष प्राप्त हुए। स्पूनर महोदय ने इन अवशेषों को उजागर किया। बुलन्दीबाग से नगर के परकोटे के अवशेष मिले, जो 450 फुट लंबा था। इस परकोटे में लकड़ी के लठ्ठे थे, जो दीवारों के रूप में प्रयोग किए गए थे। कुम्रहार में राजप्रासाद के अवशेष भी पाए गए, जहाँ पत्थर के विशाल स्तम्भ थे। ये स्तम्भ एक विशाल मण्डप की छत के आधार रहे होंगे। यह राजप्रासाद चौथी शताब्दी ईस्वी में वैसा ही था जैसा पहले था, और चीनी यात्री फाहियान ने इसे देखकर हैरानी जताई थी। उन्होंने कहा था कि “इसे मनुष्य नहीं बना सकते, यह तो देवताओं द्वारा बनाया गया लगता है।” इसका मतलब यह था कि इस प्रासाद की सुंदरता और भव्यता इतनी अद्भुत थी कि उसे देखकर कोई भी चकित हो जाता। मौर्य काल में काष्ठकला (लकड़ी का काम) अपने चरम पर पहुंच चुकी थी।
प्रसिद्ध यूनानी इतिहासकार एरियन ने बताया था कि सूसा और एकबताना के राजमहल भी पाटलिपुत्र के राजमहल के भव्यता के मुकाबले कुछ भी नहीं थे। कुछ विद्वान तो यह भी मानते हैं कि मौर्य काल के इस राजमहल की भव्यता को पर्सिपोलिस के सौ स्तंभों वाले हखामनी राजमहल से भी जोड़ा जा सकता है।
काष्ठकला और मौर्यकाल
मौर्य काल में काष्ठकला अपने चरम पर पहुँच गई थी। कुम्रहार के प्रासाद अवशेषों से यह स्पष्ट होता है कि यह एक भवन समूह था। इस भवन के स्तम्भ और काष्ठमंच को देखकर यह कहा जा सकता है कि मौर्यकाल में काष्ठकला में अद्वितीय विकास हुआ था। इस प्रकार, मौर्यकाल का राजप्रासाद केवल विशाल और भव्य नहीं था, बल्कि वास्तुकला के दृष्टिकोण से भी अत्यंत उन्नत था।
अशोक के समय में मौर्य कला के महत्वपूर्ण स्मारक
अशोक के समय तक मौर्य कला ने अद्वितीय कृतियों को जन्म दिया। इन कृतियों में हम स्तम्भ, स्तूप, वेटिका और गुहा विहार जैसी महत्वपूर्ण वास्तुशिल्प संरचनाएँ देखते हैं। इनमें से हम इस लेख में मौर्यकाल के स्तम्भों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे, जो मौर्य स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

अशोक के स्तम्भ: मौर्य कला का प्रतीक
अशोक कालीन स्तम्भ मौर्यकाल की वास्तुकला का सबसे बेहतरीन उदाहरण माने जाते हैं। ये स्तम्भ एक ही पत्थर से बनाए गए थे और उनके ऊपर बनी पशु आकृतियाँ भारतीय कला में प्रतीकात्मक रूप से महत्वपूर्ण थीं। हालांकि, कुछ विद्वान मानते हैं कि इन स्तम्भों का प्रभाव ईरानी स्तम्भों से आया, लेकिन इन दोनों के बीच कई महत्वपूर्ण भेद हैं जो इसे पूरी तरह से भारतीय मान्यता और स्थापत्य कौशल का प्रतीक बनाते हैं।
ईरानी और अशोक के स्तम्भों में अंतर
निर्माण शैली: अशोक के स्तम्भ एकाश्मक (एक ही पत्थर से बने हुए) होते थे, जबकि ईरानी स्तम्भ कई गोलाकार टुकड़ों से मिलकर बनते थे।
स्थापना: अशोक के स्तम्भ भूमि पर सीधे रखे जाते थे, जबकि ईरानी स्तम्भों को चौकी पर स्थापित किया जाता था।
आकृतियाँ: अशोक के स्तम्भों पर पशु आकृतियाँ उकेरी जाती थीं, जो भारतीय संस्कृति में प्रतीकात्मक अर्थ रखती थीं, जबकि ईरानी स्तम्भों पर मानव आकृतियाँ होती थीं।
आकार: अशोक के स्तम्भ ऊपर से नीचे की ओर क्रमशः पतले होते गए, जबकि ईरानी स्तम्भों की चौड़ाई समान रहती थी।
प्रतीकात्मकता: अशोक के स्तम्भों में प्रतीकात्मकता थी, जैसे उनके शीर्ष पर पशुओं की मूर्तियाँ, जबकि ईरानी स्तम्भों में यह प्रतीकात्मकता नहीं थी।
पालिश और काष्ठकला
अशोक के स्तम्भों पर जो चमकदार पालिश थी, वह ईरान से आयातित नहीं थी, जैसा कि कुछ विद्वान मानते हैं। भारतीयों के पास पहले से ही पालिश करने की तकनीक थी, जो ‘आपस्तम्भ सूत्र‘ और ‘महाभारत’ जैसे प्राचीन ग्रंथों में स्पष्ट रूप से उल्लेखित है। यह तकनीक मौर्यकाल से पहले ही भारत में प्रचलित थी, और यह ओपदार पालिश भारतीय कला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी।
अशोक कालीन स्तम्भों का महत्व और संख्या
अशोक के स्तम्भों की संख्या लगभग 30 रही होगी, जिनमें से 15 स्तम्भ आज भी सुरक्षित हैं। इन स्तम्भों को दो प्रमुख प्रकारों में बांटा गया है:
1. धम्म-लिपियों वाले स्तम्भ: इनमें अशोक के धर्म संबंधी आदेश और धम्म के सिद्धांतों को अंकित किया गया था। प्रमुख स्तम्भों में दिल्ली-मेरठ, इलाहाबाद, लौरिया नन्दनगढ़, और सारनाथ के स्तम्भ शामिल हैं।
2. सादे स्तम्भ: ये स्तम्भ बिना किसी लिपि या चित्रकला के होते थे। प्रमुख उदाहरण रमपुरवा (बैल-शीर्ष), बसाढ़, और कोसम के स्तम्भ हैं।
अशोक के स्तम्भों की संरचना
अशोक के स्तम्भों में निम्नलिखित संरचनात्मक भाग होते थे:
1. यष्टि: यह स्तम्भ का मुख्य भाग होता था।
2. अधोमुख कमल: यह यष्टि के ऊपर स्थित होता था, जो घण्टे की आकृति के रूप में होता था।
3. फलका (Abacus): यष्टि के ऊपर स्थित एक सजावटी तत्व था।
4. पशु आकृतियाँ: स्तम्भ के शीर्ष पर विभिन्न प्रकार के पशुओं की मूर्तियाँ होती थीं, जो भारतीय प्रतीकवाद और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थीं।
अशोक के स्तम्भों का प्रतीकात्मक महत्व
अशोक कालीन स्तम्भों पर उकेरी गई पशु आकृतियाँ विशेष प्रतीकात्मक अर्थ रखती थीं। इन आकृतियों का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व था, जो बौद्ध धर्म के सिद्धांतों और भारतीय परंपराओं से जुड़े हुए थे। उदाहरण के लिए, सारनाथ के स्तम्भ पर स्थित शेरों की आकृति को बौद्ध धर्म के ‘धम्मचक्र‘ (धर्मचक्र) के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, जो सिद्धांतों और शिक्षा के फैलाव को दर्शाता है।
अशोक के स्तम्भ और उनके विशेषताएँ
मौर्यकाल के अशोक स्तम्भ भारतीय कला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। इन स्तम्भों का निर्माण उत्कृष्ट शिल्प कौशल का उदाहरण है और ये आज भी अपने चमकदार रूप और अद्भुत संरचना के लिए प्रसिद्ध हैं। ये स्तम्भ न केवल स्थापत्य कला के प्रतीक हैं, बल्कि भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतीकों के रूप में भी महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
यष्टि और उसकी विशेषताएँ
अशोक स्तम्भों का यष्टि एक ही पत्थर से तराशकर बनाया गया है, जो अपनी मजबूती और शिल्प कला में अद्वितीय है। इन स्तम्भों पर जो पालिश है, वह इतनी उत्तम है कि वे आज भी शीशे की तरह चमकते हैं। यष्टि के सिरे पर उल्टे कमल की आकृति होती है, जिसे कुछ विद्वान पर्सिपोलिस (हखामनी सम्राटों की राजधानी) के घण्टाशीर्ष से तुलना करते हैं। हालांकि, डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने इसे भारतीय ‘पूर्णघट‘ या ‘मंगलकलश‘ का प्रतीक बताया है।
इसके ऊपर फलक ताँबे की कीलों द्वारा स्थापित किया गया है। यह फलक कुछ स्तम्भों में चौकोर और कुछ में गोल तथा अलंकृत रूप में होता है। फलक पर विभिन्न पशुओं की आकृतियाँ उकेरी जाती हैं, जैसे – हंस, सिंह, हाथी, बैल आदि। लौरिया अरराज के स्तम्भ का शीर्ष नष्ट हो चुका है, लेकिन आर.पी. चन्दा के अनुसार उस पर गरुड़ की आकृति रही होगी। अन्य स्तम्भों पर जैसे बसाढ़ के स्तम्भ पर सिंह, संकिसा के स्तम्भ पर हाथी, और सारनाथ के स्तम्भ पर चार सिंहों की आकृतियाँ देखी जाती हैं। ये सभी आकृतियाँ धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीक मानी जाती हैं।

सारनाथ स्तम्भ का सिंहशीर्ष
सारनाथ का स्तम्भ, विशेष रूप से उसका सिंहशीर्ष (Lion-Capital), सर्वोत्कृष्ट माने जाते हैं। इस सिंहशीर्ष पर चार सजीव सिंह अपनी पीठ से पीठ मिलाकर, चारों दिशाओं में मुँह किए हुए दृढ़ता से बैठे हैं। इन सिंहों की मांसपेशियाँ, लहलहाते हुए केश और गठीले अंग-प्रत्यंग को बहुत सूक्ष्मता और चतुरता के साथ उकेरा गया है। ये सिंह अशोक की शक्ति और शासन के प्रतीक माने जाते हैं। इनसे यह संदेश मिलता है कि अशोक का राज्य और धर्म चारों दिशाओं में फैल चुका था।
इसके अलावा, सिंहों के मस्तक पर महाधर्मचक्र स्थापित था जिसमें मूलतः 32 तौलियाँ (Spokes) थीं। यह शक्ति और धर्म की विजय का प्रतीक है, जो बुद्ध और अशोक दोनों के व्यक्तित्व में नजर आता है। सिंहों के नीचे की फलका पर चारों दिशाओं में चार चक्र बने हुए हैं, जो धर्मचक्र प्रवर्तन के प्रतीक हैं। इस पर चार पशुओं की आकृतियाँ हैं – गज, अश्व, बैल और सिंह – जिन्हें चलते हुए दिखाया गया है।
पशुओं की आकृतियाँ और उनका प्रतीकात्मक महत्व
इन चार पशुओं की आकृतियों के बारे में कई मत व्यक्त किए गए हैं। इतिहासकार वोगेल के अनुसार, ये आकृतियाँ केवल अलंकरण के लिए हैं और उनका कोई प्रतीकात्मक अर्थ नहीं है। जबकि ब्लाख ने इन्हें चार हिन्दू देवताओं का प्रतीक माना है। उनके अनुसार, हाथी इन्द्र का, अश्व सूर्य का, वृष शिव का और सिंह दुर्गा का वाहन माना जाता है।
इतिहासकार फूशे की धारणा के अनुसार, ये पशु बुद्ध के जीवन की चार महान घटनाओं को दर्शाते हैं। जैसे, हाथी उनकी गर्भस्थ होने की घटना का प्रतीक है, वृष उनका जन्म, अश्व उनके गृह-त्याग, और सिंह उनका प्रतीक, क्योंकि बुद्ध स्वयं शाक्य सिंह थे। इसके अलावा, वी. एस. अग्रवाल का कहना है कि इन पशुओं को किसी विशेष दायरे में सीमित करना उचित नहीं है, क्योंकि इनकी परंपरा सिन्धु घाटी से लेकर 19वीं शताब्दी तक मिलती है।
अशोक के स्तम्भों की निर्माण प्रक्रिया और संरचना
अशोक के स्तम्भों की लंबाई लगभग 35 से 50 फीट के बीच होती थी और प्रत्येक का वजन करीब 50 टन होता था। ये स्तम्भ चुनार (मिर्जापुर) के बलुए पत्थर से बने थे। ऐसा लगता है कि चुनार में इन स्तम्भों के निर्माण का एक कारखाना रहा होगा। इन स्तम्भों का निर्माण पूरी तरह से स्वतंत्र रूप से किया गया था और ये खुले आकाश के नीचे खड़े रहते थे, बिना किसी सहारे के।
इन स्तम्भों की संरचना अत्यंत सटीक और समकालीन शिल्प कौशल का अद्वितीय उदाहरण है। सारनाथ के सिंहशीर्ष में शिल्पी की निपुणता का उत्कृष्ट प्रदर्शन मिलता है। जैसे, मार्शल के अनुसार, “सारनाथ का सिंहशीर्ष यद्यपि अद्वितीय नहीं है, फिर भी तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में जो कला का विकास हुआ था, उसमें यह सर्वाधिक विकसित कलाकृति है।” स्मिथ ने भी इस शिल्प के बारे में कहा कि शिल्पी की निपुणता सर्वाधिक पूर्णता को प्राप्त हो चुकी थी और आज भी इस तरह की कला का प्रदर्शन असंभव है।

स्तूप: बौद्ध कला और श्रद्धा का प्रतीक
स्तूप बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक हिस्सा हैं। ये मुख्य रूप से महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को संजोने और श्रद्धा अर्पित करने के लिए बनाए गए थे। आज भी ये भारतीय स्थापत्य कला के अद्भुत उदाहरण माने जाते हैं। स्तूप का इतिहास बहुत पुराना है और इसकी परंपरा बौद्ध काल से पहले से ही अस्तित्व में थी।
स्तूप का अर्थ और प्रारंभ
स्तूप शब्द का अर्थ होता है “ढेर” या “थूहा“। पहले यह शव दाह के बाद बची अस्थियों को संग्रहित करने के लिए बनाए जाते थे। बौद्ध धर्म में, इन्हें विशेष रूप से बुद्ध और उनके शिष्यों की अस्थियों को रखने के लिए पवित्र स्थान के रूप में विकसित किया गया। ‘स्तूप’ का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है, जहाँ अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं को स्तूप कहा गया था। यह प्रथा धीरे-धीरे बौद्ध धर्म में समाहित हो गई और स्तूपों को पूजा और श्रद्धा का केंद्र बना दिया गया।
स्तूप के प्रकार
स्तूपों को चार प्रकार में बांटा जाता है:
1. शारीरिक स्तूप – इनमें बुद्ध या उनके शिष्यों की अस्थियाँ या शरीर के अंग (जैसे दांत, नख, केश) रखे जाते थे।
2. पारिभौगिक स्तूप – इनमें बुद्ध द्वारा उपयोग की गई वस्तुएं (जैसे भिक्षा पात्र, चरण पादुका, आसन) रखी जाती थीं।
3. उद्देश्यिक स्तूप – ये स्तूप उन स्थानों पर बनाए जाते थे, जो महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं या उनके यात्रा से पवित्र हो गए थे। जैसे, बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर।
4. संकल्पित स्तूप – ये छोटे आकार के होते थे और बौद्ध तीर्थ स्थलों पर श्रद्धालुओं द्वारा बनाए जाते थे। इनका उद्देश्य पुण्य अर्जन था।
स्तूप का निर्माण और संरचना
प्रारंभिक स्तूप का रूप अर्ध-गोलाकार (Hemispherical) होता था। इसमें एक चबूतरे (मेधि) के ऊपर उल्टे कटोरे जैसा आकार बना होता था, जिसे ‘अंड‘ कहा जाता है। स्तूप की चोटी पर चपटी सतह होती थी, और इस पर धातु का एक छोटा सा पात्र रखा जाता था, जिसे ‘हर्मिका‘ कहते थे। यह हर्मिका देवताओं का निवास स्थान माना जाता था।
स्तूप के चारों ओर एक बाड़ या दीवार (वेदिका) होती थी, और इसके अंदर एक प्रदक्षिणापथ (परिक्रमा मार्ग) होता था, जिसके माध्यम से श्रद्धालु स्तूप की परिक्रमा करते थे। समय के साथ, वेदिका के चारों दिशाओं में प्रवेशद्वार और मेहराबदार तोरण बनाए गए।
अशोक और स्तूपों का विस्तार
बौद्ध परंपरा में अशोक को 84 हजार स्तूपों का निर्माण करने का श्रेय दिया जाता है। अशोक के समय में, पूरे भारत में स्तूपों का निर्माण हुआ। सातवीं शताब्दी के चीनी यात्री हुएनसांग ने तक्षशिला, श्रीनगर, मथुरा, सारनाथ, वैशाली, गया आदि स्थलों पर स्तूप देखे थे। हालांकि, आज इनमें से अधिकांश स्तूप नष्ट हो चुके हैं।
प्रसिद्ध स्तूप: सांची और अन्य स्थल
स्तूपों का प्रारंभिक रूप सांची के स्तूप-समूह से प्रसिद्ध हुआ है। यह मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के पास सांची पहाड़ी पर स्थित है। 1818 में जनरल रायलट ने यहां के स्तूपों की खोज की थी। बाद में 1888 में मेजर कोल ने इसे और बेहतर तरीके से संरक्षित किया। यहां पर एक बड़ा और दो छोटे स्तूप मिले थे, जिनका निर्माण अशोक के शासनकाल में हुआ था।
इसके अलावा, सारनाथ और तक्षशिला के ‘धर्मराजिका स्तूप‘ का निर्माण भी अशोक के समय में हुआ था। ये स्तूप ईंटों से बने थे और बाद में अन्य शासकों द्वारा परिवर्धित किए गए।
पाषाण वेदिका और मौर्यकालीन वास्तुकला
मौर्यकाल में बौद्ध धर्म से जुड़ी कई वास्तुकला की विशेषताएं उभरीं। इनमें पाषाण वेदिका का निर्माण एक प्रमुख उदाहरण है। इन वेदिकाओं का उपयोग मौर्यकाल में स्तूपों और विहारों को घेरने के लिए किया जाता था। ये वेदिकाएँ मौर्य साम्राज्य के स्थापत्य विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानी जाती हैं।
पाषाण वेदिका का निर्माण
पाषाण वेदिका, जो मुख्यतः बौद्ध स्थलों के चारों ओर लगाई जाती थी, मौर्यकाल के प्रमुख वास्तु निर्माणों में से एक थी। इन वेदिकाओं के खंभों और उनके बीच की शिलापट्टिकाओं पर अनेक चित्रांकित आकृतियाँ मिलती हैं। बोधगया से एक पाषाण वेदिका का अवशेष मिला है जिसे ‘बोधिमण्ड‘ कहा जाता है। इसमें कमल, हाथी, अश्व और मकर जैसी आकृतियाँ उकेरी गई हैं, जो इस काल के शिल्प कौशल को दर्शाती हैं।
सारनाथ से भी अशोक के समय की एक पाषाण वेदिका मिली थी, जो एक ही पत्थर से काटकर बनाई गई थी। इस वेदिका के दो स्तम्भों के बीच तीन सूचियाँ थीं, और स्तम्भों के ऊपर उष्णीश (headgear) बनाया गया था। यह वेदिका आकर्षक, चिकनी और सुंदर थी, जो मौर्यकाल की स्थापत्य कला की ऊँचाई को दर्शाती है।
मौर्यकाल में पाषाण के प्रयोग का महत्व
पाषाण वेदिकाओं के अवशेष यह सिद्ध करते हैं कि मौर्यकाल में पत्थर का प्रयोग वास्तु निर्माण में प्रारंभ हो गया था। सांची और पाटलिपुत्र से भी पाषाण के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो मौर्य युग के उच्चतम स्तर के शिल्प कौशल को प्रदर्शित करते हैं। इन पाषाण वेदिकाओं में चमकीली पालिश की जाती थी, जिससे यह स्पष्ट होता है कि इस समय शिल्पी अत्यधिक निपुणता से काम कर रहे थे।

गुहा-विहार: मौर्यकालीन गुफाओं की कला
मौर्यकाल में पर्वत गुफाओं को काटकर निवास स्थान बनाने की कला का अद्भुत विकास हुआ। यह समय गुहा-स्थापत्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण बदलाव का था। इस समय मौर्य सम्राट अशोक और उनके पौत्र दशरथ ने पहाड़ियों को काटकर गुफाओं का निर्माण करवाया। इन गुफाओं की दीवारों और छतों पर चमकीली पालिश की गई थी, जो उनके सुंदर निर्माण को दर्शाती है।
अशोक काल की प्रसिद्ध गुफाएँ
अशोक के शासनकाल में बराबर और नागार्जुनी पहाड़ियों पर कई गुफाएँ बनवायी गईं। इनमें से ‘सुदामा की गुफा‘ और ‘कर्ण चौपड़‘ गुफा प्रमुख हैं। सुदामा की गुफा में दो कोष्ठ होते हैं, जिनकी छत ढोलाकार है। गुफा की दीवारों और छतों पर शीशे जैसी चमकीली पालिश है। यह गुफा अशोक के शासन काल के बारहवें वर्ष में बनवाई गई थी।
इसके अलावा, ‘लोमश ऋषि‘ नाम की गुफा भी बराबर समूह की प्रमुख गुफा है। इस गुफा का वास्तु-विन्यास सुदामा की गुफा के समान है, लेकिन इसके आंतरिक कोष्ठ का आकार अण्डाकार है। इसका प्रवेश द्वार विशेष रूप से आकर्षक है, जिसमें तिरछे खड़े दो स्तम्भ और गोल मेहराब हैं।
नागार्जुनी समूह की गुफाएँ
नागार्जुनी पहाड़ी पर ‘गोपिका गुफा‘ विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जिसे दशरथ ने अपने अभिषेक वर्ष में बनवाया था। यह गुफा सुरंग के आकार की है, और इसमें दो गोल-मण्डप बने हैं, जिनमें एक गर्भगृह और दूसरा मुखमण्डप माना जाता है। इस गुफा में मौर्यकालीन गुहा-स्थापत्य की सभी विशेषताएँ देखी जा सकती हैं।
मूर्ति-कला: मौर्यकाल के अद्भुत उदाहरण
मौर्यकालीन मूर्तिकला की उत्कृष्टता को समझने के लिए हमें अशोक स्तम्भों की विभिन्न पशु आकृतियों को देखना चाहिए। उड़ीसा के घौली चट्टान पर उकेरी गई हाथी की आकृति मौर्यकाल की पाषाण मूर्तिकला का अद्वितीय उदाहरण है। यह हाथी अत्यंत विशाल आकार का है और इसके सूँड़, पैर तथा शरीर की बनावट अत्यधिक स्वाभाविक दिखती है। यह मूर्तिकला उच्च शिल्प कौशल का प्रतीक मानी जाती है।
इसके अलावा, कालसी (देहरादून, उत्तर प्रदेश) की चट्टान पर एक हाथी की आकृति उकेरी गई है, जिसमें मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में ‘गजतमे‘ (गजोत्तमः) शब्द खुदा हुआ है, जिसका अर्थ है ‘सर्वोत्तम हाथी‘। यह मूर्ति उकेरी हुई रिलीफ मूर्तिकला का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है।
लोककला: मौर्यकाल का अद्भुत शिल्प
मौर्यकाल में न केवल धार्मिक और राजसी कला का विकास हुआ, बल्कि लोककला भी अपनी पूरी ऊँचाई पर पहुंची। इस समय, मौर्यकाल के कलाकारों ने लोकरुचि की वस्तुओं का निर्माण किया, जो समाज और धार्मिक जीवन में अत्यधिक महत्वपूर्ण थीं। लोककला के उदाहरण हमें विभिन्न स्थानों से मिली यक्ष-यक्षिणी की विशाल मूर्तियों में मिलते हैं।

यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाओं का महत्व
मौर्यकाल में यक्ष और यक्षिणी की मूर्तियाँ काफी महत्वपूर्ण थीं। ये मूर्तियाँ लोकधर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा थीं और इन्हें देवी-देवता के रूप में पूजा जाता था। इन मूर्तियों का आकार बहुत बड़ा होता था और इन्हें पूरी तरह से तराशकर तैयार किया जाता था। इनके शरीर पर सुंदर वस्त्र और आभूषण दिखाए जाते थे।
कुछ प्रमुख यक्ष-यक्षिणी मूर्तियाँ निम्नलिखित हैं:
1. मथुरा जिले के परखम ग्राम से मिली ‘मणिभद्र’ यक्ष मूर्ति।
2. मथुरा के बड़ोदा ग्राम से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा।
3. झींग-का-नगरा ग्राम (मथुरा) से मिली यक्षी की प्रतिमा।
4. ग्वालियर (मध्य प्रदेश) से प्राप्त ‘पद्मावती’ यक्ष-प्रतिमा।
5. पटना के दीदारगंज से प्राप्त चामर ग्राहिणी यक्षी की मूर्ति।
इन सभी मूर्तियों में न केवल शिल्प कौशल की उत्कृष्टता है, बल्कि इनकी शारीरिक संरचना और उनके द्वारा व्यक्त की गई भावनाएँ भी अद्भुत हैं। विद्वानों का मानना है कि यक्ष-यक्षी प्रतिमाओं के आधार पर कालांतर में बुद्ध, बोधिसत्व, और जैन तीर्थकरों की विशाल मूर्तियाँ बनाई गई थीं।
मौर्यकालीन मूर्तिकला के अन्य उदाहरण
इसके अलावा, मौर्यकाल के दौरान पटना के निकट लोहानीपुर से जैन दिगम्बरों की प्रतिमाओं के धड़ मिले थे। सारनाथ से भी दो पुरुष मूर्तियों के अवशेष प्राप्त हुए थे, जिनकी चिकनी पालिश और चुनार के बलुए पत्थर से उनकी मौर्यकालीनता साबित होती है।
इस समय मृण्मूर्तियों का भी निर्माण हुआ था। इन मूर्तियों में हाथी, घोड़ा, कुत्ता, हिरण, पक्षी आदि की आकृतियाँ शामिल थीं। इन मूर्तियों को हाथ से साँचे में ढालकर तैयार किया गया था। विभिन्न स्थानों से इन मिट्टी की मूर्तियों के अवशेष मिले हैं, जैसे कि सारनाथ, अहिच्छत्र, हस्तिनापुर, और कौशाम्बी।
इतिहासकार नीहार रजन राय का दृष्टिकोण
हालांकि, कुछ विद्वान, जैसे नीहार रजन राय, इन मूर्तियों को मौर्यकाल की कला नहीं मानते। उनका कहना है कि मौर्यकाल के बाद भी यह कला जीवित रही और शिल्पी कई सालों तक चुनार के पत्थरों का उपयोग करते रहे। उनका यह भी मानना है कि “पत्थर पर शोशे जैसी चमकीली पालिश” की कला मौर्य काल के बाद भी जारी रही।
उनके अनुसार, पूर्ण आकार की गोल मूर्तियाँ भारतीय कला के विभिन्न चरणों से संबंधित हैं। इन मूर्तियों के आकार, शैलियों और बनावट से यह स्पष्ट होता है कि ये मौर्य दरबारी कला से नहीं जुड़ी हुई थीं, बल्कि भारतीय कला की पारंपरिक शैलियों का हिस्सा थीं।
निष्कर्ष
अंत में, मौर्य काल भारत की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और वास्तुशिल्प की नवोन्मेषिता का प्रतीक है। अशोक स्तंभ, स्तूप और अन्य मौर्य कालीन स्मारक न केवल उस समय की कारीगरी को दर्शाते हैं, बल्कि वे धार्मिक और दार्शनिक बदलावों की भी कहानी सुनाते हैं। मौर्य कला और वास्तुकला की यह धरोहर आज भी आधुनिक वास्तुकला को प्रेरित करती है, और यह भारत के प्राचीन इतिहास का अनमोल हिस्सा बनी हुई है।