पुष्यमित्र शुंग भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण शासक थे, जिन्होंने मौर्य साम्राज्य के अंतिम शासक बृहद्रथ की हत्या कर शुंग वंश की स्थापना की। उनकी इस साहसिक क्रांति ने भारतीय राजनीति के दिशा-निर्देश को बदल दिया। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद शुंग वंश ने न केवल भारत की रक्षा की, बल्कि वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना भी की। इस लेख में हम पुष्यमित्र शुंग के जीवन, उनके धार्मिक और सैनिक योगदान, शुंग वंश की उत्पत्ति, और उनके शासनकाल की महत्वपूर्ण घटनाओं पर चर्चा करेंगे।
पुष्यमित्र शुंग और शुंग वंश की उत्पत्ति
पुष्यमित्र शुंग वह महत्वाकांक्षी व्यक्ति थे, जिन्होंने 184 ईसा पूर्व में मौर्य साम्राज्य के अंतिम शासक बृहद्रथ की हत्या की और शुंग वंश की नींव रखी। यह घटना इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी। पुष्यमित्र की महत्वाकांक्षा और शक्ति ने उन्हें मौर्य साम्राज्य का तख्तापलट करने का अवसर दिया।
पुष्यमित्र शुंग की पहचान और उत्पत्ति
पुष्यमित्र का नाम इतिहास में शुंग वंश के संस्थापक के रूप में प्रसिद्ध है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि शुंग वंश की उत्पत्ति पारसीक जाति से हुई थी, क्योंकि उनके नाम के अंत में ‘मित्र‘ शब्द जुड़ा हुआ था। ‘मित्र‘ शब्द का अर्थ सूर्य से संबंधित होने का संकेत देता है। हालांकि, भारतीय साक्ष्यों के आधार पर इस मत को खारिज किया गया है।

पुष्यमित्र शुंग का जातीय और सांस्कृतिक संदर्भ
हर्षचरित में पुष्यमित्र को ‘अनार्य‘ कहा गया है। कुछ विद्वान इस शब्द को शुंगों की जातीय स्थिति से जोड़ते हैं, लेकिन यह समझना जरूरी है कि हर्षचरित के लेखक बाण ने पुष्यमित्र के कार्यों की निंदा की थी, न कि उनकी जाति को। ‘अनार्य‘ शब्द का मतलब केवल उनके कार्यों को गलत ठहराना था, न कि जातीय पहचान को। वस्तुतः बाणभट्ट ने पुष्यमित्र के कार्य (अपने स्वामी की घोखे से हत्या) को निन्दनीय माना है।
शुंग वंश में ब्राह्मणों की भूमिका
दिव्यावदान में शुंगों को मौर्य वंश से जोड़ा गया है, जिससे कुछ लोग यह मानते हैं कि शुंग परिवार भी क्षत्रिय था। लेकिन यह विचार पूरी तरह से ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित नहीं है, क्योंकि दिव्यावदान एक धार्मिक ग्रंथ है, न कि ऐतिहासिक दस्तावेज़।
इतिहासकारों का मानना है कि शुंग वंश के लोग ब्राह्मण थे। पुराणों और अन्य प्राचीन साहित्यिक साक्ष्यों में शुंगों को ब्राह्मण बताया गया है। महर्षि पाणिनि ने शुंगों को ‘भारद्वाज गोत्र का ब्राह्मण‘ बताया। मालविकाग्निमित्र में पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र को ‘वैम्बिक कुल‘ से सम्बन्धित किया गया है। साथ ही, बौद्धायन श्रौतसूत्र से यह भी पता चलता है कि शुंग परिवार काश्यप गोत्र से संबंधित था।
तारानाथ ने शुंगों को ब्राह्मण जाति का बताया है, जिनके पूर्वज पुरोहित थे। इसी तरह, हरिवंश में पुष्यमित्र शुंग को काश्यप गोत्रीय ‘द्विज‘ कहा गया है। इससे यह लगता है कि शुंग पहले मौर्य वंश के पुरोहित रहे होंगे।
इसके अलावा, प्राचीन ग्रंथों में भी शुंग आचार्यों का उल्लेख मिलता है। उदाहरण के लिए, आश्वलायन श्रौतसूत्र में शुंगों को आचार्य कहा गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् में ‘शौंगीपुत्र‘ नामक आचार्य का उल्लेख है। इससे स्पष्ट होता है कि शुंग ब्राह्मण पुरोहित थे।
पुष्यमित्र शुंग का धार्मिक और सैनिक जीवन
पुष्यमित्र शुंग के पूर्वजों का प्रारंभिक जीवन धार्मिक था। वह मौर्य साम्राज्य के पुरोहित थे। लेकिन, अशोक द्वारा यज्ञों पर रोक लगाए जाने के बाद उन्होंने अपने धार्मिक कर्तव्यों को छोड़कर सैन्य जीवन अपनाया। यह बदलाव एक प्राचीन परंपरा के तहत था, जिसमें ब्राह्मणों को धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने की अनुमति थी।
शुंग वंश का इतिहास और मौर्य साम्राज्य
शुंग वंश की स्थापना के बाद, इस वंश ने मौर्य साम्राज्य के बाद के भारत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। शुंग राजवंश ने मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भारतीय राजनीति और संस्कृति में अपने प्रभाव को स्थापित किया। पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य साम्राज्य के अवशेषों को खत्म किया और एक नया राजवंश स्थापित किया।
पुष्यमित्र शुंग का इतिहास केवल उनके सैन्य संघर्षों और तख्तापलट तक सीमित नहीं है। उनका ब्राह्मण पृष्ठभूमि और धर्म से जुड़ा इतिहास भी महत्वपूर्ण है।

पुष्यमित्र शुंग की उपलब्धियाँ और उनका इतिहास
पुष्यमित्र शुंग भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण शासक के रूप में प्रसिद्ध हैं। वह मौर्य साम्राज्य के अंतिम शासक बृहद्रथ के प्रधान सेनापति थे। हालांकि, पुष्यमित्र के प्रारंभिक जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है, फिर भी दिव्यावदान से यह पता चलता है कि वह पुष्यधर्म के पुत्र थे। उनकी उपलब्धियाँ और कार्य उन्हें एक महान शासक के रूप में स्थापित करते हैं।
बृहद्रथ की हत्या और पुष्यमित्र का राजसत्ता पर कब्जा
पुष्यमित्र की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण घटना थी बृहद्रथ की हत्या। एक दिन, जब बृहद्रथ सेना का निरीक्षण कर रहे थे, पुष्यमित्र ने उन्हें घोखे से हत्या कर दी। इस घटना का उल्लेख पुराणों और बाणभट्ट के हर्षचरित में मिलता है। पुराणों में लिखा है कि पुष्यमित्र ने बृहद्रथ की हत्या कर 36 वर्षों तक राज्य किया। हर्षचरित में इसे ‘अनार्य सेनानी‘ के रूप में वर्णित किया गया है, जो अपने प्रज्ञादुर्बल स्वामी की हत्या करने के लिए सेना दिखाने के बहाने उसे धोखे से मार डालता है।
पुष्यमित्र शुंग का राजसत्ता पर नियंत्रण
कुछ विद्वानों का मानना था कि पुष्यमित्र कभी राजा नहीं बने और बृहद्रथ को हटाने के बाद अपने पुत्र को राजा बना दिया। परंतु यह विचार सही नहीं लगता। इतिहास में यह दर्ज है कि पुष्यमित्र ने स्वयं दो अश्वमेध यज्ञ किए। अश्वमेध यज्ञ प्राचीन भारत में राजसत्ता का प्रतीक माना जाता था, और इस तथ्य से यह सिद्ध होता है कि पुष्यमित्र ने राजसत्ता ग्रहण की थी।
पुष्यमित्र ने अपनी सेनापति की उपाधि को बनाए रखा, क्योंकि वह मौर्य साम्राज्य की सेना के एक लंबे समय तक सेनापति रहे थे। हालांकि, राजा बनने के बाद भी उन्होंने अपनी ‘सेनानी‘ उपाधि को छोड़ा नहीं।
पुष्यमित्र शुंग का पारिवारिक इतिहास
पुष्यमित्र शुंग के परिवार के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। दिव्यावदान से यह पता चलता है कि वह पुष्यधर्म के पुत्र थे, लेकिन उनके परिवार के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती। उनका सैन्य जीवन ही उनके इतिहास का प्रमुख हिस्सा बन गया है।
देश की रक्षा और वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना
पुष्यमित्र शुंग के समय मौर्य साम्राज्य का प्रशासन कमजोर पड़ चुका था। मगध में सत्ता संकट था और बाहरी आक्रमणों का खतरा था। इस स्थिति में, पुष्यमित्र ने देश को यवनों के आक्रमण से बचाया और शांति की स्थापना की। उनके शासनकाल में, उन्होंने वैदिक धर्म और परंपराओं को फिर से प्रतिष्ठित किया।
अशोक के समय में जो धर्म और परंपराएँ उपेक्षित हो गई थीं, उन्हें पुष्यमित्र ने फिर से महत्व दिया। इसे वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना के रूप में देखा जाता है। यह काल भारतीय इतिहास में वैदिक प्रतिक्रिया या वैदिक पुनर्जागरण का काल भी कहलाया जाता है।
पुष्यमित्र की महानता
पुष्यमित्र शुंग की महानता सिर्फ उनकी सैन्य सफलता में नहीं थी, बल्कि उन्होंने धर्म और संस्कृति को भी पुनर्जीवित किया। वह एक साहसी नेता थे जिन्होंने कठिन समय में देश की रक्षा की। उनके शासनकाल में वैदिक धर्म को पुनः महत्व मिला और भारतीय समाज में शांति और व्यवस्था की स्थापना हुई।
पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में विदर्भ युद्ध
पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में एक महत्वपूर्ण घटना घटी, जिसे “विदर्भ युद्ध” के नाम से जाना जाता है। यह युद्ध विदर्भ राज्य के स्वतंत्रता संग्राम को लेकर था। इस युद्ध से जुड़ी घटनाएँ “मालविकाग्निमित्र” नाटक में विस्तृत रूप से बताई गई हैं। इस युद्ध में विदर्भ राज्य के राजा यज्ञसेन और पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र के बीच संघर्ष हुआ।
विदर्भ का स्वतंत्र होना और पुष्यमित्र का हस्तक्षेप
पुष्यमित्र के समय में विदर्भ प्रान्त (जो आज के बरार के नाम से जाना जाता है) यज्ञसेन के नेतृत्व में स्वतंत्र हो गया था। यज्ञसेन बृहद्रथ के सचिव का साला था और उसे शुंगों का ‘स्वाभाविक शत्रु‘ (प्रकृत्यमित्र) कहा जाता था। बृहद्रथ की हत्या के बाद, पुष्यमित्र ने बृहद्रथ के सचिव को कारागार में डाल दिया था। इस समय विदर्भ के हालात बदलने लगे और यज्ञसेन ने विदर्भ को स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित किया।
अग्निमित्र और यज्ञसेन के बीच संघर्ष का इतिहास
मालविकाग्निमित्र नाटक में वर्णित है कि पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र विदिशा का राज्यपाल (उपराजा) था। उसका मित्र माधवसेन था, जो यज्ञसेन का चचेरा भाई था। हालांकि, दोनों के बीच अच्छे रिश्ते नहीं थे, और माधवसेन विदर्भ की गद्दी पर दावा कर रहा था। एक बार जब अग्निमित्र विदिशा जा रहे थे, तो यज्ञसेन के अन्तपाल (सीमा प्रान्त के राज्यपाल) ने उन्हें बंदी बना लिया।
अग्निमित्र ने यज्ञसेन से अपने मित्र माधवसेन को मुक्त करने का अनुरोध किया। यज्ञसेन ने शर्त रखी कि अगर उसके सम्बन्धी, जो बृहद्रथ के समय में मौर्य नरेश का सचिव था और पाटलिपुत्र में बंद था, को छोड़ दिया जाए, तो वह माधवसेन को मुक्त कर देगा। इस पर अग्निमित्र ने अपनी सेना के सेनापति वीरसेन को आदेश दिया कि वह विदर्भ पर आक्रमण करें।
विदर्भ युद्ध और परिणाम
वीरसेन के नेतृत्व में, पुष्यमित्र की सेना ने विदर्भ पर आक्रमण किया और यज्ञसेन को पराजित किया। युद्ध के परिणामस्वरूप विदर्भ राज्य दो हिस्सों में विभाजित हो गया। वर्षा नदी को दोनों राज्यों की सीमा मान लिया गया। एक हिस्सा माधवसेन को दिया गया, और दोनों राज्यों ने पुष्यमित्र को अपना सम्राट मान लिया। इससे पुष्यमित्र का प्रभाव क्षेत्र नर्मदा नदी के दक्षिण तक विस्तृत हो गया।
इस प्रकार, नाटक के अनुसार, अग्निमित्र ने विदर्भ की स्वाधीनता को बहुत जल्द समाप्त कर दिया। उसे अपनी स्थिति मजबूत करने का समय नहीं मिला, क्योंकि वह एक नए शासक के रूप में उभरा था, जिसकी जड़े अभी मजबूत नहीं हो पाई थीं।
विदर्भ युद्ध की समयसीमा
विदर्भ युद्ध, जो लगभग ई. पू. 184 के आस-पास लड़ा गया था, इस बात का संकेत देता है कि यह युद्ध बृहद्रथ की हत्या के तुरंत बाद शुरू हुआ। उस समय, बृहद्रथ का सचिव, जो अब कारागार में था, पुष्यमित्र का एक प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बन चुका था। ऐसा लगता है कि मौर्य साम्राज्य में दो प्रमुख गुट थे—एक गुट का नेतृत्व बृहद्रथ के सचिव कर रहा था और दूसरे गुट का नेतृत्व सेनापति पुष्यमित्र कर रहे थे।
विदर्भ युद्ध केवल एक सैन्य संघर्ष नहीं था, बल्कि यह मौर्य साम्राज्य की राजनीति में भी महत्वपूर्ण मोड़ लेकर आया। इस युद्ध के माध्यम से पुष्यमित्र ने न सिर्फ विदर्भ को पुनः अपने नियंत्रण में लिया, बल्कि अपने साम्राज्य को भी और मजबूत किया। साथ ही, यह युद्ध मौर्य साम्राज्य के बाद शुंग वंश की शक्ति को स्थापित करने में सहायक सिद्ध हुआ।
पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में यवनों का आक्रमण
यवनों का पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण, भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। विभिन्न स्रोतों से यह स्पष्ट होता है कि यवनों ने बिना किसी अवरोध के पाटलिपुत्र के निकट पहुंचने में सफलता प्राप्त की थी। इस घटना का उल्लेख कई प्राचीन ग्रंथों और नाटकों में किया गया है, जिनमें पतंजलि का महाभाष्य, गार्गी संहिता और कालिदास का नाटक “मालविकाग्निमित्र” शामिल हैं।
यवन आक्रमण के संकेत
पतंजलि के महाभाष्य में उल्लेख किया गया है कि यवनों ने साकेत और माध्यमिका (चित्तौड़) पर आक्रमण किया। गार्गी संहिता में यह उल्लेख किया गया कि यवनों ने साकेत, पञ्चाल और मथुरा पर विजय प्राप्त की और पाटलिपुत्र तक पहुँच गए। इस समय प्रशासन में भारी अव्यवस्था फैल गई और जनता में असंतोष बढ़ गया। हालांकि, इन आक्रमणों के बाद यवनों के बीच आपसी संघर्ष हुआ, जिससे वे मध्य भारत में अपनी स्थिति नहीं बना सके।
यवन आक्रमण का नेतृत्व कौन था?
इस आक्रमण का नेतृत्व कौन कर रहा था, यह अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है। कुछ विद्वान डेमेट्रियस को इसका नेता मानते हैं, जबकि कुछ का मानना है कि इसका नेता मेनाण्डर था। नगेन्द्रनाथ घोष के अनुसार, भारत पर दो अलग-अलग यवन आक्रमण हुए थे—पहला डेमेट्रियस के नेतृत्व में और दूसरा मेनाण्डर के नेतृत्व में। वहीं, टार्न ने एक ही आक्रमण का समर्थन किया और कहा कि डेमेट्रियस ने इस आक्रमण का नेतृत्व किया, लेकिन मेनाण्डर और एपोलोडोटस भी इस आक्रमण में शामिल थे।
यवनों का आक्रमण और पुष्यमित्र का प्रतिकार
पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में यवनों का भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण हुआ। इस आक्रमण में पुष्यमित्र ने यवनों का डटकर प्रतिकार किया। मालविकाग्निमित्र से यह ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र के यज्ञ का घोड़ा उसके पौत्र वसुमित्र के नेतृत्व में सिन्धु नदी के दक्षिणी किनारे तक पहुँच गया था। इस समय यवनों ने घोड़े को पकड़ लिया और इसके बाद दोनों सेनाओं के बीच घनघोर युद्ध हुआ। वसुमित्र ने यवनों को पराजित किया और घोड़े को पाटलिपुत्र वापस ले आया।
यह युद्ध सिन्धु नदी के किनारे लड़ा गया था, लेकिन इस नदी की पहचान पर विद्वानों के बीच मतभेद हैं। कुछ विद्वान इसे पंजाब की सिन्धु नदी मानते हैं, जबकि कुछ इसे मध्य-भारत की चम्बल या यमुना की सहायक नदी मानते हैं। जे.एस. नेगी ने यह सिद्ध किया कि यह युद्ध पश्चिमोत्तर भारत की प्रसिद्ध सिन्धु नदी के पास लड़ा गया था।
यवनों के आक्रमण का असफल होना
इस आक्रमण के बाद, यवनों को अंततः अपने अभियान में असफलता मिली। पुष्यमित्र के नेतृत्व में भारतीय सेनाओं ने यवनों को पराजित किया और उनका भारतीय अभियान विफल हो गया। यह पुष्यमित्र शुंग की एक महान सैन्य सफलता थी। यवनों का भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण उनके लिए असफल साबित हुआ, और भारतीय शासक पुष्यमित्र ने इस जीत से अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा को और बढ़ा लिया।
कलिंगराज खारवेल और पुष्यमित्र
के.पी. जायसवाल के अनुसार, खारवेल के हाथीगुम्फा लेख में उल्लिखित मगध के राजा ने बहसतिमित्र नामक एक शासक को पराजित किया था। कुछ विद्वान इसे पुष्यमित्र शुंग मानते हैं, लेकिन यह तर्क पूर्णत: सही नहीं लगता क्योंकि खारवेल का काल ई. पू. प्रथम शताब्दी का था और पुष्यमित्र का काल इससे पहले था। दोनों शासक अलग-अलग थे, और उनका समकालीन होना असंभव लगता है।
पुष्यमित्र शुंग का साम्राज्य और शासन व्यवस्था
पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य साम्राज्य के मध्यवर्ती क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में शामिल किया और उनका सुरक्षित रखने में सफलता प्राप्त की। उसके साम्राज्य में अयोध्या और विदिशा प्रमुख स्थान थे। अयोध्या में उसका उल्लेख मिलता है, जबकि विदिशा में उसका पुत्र अग्निमित्र शासन करता था। इसके अलावा, मालविकाग्निमित्र के अनुसार विदर्भ का राज्य भी उसके अधीन था। इसके अलावा, दिव्यावदान और तारानाथ के विवरण से यह पता चलता है कि जालन्धर और शाकल (स्यालकोट) पर भी उसका अधिकार था।
इस प्रकार, उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में बरार, पश्चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में मगध तक फैला हुआ था। पाटलिपुत्र उसकी राजधानी थी, जो अब भी इस साम्राज्य का केंद्रीय स्थल बना हुआ था।
शासन प्रणाली और प्रशासन
पुष्यमित्र के शासन के बारे में हमें बहुत सारी जानकारी नहीं मिलती है, लेकिन यह माना जा सकता है कि उसने मौर्य साम्राज्य के प्रशासन की व्यवस्था को बनाए रखा। मनुस्मृति के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्राट देवी उत्पत्ति में विश्वास करते थे। के.पी. जायसवाल का मत है कि मनु ने राजा की देवी उत्पत्ति का सिद्धांत पुष्यमित्र के ब्राह्मण साम्राज्य को समर्थन देने के लिए प्रतिपादित किया था। मनु के अनुसार, “बालक राजा का भी अपमान नहीं करना चाहिए क्योंकि वह मनुष्य रूप में स्थित महान देवता होता है।” हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि शासक निरंकुश होते थे। व्यवहार में, राजा धर्म और न्याय के अनुसार शासन करते थे।
मनु ने प्रजापालन और प्रजारक्षण को राजा का सबसे महत्वपूर्ण धर्म बताया था। इसका मतलब है कि राजा का मुख्य उद्देश्य अपनी प्रजा का भला करना था।
राज्यपालों और प्रशासनिक संरचना
पुष्यमित्र ने अपने साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में अपने पुत्रों और रिश्तेदारों को राज्यपाल नियुक्त किया था। यह एक सामान्य परंपरा थी, जो मौर्य साम्राज्य में भी देखने को मिलती थी। वायुपुराण में कहा गया है कि पुष्यमित्र ने अपने पुत्रों को साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में सह-शासक नियुक्त किया था। मालविकाग्निमित्र से पता चलता है कि उसका पुत्र अग्निमित्र विदिशा का उपराजा था। इसके अलावा, अयोध्या-लेख में यह उल्लेख मिलता है कि घनदेव कोशल का राज्यपाल था।
वसुमित्र के उदाहरण से यह भी स्पष्ट होता है कि राजकुमारों को सेना का संचालन करने का अधिकार भी दिया जाता था। यह दिखाता है कि शासक अपने साम्राज्य की सुरक्षा और सेना के संचालन के मामले में अपने निकटतम रिश्तेदारों को जिम्मेदारी सौंपते थे।
मंत्रिपरिषद और प्रशासनिक सहायता
मालविकाग्निमित्र और महाभाष्य में ‘अमात्य-परि‘ और ‘सभा‘ का उल्लेख किया गया है, जो मौर्यकालीन मंत्रिपरिषद को दर्शाते हैं। यह मंत्रिपरिषद शासन में सहायता प्रदान करती थी और प्रशासनिक फैसलों में मदद करती थी। मनु ने भी मंत्रिपरिषद की आवश्यकता को बल देते हुए कहा था कि “सरल कार्य भी एक व्यक्ति के लिए कठिन होते हैं, तो विशेष रूप से राज्य चलाना अकेले राजा के लिए असंभव होता है।” मनु के अनुसार, राजा को सात या आठ मंत्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए।
यह सुझाव देता है कि शुंग काल में भी एक सुविकसित न्याय और प्रशासनिक व्यवस्था थी, जिसमें ग्राम स्तर से लेकर राज्य स्तर तक प्रशासन की उचित व्यवस्था थी।
मौर्य साम्राज्य का समापन और शुंग काल की नई दिशा
शुंग काल में मौर्य साम्राज्य का केंद्रीय नियंत्रण थोड़ा कमजोर हुआ था। सामंतीकरण की प्रवृत्तियाँ बढ़ने लगी थीं, और इससे साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय शासन की स्थिति मजबूत होने लगी थी। इसके बावजूद, पाटलिपुत्र को राजधानी बनाए रखने के बावजूद, विदिशा का राजनैतिक और सांस्कृतिक महत्व बढ़ता जा रहा था।
कालांतर में, विदिशा ने पाटलिपुत्र के स्थान को ग्रहण किया और एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र बन गया। इस बदलाव ने शुंग साम्राज्य की दिशा में नए परिवर्तनों की शुरुआत की और पाटलिपुत्र से विदिशा की ओर सत्ता का स्थानांतरण हुआ।
पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी और शुंग वंश का पतन
पुष्यमित्र शुंग की मृत्यु के बाद, उसके पुत्र अग्निमित्र शुंग ने राजगद्दी संभाली। अग्निमित्र अपने पिता के शासनकाल में विदिशा का उपराजा था। हालांकि, उसके शासनकाल में कोई महत्वपूर्ण घटना रिकॉर्ड नहीं की गई है। वह आठ साल तक राज्य करता रहा।
अग्निमित्र के बाद का शुंग वंश
अग्निमित्र के बाद, सुज्येष्ठ या वसुज्येष्ठ नामक व्यक्ति राजा बना। दुर्भाग्यवश, इसके बारे में हमें बहुत कम जानकारी मिलती है। उसके बाद शुंग वंश का चौथा राजा वसुमित्र हुआ। वसुमित्र के शासन काल में, शुंग सेना ने यवनों को पराजित किया था। संभवतः वह पुष्यमित्र के समय में साम्राज्य की उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत का राज्यपाल था।
वह शासक बनने के बाद अत्यधिक विलासी हो गया। एक दिन, नृत्य का आनंद लेते समय, मूजदेव या मित्रदेव नामक एक व्यक्ति ने उसकी हत्या कर दी। यह घटना हर्षचरित में उल्लेखित है। पुराणों के अनुसार, वसुमित्र ने दस वर्षों तक राज्य किया।
शुंग वंश के बाद के शासक
वसुमित्र के बाद आन्ध्रक, पुलिन्दक, घोष, और फिर वज्रमित्र राजा बने। इन शासकों के बारे में भी कोई खास जानकारी नहीं मिल पाई है। शुंग वंश का नौंवा शासक भागवत अथवा भागभद्र था। वह एक शक्तिशाली राजा था, और उसके शासनकाल के 14वें वर्ष में, तक्षशिला के यवन नरेश एन्टियालकीड्स का राजदूत हेलियोडोरस विदिशा स्थित दरबार में आया था।
हेलियोडोरस ने भागवत धर्म अपनाया और विदिशा में गरुड़ स्तम्भ की स्थापना की, जिससे भागवत वष्णु की पूजा की जाने लगी।
देवभूति और शुंग वंश का अंत
शुंग वंश का दसवां और अंतिम शासक देवभूति था। वह अत्यधिक विलासी शासक था और उसने दस वर्षों तक राज्य किया। उसकी हत्या उसके अमात्य वसुदेव ने की। देवभूति की मृत्यु के साथ ही शुंग वंश का अंत हो गया।
निष्कर्ष
पुष्यमित्र शुंग का शासन भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने न केवल शुंग वंश की स्थापना की, बल्कि भारतीय संस्कृति और धर्म की पुनर्स्थापना में भी अहम भूमिका निभाई। उनका नेतृत्व, धार्मिक योगदान और सैन्य सफलता आज भी भारतीय इतिहास के पन्नों पर महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। शुंग वंश के पतन के बाद भी, पुष्यमित्र शुंग के कार्य और उनके द्वारा किए गए साम्राज्य के समृद्धि की दिशा में उठाए गए कदम हमेशा प्रेरणादायक रहेंगे। उनके शासनकाल ने भारतीय राजनीति, संस्कृति और धर्म को पुनः जागृत किया और एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।