प्राचीन भारत में दास प्रथा
भारत में दास प्रथा की शुरुआत प्राचीन ऋग्वेद काल से मानी जाती है। ऋग्वेद में ‘दास’, ‘दस्यु’ और ‘असुर’ शब्दों का प्रयोग आर्यों से भिन्न वर्ण के रूप में हुआ है। कुछ विद्वान मानते हैं कि ये लोग द्रविड़ भाषा बोलते थे और इन्हें सैन्धव सभ्यता का निर्माता माना जाता है। हालांकि, इस पर पूरी तरह से कुछ भी कहना मुश्किल है। ऋग्वेद में दासों की कुछ विशेषताएं दी गई हैं, जो इस प्रकार हैं:
ऋग्वेद में दासों की विशेषताएँ
1. अकर्मन् – वे वैदिक क्रियाएँ नहीं करते थे।
2. अदेवयु – वे वैदिक देवताओं की पूजा नहीं करते थे।
3. अयज्वन् – वे यज्ञ नहीं करते थे।
4. अब्रह्मन् – वे श्रद्धा और धार्मिक विश्वासों से दूर थे।
5. अन्यव्रत – वे वैदिक व्रतों का पालन नहीं करते थे।
6. मृद्धवाक् – वे एक अलग भाषा बोलते थे।
7. शिश्नदेवा – वे लिंग पूजा करते थे।
यह स्पष्ट है कि ये सभी विशेषताएँ अनार्यों की थीं। आर्यों को भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने से पहले इनसे संघर्ष करना पड़ा। ऋग्वेद में यह भी उल्लेख है कि दास लोग पाषाण निर्मित पुरों में रहते थे। इन्द्र ने इन पुरों को नष्ट किया, जिससे वे “पुरन्दर” के नाम से प्रसिद्ध हो गए। ऋग्वेद में एक स्थान पर कहा गया है कि इन्द्र ने दासों को गुफा में धकेल दिया। इसका मतलब यह है कि जो लोग आर्य संस्कृति से अलग थे, उन्हें इन्द्र ने हराया और उन्हें दास बना लिया।
उत्तर वैदिक काल में दास-प्रथा
उत्तर वैदिक साहित्य में भी दास-प्रथा का उल्लेख मिलता है। तैत्तिरीय संहिता के अनुसार दासों को उपहार में देने की प्रथा थी। ऐतरेय ब्राह्मण में एक राजा का उल्लेख किया गया है, जिसने अपने अभिषेक के समय 10,000 दासियों को पुरोहित को उपहार में दिया था। उपनिषदों में भी दासों का उल्लेख मिलता है, जिससे पता चलता है कि दासों को रखना एक सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक था। कुलीन वर्ग के लोग अपने घरों में दासों और दासियों की सेवाएँ लेते थे।
मौर्य काल में दास प्रथा
मौर्य काल में भी दास-प्रथा प्रचलित थी। अर्थशास्त्र में दासों के चार प्रकारों का उल्लेख किया गया है:
1. उदरदास – जो अपना पेट पालने के लिए दास बने।
2. आत्यविक्रयी – जो किसी विशेष परिस्थिति में अपने को बेचकर दास बने।
3. आत्माघाता – जो अपने को बंधक रखकर दास बने।
4. ध्वजाहत – जो युद्ध में बंदी बनाए गए।
अशोक के शिलालेखों में भी दासों का उल्लेख मिलता है, लेकिन यवन राजदूत मेगस्थनीज ने भारत में दास-प्रथा का कोई उल्लेख नहीं किया। उनके अनुसार, भारत में कोई दास नहीं था और सभी लोग स्वतंत्र थे। हालांकि, अर्थशास्त्र के प्रमाण बताते हैं कि भारत में दास-प्रथा थी, लेकिन यह प्राचीन रोम और यूनान की दास-प्रथा से बहुत अलग थी। भारत में दासों के साथ मानवीय व्यवहार किया जाता था। अशोक अपने लेखों में दासों और सेवकों से अच्छे व्यवहार करने का आदेश देते हैं। शायद इसीलिए यूनानी लेखक को भारत में दास प्रथा दिखाई नहीं दी।
मनुस्मृति में दासों के प्रकार
मनुस्मृति में सात प्रकार के दासों का उल्लेख किया गया है:
1. ध्वजाइत – युद्ध में बंदी बनाए गए।
2. भक्तदास – जो भोजन पाने के लालच में दास बने।
3. गृहज – घर में उत्पन्न हुए दासों के पुत्र।
4. क्रीत – जो खरीदे गए।
5. दृत्त्रिम – जो उपहार में दिए गए।
6. पैत्रिक – जो पितृ परंपरा से दास बने।
7. दण्ड दास – जो ऋण चुकाने के कारण दास बने।
नारद तथा कात्यायन स्मृतियों में दासो के कुछ अन्य प्रकारों का भी उल्लेख प्राप्त होता है। विज्ञानेश्वर ने मिताक्षरा में पन्द्रह प्रकार के दासों का उल्लेख किया है।
दासों के अधिकार और मुक्ति
प्राचीन भारतीय व्यवस्थाकारों ने दास प्रथा की आलोचना की है और मुक्ति के उपायों को सुझाया है। कौटिल्य और मनु दोनों ने कहा कि केवल शूद्र वर्ग के लोग दास बनाए जा सकते हैं, आर्य नहीं। प्राचीन भारतीय व्यवस्थाकार मानते हैं कि दास बनने वाले व्यक्ति आर्थिक कारणों से अपने स्वामी को पैसा देकर दासता से मुक्त हो सकते थे। यदि किसी के पास इतना पैसा नहीं होता था, तो उसे कुछ समय तक सेवा करने के बाद मुक्ति मिल सकती थी। इस सेवा को ही मूल्य माना जाता था। इसके अलावा, दासों को अपनी कमाई करने का अधिकार दिया जाता था, और उन्हें अपनी संपत्ति बनाने की अनुमति भी थी। वे अपनी पारिवारिक संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त कर सकते थे। इस पैसे का उपयोग वे अपनी मुक्ति के लिए कर सकते थे।
युद्ध में बंदी बनाए गए दासों को भी एक निश्चित समय तक सेवा करने या स्वामी पर खर्च हुए धन का आधा हिस्सा देने के बाद स्वतंत्र होने का अधिकार प्राप्त था। यदि कोई स्वामी दास को स्वतंत्र नहीं करता था, तो उसके लिए दंड की व्यवस्था की जाती थी। इसके अतिरिक्त, यदि दासी से पुत्र उत्पन्न होता था, तो दासी और उसके पुत्र को दासता से मुक्ति मिल जाती थी।
बौद्ध ग्रंथों में दासों की मुक्ति
बौद्ध ग्रंथ दिघ निकाय में दासों के लिए तीन प्रकार की मुक्ति के उपाय दिए गए हैं:
1. सन्यास ग्रहण कर लेना।
2. धन देकर मुक्ति प्राप्त करना।
3. स्वामी द्वारा स्वतंत्र कर दिए जाना।
दासों का जीवन
सोणनन्द जातक में कहा गया है कि अगर कोई मालिक सन्यास लेता है, तो उसके सभी दास स्वतंत्र हो जाते हैं। इसके अलावा, नारद के अनुसार, अगर कोई दास अपने स्वामी को बड़ी मुसीबत से बचाता है, तो उसे स्वतंत्रता का हक मिल जाता है। इसी तरह, याज्ञवल्क्य ने भी यह कहा कि अगर दास को कुछ धन दिया जाए, तो उसे मुक्ति मिल जाती है।
इसका मतलब यह है कि विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक विचारों के अनुसार, दासों को कभी न कभी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, चाहे वह मालिक के सन्यास लेने से हो, स्वामी की रक्षा करने से, या फिर उन्हें कुछ दिया जाए।
नारद ने कुछ विशेष प्रकार के दासों, जैसे उपहार में प्राप्त हुए, खरीदे गए, उत्तराधिकार में मिले हुए, या जिन्होंने खुद को बेच दिया हो, उनकी मुक्ति के लिए उनके स्वामियों की अनुमति अनिवार्य बताई है। इसके विपरीत, कौटिल्य के अनुसार, अगर कोई दास अपने स्वामी की इच्छा के विरुद्ध घर से भागता है, तो वह कभी भी मुक्ति प्राप्त करने का अधिकारी नहीं होता है।
यद्यपि प्राचीन व्यवस्थाकारों ने दास प्रथा की आलोचना की और इससे मुक्ति के लिए उपाय बताए, फिर भी यह स्पष्ट है कि समाज में घरेलू दासों को रखने की प्रथा बनी रही। ‘लेखपद्धति‘ नामक रचना में दासियों के कर्तव्यों का वर्णन किया गया है। इससे पता चलता है कि कभी-कभी स्वामियों के अत्याचार से तंग आकर दासियां जहर खाकर या कुएं में कूदकर आत्महत्या कर लेती थीं।
इसके अलावा, कुलीन परिवारों में दासों के साथ अन्य सेवक भी रहते थे। सेवक और दासों के कार्यों में फर्क था। सेवक केवल शुद्ध कार्य करते थे, जबकि दासों को झाड़ू लगाने, मैला साफ करने, और स्वामी की व्यक्तिगत सेवा जैसे निम्न कार्यों में लगाया जाता था।
निष्कर्ष
भारत में दास-प्रथा का अस्तित्व वैदिक युग से लेकर आधुनिक काल तक था, लेकिन यह प्राचीन यूनान और रोम की दास-प्रथा से काफी भिन्न थी। भारत में दासों को कुछ अधिकार और स्वाधीनता प्राप्त थी, जैसे वे अपनी मेहनत से संपत्ति अर्जित कर सकते थे और कई मामलों में मुक्ति प्राप्त कर सकते थे।
ब्रिटिश शासन के दौरान दास-प्रथा को समाप्त करने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए। 1807 में “अधिनियम 1807” के माध्यम से दास व्यापार को अवैध कर दिया गया, और फिर 1833 में “दासों की मुक्ति अधिनियम” (Slavery Abolition Act) द्वारा 1834 से ब्रिटिश साम्राज्य के सभी दासों को स्वतंत्रता प्रदान की गई। इसके बाद, 1843 में गर्वनर जनरल लॉर्ड ऐलनबरो के समय “भारतीय दास प्रथा अधिनियम” के द्वारा पूरे भारत में दास-प्रथा को अवैध घोषित किया गया। इस प्रकार, ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत से धीरे-धीरे दास-प्रथा को समाप्त किया।