उत्तर वैदिक काल
उत्तर वैदिक काल का इतिहास ऋग्वेद के बाद के ग्रंथों से मिलता है। यह काल लगभग ई. पू. 1000 से 600 तक माना जाता है। ऋग्वैदिक काल में आर्य सभ्यता पंजाब और सिन्ध क्षेत्र तक सीमित थी। हालांकि, उत्तर वैदिक काल में आर्य सभ्यता का विस्तार एक बड़े क्षेत्र में हुआ। इस समय छोटे जन समूहों को मिलाकर बड़े राज्य बनाए गए। यमुना, गंगा और अन्य नदियों द्वारा सिंचित क्षेत्र पूरी तरह से आर्य सभ्यता के अधीन आ गया।
उत्तर वैदिक काल में आर्थिक जीवन
उत्तर-वैदिक काल का आर्थिक जीवन कृषि और पशुपालन पर आधारित था। कृषि के चार प्रमुख कार्य—जुताई, बुवाई, कटाई, और मड़ाई—इस समय प्रचलित थे। शतपथ ब्राह्मण में इन कार्यों का विस्तार से उल्लेख किया गया है। खेतों की जुताई हलों से की जाती थी। काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा हल खींचने का उल्लेख मिलता है। इस समय जौ, चावल, मूँग, उड़द, तिल और गेहूँ जैसे प्रमुख अनाज उगाए जाते थे। इसके अलावा, लोग कृषि के लिए खाद का उपयोग भी करते थे। अथर्ववेद में बताया गया है कि पशुओं की प्राकृतिक खाद का उपयोग किया जाता था।
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पशुपालन और कृषि उपकरणों का महत्व
पशुपालन भी आर्थिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। गाय, बैल, भेड़, बकरी, गधा और सुअर प्रमुख रूप से पाले जाते थे। गाय को विशेष सम्मान प्राप्त था। अथर्ववेद में गाय के महत्व को बढ़ावा दिया गया है। जो लोग यज्ञों के अलावा गाय का वध करते थे, उनके लिए मृत्युदंड का विधान था। इसके अतिरिक्त, लोग हाथी भी पालने लगे थे। इस समय पशुधन की वृद्धि के लिए कई प्रार्थनाएँ की जाती थीं।
धातु विज्ञान और कृषि उपकरणों का विकास
उत्तर वैदिक काल में लोहे का उपयोग बढ़ने लगा था। शुरुआत में इसका उपयोग अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण में किया जाता था, लेकिन बाद में इसे कृषि उपकरण बनाने में भी इस्तेमाल किया गया। लौह तकनीक ने कृषि-उत्पादन में एक बड़ा परिवर्तन किया। इससे कृषि यंत्रों के निर्माण में मदद मिली, जिससे उत्पादन में वृद्धि हुई। लोहे के उपयोग से भौतिक जीवन में भी बड़ा बदलाव आया।
उत्तर वैदिक काल में व्यापार और वाणिज्य का विकास
उत्तर वैदिक काल में व्यापार और वाणिज्य का विकास हुआ था। इस समय व्यापारियों की कई श्रेणियाँ थीं। ‘श्रष्ठिन्’ नामक व्यापारी की प्रमुख भूमिका थी। ब्याज पर धन देने का पेशा भी काफी प्रचलित था। तैत्तिरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण में ऋण देने के लिए ‘कुसीद’ शब्द का उपयोग हुआ है। व्यापार के लिए माप की विभिन्न इकाइयाँ थीं जैसे निष्क, शतमान, पाद, और कृष्णल। ‘कृष्णल’ शायद बाट की मूल इकाई थी। प्राचीन भारत की बाट पद्धति में रत्तिका का भी महत्वपूर्ण स्थान था, जिसे ‘तुलाबीज’ कहा जाता था। इस समय सिक्कों का नियमित प्रचलन नहीं था, लेकिन व्यापार जल और थल मार्गों से होता था। शतपथ ब्राह्मण में पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों का उल्लेख मिलता है, और वाजसनेयी संहिता में 100 पतवारों वाले जलपोतों का उल्लेख किया गया है।
व्यवसाय, धातु और कारीगरी में नवाचार
उत्तर वैदिक काल में व्यवसाय वंशानुगत होने लगे थे। वाजसनेयी संहिता और तैत्तिरीय ब्राह्मण में इस समय के विभिन्न व्यवसायियों की सूची मिलती है। इनमें स्वर्णकार, रथकार, चर्मकार, जुलाहे, रज्जुकार, रजक, मछुए, लुहार, नायक, नर्तक, सूत, व्याध, गोप, कुम्भकार, वैद्य, ज्योतिषी, और नाई जैसे प्रमुख पेशे थे। इसके अलावा, स्वर्ण, लोहे, टिन, तांबा, चांदी, और शीशे जैसी धातुओं से भी लोग परिचित हो चुके थे। लोहे के ज्ञान से भौतिक जीवन में क्रांति आई। पुरातात्विक प्रमाणों से यह पता चलता है कि ईसा पूर्व 1000 के आसपास गन्धार, बलूचिस्तान, पूर्वी पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोहे का प्रयोग शुरू हो चुका था।
उत्तर वैदिक काल में आर्य समाज का आर्थिक जीवन
इस समय उत्तर गंगा घाटी में आर्य स्थायी रूप से बस गए थे। यहां कृषि उत्पादन भी बढ़ने लगा था, जिससे समाज का भौतिक जीवन पहले की तुलना में अधिक विकसित हो गया था। इसके अलावा, महिलाओं को भी विभिन्न शिल्पों में निपुणता प्राप्त थी, जैसे रंगाई और सूईकारी।
समग्र रूप से देखा जाए, तो उत्तर-वैदिक काल में आर्थिक जीवन पहले के मुकाबले अधिक उन्नत था। कृषि, पशुपालन, व्यापार, और धातु निर्माण के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण विकास हुए थे। लोगों का भौतिक जीवन अब अधिक समृद्ध और व्यवस्थित हो गया था।
उत्तर वैदिक काल में सामाजिक जीवन: जाति व्यवस्था और धार्मिक उन्नति
उत्तर वैदिक काल में भी सामाजिक जीवन ऋग्वैदिक काल के समान था(ऋग्वैदिक काल के सामाजिक जीवन को जानने के लिए क्लिक करें)। उत्तर-वैदिक काल में भी संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलित थी, और परिवारों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था कायम थी। परिवार के मुखिया पिता के अधिकार बहुत विस्तृत थे। वह अपने पुत्रों को बेच सकता था, उन्हें घर से बाहर निकाल सकता था, और कई अन्य अधिकारों का पालन करता था। उदाहरण के तौर पर, ऐतरेय ब्राह्मण में बताया गया है कि अजीगर्त ने अपने पुत्र शुनःशेप को बलि के लिए 100 गायों के बदले बेच दिया था। इसी तरह, विश्वामित्र ने अपने 50 पुत्रों को घर से निकाल दिया था, क्योंकि उन्होंने उसकी आज्ञा का उल्लंघन किया था।
हालांकि, यह निर्णय विशेष परिस्थितियों में ही लिए जाते थे। सामान्यतः परिवारों में पिताओं का पुत्रों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध होता था। लेकिन समय के साथ सामाजिक संरचना में बदलाव आया और परिवारों में कठोरता बढ़ी। जाति प्रथा की शुरुआत हुई, लेकिन यह उतनी कठोर नहीं थी जितनी बाद के कालों में देखने को मिली।
जाति व्यवस्था और सामाजिक विभाजन का विकास
इस समय जाति व्यवस्था का अस्तित्व बढ़ने लगा। चार प्रमुख वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र—के अधिकारों और कर्तव्यों में विभाजन था। शतपथ ब्राह्मण में वर्णित है कि प्रत्येक वर्ण के लिए अंत्येष्टि के अलग-अलग तरीके थे। इसी तरह, प्रत्येक वर्ण के लिए अलग-अलग यज्ञोपवीत का विधान था। ब्राह्मणों को ‘एहि’ (आइये), क्षत्रिय को ‘आगहि’ (आओ), वैश्य को ‘आद्रव’ (जल्दी आओ), और शूद्र को ‘आधाव’ (दौड़कर आओ) कहकर संबोधित किया जाता था। यह सब दिखाता है कि जाति व्यवस्था का प्रभाव बढ़ रहा था।
समाज में व्यवसायों का परंपरागत रूप से विकास हुआ और कुछ व्यवसायों के लिए विशेष जातियाँ बन गईं। चर्मकार, रथकार, और धातुकार जैसी जातियाँ विकसित हुईं। व्यवसाय अब आनुवंशिक हो गए थे और जातियों के भीतर काम करने का तरीका निश्चित हो गया था। हालांकि कुछ हद तक अन्तर्वर्ण विवाह होते थे, लेकिन सामाजिक संरचना में कठोरता बढ़ रही थी।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र: उत्तर वैदिक समाज का संरचनात्मक अध्ययन
ऐतरेय ब्राह्मण में ब्राह्मणों के कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है। ब्राह्मणों को दान लेने वाला, सोमपायी, कार्यशील और इच्छानुसार भ्रमण करने वाला बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि राजा अपनी शक्ति ब्राह्मणों से प्राप्त करता है। क्षत्रिय या राजा भूमि के स्वामी होते थे, और वे प्रजा की रक्षा के लिए युद्ध करते थे।
इस समय ब्राह्मण और क्षत्रियों के बीच सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई थी। शतपथ ब्राह्मण के कुछ हिस्सों में क्षत्रियों को ब्राह्मणों से श्रेष्ठ बताया गया है। कुछ क्षत्रिय शासक अपने ज्ञान के लिए प्रसिद्ध थे और वे ब्राह्मणों के शिक्षक भी थे। वैश्य व्यापार, कृषि, और उद्योग में लगे रहते थे, जबकि शूद्र को तीनों अन्य वर्णों का सेवक माना जाता था। शतपथ ब्राह्मण में शूद्रों की हीन स्थिति का भी उल्लेख हुआ है और उन्हें सम्मानित नहीं किया जाता था।
उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति
उत्तर वैदिक काल के समाज में स्त्रियों की स्थिति भी पहले से कुछ बदल चुकी थी। बालविवाह अब नहीं होते थे, पर बहुविवाह तथा विधवा विवाह प्रचलित थे। स्त्रियों को पर्याप्त शिक्षा दी जाती थी और वे उत्सवों और धार्मिक समारोहों में भाग ले सकती थीं। फिर भी, उन्हें राजनीतिक और धन-संबंधी अधिकार प्राप्त नहीं थे। ऐतरेय ब्राह्मण में कन्या के जन्म को चिंता का कारण बताया गया है, और अथर्ववेद में कन्याओं के जन्म की निंदा की गई है। मैत्रायणी संहिता में भी स्त्रियों को छूत और मदिरा जैसी वस्तुओं के समान माना गया है। इस समय तक स्त्रियों की सामाजिक और धार्मिक प्रतिष्ठा ऋग्वैदिक काल के मुकाबले कम हो गई थी।
उत्तर वैदिक काल के अन्य सामाजिक गतिविधियाँ
उत्तर वैदिक काल में सामाजिक जीवन का शेष हिस्सा, जैसे खानपान, वस्त्राभूषण और मनोरंजन, ऋग्वैदिक काल के समान ही था। समाज की जीवनशैली में समय के साथ कुछ बदलाव जरूर आए थे, लेकिन इसकी मूल बातें एक जैसी ही रही थीं।
इस प्रकार, उत्तर-वैदिक काल में सामाजिक जीवन में जाति व्यवस्था और व्यवसायों का परंपरागत विकास हुआ। स्त्रियों की स्थिति में भी कुछ परिवर्तन हुए, हालांकि उनका सामाजिक सम्मान पहले जैसा नहीं था।
धर्म और दर्शन में परिवर्तन: उत्तर वैदिक काल का धार्मिक दृष्टिकोण
उत्तर वैदिक काल में धर्म और दर्शन के क्षेत्र में कई बड़े बदलाव हुए। इस समय ऋग्वैदिक देवताओं का महत्व घटने लगा (ऋग्वैदिक काल के धार्मिक के बारे में अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें)। जैसे वरुण, इन्द्र और अन्य देवताओं की पूजा कम हो गई। उनकी जगह नए देवताओं की प्रतिष्ठा हुई, जैसे प्रजापति, विष्णु और रुद्र-शिव।
यज्ञ और धार्मिक कर्मकांड का विकास
यज्ञों के विधि-विधान भी अधिक विस्तृत और जटिल हो गए थे। अब यज्ञों में पशुबलि को प्राथमिकता दी जाने लगी थी। इसके अलावा, राजसूय, वाजपेय और अश्वमेध जैसे बड़े यज्ञों का आयोजन भी होने लगा था। यज्ञ करने वाले ब्राह्मण पुरोहितों को बड़े-बड़े दान दिए जाते थे, जैसे गायें, सोना, वस्त्र और भूमि। इस समय प्रेतात्माओं, जादू-टोने, इन्द्रजाल, वशीकरण जैसे अंधविश्वासों में विश्वास मजबूत हो गया था। धर्म में इन विश्वासों को जगह दी गई।
उत्तर वैदिक काल में नए धार्मिक तत्व और दर्शन का उदय
आर्य और अनार्य विचारधाराओं के मिलन से धर्म में कई नए तत्व जुड़ गए थे। अब अप्सरा, गन्धर्व और नाग जैसी हस्तियाँ भी देवताओं के रूप में मानी जाने लगीं।
एकेश्वरवाद और उपनिषदों का महत्व
ऋग्वैदिक काल के अंत तक एकेश्वरवाद का विचार विकसित हो चुका था। लगभग 600 ई.पू. के आस-पास उपनिषदों की रचना हुई। इस समय तक पुरोहितों का प्रभाव बढ़ चुका था और यज्ञ के कर्मकांडों के खिलाफ प्रतिक्रिया भी शुरू हो गई थी। उपनिषदों में यज्ञ और कर्मकांडों की आलोचना की गई। यहाँ ‘ब्रह्म’ को एकमात्र सत्ता के रूप में स्वीकार किया गया। ब्रह्म को निर्विकार, अद्वैत और निरपेक्ष बताया गया है। यह परे होने के बावजूद सबमें व्याप्त है।
आत्मा, मोक्ष : धार्मिक बदलाव
उपनिषदों में ब्रह्म को आत्मा से जोड़ा गया। आत्मसाक्षात्कार को ही मोक्ष का मार्ग माना गया। मोक्ष को प्राप्त करने के लिए अज्ञान का नाश होना जरूरी था। उपनिषदों में जगत को माया के रूप में चित्रित किया गया है।
निवृत्तिमार्ग और संन्यास
वैदिक और अवैदिक विचारधाराओं के मिश्रण से लोग निवृत्तिमार्गी बनने लगे थे। अब कायाक्लेश और संन्यास को मोक्ष प्राप्ति के लिए जरूरी माना जाने लगा। संन्यास की अवधारणा, जो आर्येतर संस्कृतियों के प्रभाव का परिणाम थी, को ब्राह्मण विचारकों ने अपनी संस्कृति में स्थान दिया।
जीवन के चार आश्रम: ब्राह्मण चिंतकों का दृष्टिकोण
ब्राह्मण चिंतकों ने मानव जीवन के चार आश्रमों का सिद्धांत भी प्रस्तुत किया। प्रारंभिक उपनिषदों में तीन आश्रमों का विधान था—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ। बाद में संन्यास को चौथे आश्रम के रूप में जोड़ा गया। इसके अनुसार, हर द्विज को इन चारों आश्रमों से होकर जीवन जीना जरूरी था।
निष्कर्ष
समग्र रूप से देखा जाए, तो उत्तर वैदिक काल में आर्थिक जीवन पहले के मुकाबले अधिक उन्नत था। कृषि, पशुपालन, व्यापार, और धातु निर्माण के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण विकास हुए थे। लोगों का भौतिक जीवन अब अधिक समृद्ध और व्यवस्थित हो गया था।
इस प्रकार, उत्तर वैदिक काल में धर्म और दर्शन में कई बदलाव आए। यज्ञों की जटिलता बढ़ी, नए देवताओं की पूजा शुरू हुई और एकेश्वरवाद को मान्यता मिली। उपनिषदों ने कर्मकांडों की आलोचना की और आत्मा के साक्षात्कार को मोक्ष का मार्ग माना। संन्यास और निवृत्तिमार्गी जीवन की अवधारणा भी इस समय प्रचलित हुई। इस समय धर्म और दर्शन के क्षेत्र में एक नया दृष्टिकोण सामने आया।
Select References
1. A.L. Basham – The Wonder That Was India
2. D. N. Jha – Early India : A Concise History
3. Stephen Knapp – Ancient History of Vedic Culture
4. Roshan Gupta –The Ancient History of India, Vedic Period: A New Interpretation