कौटिल्य और उनका ‘अर्थशास्त्र’: मौर्य काल की राजनीति और शासन
कौटिल्य, जिन्हें विष्णुगुप्त और चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय इतिहास के महानतम विद्वानों में से एक थे। पुराणो में उसे “द्विजर्षभ” (श्रेष्ठ ब्राह्मण) कहा गया है। चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्राट बनने के पीछे उनका महत्वपूर्ण योगदान था। वे तक्षशिला के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे और वेदों और शास्त्रों के महान ज्ञाता थे। वे तक्षशिला के प्रमुख आचार्य भी थे। कौटिल्य का स्वभाव काफी क्रोधी और रूढ़िवादी था। एक प्रसिद्ध घटना के अनुसार, नन्द राजा ने उन्हें यज्ञशाला में अपमानित किया, जिससे वह नन्द वंश को नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर बैठे। इस प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए उन्होंने चन्द्रगुप्त मौर्य को अपना साथी बनाया और अंततः मौर्य साम्राज्य की नींव रखी।
कौटिल्य का प्रशासन और ‘अर्थशास्त्र’ का महत्व
जब चन्द्रगुप्त मौर्य सम्राट बने, तो कौटिल्य को प्रधानमंत्री और प्रधान पुरोहित का पद मिला। जैन ग्रंथों से यह भी पता चलता है कि बिन्दुसार के समय में भी कौटिल्य प्रधानमंत्री रहे थे। बाद में उन्होंने शासन कार्य छोड़कर सन्यास लिया और वन में तपस्या करने लगे। उनके द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र’ राजशासन पर प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ माना जाता है। हालांकि, इस ग्रंथ के रचनाकाल और इसके रचनाकार को लेकर कुछ विवाद हैं।
क्या चाणक्य काल्पनिक है ?
कई विद्वान जैसे जाली, कीच, और विन्टरनित्ज़ ‘अर्थशास्त्र’ को कौटिल्य की रचना नहीं मानते। इस के पीछे वो निम्नलिखित तर्क देते है,
मौर्य साम्राज्य और शासन तंत्र का अर्थशास्त्र में उल्लेख नहीं:
इससे पहले, यह देखा गया है कि अर्थशास्त्र (Arthashastra) में मौर्य साम्राज्य और उसके शासन तंत्र का कोई विशिष्ट उल्लेख नहीं किया गया है। इसका मतलब यह है कि इस ग्रंथ में मौर्य साम्राज्य के बारे में विशेष जानकारी या विवरण प्रदान नहीं किया गया है। हालांकि, यूनानी इतिहासकारों द्वारा मौर्य साम्राज्य और उसके शासन के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है। उदाहरण के तौर पर, मेगस्थनीज (Megasthenes) द्वारा लिखी गई “इंडिका” में मौर्य शासन के बारे में बहुत कुछ बताया गया है।
नगर प्रशासन और सैनिक प्रशासन का उल्लेख नहीं:
इसके अतिरिक्त, अर्थशास्त्र में नगर प्रशासन और सैनिक प्रशासन की परिषदों के बारे में भी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दी गई है। इसके कारण, विदेशी नागरिकों के आचरण और उनकी देखरेख के लिए कोई नियम निर्धारित नहीं किए गए हैं। यदि कौटिल्य ने इस ग्रंथ को लिखा होता, तो नगर और सैनिक प्रशासन की व्यवस्थाओं के बारे में कुछ निर्देश दिए जाते। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि ग्रंथ में प्रशासनिक दृष्टिकोण से कोई गहरी जानकारी प्रदान नहीं की गई है।
कौटिल्य के विचार और ‘इति कौटिल्यः’:
अर्थशास्त्र में कौटिल्य के विचारों का उल्लेख ‘इति कौटिल्यः’ (अर्थात “यह कौटिल्य का विचार है”) के रूप में किया गया है। यदि यह ग्रंथ वास्तव में कौटिल्य द्वारा रचित होता, तो सीधे तौर पर उनकी ओर से इसे लिखा जाता, जैसे “यह मैंने कहा है”। इस प्रकार, यह संकेत मिलता है कि ग्रंथ का रचनाकार कोई अन्य व्यक्ति हो सकता है, और कौटिल्य केवल एक महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में माने गए हैं।
कौटिल्य का उल्लेख मेगस्थनीज और पतंजलि द्वारा नहीं:
इसके अलावा, मेगस्थनीज, जो चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहे थे, ने कभी भी कौटिल्य का नाम नहीं लिया। इसी प्रकार, पतंजलि, जो मौर्य साम्राज्य के समय के प्रसिद्ध व्याकरणज्ञ थे, ने भी कौटिल्य का उल्लेख नहीं किया। यदि कौटिल्य सच में मौर्य साम्राज्य के एक प्रमुख व्यक्ति होते, तो उनके बारे में इन प्रमुख स्रोतों में उल्लेख किया जाना चाहिए था। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि उनकी ऐतिहासिकता पर संदेह उत्पन्न होता है, और शायद उनका अस्तित्व कुछ संदिग्ध प्रतीत होता है।
‘अर्थशास्त्र’ को कौटिल्य की रचना मानने के पक्ष में
हालाँकि, इन तर्कों की गहरी समीक्षा करने पर यह साफ होता है कि ये तर्क कमजोर हैं।
अर्थशास्त्र का उद्देश्य और कौटिल्य की जानकारी:
सबसे पहले, यह समझा जा सकता है कि अर्थशास्त्र एक असाम्प्रदायिक (निरपेक्ष) रचना है, जिसका मुख्य उद्देश्य राज्य और शासनतंत्र का विवरण प्रस्तुत करना है। इसमें यह बताया गया है कि चक्रवर्ती सम्राट का अधिकार क्षेत्र हिमालय से लेकर समुद्र तट तक फैला हुआ था, जो यह दर्शाता है कि कौटिल्य को एक बड़े और विस्तृत साम्राज्य का ज्ञान था। इस प्रकार, यह स्पष्ट होता है कि कौटिल्य का साम्राज्य और शासन तंत्र के बारे में गहरा ज्ञान था।
अर्थशास्त्र में विभागीय अध्यक्षों का वर्णन:
इसके बाद, यह कहा जा सकता है कि अर्थशास्त्र मुख्य रूप से विभागीय अध्यक्षों का ही वर्णन करता है। नगर प्रशासन और सेना की परिषदों के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दी गई है, क्योंकि इसका स्वरूप अशासकीय (अराजनीतिक) था। इस वजह से, नगर प्रशासन और सैनिक परिषदों का उल्लेख इस ग्रंथ में नहीं किया गया है। इस प्रकार, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इन परिषदों के बारे में अर्थशास्त्र में जानकारी नहीं दी गई है।
कौटिल्य का ‘अन्य पुरुष’ में उल्लेख:
इसके अलावा, भारतीय लेखकों में यह प्रथा रही है कि वे अपने नाम का उल्लेख ‘अन्य पुरुष’ में करते थे। इस संदर्भ में, यदि अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने अपना उल्लेख ‘अन्य पुरुष’ में किया है, तो इसका यह मतलब नहीं है कि वह इस ग्रंथ के रचनाकार नहीं थे। इसका अर्थ केवल यह है कि लेखन की पारंपरिक शैली में ऐसा किया गया था, और इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि कौटिल्य का इस ग्रंथ से कोई संबंध नहीं था।
मेगस्थनीज और कौटिल्य का संबंध:
अब, यह समझना जरूरी है कि मेगस्थनीज का पूरा विवरण हमें उपलब्ध नहीं है। इस कारण, यह संभावना है कि कौटिल्य का उल्लेख उन हिस्सों में हुआ हो, जो अभी तक अप्राप्य हैं। इसी प्रकार, पतंजलि ने भी बिन्दुसार और अशोक का नाम नहीं लिया है। तो क्या इसका मतलब यह है कि इन दोनों को ऐतिहासिक नहीं माना जा सकता? इसका उत्तर नकारात्मक है, क्योंकि पतंजलि का उद्देश्य पाणिनि और कात्यायन के व्याकरण के सूत्रों की व्याख्या करना था, न कि इतिहास लिखना। इस प्रकार, कुछ हिस्सों का गायब होना इतिहास को संदिग्ध नहीं बनाता।
मौर्य युग के समाज और अर्थशास्त्र में उल्लेखित प्रथाएँ:
इसके अलावा, कौटिल्य जिस समाज का चित्रण करते हैं, उसमें नियोग प्रथा और विधवा विवाह जैसी प्रथाएँ प्रचलित थीं। ये प्रथाएँ मौर्यकालीन समाज का हिस्सा थीं। ‘युक्त‘ शब्द का प्रयोग अधिकारी के अर्थ में किया गया है, जो अशोक के लेखों में भी पाया जाता है। इसके अलावा, इस ग्रंथ में मद्र, कम्बोज, लिच्छवि, मल्ल जैसे गणराज्यों का उल्लेख किया गया है, जिससे यह संकेत मिलता है कि यह ग्रंथ मौर्य काल के प्रारंभ में लिखा गया था। इसी प्रकार, अर्थशास्त्र में बौद्ध धर्म के प्रति कम सम्मान और संन्यास लेने से पहले परिवार की देखभाल करने की बात की गई है, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह ग्रंथ बौद्ध धर्म के प्रसार से पहले लिखा गया था।
कौटिल्य और मेगस्थनीज के विवरण में समानताएँ:
यहां उल्लेखनीय है कि कौटिल्य और मेगस्थनीज के विवरणों में कई समानताएँ पाई जाती हैं। मेगस्थनीज के अनुसार, जब चंद्रगुप्त शिकार के लिए निकलते थे, तो उनके साथ एक राजकीय जुलूस चलता था और सड़कों की कड़ी सुरक्षा की जाती थी। इसी प्रकार, कौटिल्य ने भी इस विषय पर कुछ इसी तरह का वर्णन किया था। इसके अलावा, दोनों ने बताया है कि सम्राट की अंगरक्षक महिलाएँ होती थीं और वह अपने शरीर की मालिश भी करवाते थे। मेगस्थनीज के ‘ओवरसीयर्स‘ (अधिकारियों) को अर्थशास्त्र में गुप्तचर विभाग से जोड़कर देखा जा सकता है। इसी तरह, कुछ अधिकारी जो मेगस्थनीज द्वारा बताए गए हैं, वे अर्थशास्त्र में दिए गए विभागाध्यक्षों से मेल खाते हैं। इस प्रकार, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दोनों के द्वारा दी गई प्रशासनिक और सामाजिक व्यवस्था में कई समानताएँ पाई जाती हैं।
‘अर्थशास्त्र’ की रचना और ऐतिहासिक संदर्भ
यह स्पष्ट किया जा सकता है कि ‘अर्थशास्त्र’ मौर्य काल की एक महत्वपूर्ण रचना है, जिसे चंद्रगुप्त के प्रधानमंत्री कौटिल्य द्वारा लिखा गया था। इस ग्रंथ में कौटिल्य के विचार स्वयं उनके द्वारा ही प्रस्तुत किए गए हैं। समय के साथ, अन्य लेखकों द्वारा इसमें कुछ अतिरिक्त अंश जोड़े गए, जिसके कारण मूल ग्रंथ का स्वरूप थोड़ा बदल गया। इसलिए, यह माना जा सकता है कि ‘अर्थशास्त्र’ की रचना चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में की गई थी।
इस संबंध में, एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि ग्रंथ के अंत में कहा गया है: “इसकी रचना उस व्यक्ति ने की है जिसने क्रोध के वशीभूत होकर शस्त्र, शास्त्र तथा नन्दराज के हाथ में गई हुई पृथ्वी का शीघ्र उद्धार किया।” इस कथन में कौटिल्य द्वारा नंद वंश का विनाश उल्लेखित किया गया है, जो एक ऐतिहासिक घटना है और उपेक्षित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार, यह साबित होता है कि ‘अर्थशास्त्र’ को कौटिल्य की रचना माना जा सकता है, और इस पर संदेह नहीं किया जा सकता।
‘अर्थशास्त्र’ की संरचना: प्रमुख विषयों का विवरण
‘अर्थशास्त्र’ में कुल 15 अधिकरण और 180 प्रकरण हैं, जो विभिन्न प्रशासनिक, सामाजिक और सैन्य मामलों पर विस्तार से चर्चा करते हैं। इसके श्लोकों की संख्या लगभग 4,000 बताई गई है, जो वर्तमान ग्रंथ में भी मिलती-जुलती पाई जाती है।
प्रथम अधिकरण: राजस्व और कर व्यवस्था
प्रथम अधिकरण में राजस्व (टैक्स) से संबंधित विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों का वर्णन किया गया है। इसमें सम्राट द्वारा राज्य के लिए धन एकत्रित करने के तरीके, किसानों से कर वसूलने के उपाय और वित्तीय प्रबंधन की बातें की गई हैं। इस प्रकार, यह अधिकरण अर्थशास्त्र में राजस्व नीति के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करता है।
द्वितीय अधिकरण: नागरिक प्रशासन
द्वितीय अधिकरण में नागरिक प्रशासन के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। इसमें शहरों का प्रशासन, नगरों की सुरक्षा और नागरिकों के अधिकारों एवं कर्तव्यों का विवरण किया गया है। यह अध्याय राज्य के अंदर नागरिकों के अच्छे संचालन को सुनिश्चित करने के उपायों पर प्रकाश डालता है।
तृतीय और चतुर्थ अधिकरण: न्याय व्यवस्था और कानून
तृतीय और चतुर्थ अधिकरण में दीवानी, फौजदारी और व्यक्तिगत कानूनों का विस्तृत विवरण दिया गया है। यह राज्य की न्यायिक व्यवस्था और नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के उपायों को समझाने में मदद करता है। इसमें अपराधों की जांच और दंड प्रक्रिया, न्यायिक अधिकारियों की भूमिका, और कानून के तहत नागरिकों को मिलने वाले अधिकारों का उल्लेख किया गया है।
पञ्चम अधिकरण: सम्राट के सभासद और अनुचर
पञ्चम अधिकरण में सम्राट के सभासदों और अनुचरों के कर्तव्यों और दायित्वों का उल्लेख किया गया है। इसमें यह बताया गया है कि सम्राट के सहयोगियों को किस प्रकार कार्य करना चाहिए और उनकी भूमिका क्या होनी चाहिए। यह अधिकरण सम्राट के सामाजिक और राजनीतिक दायित्वों को भी स्पष्ट करता है।
छठे अधिकरण: राज्य के सप्तांगों का वर्णन
छठे अधिकरण में राज्य के सप्तांगों (राज्य के सात अंग) का वर्णन किया गया है, जिनमें स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, बल, कोष और मित्र शामिल हैं। इन सप्तांगों की भूमिका और उनके कार्यों का विस्तार से विश्लेषण किया गया है। यह अधिकरण राज्य संचालन की संरचना को स्पष्ट करता है।
अंतिम नौ अधिकरण: सैन्य और विदेश नीति
अंतिम नौ अधिकरण में राजा की विदेश नीति, सैन्य अभियान, युद्ध में विजय के उपाय और सन्धि के अवसर जैसे विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों का विवरण है। इस भाग में विदेशों से संपर्क, युद्ध की रणनीतियाँ, और शत्रुओं से निपटने के उपायों पर चर्चा की गई है।
इस प्रकार, ‘अर्थशास्त्र’ एक व्यावहारिक ग्रंथ है, जो शासन की विभिन्न समस्याओं और उनकी सुलझाने के उपायों पर आधारित है। यह ग्रंथ हमें मौर्य काल की प्रशासनिक व्यवस्था, कानून, युद्ध नीति और राज्य के संचालन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।
कौटिल्य का समाज और ‘अर्थशास्त्र’
‘अर्थशास्त्र’ में उस समाज का चित्रण किया गया है, जो मौर्य काल की विशेषताओं को दर्शाता है। इस ग्रंथ में कुछ महत्वपूर्ण सामाजिक प्रथाओं, प्रशासनिक शब्दावली और बौद्ध धर्म के प्रति दृष्टिकोण का उल्लेख किया गया है। अब, इन पहलुओं को विस्तार से समझते हैं:
नियोग प्रथा और विधवा विवाह:
सबसे पहले, नियोग प्रथा और विधवा विवाह जैसे सामाजिक मुद्दों का उल्लेख किया गया है।
नियोग प्रथा में एक महिला अपने पति की अनुपस्थिति या बिना विवाह किए संतान उत्पन्न करती थी। यह प्रथा मौर्य काल में प्रचलित थी और इसे ‘अर्थशास्त्र’ में समाज के एक हिस्से के रूप में चित्रित किया गया है।
इसके अलावा, विधवा विवाह की प्रथा भी उस समय समाज में मान्य थी, जिसे ‘अर्थशास्त्र’ में प्रगति के रूप में देखा गया है। यह दर्शाता है कि महिलाओं के पुनर्विवाह की अनुमति थी, और यह समाज के उदार दृष्टिकोण को प्रमाणित करता है।
इस प्रकार, यह सामाजिक प्रथाएँ मौर्य काल के समाज की यथास्थिति को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं।
‘युक्त’ शब्द का प्रयोग और अशोक के लेखों में समानता:
अब, यह देखा जा सकता है कि ‘अर्थशास्त्र’ में ‘युक्त‘ शब्द का उपयोग अधिकारियों के संदर्भ में किया गया है, जो प्रशासनिक शब्दावली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। यह शब्द अशोक के शिलालेखों में भी पाया गया है।
यह समानता दर्शाती है कि ‘अर्थशास्त्र’ में प्रयुक्त शब्दों का प्रशासनिक ढांचे से गहरा संबंध था, जो मौर्य काल के प्रशासन की वास्तविकता को दर्शाता है। इस प्रकार, यह सिद्ध होता है कि ‘अर्थशास्त्र’ मौर्य काल के प्रारंभिक समय में लिखा गया था, और इसे समय की प्रशासनिक व्यवस्था के अनुरूप तैयार किया गया था।
बौद्ध धर्म के प्रति दृष्टिकोण:
इसके अतिरिक्त, बौद्ध धर्म के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण का भी उल्लेख किया गया है। ‘अर्थशास्त्र’ में बौद्ध भिक्षुओं की आलोचना की गई है, और लोगों को अपने परिवार के पोषण का ध्यान रखने के बाद ही संन्यास लेने की सलाह दी गई है।
इससे यह प्रमाणित होता है कि ‘अर्थशास्त्र’ बौद्ध धर्म के प्रसार से पहले लिखा गया था, जब हिंदू धर्म और पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था प्रमुख थी। इस समय, बौद्ध धर्म को एक वैकल्पिक धर्म के रूप में देखा जाता था और समाज में पारंपरिक परिवारिक जीवन को प्राथमिकता दी जाती थी।
मौर्य काल का संकेत:
अब, इन सभी तथ्यों को जोड़ते हुए, यह कहा जा सकता है कि ‘अर्थशास्त्र’ का लेखन मौर्य काल के प्रारंभिक दौर में ही हुआ था।
इसमें उल्लिखित सामाजिक प्रथाएँ जैसे विधवा विवाह और नियोग प्रथा, प्रशासनिक शब्दावली और बौद्ध धर्म के प्रति दृष्टिकोण, उन समय के वास्तविक सामाजिक और धार्मिक परिवेश को दर्शाते हैं।
इस प्रकार, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ‘अर्थशास्त्र’ मौर्य काल की विशेषताओं को सटीक रूप से चित्रित करता है, और यह मौर्य साम्राज्य के सामाजिक और राजनीतिक जीवन को समझने का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।
निष्कर्ष
‘अर्थशास्त्र’ मौर्य काल का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे कौटिल्य (चाणक्य) ने लिखा था। इस ग्रंथ में चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री कौटिल्य के विचारों को व्यक्त किया गया है। हालांकि, समय के साथ कुछ अन्य लेखकों ने इसमें कुछ जोड़-घटाव किया, जिससे इसके स्वरूप में बदलाव हो सकता है। फिर भी, इस ग्रंथ का मूल स्वरूप चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में ही था। इस तरह, ‘अर्थशास्त्र’ मौर्य काल के शासन और समाज की एक अहम कृति मानी जाती है।
‘अर्थशास्त्र’ हमें मौर्य काल के प्राचीन भारतीय प्रशासन और सामाजिक व्यवस्था के बारे में जानकारी प्रदान करता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि मौर्य काल में शासन व्यवस्था कितनी सुदृढ़ और व्यवस्थित थी। कौटिल्य के विचारों ने उस समय के राज्य संचालन को प्रभावी और कुशल बनाने में अहम भूमिका निभाई।
कौटिल्य का शासन आदर्श था, जिसमें प्रजा का हित हमेशा सर्वोपरि था। उनका यह ग्रंथ चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्रोत है। वे केवल राजनीति के ज्ञाता नहीं थे, बल्कि नए सिद्धांतों के प्रवर्तक भी थे। उनके विचारों ने शासक को प्रजा के प्रति जिम्मेदारी का एहसास दिलाया और शासन को न्यायपूर्ण और सुव्यवस्थित बनाया।
इस तरह, ‘अर्थशास्त्र‘ का वही स्थान है जो पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी‘ का है। जैसे पाणिनि ने व्याकरण को व्यवस्थित किया, वैसे ही कौटिल्य ने शासन और राजनीति के सिद्धांत को एक ठोस रूपमें प्रस्तुत किया। ‘अर्थशास्त्र’ में राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक नीतियों का समावेश किया गया है, जो उस समय के शासन के बारे में गहरी समझ प्रदान करता है।