मौर्य साम्राज्य भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मोड़ था, जिसकी स्थापना सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने की थी। लेकिन चंद्रगुप्त की जाति और उत्पत्ति को लेकर कई मत हैं। क्या वह शूद्र थे, जैसा कि कुछ प्राचीन ग्रंथों में उल्लेखित है, या उनका संबंध क्षत्रिय वंश से था? इस ब्लॉग में हम विभिन्न ऐतिहासिक और साहित्यिक साक्ष्यों का विश्लेषण करेंगे, ताकि मौर्य वंश की जाति और उत्पत्ति के बारे में एक स्पष्ट समझ बनाई जा सके। जानें, ब्राह्मण, बौद्ध, जैन और विदेशी स्रोतों से क्या संकेत मिलते हैं, और क्या चंद्रगुप्त मौर्य का वंश शूद्र था या क्षत्रिय।
मौर्य साम्राज्य की स्थापना : चन्द्रगुप्त मौर्य
मौर्य साम्राज्य का संस्थापक सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण नाम है। वह एक महान सम्राट थे, जिनकी भूमिका भारतीय इतिहास में अभूतपूर्व रही। चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपनी कड़ी मेहनत और दूरदर्शिता से इतिहास के पन्नों को नया दिशा दी। उनके द्वारा स्थापित मौर्य साम्राज्य ने देश को राजनीतिक एकता दी और विदेशी आक्रांताओं से मुक्ति दिलाई।
चन्द्रगुप्त मौर्य का महान कार्य
चन्द्रगुप्त मौर्य ने न केवल भारत को मकदूनी दासता से मुक्ति दिलाई, बल्कि नन्द वंश के अत्याचारी शासन को भी समाप्त किया। उनका शासन भारत के सबसे बड़े साम्राज्यों में से एक बन गया था। इस साम्राज्य का राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक महत्व बहुत अधिक था। चन्द्रगुप्त मौर्य का उद्देश्य भारत को एकजुट करना और जनता को शोषण से मुक्त कराना था, जिसे उन्होंने पूरी तरह से हासिल किया।

चन्द्रगुप्त मौर्य की उत्पत्ति
चन्द्रगुप्त मौर्य की उत्पत्ति के बारे में भारतीय इतिहास में विभिन्न मत हैं। इसके बारे में कई ग्रंथों में अलग-अलग बातें लिखी गई हैं। ब्राह्मण, बौद्ध और जैन ग्रंथों में उनके वंश के बारे में विरोधी विवरण मिलते हैं। इससे उनकी जाति का निर्धारण एक जटिल समस्या बन गई है।
विभिन्न मत
ब्राह्मण ग्रंथों में चन्द्रगुप्त को शूद्र या निम्न कुल से संबंधित बताया गया है। दूसरी ओर, बौद्ध और जैन ग्रंथों में उन्हें क्षत्रिय कहा गया है। इन मतों में भिन्नता होने के कारण उनके वास्तविक वंश के बारे में कोई ठोस निष्कर्ष निकालना मुश्किल है। फिर भी, यह कहा जा सकता है कि उनकी महानता उनके वंश से कहीं अधिक उनकी कर्मों और योगदान में निहित थी।
ब्राह्मण साहित्य का साक्ष्य
ब्राह्मण साहित्य में कई प्रमुख स्रोत हैं, जिनमें पुराणों का उल्लेख किया जा सकता है। पुराणों में नंद वंश के शासकों को शूद्र जाति का बताया गया है। विष्णुपुराण में यह कहा गया है कि शैशुनागवंशी शासक ‘महानंदी’ के बाद शूद्रों के राजा पृथ्वी पर शासन करेंगे। इस कथन के आधार पर कुछ विद्वानों ने मौर्य वंश को शूद्र सिद्ध करने का प्रयास किया है।
विष्णुपुराण का उल्लेख
विष्णुपुराण के एक भाष्यकार श्रीधरस्वामी ने चंद्रगुप्त मौर्य को नंदराज की पत्नी मुरा से उत्पन्न बताया है। उनके अनुसार, मुरा की संतान होने के कारण ही चंद्रगुप्त को मौर्य कहा गया। इसी तरह, विशाखदत्त के नाटक ‘मुद्राराक्षस‘ में भी चंद्रगुप्त को नंदराज का पुत्र माना गया है। हालांकि, इस नाटक में एक महत्वपूर्ण बिंदु सामने आता है। नाटक में यह कहा गया है कि चंद्रगुप्त नंदराज का वैध पुत्र नहीं था।
मुद्राराक्षस का विवरण
‘मुद्राराक्षस’ नाटक में नंदवंश को चंद्रगुप्त का ‘पितृकुलभूत‘ कहा गया है। यदि चंद्रगुप्त नंदराज का वैध पुत्र होता, तो इसे ‘पितृकुल’ के रूप में नहीं बताया जाता। नाटक में यह भी कहा गया है कि नंदराज का समूल नाश हो गया। यदि चंद्रगुप्त नंदराज का वास्तविक पुत्र होता, तो ऐसा प्रश्न नहीं उठता। इस नाटक में नंदो को उच्च जाति का और चंद्रगुप्त को निम्न जाति का बताया गया है।
चंद्रगुप्त की जाति
‘मुद्राराक्षस’ में चंद्रगुप्त को ‘वृषल‘ और ‘कूलहीन‘ कहा गया है। इन शब्दों को शूद्र जाति के अर्थ में लिया गया है। 18वीं शताब्दी के एक टीकाकार धुण्डिराज ने चंद्रगुप्त को शूद्र सिद्ध करने के लिए एक नई कहानी बनाई। उनके अनुसार, एक क्षत्रिय राजा के दो पत्नियाँ थीं – सुनन्दा और मुरा। मुरा एक शूद्र (वृषलात्मजा) थी और उसका पुत्र मौर्य कहलाया।
शूद्र उत्पत्ति का दूसरा विवरण
11वीं शताब्दी के दो संस्कृत ग्रंथों सोमदेव कृत ‘कथासरित्सागर‘ तथा क्षेमेन्द्र की ‘बृहत्कथामजरी‘ में चंद्रगुप्त की शूद्र उत्पत्ति के बारे में एक अलग विवरण मिलता है। इन ग्रंथों के अनुसार, नंदराज की अचानक मृत्यु हो गई। इसके बाद, इन्द्रदत्त नामक एक व्यक्ति ने योग के बल से नंदराज की आत्मा में प्रवेश कर लिया और वह राजा बन गया। उसे योगनंद कहा गया। योगनंद ने नंदराज की पत्नी से विवाह किया और उसका पुत्र हिरण्यगुप्त हुआ।
वास्तविक नंदराज और चंद्रगुप्त
इन ग्रंथों के अनुसार, नंदराज के पहले से ही एक पुत्र था – चंद्रगुप्त। योगनंद और हिरण्यगुप्त के मार्ग में चंद्रगुप्त को बाधक माना गया। इस कारण दोनों में वैमनस्य उत्पन्न हुआ। नंदराज के मंत्री शकटार ने चंद्रगुप्त का समर्थन किया और चाणक्य नामक एक ब्राह्मण की सहायता से योगनंद और हिरण्यगुप्त का अंत किया। इसके बाद, चंद्रगुप्त को सिंहासन पर बैठाया गया। इन ग्रंथों में चंद्रगुप्त को नंदराज का पुत्र मानते हुए शूद्र उत्पत्ति का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया है।
शूद्र उत्पत्ति के मत की समीक्षा
यदि हम चंद्रगुप्त की शूद्र उत्पत्ति के मतों की समीक्षा करें, तो यह स्पष्ट होता है कि ये अधिकांशत: कल्पनाओं पर आधारित हैं। इनका कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता। सबसे पहले, पुराणों की बात करें तो वे चंद्रगुप्त की जाति के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं देते। वे सिर्फ नंदों को शूद्र कहते हैं और यह बताते हैं कि कौटिल्य (चाणक्य) नंदों को नष्ट कर चंद्रगुप्त को सिंहासन पर बैठाएंगे। लेकिन यह कथन सिर्फ नंदवंश के बारे में है, न कि चंद्रगुप्त या मौर्य वंश के बारे में।
पुराणों का विश्लेषण
पुराणों का टीकाकार नंदों को शूद्र मानता है, लेकिन यह तर्क पुराणों में उल्लिखित केवल नंदों के संदर्भ में है। यह बाद के राजवंशों पर लागू नहीं होता। उदाहरण के लिए, हमें यह प्रमाणित रूप से पता है कि नंदों के बाद आने वाले अधिकांश राजवंश शूद्र नहीं थे। इसलिए, पुराणों के आधार पर चंद्रगुप्त की जाति का निर्धारण करना सही नहीं लगता।
मौर्य शब्द की व्युत्पत्ति
इसके अलावा, मौर्य शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार करें। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार, ‘मौर्य’ शब्द का संबंध ‘मुर’ शब्द से है, न कि ‘मुरा’ से। इससे यह स्पष्ट होता है कि ‘मौर्य’ शब्द की उत्पत्ति शूद्र जाति से नहीं होती, जैसा कि कुछ लोग दावा करते हैं। इस प्रकार, मौर्य शब्द को शूद्र जाति से जोड़ने का तर्क सही नहीं है।
मुद्राराक्षस का साक्ष्य
मुद्राराक्षस नाटक का साक्ष्य भी चंद्रगुप्त की शूद्र उत्पत्ति के पक्ष में प्रमाणित नहीं हो सकता। इस नाटक में नंदों को उच्च वर्ण का बताया गया है, जो भारतीय साहित्य और विदेशी स्रोतों से मेल नहीं खाता। नाटक में चंद्रगुप्त को ‘वृषल’ और ‘कूलहीन’ कहा गया है, लेकिन इन शब्दों का अर्थ शूद्र से नहीं है। मनुस्मृति और महाभारत में ‘वृषल’ शब्द का प्रयोग धर्मच्युत व्यक्ति के लिए किया गया है, न कि शूद्र के लिए।
वृषल और कुलहीन शब्द का अर्थ
चंद्रगुप्त को ‘वृषल’ कहे जाने का कारण यह हो सकता है कि विशाखदत्त ने उसे चाणक्य के मुख से ‘वृषल’ कहा, क्योंकि चाणक्य ब्राह्मण व्यवस्था के पोषक थे। इसके अलावा, ‘कुलहीन’ शब्द का अर्थ यह नहीं है कि चंद्रगुप्त शूद्र था, बल्कि यह सिर्फ इतना दर्शाता है कि वह राजकुल से संबंधित नहीं था।
मुद्राराक्षस और अन्य ग्रंथों का संदिग्ध प्रमाण
यह भी ध्यान देने योग्य है कि मुद्राराक्षस और अन्य ग्रंथों की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। मुद्राराक्षस नाटक की रचना मौर्य काल के लगभग आठ शताब्दियों बाद हुई थी, और इसलिए इसे मौर्य इतिहास के निर्माण में प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार, ‘कथासरित्सागर’ और ‘बृहत्कथामंजरी’ जैसे ग्रंथ भी मौर्य इतिहास के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताते और इनका आधार भी संदिग्ध है।
बौद्ध साहित्य का साक्ष्य
ब्राह्मण साहित्य के विपरीत, बौद्ध ग्रंथों में मौर्य वंश को क्षत्रिय जाति से संबंधित बताया गया है। इन ग्रंथों में चंद्रगुप्त मौर्य को ‘मोरिय‘ नामक क्षत्रिय वंश से जोड़ा गया है। बौद्ध ग्रंथों में इसे स्पष्ट रूप से क्षत्रिय वंश का व्यक्ति बताया गया है।
मोरिय वंश की उत्पत्ति
बौद्ध साहित्य के अनुसार, ‘मोरिय’ शब्द मोर से लिया गया है। मोरिय वंश के लोग कपिलवस्तु के शाक्य वंश से थे। जब कोशल नरेश विड्डडभ ने कपिलवस्तु पर आक्रमण किया, तो शाक्य परिवार के कुछ लोग उसकी अत्याचारों से बचने के लिए हिमालय के सुरक्षित क्षेत्र में चले गए। यह स्थान मोरों के लिए प्रसिद्ध था, इसलिए इन्हें ‘मोरिय’ कहा गया। एक और कथा में ‘मोरिय नगर’ का उल्लेख है। इस नगर की ईंटों की बनावट मयूरों की गर्दन जैसी थी, और इसके कारण इसे ‘मोरिय’ नगर कहा गया।
बौद्ध ग्रंथों में चंद्रगुप्त की जाति
कई बौद्ध ग्रंथ बिना किसी संदेह के चंद्रगुप्त को क्षत्रिय घोषित करते हैं। महाबोधिवंश में चंद्रगुप्त को राजकुल से संबंधी (नरिंद्रकुलसंभव) बताया गया है। महावंश में भी चंद्रगुप्त को ‘मोरिय’ नामक क्षत्रिय वंश में उत्पन्न कहा गया है। महापरिनिब्बानसूत्त में मौर्य वंश को पिष्पलिवन का शासक और क्षत्रिय वंश का कहा गया है।
महापरिनिब्बानसूत्त का महत्व
महापरिनिब्बानसूत्त बौद्ध साहित्य का एक प्राचीनतम ग्रंथ है। इस ग्रंथ के अनुसार, बुद्ध की मृत्यु के बाद मौर्यों ने कुशीनारा के मल्लों के पास उनके अवशेषों का अंश प्राप्त करने के लिए राजदूत भेजे थे। इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि मौर्य वंश ने अपने क्षत्रिय होने का दावा किया था। चूंकि यह ग्रंथ बहुत पुराना है, इसे अधिक विश्वासनीय माना जाता है।
जैन साहित्य का साक्ष्य
जैन साहित्य में भी मौर्य वंश के बारे में कई महत्वपूर्ण साक्ष्य मिलते हैं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण हेमचन्द्र का परिशिष्टपर्व है। इसमें चंद्रगुप्त मौर्य को ‘मयूर पोषक ग्राम’ के मुखिया की पुत्री का पुत्र बताया गया है। यह संकेत करता है कि चंद्रगुप्त मौर्य का संबंध मयूर पोषक समुदाय से था। इसके अलावा, आवश्यक सूत्र की हरिभद्रीया टीका में भी चंद्रगुप्त को मयूर पोषकों के ग्राम के मुखिया के कुल में उत्पन्न बताया गया है।
मयूर से संबंध
यहां यह महत्वपूर्ण है कि जैन ग्रंथ नंदों को शूद्र बताकर उनकी निंदा करते हैं, लेकिन मौर्य वंश की शूद्र उत्पत्ति का कोई संकेत नहीं दिया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जैन साहित्य मौर्यों को मयूर से संबंधित मानता है, लेकिन उनका वर्णन शूद्र से नहीं किया गया।
बौद्ध और जैन साक्ष्य में समानता
जैन और बौद्ध दोनों ही साहित्य मौर्य वंश को मयूर से संबंधित बताते हैं। बौद्ध साहित्य के अनुसार मौर्य वंश ‘मोरिय’ से आया था, जबकि जैन साहित्य में भी मयूर शब्द का उल्लेख है। यह संकेत करता है कि दोनों परंपराएं मौर्यों को मयूर से जोड़ती हैं।
मयूर चिन्ह और मौर्य वंश
मयूर को मौर्य वंश का प्रतीक चिन्ह माना जाता है। यह बात पहले ग्रुनेवेडल ने बताई थी। उनके अनुसार, मयूर मौर्य वंश का ‘डायनास्टिक एंब्लेम’ (वंश चिन्ह) था। मौर्य काल की कलाकृतियों में मोरों की आकृतियों का होना इसका प्रमाण है। मयूर का प्रतीक मौर्य वंश से जुड़ा हुआ था, इसलिए मौर्य काल के स्तूपों और स्थापत्य में मयूर के चित्र मिलते हैं।
साँची में मयूर चित्र
मार्शल का मानना है कि मौर्य काल के स्तूपों और भवनों को सजाने के लिए मयूर के चित्र बनाए गए थे। साँची के विशाल स्तूप में मयूर की कई आकृतियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं। इन चित्रों से यह सिद्ध होता है कि मौर्य काल में मयूर का प्रतीक वंश से जुड़ा हुआ था।
विदेशी लेखकों के साक्ष्य
चन्द्रगुप्त मौर्य के बारे में कई विदेशी लेखकों ने महत्वपूर्ण जानकारी दी है, जो हमारे लिए विचारणीय है। विशेष रूप से, सिकंदर के उत्तरकालीन यूनानी लेखकों के विवरण महत्वपूर्ण हैं। इन लेखकों ने चंद्रगुप्त को ‘एंड्रोकोटस’, ‘सेड्रोकोटस’ जैसे नामों से पहचाना। प्लूटार्क के अनुसार, चंद्रगुप्त जब युवा थे, तब वे सिकंदर से मिले थे। प्लूटार्क ने यह भी बताया कि चंद्रगुप्त ने बाद में कहा था कि सिकंदर यदि चाहता, तो आसानी से सम्पूर्ण भारत पर विजय प्राप्त कर सकता था, क्योंकि नंद वंश के राजा अपने निम्न कुल के कारण जनता में बहुत अप्रिय थे।
चंद्रगुप्त और नंदों की तुलना
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि चंद्रगुप्त यदि स्वयं निम्न जाति से होते, तो वे नंदों के बारे में ऐसी बातें नहीं करते। जस्टिन ने भी यही लिखा है कि चंद्रगुप्त ‘सामान्य कुलोत्पन्न’ था, यानी वह निम्न कुल से था, फिर भी उसने सम्राट बनने की महत्वाकांक्षा रखी। जस्टिन के अनुसार, एक बार चंद्रगुप्त की स्पष्टवादिता से सिकंदर अप्रसन्न हो गया था और उसने चंद्रगुप्त को मार डालने का आदेश दिया। लेकिन चंद्रगुप्त अपनी सतर्कता से बच निकला। इन विवरणों से यह स्पष्ट होता है कि चंद्रगुप्त राजपरिवार से संबंध नहीं रखते थे, लेकिन उन्होंने अपनी मेहनत और चतुराई से राजगद्दी प्राप्त की।
वर्ण निर्धारण
इन सभी प्रमाणों की आलोचनात्मक समीक्षा के बाद यह कहा जा सकता है कि बौद्ध और जैन ग्रंथों का प्रमाण ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे सशक्त है। इनमें चंद्रगुप्त को क्षत्रिय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। शूद्र या निम्न जाति से चंद्रगुप्त का संबंध साबित करने के लिए कोई ठोस आधार नहीं मिलता है। इसके अलावा, चंद्रगुप्त के गुरु चाणक्य ने वर्णाश्रम धर्म का प्रबल समर्थन किया था, जिसके अनुसार केवल क्षत्रिय ही राजगद्दी के योग्य होते थे।
चाणक्य का दृष्टिकोण
अर्थशास्त्र में चाणक्य ने एक स्थान पर लिखा है, “दुर्बल व्यक्ति यदि उच्च वर्ण का हो तो वह बलवान, निम्न जाति का व्यक्ति से अधिक योग्य होता है।” इसके अनुसार, उच्च वर्ण का व्यक्ति राजा बनने के योग्य होता है, क्योंकि वह प्रजा का सम्मान प्राप्त करता है और उसकी आज्ञाओं का पालन करता है। चाणक्य के इस दृष्टिकोण से यह साफ है कि यदि चंद्रगुप्त क्षत्रिय नहीं होते, तो चाणक्य उन्हें नंदों के विनाश के लिए अपना सहायक नहीं बनाते। एक शूद्र को राजगद्दी पर बैठाना चाणक्य के लिए असंभव था।
निष्कर्ष
इस प्रकार, विभिन्न साहित्यिक और ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य की उत्पत्ति के बारे में भिन्न-भिन्न मत हैं, लेकिन उनके कार्यों और योगदान को देखकर यह स्पष्ट होता है कि वह एक महान शासक थे। ब्राह्मण, बौद्ध, और जैन साहित्य, साथ ही विदेशी लेखकों के प्रमाण यह दर्शाते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य का वंश शूद्र नहीं था, बल्कि वह क्षत्रिय थे।
चन्द्रगुप्त मौर्य की उत्पत्ति पर शोध और बहस जारी है, लेकिन यह निर्विवाद है कि उनका साम्राज्य भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण भाग है, और उनकी महानता उनके वंश से कहीं अधिक उनके कार्यों और योगदान में निहित थी।