मौर्य युग की आर्थिक दशा, व्यापार, उद्योग और प्रशासन की उन्नति

मौर्य युग भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण और समृद्ध काल था, जिसमें आर्थिक, व्यापार, उद्योग और प्रशासनिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण विकास हुआ। इस अवधि में कृषि, व्यापार, उद्योग और प्रशासन में न केवल तकनीकी और संरचनात्मक सुधार हुए, बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों के लिए कई सुधारात्मक कदम भी उठाए गए। मौर्य काल के सम्राटों ने मजबूत शासन व्यवस्था के साथ देश की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ किया, जिससे भारत ने समृद्धि की नई ऊँचाइयाँ हासिल की। इस लेख में, हम मौर्य युग की आर्थिक दशा, व्यापार, उद्योग और प्रशासन में हुए प्रमुख परिवर्तनों पर विस्तृत रूप से चर्चा करेंगे।

 

मौर्यकालीन आर्थिक दशा 

 

मौर्य युग में कृषि प्रमुख रूप से लोगों की आजीविका का मुख्य स्रोत थी। भूमि का स्वामित्व राजा और कृषकों के बीच था। किसान युद्ध और अन्य सरकारी जिम्मेदारियों से मुक्त रहते थे, जिससे उन्हें खेती पर पूरा ध्यान देने का समय मिलता था। इस दौरान कृषि में कई तकनीकी बदलाव हुए, जो उत्पादन को बढ़ाने में सहायक साबित हुए।

 

Image of a Mauryan-era ring well discovered during excavation at Purana Qila, New Delhi.
पुराना किला, नई दिल्ली में खुदाई के दौरान मिला मौर्य काल का एक रिंग वेल (कुआं)। फोटो: संदीप सक्सेना – द हिंदू

कृषि में तकनीकी विकास 

 

लोहे के औजारों का प्रयोग बढ़ने के कारण कृषि कार्यों में सुधार आया। नए औजारों जैसे कुल्हाड़ी, फाल, हँसिया आदि का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। इससे उत्पादन में बढ़ोतरी हुई। राज्य द्वारा कृषि को प्रोत्साहन भी मिलता था। विशेष रूप से युद्ध के समय में, सैनिकों को खेतों को नुकसान न पहुँचाने का निर्देश दिया जाता था। इसके अलावा, कृषि से संबंधित कीड़ों और जानवरों को नियंत्रित करने के लिए गोपालक और शिकारी नियुक्त किये गए थे।

 

भूमि और सिंचाई

 

मौर्यकाल में भूमि बहुत उर्वरक थी और हर साल दो फसलें उगाई जा सकती थीं। देश अकाल और अभाव से मुक्त था। गेहूँ, जौ, चना, चावल, सरसो, मसूर जैसी प्रमुख फसलें उगाई जाती थीं। इसके अलावा, मौर्य शासन में सिंचाई व्यवस्था भी बहुत अच्छी थी। मेगस्थनीज ने लिखा है कि अधिकांश भूमि सिंचित थी। नदियों का प्रबंधन किया जाता था ताकि पानी सही तरीके से नहरों के माध्यम से खेतों तक पहुँच सके।

 

सिंचाई की चार विधियाँ 

 

अर्थशास्त्र में सिंचाई के चार प्रमुख तरीके बताए गए हैं:

1. हाथ से सिंचाई,

2. कंधों पर पानी लेकर सिंचाई,

3. मशीन से सिंचाई, और

4. नदियों और तालाबों से पानी निकालकर सिंचाई की जाती थी।

 

चन्द्रगुप्त मौर्य ने सुराष्ट्र प्रांत में सुदर्शन झील का निर्माण कराया था, जो सिंचाई में मदद करती थी। रुद्रदामन के जूनागढ़ लेख से यह जानकारी मिलती है कि इस झील का निर्माण चन्द्रगुप्त के राज्यपाल पुष्यगुप्त ने शुरू किया था, और अशोक के समय में इसे पूरा किया गया था।

 

पशुधन और चारागाह

 

मौर्य युग में पशुधन का भी बहुत महत्व था। गाय, बैल, भेड़, बकरी, भैंस, ऊँट, सुअर, और कुत्ते प्रमुख रूप से पाले जाते थे। राज्य ने पशुओं के लिए चारागाहों की व्यवस्था की थी, जिससे उन्हें पर्याप्त चारा मिलता था। इसके अलावा, मौर्य प्रशासन ने एक विशेष विभाग की स्थापना की थी, जो पशुधन के पालन-पोषण और उनके इलाज की जिम्मेदारी संभालता था।

 

Map of India showing trade routes during the Mauryan period, including Uttarapath, Dakshinapath, and coastal trade routes.
मौर्यकालीन व्यापारिक मार्ग

मौर्य युग में व्यापार-व्यवसाय का विकास 

 

मौर्य युग में व्यापार और व्यवसाय का स्तर काफी उन्नत हुआ था। मौर्य सम्राटों ने सड़कों का निर्माण और एक मजबूत शासन व्यवस्था स्थापित की, जिससे व्यापार को बढ़ावा मिला। इस समय भारत में आंतरिक और बाह्य दोनों तरह के व्यापार का काफी विकास हुआ था।

 

आंतरिक और बाह्य व्यापार का विस्तार

 

भारत का बाह्य व्यापार सीरिया, मिस्र और अन्य पश्चिमी देशों से किया जाता था। पश्चिमी भारत में भृगुकच्छ और पूर्वी भारत में ताम्रलिप्ति जैसे प्रमुख बंदरगाहों से यह व्यापार होता था। यूनानी और रोमन लेखकों ने भारत के समुद्री व्यापार का भी वर्णन किया है। एरियन ने बताया था कि भारतीय व्यापारी मणियों और मोतियों को बेचने के लिए यूनान के बाजारों में जाते थे।

 

व्यापारिक जहाजों का निर्माण और प्रबंधन 

 

व्यापारिक जहाजों का निर्माण मौर्यकाल का एक महत्वपूर्ण उद्योग था। ये जहाज राज्य के नियंत्रण में होते थे और व्यापारी उन्हें किराए पर लेते थे। नवाध्यक्ष नामक अधिकारी व्यापारिक जहाजों का संचालन करता था। यदि समुद्री मार्ग से आने वाली वस्तुएं क्षतिग्रस्त हो जाती थीं, तो राज्य उन पर शुल्क नहीं लेता था या क्षति के हिसाब से शुल्क में कमी करता था।

 

आंतरिक व्यापार मार्ग 

 

भारत में आंतरिक व्यापार भी तेजी से बढ़ रहा था। इस समय देश में कई प्रमुख व्यापारिक मार्ग थे। एक प्रमुख मार्ग बंगाल के ताम्रलिप्ति बंदरगाह से पश्चिमोत्तर भारत के पुष्कलावती तक जाता था। इसे ‘उत्तरापथ‘ कहा जाता था। इस मार्ग पर चम्पा, पाटलिपुत्र, वैशाली, राजगृह, गया, काशी, प्रयाग, कौशाम्बी, कान्यकुब्ज, हस्तिनापुर, साकेत और तक्षशिला जैसे महत्वपूर्ण नगर स्थित थे।

 

व्यापारिक मार्गों का विस्तार 

 

दूसरा महत्वपूर्ण मार्ग पश्चिम में पाटल से लेकर पूर्व में कौशाम्बी के पास उत्तरापथ से मिलता था। तीसरा मार्ग दक्षिण में प्रतिष्ठान से उत्तर में श्रावस्ती तक जाता था, जिसमें माहिष्मती, उज्जैन और विदिशा जैसे नगर थे। इस मार्ग को दक्षिणापथ कहा जाता था। चौथा प्रमुख मार्ग भृगुकच्छ से मथुरा तक जाता था, जो उज्जयिनी से भी जुड़ा था। इस प्रकार, उत्तरापथ और दक्षिणापथ के मार्गों ने व्यापार को एक साथ जोड़ दिया था।

 

व्यापार पर राज्य का नियंत्रण 

 

मौर्य शासन के तहत व्यापार पर कड़ा नियंत्रण था। पण्याध्यक्ष नामक अधिकारी बिक्री की वस्तुओं का बारीकी से निरीक्षण करता था। वह वस्तुओं के मूल्य को निर्धारित करता था ताकि व्यापारी जनता से अत्यधिक लाभ न ले सकें। इसके साथ ही, व्यापारी अपने लाभ की दरें भी तय कर सकते थे। स्थानीय वस्तुओं पर व्यापारी 5% और विदेशी वस्तुओं पर 10% मुनाफा कमा सकते थे। इससे अधिक मुनाफा होने पर वह रकम राजकोष में जमा कर दी जाती थी।

 

मौर्य युग में उद्योग और व्यवसाय की उन्नति 

 

मौर्यकालीन भारत के भीतर व्यवसाय और उद्योग-धंधे काफी विकसित थे। विभिन्न उद्योगों में काम करने वाले लोग अपनी कला में माहिर थे, और इन उद्योगों ने समाज की समृद्धि में योगदान दिया। कपड़ा उद्योग, चर्म-उद्योग, धातुकर्म, बढ़ईगिरी और खनिज उद्योग प्रमुख थे।

 

कपड़ा उद्योग की उन्नति 

 

कपड़ा उद्योग मौर्यकाल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। मदुरा, अपरान्त, कलिग, काशी, बग, वत्स और महिष जैसे क्षेत्रों में उच्च गुणवत्ता वाले सूती वस्त्र तैयार होते थे। इन वस्त्रों में ‘दुकूल‘ (चिकना सफेद वस्त्र) और ‘क्षौम‘ (रेशमी वस्त्र) का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा, चीन और नेपाल से ऊनी वस्त्र, रेशमी वस्त्र और कम्बल का आयात भी किया जाता था।

 

चर्म-उद्योग का विकास 

 

चर्म-उद्योग भी मौर्यकाल में उन्नति पर था। एरियन ने भारतीयों द्वारा श्वेत चमड़े के जूते पहने जाने का उल्लेख किया है, जो सुंदर और उत्कृष्ट गुणवत्ता के होते थे। इस उद्योग में बारीक काम करने वाले कारीगरों द्वारा चमड़े के विविध उत्पाद तैयार किए जाते थे, जिनमें जूते, बेल्ट और अन्य वस्त्र शामिल थे।

 

बढ़ईगिरी और लकड़ी के शिल्प 

 

बढ़ईगिरी मौर्यकाल का एक प्रमुख उद्योग था। लकड़ी के विभिन्न उपकरण और अन्य वस्तुएं बनाई जाती थीं। कुम्रहार की खुदाई में सात बड़े लकड़ी के चबूतरे पाए गए, जो काष्ठ शिल्प के उन्नति की गवाही देते हैं। यह दर्शाता है कि मौर्यकाल में लकड़ी के काम में भी उच्च स्तर की कौशलता थी।

 

धातुकर्म और धातुओं से उत्पाद 

 

धातुकर्म का उद्योग भी मौर्य युग में बहुत उन्नत था। विभिन्न प्रकार की धातुओं जैसे सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, शीशा, टिन, पीतल, कासा आदि से अस्त्र-शस्त्र, बर्तन, आभूषण और उपकरण बनाए जाते थे। तक्षशिला और हस्तिनापुर की खुदाई से कई बहुमूल्य आभूषणों के प्रमाण मिले हैं, जो उस समय की धातुकर्म कला को दर्शाते हैं। लोग धातुओं को गलाने और शुद्ध करने की कला में निपुण थे।

 

पाषाण और हाथी दांत का काम 

 

पाषाण तराशने का उद्योग भी इस युग में उन्नति पर था। मौर्यकाल के एकाश्मक स्तम्भ पाषाण शिल्प की उत्कृष्टता का प्रतीक हैं। इन स्तम्भों का वजन 50 टन और ऊँचाई लगभग 30 फीट से अधिक थी। इन स्तम्भों को पांच-छह सौ मील की दूरी से लाकर स्थापित किया गया था, जो उस समय की अभियंत्रण कुशलता को दर्शाता है। इसके अलावा, हाथी दांत से भी आकर्षक और सुंदर उपकरण बनाए जाते थे।

 

खनिज पदार्थों की प्राप्ति और खनन उद्योग 

 

मौर्य काल में विभिन्न खनिज पदार्थों की उपलब्धता काफी अच्छी थी। अर्थशास्त्र में समुद्री और भूमिगत खानों का उल्लेख मिलता है। समुद्री खानों के अधीक्षक का कार्य हीरे, मोती, मूँगा, शंख, बहुमूल्य पत्थरों का संग्रहण करना था। भूमिगत खानों के अधीक्षक नई खानों की खोज करते थे और पुरानी खानों के रख-रखाव का कार्य करते थे। इन खानों में काम करने वाले श्रमिकों के पास वैज्ञानिक उपकरण होते थे।

 

खनिजों और धातुओं की नीतियां 

 

राज्य ने खनिजों और धातुओं के व्यापार पर कड़ा नियंत्रण रखा था। राजा की अनुमति के बिना, खानों से निकाली धातुओं या उनसे बने उत्पादों को बेचना या खरीदना अपराध माना जाता था। यदि कोई ऐसा करता था, तो उस पर 600 पण का अर्थदंड लगाया जाता था। राज्य की नीति ने यह सुनिश्चित किया कि खनिजों और धातुओं का सही उपयोग हो और राजकोष को उचित लाभ मिले।

 

मौर्यकाल में उद्योग, व्यापार और प्रशासन 

 

मौर्यकालीन व्यवसाय, उद्योग और प्रशासन का प्रबंधन बहुत संगठित था। इस समय व्यापार और उद्योगों की कई श्रेणियाँ थीं, जिन्हें विशेष रूप से एकीकृत और नियंत्रित किया जाता था। इन श्रेणियों के अध्यक्ष और न्यायालय होते थे, जो उनके कार्यों की निगरानी और विवादों का समाधान करते थे।

 

श्रेणियों का गठन और उनकी भूमिका 

 

मौर्यकाल में विभिन्न शिल्पों के लिए अलग-अलग श्रेणियाँ बनाई गई थीं, जिन्हें ‘श्रेणी‘ कहा जाता था। जातक ग्रंथों में 18 प्रकार की श्रेणियाँ वर्णित हैं, जैसे काष्ठकारों की श्रेणी, लुहारों की श्रेणी, चर्मकारों की श्रेणी, चित्रकारों की श्रेणी आदि। इन श्रेणियों के अपने न्यायालय होते थे, जिनका प्रधान ‘महाश्रेष्ठि‘ कहलाता था। इन न्यायालयों द्वारा व्यापार संबंधी विवादों का समाधान किया जाता था।

 

शिल्पकारों की सुरक्षा और मजदूरी 

 

शिल्पकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कड़े नियम बनाए गए थे। यदि किसी शिल्पकार को काम करते हुए चोट पहुँचती थी, तो उसे कड़ी सजा मिलती थी। किसी शिल्पी का सामान चुराने पर 100 पण का जुर्माना लगाया जाता था। इसके अलावा, शिल्पकारों और कारीगरों की मजदूरी उनके कार्य के अनुसार तय की जाती थी। अवकाश के दिनों में अतिरिक्त मजदूरी भी दी जाती थी। उत्पादित वस्तु की गुणवत्ता की कड़ी जाँच की जाती थी।

 

Collection of Mauryan punch-marked coins (Ahat coins) from the Mauryan period.
मौर्यकालीन आहत सिक्कों (Punch Marked Coins) का एक भंडार

 

मौर्यकाल में सिक्कों का प्रचलन 

 

मौर्यकाल में व्यापार में सिक्कों का प्रचलन हो चुका था। ये सिक्के सोने, चाँदी और ताँबे के बने होते थे। सोने के सिक्कों को ‘निष्क‘ और ‘सुवर्ण‘ कहा जाता था। चाँदी के सिक्कों को ‘कार्षापण‘ या ‘धरण‘ कहा जाता था, जबकि ताँबे के सिक्के ‘माषक‘ होते थे। छोटे-छोटे ताँबे के सिक्के ‘काकणि‘ कहे जाते थे। इन सिक्कों पर शासकों और व्यापारियों के चिह्न होते थे। इस समय के चांदी के सिक्के विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार से प्राप्त हुए हैं। राजकीय टकसाल का भी उल्लेख मिलता है, जिसे ‘लक्षणाध्यक्ष‘ संचालित करता था। मुद्राओं का परीक्षण करने वाला अधिकारी ‘रूपदर्शक‘ कहा जाता था।

 

जनगणना और सामाजिक व्यवस्था 

 

मौर्य काल में जनगणना के लिए एक विशेष विभाग बनाया गया था। इस बात का जिक्र मेगस्थनीज और कौटिल्य ने किया है। मेगस्थनीज के अनुसार, तीसरी समिति नगर की जनगणना करती थी। वहीं, कौटिल्य के अर्थशास्त्र से पता चलता है कि हर गांव और शहर में चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की जनगणना की जाती थी। यह काम गांव के अधिकारी और जनगणना विभाग मिलकर करते थे। जनगणना में सिर्फ लोगों की संख्या ही नहीं, बल्कि उनके व्यवसाय, आय, खर्च और अन्य विवरण भी दर्ज किए जाते थे। इससे सरकार को लोगों पर कर लगाने में मदद मिलती थी, और उसे सही तरीके से शासन चलाने में आसानी होती थी।

 

वित्तीय नियमन और ब्याज दर 

 

मौर्य शासन में निर्धन व्यक्तियों को साहूकारों और धनी व्यक्तियों के शोषण से बचाने के लिए ब्याज की दर को नियंत्रित किया गया था। ब्याज की अधिकतम दर 15% वार्षिक तय की गई थी। यदि कोई इसे पार करता था, तो उसे कठोर दंड दिया जाता था। यह नियम समाज के आर्थिक संतुलन को बनाए रखने में मदद करते थे।

 

प्राकृतिक आपदाओं और नागरिक कल्याण 

 

राज्य ने प्राकृतिक आपदाओं जैसे अकाल, बाढ़ और आग के समय नागरिकों की सहायता के लिए प्रबंध किए थे। अकाल के समय किसानों को बीज वितरित किए जाते थे, और लोगों को समृद्ध स्थानों पर स्थानांतरित किया जाता था। बाढ़ और आग से होने वाली क्षति को कम करने के लिए राहत कार्य किए जाते थे। इससे साफ़ हो जाता है कि मौर्य काल में “कल्याणकारी राज्य” (Welfare-State) की अवधारणा को साकार किया गया था। मतलब, राज्य ने लोगों की भलाई के लिए कई कदम उठाए थे, ताकि समाज में सभी की मदद की जा सके और प्रशासन सही ढंग से काम कर सके।

 

स्वास्थ्य सेवाओं और औषधियाँ 

 

मौर्यकाल में नागरिकों के स्वास्थ्य की ओर विशेष ध्यान दिया गया था। पूरे राज्य में चिकित्सालय स्थापित किए गए थे। विदेशियों की चिकित्सा के लिए अलग से प्रबंध किए गए थे। राज्य द्वारा जीवनोपयोगी औषधियाँ भी उपलब्ध कराई जाती थीं। अशोक के लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उसने पशुओं की चिकित्सा का भी उचित प्रबंध करवाया था।

 

निष्कर्ष 

 

मौर्य युग ने भारत में आर्थिक, व्यापारिक और औद्योगिक विकास के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस काल में कृषि, उद्योग, व्यापार और प्रशासन में जो सुधार किए गए, उन्होंने भारतीय समाज को एक नई दिशा दी। मौर्य सम्राटों की दूरदर्शिता और मजबूत प्रशासनिक व्यवस्था ने देश को समृद्ध बनाया और विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति की नींव रखी। मौर्य काल के इन आर्थिक और प्रशासनिक पहलुओं का अध्ययन हमें न केवल उस समय की समृद्धि को समझने में मदद करता है, बल्कि आज के विकासशील समाज के लिए भी कई महत्वपूर्ण पाठ प्रदान करता है।

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