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भारत का सुप्रीम कोर्ट |
केसवानंद भारती केस: भारतीय संविधान के इतिहास में संवैधानिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण
परिचय
भारतीय संविधान में संसद को अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करने का अधिकार दिया गया है, लेकिन यह शक्ति कितनी व्यापक हो सकती है, और इसके क्या सीमित दायरे हैं, यह सवाल 1973 के केसवानंद भारती बनाम केरल राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट हुआ। इस फैसले ने भारतीय न्यायिक व्यवस्था में ‘मूल संरचना सिद्धांत’ (Basic Structure Doctrine) की नींव रखी और संसद के संविधान संशोधन अधिकारों पर महत्वपूर्ण सीमाएं लगाईं। यह केस न केवल भूमि अधिग्रहण कानूनों के खिलाफ था, बल्कि यह संसद द्वारा संविधान में असीमित संशोधन की शक्ति को चुनौती देने के लिए भी प्रसिद्ध हुआ। इस ऐतिहासिक मामले ने भारतीय लोकतंत्र के स्वरूप को बदल दिया और यह सुनिश्चित किया कि संवैधानिक ढांचा कभी भी पूरी तरह से कमजोर न हो।
केस की पृष्ठभूमि और संवैधानिक चुनौतियाँ
इस केस की पृष्ठभूमि में मुख्य रूप से 1950 और 1960 के दशक की संवैधानिक और राजनीतिक घटनाएँ थीं। 1950 में भारतीय संविधान के लागू होने के बाद, भारतीय संसद को यह अधिकार दिया गया था कि वह संविधान में संशोधन कर सके। लेकिन कुछ समय बाद संसद और न्यायपालिका के बीच इस अधिकार को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ।
स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में, सुप्रीम कोर्ट ने ‘शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार (1951)’ और ‘सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार (1965)’ जैसे मामलों में निर्णय देकर संसद को संविधान में संशोधन करने की पूरी शक्ति दी। उस समय, कोर्ट ने तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व पर भरोसा जताया, क्योंकि प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी संसद के सदस्यों के रूप में कार्यरत थे। इस विश्वास के कारण कोर्ट ने माना कि संसद संविधान में आवश्यक बदलाव कर सकती है।
गोलकनाथ केस (1967) से पहले, भारतीय संसद ने 1st, 4th और 17th संशोधन के तहत संपत्ति के अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों में संशोधन किया था। इस पर सवाल उठाते हुए गोलकनाथ केस में सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकारों को संविधान का अभिन्न हिस्सा माना, जिसमें संशोधन नहीं किया जा सकता।
गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य में सुप्रीम कोर्ट का मुख्य तर्क था कि संसद संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन यह संशोधन मौलिक अधिकारों तक सीमित नहीं होना चाहिए। इस निर्णय ने संसद की शक्तियों को काफी हद तक सीमित कर दिया, जिससे सरकार और न्यायपालिका के बीच संघर्ष बढ़ गया।
इस फैसले के बाद संसद की शक्तियों को सीमित कर दिया गया था, जो सरकार के दृष्टिकोण से एक बड़ा धक्का था। इसके बाद, तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने 24वां और 25वां संवैधानिक संशोधन लागू किया, जिसमें संसद को संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने का अधिकार दिया गया, यहां तक कि मौलिक अधिकारों को भी बदला जा सकता था।
गोलकनाथ के बाद के संवैधानिक संशोधन
गोलकनाथ केस के बाद, इंदिरा गांधी की सरकार ने संसद की संशोधन शक्तियों को बढ़ाने के लिए कई संवैधानिक संशोधन किए। इनमें मुख्य रूप से 24वां और 25वां संवैधानिक संशोधन शामिल थे।
1. 24वां संविधान संशोधन (1971)
इस संशोधन के तहत संसद को स्पष्ट रूप से यह अधिकार दिया गया कि वह संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है, जिसमें मौलिक अधिकार भी शामिल हैं। इस संशोधन के जरिए संविधान के अनुच्छेद 368 में बदलाव किया गया।
– अनुच्छेद 13 में यह स्पष्ट किया गया कि संविधान संशोधन को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।
– यह संशोधन सीधे तौर पर गोलकनाथ केस के फैसले को पलटने के लिए लाया गया था, ताकि संसद को असीमित संशोधन की शक्ति प्राप्त हो सके।
2. 25वां संविधान संशोधन (1971)
इस संशोधन ने अनुच्छेद 31C को जोड़ा, जिसमें यह कहा गया कि सरकार किसी भी कानून को समाजवाद और समानता को बढ़ावा देने के लिए बना सकती है, भले ही वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो।
– संपत्ति के अधिकार (अनुच्छेद 31) में संशोधन करके इसे मौलिक अधिकारों से हटा दिया गया।
– यह संशोधन आर्थिक और सामाजिक नीतियों को लागू करने के लिए संसद को अधिक शक्ति देने के उद्देश्य से किया गया था, ताकि भूमि सुधार और संपत्ति के पुनर्वितरण जैसे कदम उठाए जा सकें।
3. 29वां संविधान संशोधन (1972)
इस संशोधन के तहत केरल राज्य के भूमि सुधार कानूनों को 9वीं अनुसूची में रखा गया, जिससे उन पर न्यायिक समीक्षा की गुंजाइश खत्म हो गई। 9वीं अनुसूची के तहत आने वाले कानूनों को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती, चाहे वे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हों।
संसद और न्यायपालिका के बीच टकराव:
1970 के दशक की शुरुआत में, तत्कालीन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को बदलने के लिए संविधान में बड़े पैमाने पर संशोधन किए। विशेष रूप से ‘आरसी कूपर बनाम भारतीय संघ (1970)’ और ‘माधवराव सिंधिया बनाम भारत संघ (1970)’ मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी सरकार के द्वारा किए गए कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों को अवैध ठहराया था।
‘आरसी कूपर’ मामले में, कोर्ट ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण के निर्णय को अवैध घोषित किया, जबकि ‘माधवराव सिंधिया’ मामले में, कोर्ट ने पूर्व शासकों को मिलने वाली ‘प्रिवी पर्स’ को समाप्त करने वाले संशोधन को गैरकानूनी ठहराया। इन निर्णयों को बदलने के लिए सरकार ने संविधान के 24वें, 25वें, 26वें और 29वें संशोधनों को लागू किया।
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केशवानंद भारती |
केसवानंद भारती केस: संवैधानिक समीक्षा
साल 1973 में केरल की तत्कालीन सरकार ने भूमि सुधार के लिए दो कानून लागू किए, जिसके तहत मठों की संपत्ति जब्त की जा रही थी। इसके खिलाफ इडनीर मठ के प्रमुख केशवानंद भारती ने आवाज उठाई और सरकार के फैसले को चुनौती देते हुए अदालत का रुख किया। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 26 का हवाला देते हुए तर्क दिया कि उन्हें धर्म के प्रचार के लिए संस्था बनाने का अधिकार है, और सरकार द्वारा मठों की संपत्ति जब्त करना उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है। केरल भूमि सुधार कानून के खिलाफ केसवानंद भारती ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने यह तर्क दिया कि राज्य सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
संवैधानिक संशोधन और संसद की शक्तियाँ
इस मामले में मुख्य संवैधानिक मुद्दा यह था कि क्या संसद के पास संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने की असीमित शक्ति है? क्या संसद संविधान के मौलिक ढांचे को भी बदल सकती है, या संविधान के कुछ हिस्से ऐसे हैं जो अटल हैं और संशोधन के दायरे से बाहर हैं?
इस संदर्भ में, संसद ने 24वें और 25वें संशोधन के तहत यह अधिकार प्राप्त किया था कि वह संविधान के मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सके। यह संसद और न्यायपालिका के बीच एक बड़ा संवैधानिक संघर्ष का कारण बना, क्योंकि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया था कि मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और ऐतिहासिक घटनाक्रम
यह मामला 13 न्यायाधीशों की पीठ के सामने प्रस्तुत किया गया, जो भारतीय इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी संविधान पीठ थी। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले की सुनवाई 68 दिनों तक चली, जो 31 अक्टूबर 1972 को शुरू हुई और 23 मार्च 1973 को समाप्त हुई। 24 अप्रैल 1973 को, मुख्य न्यायाधीश सीकरी और सुप्रीम कोर्ट के 12 अन्य न्यायाधीशों ने इस ऐतिहासिक फैसले को सुनाया, जो न्यायिक इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।यह मामला संविधान के अनुच्छेद 368 (जो संविधान में संशोधन की प्रक्रिया को निर्धारित करता है) की व्याख्या और संसद की सीमाओं पर केंद्रित था।
मुख्य न्यायाधीश एस.एम. सीकरी की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट ने 7:6 के बहुमत से यह फैसला दिया कि संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन यह अधिकार असीमित नहीं है। इस फैसले ने ‘मूल संरचना सिद्धांत’ (Basic Structure Doctrine) की स्थापना की, जिसके अनुसार संविधान के कुछ मूल सिद्धांत ऐसे हैं, जिन्हें संशोधन द्वारा बदला नहीं जा सकता।
मूल संरचना सिद्धांत: क्या है यह?
मूल संरचना सिद्धांत भारतीय संविधान की वह नींव है, जो यह सुनिश्चित करती है कि संसद के पास संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन वह संविधान के उन मूल तत्वों या सिद्धांतों को नहीं बदल सकती, जो इसकी मूल संरचना का हिस्सा हैं। इनमें लोकतंत्र, न्याय, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता, संघीय ढांचा, मौलिक अधिकार और विधायिका तथा न्यायपालिका का संतुलन शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संसद अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन कर सकती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि संविधान के मौलिक ढांचे को समाप्त किया जा सकता है। यह फैसला संविधान के मौलिक तत्वों को स्थायित्व प्रदान करता है और यह सुनिश्चित करता है कि संसद संवैधानिक ढांचे की सीमाओं का पालन करे।
24वें और 25वें संशोधन के बारे में कोर्ट ने क्या कहा:
– कोर्ट ने 24वें संशोधन को वैध ठहराया, जिससे संसद को संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने का अधिकार मिला।
– लेकिन, 25वें संशोधन के कुछ हिस्सों को अवैध घोषित कर दिया गया। कोर्ट ने माना कि संपत्ति के अधिकारों पर सरकार की शक्ति को सीमित किया जाना चाहिए। साथ ही, अनुच्छेद 31C में दिए गए संशोधन को इस हद तक सीमित कर दिया गया कि यह मौलिक अधिकारों को खत्म नहीं कर सकता।
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(साभार:इंडियन एक्सप्रेस) |
संविधान के मूल संरचना का महत्व और उसकी आलोचना
मूल संरचना का महत्व
1. संविधान की आत्मा की रक्षा
– मूल संरचना सिद्धांत संविधान के बुनियादी तत्वों को अपरिवर्तनीय बनाता है, जिससे संविधान की आत्मा और उद्देश्यों की रक्षा होती है।
2. संसदीय शक्तियों की सीमा
– यह सिद्धांत संसद को संविधान के कुछ हिस्सों में संशोधन करने की अनुमति देता है, लेकिन संविधान के मूल ढांचे को कमजोर करने से रोकता है।
3. लोकतंत्र की रक्षा
– मूल संरचना सिद्धांत लोकतंत्र, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और संघीय ढांचे की सुरक्षा सुनिश्चित करता है, जिससे तानाशाही या अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को रोका जा सके।
4. मौलिक अधिकारों का संरक्षण
– यह सिद्धांत मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है, सुनिश्चित करता है कि संसद उन अधिकारों में संशोधन करके उन्हें समाप्त नहीं कर सके।
5. अंतरराष्ट्रीय प्रभाव
– इस सिद्धांत ने अन्य देशों के संवैधानिक न्यायालयों को प्रेरित किया है, जो संविधान की मूल संरचना की रक्षा के लिए इसी तरह के सिद्धांतों को अपनाने लगे हैं।
आलोचना
1. संविधान संशोधन में सीमाएं
– आलोचक कहते हैं कि मूल संरचना सिद्धांत संसद की संशोधन शक्तियों को अत्यधिक सीमित करता है, जिससे संविधान में आवश्यक परिवर्तन करना कठिन हो जाता है।
2. विवादित व्याख्या
– “मूल संरचना” की परिभाषा और व्याख्या में अस्पष्टता होती है, जिससे विभिन्न न्यायाधीशों के बीच मतभेद उत्पन्न होते हैं और इसे लागू करना जटिल हो जाता है।
3. सुप्रीम कोर्ट की शक्ति
– कुछ आलोचक मानते हैं कि मूल संरचना सिद्धांत सुप्रीम कोर्ट को बहुत अधिक शक्ति देता है, जिससे न्यायपालिका का संसद की भूमिका में हस्तक्षेप बढ़ जाता है।
4. आवश्यक सामाजिक और राजनीतिक सुधारों की बाधा
– मूल संरचना सिद्धांत कभी-कभी समाज और राजनीति में आवश्यक सुधारों को लागू करने में बाधा उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि संसद को संविधान के मूल तत्वों में परिवर्तन करने की अनुमति नहीं होती।
5. संकट की स्थिति में व्यावहारिकता की कमी
– आलोचक यह भी मानते हैं कि मूल संरचना सिद्धांत संकट की परिस्थितियों में संविधान के तेजी से और प्रभावी संशोधन की जरूरत को पूरा नहीं कर पाता।
फैसले के बाद की राजनीतिक प्रतिक्रिया
केसवानंद भारती केस का फैसला तत्कालीन सरकार के लिए एक बड़ा झटका था। इंदिरा गांधी की सरकार ने इस फैसले को अस्वीकार किया और इसे संसद की शक्तियों पर एक अप्रत्यक्ष हमला माना। 1975 में जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू किया, तब भी इस फैसले की महत्वपूर्ण भूमिका रही। सरकार ने आपातकाल के दौरान कई संवैधानिक संशोधन करने की कोशिश की, लेकिन ‘मूल संरचना’ सिद्धांत ने उन संशोधनों को चुनौती दी और न्यायपालिका ने संविधान की रक्षा की।
आपातकाल के बाद, जब जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आई, तब इस फैसले की फिर से समीक्षा की गई और इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण माना गया। यह सुनिश्चित किया गया कि न्यायपालिका संविधान की संरक्षक है और संसद की शक्तियों पर नियंत्रण रखने का अधिकार रखती है।
केस का संवैधानिक और ऐतिहासिक महत्व
केसवानंद भारती केस ने भारतीय संवैधानिक कानून को एक नया आयाम दिया। इस फैसले के बाद संसद के संशोधन अधिकारों पर महत्वपूर्ण सीमाएं लगाईं गईं। यह फैसला आज भी भारतीय न्यायिक प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा है, और इसका इस्तेमाल कई मामलों में किया गया है जहां संविधान की रक्षा की आवश्यकता पड़ी।
इस फैसले का सबसे बड़ा प्रभाव यह था कि इसने भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका को और अधिक मजबूत किया। न्यायपालिका ने इस फैसले के जरिए यह सुनिश्चित किया कि संविधान का कोई भी हिस्सा इतना कमजोर न हो जाए कि वह लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुंचा सके।
दीर्घकालिक प्रभाव
‘मूल संरचना सिद्धांत’ ने भारतीय लोकतंत्र में संतुलन बनाए रखा है। यह सिद्धांत आज भी कई संवैधानिक मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस सिद्धांत का इस्तेमाल संसद द्वारा किए गए कई संवैधानिक संशोधनों की वैधता को चुनौती देने के लिए किया गया है। उदाहरण के तौर पर, हाल के वर्षों में जब आधार कानून को मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना गया, तब इस सिद्धांत का हवाला दिया गया।
यह फैसला आज भी भारतीय संवैधानिक कानून में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसने भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को और अधिक गहरा किया और न्यायपालिका को संविधान की संरक्षक के रूप में स्थापित किया। भारतीय न्यायिक इतिहास में यह फैसला सदैव एक मील का पत्थर रहेगा।
विदेशी अदालतों ने भी ली प्रेरणा
केशवानंद भारती बनाम केरल मामले के ऐतिहासिक फैसले ने न केवल भारत बल्कि कई विदेशी संवैधानिक अदालतों को भी प्रभावित किया। इस फैसले को कई अंतरराष्ट्रीय अदालतों ने संदर्भित किया। उदाहरण के लिए, 16 साल बाद बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने अनवर हुसैन चौधरी बनाम बांग्लादेश मामले में मूल संरचना सिद्धांत को मान्यता दी। बेलीज की अदालत ने भी बेरी एम बोवेन बनाम अटॉर्नी जनरल ऑफ़ बेलीज मामले में केशवानंद केस और आईआर कोएल्हो केस का हवाला देते हुए मूल संरचना सिद्धांत को अपनाया। इसके अलावा, केन्या, युगांडा और सेशेल्स जैसे अफ्रीकी देशों ने भी इस ऐतिहासिक फैसले का उल्लेख करते हुए अपने मामलों में भरोसा जताया।
निष्कर्ष
केसवानंद भारती केस भारतीय संवैधानिक और न्यायिक इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण मामला है। इस फैसले ने भारतीय संविधान को एक स्थायी संरचना दी और यह सुनिश्चित किया कि भारतीय लोकतंत्र में संतुलन बना रहे। ‘मूल संरचना सिद्धांत’ ने संसद की शक्तियों को सीमित किया और न्यायपालिका को संविधान की रक्षा करने का अधिकार दिया। आज भी यह मामला भारतीय न्यायपालिका में एक प्रेरणास्त्रोत के रूप में देखा जाता है, जिसने लोकतंत्र और संविधान की रक्षा की।