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प्राचीन काल में गुरुकुल |
प्राचीन वैदिक काल में जहां शिक्षा का उद्देश्य मुख्यतः धर्म और वेदों का अध्ययन था, वहीं बौद्धकाल में बहु-विषयक विश्वविद्यालयों का विकास हुआ, जिसने भारत को वैश्विक शिक्षा के केंद्र के रूप में स्थापित किया। मध्यकाल में मुस्लिम शासकों ने मदरसा प्रणाली को प्रचलित किया, जिससे इस्लामी विज्ञान और साहित्य को बढ़ावा मिला। फिर, औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश शिक्षा नीति के तहत पश्चिमी विचारधारा और विज्ञान की शुरुआत हुई, जिससे आधुनिक शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ।
राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान शिक्षा को स्वदेशी दृष्टिकोण से देखने की मांग उठी, जिसमें महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर जैसी हस्तियों ने योगदान दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों के माध्यम से शिक्षा में सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए। आज, भारत में विश्वविद्यालयों और डिजिटल शिक्षा के माध्यम से आधुनिक शिक्षा का विस्तार हो रहा है, लेकिन इसके साथ ही शैक्षिक असमानता, ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की पहुंच, और कौशल आधारित शिक्षा जैसी चुनौतियाँ भी सामने हैं।
इस ऐतिहासिक यात्रा का विश्लेषण हमें न केवल भारत की शिक्षा प्रणाली के विकास को समझने का अवसर देता है, बल्कि इसके भविष्य के लिए एक दिशा भी प्रदान करता है।
प्राचीन भारत: वैदिक काल और गुरुकुल परंपरा
गुरुकुल प्रणाली का परिचय
प्राचीन भारत में शिक्षा का आरंभ गुरुकुल प्रणाली से हुआ था, जो वैदिक काल में विकसित हुई। इस प्रणाली का केंद्र बिंदु ‘गुरु’ होता था, जो अपने शिष्यों को आश्रम में निवास कराकर शिक्षा प्रदान करता था। यह शिक्षा केवल बौद्धिक ज्ञान तक सीमित नहीं थी, बल्कि जीवन के हर पहलू जैसे नैतिकता, व्यवहार, और समाज के प्रति दायित्वों को भी समाहित करती थी। यह व्यवस्था पारिवारिक वातावरण में चलती थी, जहां विद्यार्थी अपने गुरु के साथ-साथ रहते और उनकी सेवा करते हुए शिक्षा ग्रहण करते थे।
मुख्य शिक्षा विषय और अध्ययन पद्धति
गुरुकुल में पढ़ाए जाने वाले मुख्य विषय थे वेद, धर्म, शास्त्र, और उपनिषद। वेदों को भारतीय ज्ञान का प्रमुख स्रोत माना जाता था, जोकि जीवन के विविध पहलुओं पर आधारित होते थे। चार प्रमुख वेद—ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद—प्राचीन शिक्षा का मूल थे।
– वेदों का अध्ययन:
ऋग्वेद में धार्मिक स्तुति और मंत्र, यजुर्वेद में यज्ञ और कर्मकांड, सामवेद में संगीत और भक्ति, और अथर्ववेद में जादू-टोना, चिकित्सा और घरेलू जीवन से संबंधित शिक्षाएं होती थीं। उदाहरण के लिए, सामवेद में गीत-संगीत के माध्यम से आध्यात्मिकता की शिक्षा दी जाती थी, जिससे आगे चलकर भारतीय शास्त्रीय संगीत का विकास हुआ।
विज्ञान और गणित
हालांकि गुरुकुल प्रणाली धार्मिक शिक्षा पर आधारित थी, लेकिन इसमें विज्ञान, गणित, और खगोलशास्त्र का भी महत्वपूर्ण स्थान था।
– गणित:
प्राचीन भारतीय गणितज्ञ जैसे बोधायन, जिन्होंने पायथागोरस प्रमेय को उससे पहले बताया था, गुरुकुलों में पले-बढ़े थे। बोधायन ने ज्यामिति के सिद्धांत दिए, जिनका उपयोग यज्ञ वेदियों के निर्माण में होता था। शुल्ब सूत्रों में ऐसी विधियों का उल्लेख मिलता है जो वर्तमान में गणित के सिद्धांत माने जाते हैं।
– खगोलशास्त्र:
वेदांग ज्योतिष, खगोलशास्त्र का अध्ययन करने का प्राचीन भारतीय तरीका था। इसमें तारों की स्थिति, ग्रहों की चाल, और सूर्य-चंद्रमा की गति का अध्ययन किया जाता था। आर्यभट्ट और वराहमिहिर जैसे विद्वानों ने गुरुकुल शिक्षा में प्रशिक्षित होकर खगोलशास्त्र में अद्वितीय योगदान दिया।
शिक्षा पद्धति और मौखिक परंपरा
गुरुकुल में शिक्षा का प्रमुख आधार मौखिक परंपरा थी। शिष्य गुरु से सीधे सुनकर ज्ञान प्राप्त करते थे और उसे अपने स्मरण में रखते थे। इस प्रकार की शिक्षा को ‘श्रुति’ कहा जाता था, जिसमें शिष्य सुनकर याद करते थे और बाद में उसे दोहराते थे। यह प्रणाली एक मजबूत स्मृति प्रणाली पर आधारित थी, और इसे परिष्कृत करने के लिए विशेष विधियां थीं, जैसे ‘जप’, ‘अनुशासन’, और ‘ध्यान’। उदाहरण के लिए, नालंदा विश्वविद्यालय में हजारों विद्यार्थियों को मौखिक परंपरा से शिक्षा दी जाती थी, जिसमें बौद्ध ग्रंथ और विभिन्न विषयों का अध्ययन शामिल था।
गुरुकुल की समाज में भूमिका
गुरुकुल प्रणाली समाज के विभिन्न वर्गों को जोड़ने का एक माध्यम भी थी। ब्राह्मण वर्ग के शिष्य वेद और शास्त्रों का अध्ययन करते थे, जबकि क्षत्रिय वर्ग युद्ध कला और राज्यशास्त्र का अभ्यास करता था। राजकुमार और योद्धाओं को युद्धकला, धनुर्विद्या, और राजनीति की शिक्षा दी जाती थी। इसके अलावा, वैश्य वर्ग व्यापार, कृषि, और समाज के आर्थिक तंत्र की शिक्षा प्राप्त करता था। उदाहरण के लिए, चंद्रगुप्त मौर्य, जो महान साम्राज्य निर्माता बने, उन्हें तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा मिली थी।
सांस्कृतिक और नैतिक शिक्षा
गुरुकुल केवल बौद्धिक विकास का केंद्र नहीं था, बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों का भी सुदृढ़ आधार था। गुरु-शिष्य परंपरा में विशेष ध्यान शिष्यों के आचरण और नैतिक मूल्यों पर दिया जाता था। शिष्य गुरु के प्रति आदर, सेवा, और समर्पण का भाव रखते थे। गुरु का कर्तव्य था कि वह शिष्य को न केवल शास्त्रों का ज्ञान दे, बल्कि उसे एक जिम्मेदार, नैतिक, और धर्मनिष्ठ व्यक्ति बनाए। उदाहरण के लिए, पाणिनि जैसे विद्वान जो संस्कृत व्याकरण के महान ज्ञाता बने, उन्होंने गुरुकुल प्रणाली में रहकर शिक्षा प्राप्त की थी।
वैदिक काल की गुरुकुल शिक्षा प्रणाली भारतीय समाज की जड़ों में गहराई से समाहित थी। यह शिक्षा प्रणाली आज की आधुनिक शिक्षा की नींव बनी। गुरुकुल प्रणाली ने समाज में नैतिक, आध्यात्मिक, और सांस्कृतिक मूल्यों का विकास किया, जो आज भी भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं। प्राचीन भारत में यह शिक्षा प्रणाली न केवल बुद्धिजीवी पैदा करती थी, बल्कि समाज के लिए नैतिक और जिम्मेदार नागरिक भी तैयार करती थी। उदाहरणस्वरूप, चाणक्य और उनके शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य का गुरुकुल शिक्षा में तैयार किया गया कौशल और नीति ने मौर्य साम्राज्य की नींव रखी।
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तक्षशिला में 15 मीटर ऊँचा धर्मराजिका स्तूप |
महाजनपद और बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली
तक्षशिला विश्वविद्यालय का योगदान
तक्षशिला, जिसे दुनिया का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय माना जाता है, महाजनपद काल में शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। तक्षशिला आज के पाकिस्तान में स्थित था और यह एक प्रमुख व्यापारिक मार्ग पर स्थित होने के कारण शिक्षा और ज्ञान का केंद्र बन गया था। यहां पर विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जाती थी, जैसे कि राजनीति, अर्थशास्त्र, खगोलशास्त्र, सैन्य विज्ञान, और चिकित्सा। महान आचार्य चाणक्य, जिन्होंने मौर्य साम्राज्य की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, तक्षशिला में ही राजनीति और अर्थशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी। उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ तक्षशिला की बहु-विषयक शिक्षा प्रणाली का प्रमाण है।
– चिकित्सा शिक्षा:
तक्षशिला में चिकित्सा शिक्षा भी प्रदान की जाती थी, और इस शिक्षा का प्रमुख केंद्र आचार्य जीवक थे, जिन्होंने चिकित्सा विज्ञान में महान योगदान दिया। बौद्ध ग्रंथों में उनका उल्लेख मिलता है कि वे राजाओं के निजी चिकित्सक थे और उन्होंने कई जटिल शल्य चिकित्सा की थी।
नालंदा विश्वविद्यालय का उत्कर्ष
नालंदा विश्वविद्यालय बौद्धकालीन शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र माना जाता है। यह विश्वविद्यालय 5वीं शताब्दी में गुप्त राजवंश के शासक कुमारगुप्त द्वारा स्थापित किया गया था। नालंदा का महत्व केवल भारत तक सीमित नहीं था; यह एक अंतरराष्ट्रीय शिक्षा केंद्र था, जहां चीन, तिब्बत, श्रीलंका, कोरिया, जापान, और दक्षिण-पूर्व एशिया से भी विद्यार्थी अध्ययन करने आते थे।
– विषय सामग्री:
नालंदा में शिक्षा का दायरा बहुत व्यापक था। यहां धर्म, दर्शन, तर्कशास्त्र, खगोलशास्त्र, आयुर्वेद, योग, और कला जैसे विषयों में शिक्षा दी जाती थी। बौद्ध धर्म के साथ-साथ अन्य धर्मों और संस्कृतियों के अध्ययन के लिए भी यह केंद्र महत्वपूर्ण था।
– महत्वपूर्ण विद्वान:
नालंदा ने कई महान विद्वानों को जन्म दिया, जिनमें नागार्जुन और आर्यभट्ट प्रमुख थे। नागार्जुन को महायान बौद्ध दर्शन का संस्थापक माना जाता है, जबकि आर्यभट्ट ने गणित और खगोलशास्त्र में क्रांतिकारी योगदान दिया।
– विदेशी विद्वानों का योगदान:
नालंदा में अध्ययन करने वाले विदेशी विद्वानों में चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनसांग और इत्सिंग प्रमुख थे। उन्होंने नालंदा में अध्ययन किया और अपनी यात्राओं के दौरान भारतीय शिक्षा प्रणाली के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी चीन में पहुंचाई। ह्वेनसांग ने नालंदा में बौद्ध धर्म और भारतीय संस्कृति के अध्ययन पर गहन शोध किया और अपने अनुभवों को ‘सि यू की‘ (बुद्ध की यात्रा) में लिखा।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय का विशेष स्थान
विक्रमशिला विश्वविद्यालय बौद्ध शिक्षा का एक और महत्वपूर्ण केंद्र था, जिसे पाल राजवंश के राजा धर्मपाल (8वीं शताब्दी) द्वारा स्थापित किया गया था। यह विश्वविद्यालय तंत्र और तांत्रिक शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था। विक्रमशिला ने बौद्ध धर्म के साथ-साथ तांत्रिक बौद्ध धर्म (वज्रयान) के अध्ययन के लिए विशेष स्थान अर्जित किया।
– शिक्षा का प्रसार:
यहां पर बौद्ध दर्शन, व्याकरण, तर्कशास्त्र, चिकित्सा, और खगोलशास्त्र के साथ-साथ तंत्रविद्या और तांत्रिक साधनाओं का अध्ययन किया जाता था। इसके विद्वानों ने शिक्षा का प्रचार-प्रसार तिब्बत और नेपाल तक किया।
– विद्वान शिक्षक:
अतीशा, जो विक्रमशिला के प्रमुख शिक्षक थे, ने तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार किया। उन्होंने बौद्ध धर्म के शिक्षा और आध्यात्मिक मूल्यों का प्रसार किया और तिब्बती बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान में अहम भूमिका निभाई। उनके तिब्बत में किए गए कार्यों ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की ख्याति को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ाया।
बौद्धकालीन शिक्षा में बहु-विषयक दृष्टिकोण
बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली का सबसे महत्वपूर्ण पहलू उसका बहु-विषयक दृष्टिकोण था। यहां धर्म के साथ-साथ वैज्ञानिक अध्ययन, कला, चिकित्सा, और खगोलशास्त्र को भी प्राथमिकता दी जाती थी।
– धर्म और दर्शन:
बौद्ध धर्म के साथ-साथ अन्य धर्मों और दार्शनिक विचारधाराओं का अध्ययन बौद्ध शिक्षा संस्थानों में किया जाता था। नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों ने केवल बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार तक सीमित न रहते हुए अन्य धार्मिक और दार्शनिक विचारों का भी अध्ययन कराया।
– कला और साहित्य:
बौद्ध शिक्षा में कला का विशेष स्थान था। मूर्तिकला, चित्रकला, और वास्तुकला का अध्ययन किया जाता था। अजन्ता और एलोरा की गुफाओं में बौद्ध कला के अद्वितीय उदाहरण देखे जा सकते हैं। साहित्यिक रूप से ‘जातक कथाएं’, जो बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियां हैं, इस काल की साहित्यिक धरोहर हैं।
– विज्ञान और चिकित्सा:
नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों में चिकित्सा का गहन अध्ययन होता था। आयुर्वेद और शल्य चिकित्सा की कई विधाएं यहां पढ़ाई जाती थीं। सुश्रुत और चरक जैसे प्राचीन भारतीय चिकित्सकों के ग्रंथों का भी अध्ययन होता था। इन चिकित्सा संस्थानों ने प्राचीन भारत में चिकित्सा विज्ञान को समृद्ध किया और इसके प्रभाव को आगे आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाया।
बौद्ध शिक्षा का वैश्विक प्रभाव
बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली का प्रभाव केवल भारत तक सीमित नहीं था, बल्कि यह तिब्बत, चीन, जापान, कोरिया, और दक्षिण-पूर्व एशिया तक पहुंचा। बौद्ध धर्म के साथ-साथ शिक्षा का भी प्रसार इन देशों में हुआ, जिससे वहां की संस्कृतियों में गहरा परिवर्तन आया। तक्षशिला, नालंदा, और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों ने भारतीय शिक्षा को वैश्विक स्तर पर फैलाया और इसे उच्चतम शिखर पर पहुंचाया। तिब्बत में बौद्ध शिक्षा का प्रचार अतीशा द्वारा किया गया, जिन्होंने विक्रमशिला विश्वविद्यालय में अध्ययन किया था। अतीशा ने तिब्बती बौद्ध धर्म के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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दिल्ली के कुतुब कॉम्प्लेक्स मे अलाउद्दीन खिल्जी मदरसा, जिसे 14वीं शताब्दी में बनाया गया। |
मध्यकालीन भारत: मुस्लिम आक्रमण और मदरसा प्रणाली
प्रारंभिक मुस्लिम आक्रमण और शिक्षा का स्वरूप
भारत में मुस्लिम आक्रमण 8वीं शताब्दी में सिंध पर मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से शुरू हुआ। हालांकि, शिक्षा प्रणाली पर बड़ा प्रभाव 11वीं शताब्दी के बाद पड़ा, जब महमूद गज़नवी और उसके बाद मुहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण किए। इन आक्रमणों के साथ, भारतीय शिक्षा प्रणाली में इस्लामी विचारधारा का प्रवेश हुआ, और शिक्षा के पारंपरिक केंद्र नष्ट हो गए या उनके स्थान पर नए इस्लामी संस्थान स्थापित हुए। उदाहरण के लिए, नालंदा विश्वविद्यालय, जो प्राचीन भारतीय शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र था, उसे 1193 ईस्वी में बख्तियार खिलजी ने नष्ट कर दिया था। इस घटना के बाद, इस्लामी शिक्षा प्रणाली का प्रभुत्व बढ़ा, और विभिन्न क्षेत्रों में मदरसों की स्थापना की गई। इल्तुतमिश (दिल्ली सल्तनत के प्रमुख शासकों में से एक) ने भी कई मदरसों की स्थापना की और उनकी देखरेख के लिए क़ाज़ियों और उलेमा को नियुक्त किया।
मदरसा प्रणाली का उदय
मुस्लिम आक्रमण के साथ भारत में मदरसा शिक्षा प्रणाली की स्थापना हुई। यह प्रणाली इस्लामी दुनिया में पहले से ही प्रचलित थी, और मुस्लिम शासकों ने इसे भारत में भी प्रोत्साहित किया। मदरसे मुख्य रूप से इस्लामी धर्मशास्त्र (फ़िक़ह), अरबी साहित्य, और कुरान की शिक्षा देने के लिए बनाए गए थे, लेकिन इसके साथ-साथ गणित, ज्योतिष, चिकित्सा, और विज्ञान के अन्य क्षेत्रों का भी अध्ययन किया जाता था।
दिल्ली का मदरसा-ए-मुइज़्ज़िया
दिल्ली सल्तनत के दौरान सबसे प्रसिद्ध मदरसों में से एक था मदरसा-ए-मुइज़्ज़िया, जिसकी स्थापना इल्तुतमिश ने की थी। यह मदरसा उस समय का प्रमुख शिक्षा केंद्र बना, जहां इस्लामी कानून, धर्मशास्त्र, तर्कशास्त्र, गणित, और खगोलशास्त्र की पढ़ाई होती थी। यहां से शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्वानों ने पूरे सल्तनत में विभिन्न प्रशासनिक और न्यायिक भूमिकाएँ निभाईं।
इस्लामी विज्ञान और गणित का प्रसार
मुस्लिम शासन के दौरान, इस्लामी विद्वानों ने विज्ञान और गणित के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। अरब और फारसी विद्वानों के कार्यों का अनुवाद भारतीय भाषाओं में किया गया और इसका प्रसार हुआ। इसके अलावा, भारतीय गणित और विज्ञान के क्षेत्र में भी कई अद्वितीय योगदान हुए, जिनका अध्ययन मदरसों में किया जाता था। प्रसिद्ध मुस्लिम गणितज्ञ अल-ख्वारिज्मी ने अलजेब्रा (बीजगणित) और अंकगणित के सिद्धांतों को विकसित किया, जिसका अनुवाद भारत में किया गया और यहां के विद्वानों ने इस पर काम किया। अल-ख्वारिज्मी के कार्यों ने भारतीय गणित में नई दिशा दी और गणितीय अध्ययन को एक नया आयाम दिया।
– खगोलशास्त्र:
इस्लामी खगोलशास्त्र का भी भारतीय विद्वानों पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस काल में मुस्लिम विद्वानों द्वारा विकसित खगोलशास्त्रीय उपकरणों और सिद्धांतों का अध्ययन मदरसों में किया गया। भारतीय खगोलशास्त्रियों ने इन सिद्धांतों को अपनी पारंपरिक खगोलशास्त्र के साथ समन्वयित किया, जिससे इस क्षेत्र में नए विचारों का विकास हुआ।
धर्मशास्त्र और तर्कशास्त्र का अध्ययन
मदरसों में इस्लामी धर्मशास्त्र का विशेष रूप से अध्ययन किया जाता था। कुरान, हदीस, और फ़िक़ह (इस्लामी कानून) के अध्ययन को प्राथमिकता दी जाती थी। इसके साथ ही इस्लामी तर्कशास्त्र (कलाम) और दार्शनिक विचारधाराओं पर भी जोर दिया जाता था।
– धर्मशास्त्र का प्रभाव:
इस्लामी कानून और धर्मशास्त्र का अध्ययन उस समय की राजनीतिक और सामाजिक संरचना में भी महत्वपूर्ण था। मुस्लिम शासक अपनी शासन व्यवस्था में शरिया (इस्लामी कानून) का पालन करते थे, जिसके लिए मदरसे मुख्य रूप से शिक्षण का केंद्र बने। मदरसों में पढ़े हुए धर्मशास्त्री शासकों के सलाहकार होते थे और उन्हें न्याय और शासन के मामलों में मार्गदर्शन प्रदान करते थे।
मुस्लिम शासनकाल में शिक्षा का संरचना और समाज पर प्रभाव
मुस्लिम शासनकाल के दौरान शिक्षा ने केवल धार्मिक और सांस्कृतिक विकास को ही नहीं, बल्कि सामाजिक विकास को भी प्रेरित किया। मदरसा शिक्षा प्रणाली ने समाज में एक नई वर्ग संरचना को जन्म दिया, जहां उलेमा (इस्लामी विद्वान) समाज के उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित हुए।
– शिक्षा और प्रशासन:
मुस्लिम शासक शिक्षा को केवल धर्म तक सीमित नहीं रखते थे, बल्कि प्रशासनिक कार्यों में भी इसका उपयोग किया जाता था। फारसी भाषा प्रशासन की भाषा थी, और इसके साथ-साथ अरबी और संस्कृत का भी सरकारी कार्यों में प्रयोग होता था। इस कारण से मदरसों में इन भाषाओं का भी अध्ययन किया जाता था, ताकि प्रशासनिक अधिकारी और विद्वान तैयार किए जा सकें।
– समाज में शिक्षा का प्रसार:
मुस्लिम शासनकाल में शिक्षा का प्रसार समाज के हर वर्ग तक पहुंचने लगा। पहले की तुलना में अधिक लोगों को शिक्षा का अवसर मिला, विशेष रूप से मदरसों के माध्यम से। हालांकि, यह शिक्षा मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय के लिए अधिक उपलब्ध थी, लेकिन हिंदू और अन्य समुदायों के विद्वानों ने भी इससे लाभ उठाया।
फारसी और संस्कृत के बीच सांस्कृतिक सेतु
मध्यकालीन भारत में फारसी, अरबी, और संस्कृत के बीच अनुवाद कार्यों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। फारसी शासन की प्रमुख भाषा बनी, लेकिन संस्कृत को भी उच्च साहित्यिक और धार्मिक कार्यों के लिए सम्मानित किया गया। शेर शाह सूरी और अकबर जैसे शासकों के समय में अनुवाद कार्यों को बढ़ावा दिया गया। उदाहरण के लिए:
– अकबर के शासनकाल में संस्कृत ग्रंथों का फारसी में अनुवाद किया गया। विशेष रूप से महाभारत का अनुवाद ‘रज़्मनामा’ नाम से हुआ। इसके अलावा, उपनिषद और रामायण जैसे धार्मिक ग्रंथों का भी अनुवाद फारसी में हुआ।
– अकबर के दरबारी विद्वान अबुल फज़ल ने ‘आइने-अकबरी’ और ‘अकबरनामा’ जैसी ऐतिहासिक कृतियों की रचना की, जिसमें उन्होंने भारतीय समाज, प्रशासन, और संस्कृति का गहन वर्णन किया। ये रचनाएँ भारत के शिक्षा और समाजिक ढांचे को समझने के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती हैं।
शिक्षण पद्धति में बदलाव
मदरसों में शिक्षण पद्धति प्राचीन गुरुकुल प्रणाली से काफी अलग थी। गुरुकुलों में जहां शिक्षा का प्रमुख आधार मौखिक परंपरा और स्मृति थी, वहीं मदरसा प्रणाली लिखित ग्रंथों पर आधारित थी। इसमें व्याकरण, तर्कशास्त्र, गणित, ज्योतिष, चिकित्सा, और साहित्य के साथ-साथ धर्मशास्त्र का भी अध्ययन किया जाता था।
प्राचीन ज्ञान का संरक्षण और पुनरुत्थान
मध्यकालीन काल के मदरसों में भारतीय ज्ञान का भी अध्ययन किया गया। बगदाद के प्रसिद्ध हाउस ऑफ विजडम (Bayt al-Hikma) में भारतीय गणित और खगोलशास्त्र के कई ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया गया था। बाद में, इन अनुवादित ग्रंथों का भारतीय मदरसों में पुनः अध्ययन किया गया। भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त के कार्यों का इस्लामी विद्वानों ने व्यापक अध्ययन किया।
इस्लामी शिक्षण परंपरा में भारतीय योगदान
अल-बिरूनी और भारत का ज्ञान
11वीं शताब्दी में अल-बिरूनी, जो कि मध्य एशिया के एक प्रसिद्ध विद्वान थे, ने भारत की यात्रा की और यहाँ के गणित, खगोलशास्त्र, और दर्शन का अध्ययन किया। उन्होंने संस्कृत से कई ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया और उनकी रचना ‘किताब-उल-हिंद’ भारतीय शिक्षा और विज्ञान का अद्भुत वर्णन है। यह पुस्तक भारतीय सभ्यता और विज्ञान पर एक विस्तृत और सटीक अध्ययन मानी जाती है। अल-बिरूनी ने भारतीय ज्ञान और इस्लामी परंपराओं के बीच सेतु का काम किया।
नसीरुद्दीन तुसी और विज्ञान का विकास
13वीं शताब्दी के इस्लामी विद्वान नसीरुद्दीन तुसी ने खगोलशास्त्र और गणित के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके कार्यों ने न केवल इस्लामी दुनिया बल्कि भारत में भी शिक्षा के क्षेत्र को प्रभावित किया। तुसी का योगदान भारत के इस्लामी मदरसों में खगोलशास्त्र के अध्ययन में महत्वपूर्ण था।
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एंटोनी क्लॉडेट द्वारा लॉर्ड मैकाले की फोटोग्रेव्योर |
औपनिवेशिक काल: ब्रिटिश शिक्षा नीति और आधुनिक शिक्षा प्रणाली का विकास
औपनिवेशिक काल में भारत की शिक्षा प्रणाली में ब्रिटिश शासन के कारण बड़े बदलाव हुए। इस दौर में ब्रिटिश शिक्षा नीति का उद्देश्य न केवल प्रशासनिक जरूरतों को पूरा करना था, बल्कि भारतीय समाज को उनके हितों के अनुरूप ढालना भी था। इस प्रक्रिया में भारतीय शिक्षा प्रणाली में कई बदलाव आए, और आधुनिक शिक्षा प्रणाली की नींव रखी गई।
1813 का चार्टर एक्ट और अंग्रेज़ी शिक्षा की शुरुआत
1813 का चार्टर एक्ट भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा प्रणाली की नींव रखने वाला पहला महत्वपूर्ण कदम था। इस एक्ट के तहत ब्रिटिश सरकार ने शिक्षा को औपचारिक रूप से अपने नियंत्रण में लिया। इस एक्ट के प्रमुख बिंदु इस प्रकार थे:
1. शिक्षा के लिए धन का आवंटन:
चार्टर एक्ट ने शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए ब्रिटिश सरकार को वार्षिक 1 लाख रुपये का प्रावधान करने का निर्देश दिया। यह पहली बार था जब सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में धनराशि का आवंटन किया, हालांकि, प्रारंभिक वर्षों में इस राशि का उपयोग बेहद धीमी गति से हुआ।
2. धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का प्रारंभ:
इस एक्ट के तहत धर्मनिरपेक्ष शिक्षा के सिद्धांत को बढ़ावा दिया गया, जिसमें विशेष रूप से ईसाई मिशनरियों को भारतीयों के बीच धर्म प्रचार और शिक्षा का कार्य करने की अनुमति दी गई। इससे मिशनरी स्कूलों का प्रसार हुआ, और कई स्थानों पर धर्मनिरपेक्ष शिक्षा केंद्र स्थापित किए गए।
3. पूर्वी बनाम पश्चिमी शिक्षा की बहस:
चार्टर एक्ट के बाद, एक बड़ी बहस छिड़ी कि भारतीयों को शिक्षा किस भाषा में दी जानी चाहिए – संस्कृत और अरबी के माध्यम से पारंपरिक भारतीय शिक्षा या अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से पश्चिमी शिक्षा। इस बहस ने अगले दशक में ब्रिटिश शिक्षा नीति को प्रभावित किया।
1835 का मैकाले का मिनट
थॉमस बैबिंगटन मैकाले ने 1835 में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसे ‘मैकाले मिनट’ के नाम से जाना जाता है। यह रिपोर्ट औपनिवेशिक शिक्षा नीति में निर्णायक बदलाव का प्रतीक बनी। मैकाले ने भारतीयों के लिए अंग्रेज़ी शिक्षा की वकालत की और कहा कि भारतीय समाज को शिक्षित करने के लिए पश्चिमी शिक्षा और अंग्रेज़ी भाषा का ही प्रयोग होना चाहिए। मैकाले के मिनट के प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:
1. अंग्रेज़ी को शिक्षा की प्रमुख भाषा बनाना:
मैकाले ने स्पष्ट रूप से कहा कि भारतीयों को ‘अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षित करना’ बेहतर होगा। उन्होंने तर्क दिया कि अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से भारतीय समाज को पश्चिमी विज्ञान, साहित्य, और विचारधाराओं से परिचित कराया जा सकता है।
2. ‘क्लर्क’ की आवश्यकता:
ब्रिटिश प्रशासन के लिए प्रशिक्षित भारतीय क्लर्कों की आवश्यकता थी, जो भारतीयों के साथ संवाद कर सकें और ब्रिटिश कानूनों और व्यवस्थाओं को लागू करने में मदद कर सकें। मैकाले की शिक्षा नीति ने इस ‘क्लर्क वर्ग’ का निर्माण किया, जो औपनिवेशिक प्रशासन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया।
3. भारतीय साहित्य की आलोचना:
मैकाले ने भारतीय साहित्य, दर्शन, और विज्ञान को ‘अप्रासंगिक’ और ‘अप्रचलित’ कहकर खारिज किया। उन्होंने कहा कि पश्चिमी शिक्षा भारतीयों को आधुनिक विचारधारा से जोड़ने के लिए अधिक प्रभावी होगी।
अंग्रेज़ी शिक्षा का प्रसार
मैकाले के मिनट के बाद अंग्रेज़ी भाषा में शिक्षा का प्रसार तेजी से हुआ। इस नीति के अंतर्गत स्थापित किए गए स्कूल और कॉलेज भारतीयों को पश्चिमी विचारधारा, विज्ञान, गणित, और दर्शन से परिचित कराने लगे। परिणामस्वरूप, 19वीं सदी के मध्य तक अंग्रेज़ी माध्यम शिक्षा भारतीय समाज के उच्च वर्गों में एक प्रतिष्ठित विकल्प बन गई।
1854 का वुड का डिस्पैच
चार्ल्स वुड द्वारा 1854 में तैयार किए गए वुड डिस्पैच को भारतीय शिक्षा का ‘मैग्ना कार्टा’ कहा जाता है। इसमें ब्रिटिश सरकार की शिक्षा नीति को व्यापक रूप से विस्तृत किया गया। इस डिस्पैच के प्रमुख बिंदु निम्नलिखित थे:
1. स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा का प्रसार:
वुड डिस्पैच ने पूरे भारत में शिक्षा के प्रसार के लिए प्राथमिक, माध्यमिक, और उच्च शिक्षा की व्यवस्था की अनुशंसा की। इसमें स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर शिक्षा के विस्तार की योजना बनाई गई, ताकि भारतीय समाज को आधुनिक ज्ञान से सशक्त किया जा सके।
2. महिला शिक्षा:
वुड डिस्पैच ने विशेष रूप से महिला शिक्षा के महत्व पर जोर दिया और सरकार से आग्रह किया कि वह महिला शिक्षा के प्रसार के लिए प्रयास करे। इसके परिणामस्वरूप महिला शिक्षा के लिए स्कूलों और मिशनरी संस्थानों की स्थापना की गई।
3. सरकारी नियंत्रण और निजी सहभागिता:
वुड डिस्पैच ने शिक्षा को सरकारी नियंत्रण में रखने के साथ-साथ निजी संस्थानों, विशेषकर मिशनरियों, के सहयोग से शिक्षा का प्रसार करने का प्रावधान किया।
विश्वविद्यालयों की स्थापना (1857)
1857 का वर्ष भारतीय शिक्षा प्रणाली के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इसी वर्ष ब्रिटिश सरकार ने भारत में तीन प्रमुख विश्वविद्यालयों की स्थापना की:
1. कलकत्ता विश्वविद्यालय:
भारत का पहला आधुनिक विश्वविद्यालय कलकत्ता में स्थापित किया गया, जो उच्च शिक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। यह विश्वविद्यालय अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा प्रदान करता था और पश्चिमी विचारों के साथ-साथ विज्ञान और कला में स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा प्रदान करने लगा।
2. मद्रास विश्वविद्यालय:
इसी वर्ष मद्रास (चेन्नई) में भी एक विश्वविद्यालय की स्थापना की गई, जिसने दक्षिण भारत में शिक्षा का प्रसार किया। यह विश्वविद्यालय भी अंग्रेज़ी माध्यम में शिक्षा प्रदान करता था और इसका उद्देश्य भी भारतीयों को आधुनिक प्रशासन और व्यापारिक जरूरतों के लिए तैयार करना था।
3. बॉम्बे विश्वविद्यालय:
बॉम्बे (मुंबई) में स्थापित विश्वविद्यालय ने पश्चिमी भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस विश्वविद्यालय के माध्यम से अंग्रेज़ी, विज्ञान, गणित, और आधुनिक प्रशासनिक शिक्षा का प्रसार हुआ।
ब्रिटिश शिक्षा नीति के प्रभाव
1. धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का विकास:
ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारतीय शिक्षा प्रणाली में धर्मनिरपेक्षता का बड़ा योगदान रहा। शिक्षा को धर्म और जाति से मुक्त करने के प्रयासों के तहत पश्चिमी विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर जोर दिया गया, जिससे भारतीय समाज में नए विचारों और तर्कों का प्रसार हुआ।
2. भारतीय समाज पर प्रभाव:
ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली ने भारतीय समाज के मध्य वर्ग में एक बड़ा बदलाव किया। अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त करने वाले भारतीयों ने नए विचारों और राजनीतिक चेतना को आत्मसात किया, जिससे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का उदय हुआ।
3. सामाजिक सुधार आंदोलन:
अंग्रेज़ी शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ भारतीय समाज में सामाजिक सुधार आंदोलनों का भी उदय हुआ। राजा राम मोहन राय और इश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे समाज सुधारक ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत शिक्षित हुए और उन्होंने बाल विवाह, सती प्रथा, और महिला शिक्षा के सुधारों के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए।
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शांतिनिकेतन |
राष्ट्रवादी आंदोलन और शिक्षा में सुधार
भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान शिक्षा प्रणाली में सुधार का एक अहम पहलू था। इस समय भारतीयों ने विदेशी शिक्षा प्रणाली के बजाय स्वदेशी दृष्टिकोण को अपनाने और भारतीय संस्कृति, परंपरा, और मूल्यों के आधार पर शिक्षा को विकसित करने की दिशा में कदम उठाए। राष्ट्रवादी नेताओं और विचारकों ने शिक्षा को राष्ट्रीय स्वतंत्रता और सामाजिक सुधार के साथ जोड़ा, जिससे यह आंदोलन और भी सशक्त हुआ।
स्वदेशी दृष्टिकोण और शिक्षा सुधार
राष्ट्रवादी आंदोलन के नेताओं ने महसूस किया कि अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली भारतीयों को उनके सांस्कृतिक मूल्यों से दूर कर रही है और पश्चिमी विचारधारा को बढ़ावा दे रही है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि भारतीयों को ऐसी शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए जो उनकी सांस्कृतिक पहचान, भाषा और इतिहास से जुड़ी हो। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, कई प्रमुख नेताओं और विचारकों ने शिक्षा प्रणाली में सुधार की वकालत की।
1. रवींद्रनाथ टैगोर: शांतिनिकेतन और विश्व भारती
रवींद्रनाथ टैगोर ने भारतीय शिक्षा में स्वदेशी दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने 1901 में शांतिनिकेतन की स्थापना की, जो शिक्षा और संस्कृति का एक अनूठा केंद्र बना। टैगोर ने इस संस्थान के माध्यम से पारंपरिक शिक्षा और पश्चिमी आधुनिकता का समन्वय करने की कोशिश की। उनका उद्देश्य छात्रों को भारतीय सांस्कृतिक विरासत के साथ जोड़ते हुए उनकी रचनात्मकता को बढ़ावा देना था।
टैगोर की शिक्षा प्रणाली में बच्चों को प्रकृति के साथ जोड़ने पर ज़ोर दिया गया। शांतिनिकेतन में कक्षाएं खुली हवा में, प्राकृतिक वातावरण के बीच आयोजित होती थीं। इसका उद्देश्य बच्चों को बौद्धिक और मानसिक रूप से मुक्त वातावरण देना था।
टैगोर ने छात्रों को केवल पुस्तकों तक सीमित रखने के बजाय उन्हें व्यावहारिक शिक्षा प्रदान करने पर जोर दिया। उनके अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्त करना नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक मूल्यों का विकास करना था। टैगोर का दृष्टिकोण भारतीय संस्कृति की गहरी समझ पर आधारित था, जिसमें शिक्षा को व्यक्तिगत और सामाजिक सुधार का एक साधन माना गया।
2. महात्मा गांधी: बुनियादी शिक्षा और नैतिकता
महात्मा गांधी ने भारतीय शिक्षा प्रणाली में स्वदेशी मॉडल को अपनाने की आवश्यकता पर जोर दिया। उनके अनुसार, अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली भारत की वास्तविक जरूरतों को पूरा नहीं करती थी। उन्होंने नई तालीम या बुनियादी शिक्षा (Basic Education) की वकालत की, जिसका उद्देश्य बच्चों को आत्मनिर्भर और समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनाना था।
गांधीजी की नई तालीम में बच्चों को शारीरिक श्रम और व्यावसायिक शिक्षा से जोड़ने पर जोर दिया गया। उनका मानना था कि शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसे व्यावहारिक जीवन में उपयोगी होना चाहिए। छात्रों को कुटीर उद्योगों और हस्तशिल्प का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे समाज में अपनी भूमिका निभा सकें।
गांधीजी ने यह भी कहा कि शिक्षा को भारतीय भाषाओं में प्रदान किया जाना चाहिए ताकि छात्रों को अपनी जड़ों से जुड़ने का मौका मिले। उनका मानना था कि अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली भारतीय बच्चों को उनकी संस्कृति और परंपरा से अलग कर रही है।
गांधीजी के लिए शिक्षा का मुख्य उद्देश्य केवल बुद्धि का विकास नहीं था, बल्कि नैतिकता, सत्य, और अहिंसा के मूल्यों को भी बढ़ावा देना था। उन्होंने शिक्षा को आध्यात्मिक उन्नति और समाज सेवा का माध्यम माना।
3. मदन मोहन मालवीय: बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU)
मदन मोहन मालवीय ने शिक्षा को भारतीय राष्ट्रवाद से जोड़ने के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) की स्थापना की। मालवीय का विचार था कि शिक्षा भारतीय युवाओं को राष्ट्र निर्माण के लिए तैयार करने का एक सशक्त माध्यम होनी चाहिए। BHU की स्थापना 1916 में वाराणसी में हुई, और इसका उद्देश्य भारतीय संस्कृति, विज्ञान, और आधुनिक शिक्षा का समन्वय करना था।
BHU ने सभी वर्गों और समुदायों के छात्रों को समान शिक्षा प्रदान करने पर जोर दिया। विश्वविद्यालय ने भारतीय संस्कृति और परंपराओं के साथ-साथ पश्चिमी विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भी शिक्षा प्रदान की।
मालवीय जी का मानना था कि शिक्षा को राष्ट्रीयता और समाज सुधार के साथ जोड़ना आवश्यक है। उन्होंने भारतीय युवाओं को सामाजिक सुधारों, स्वराज, और स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरित किया।
विश्वविद्यालयों की स्थापना और शिक्षा का विस्तार
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU)
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) की स्थापना 1920 में हुई। यह विश्वविद्यालय भारतीय मुस्लिम समाज को आधुनिक शिक्षा प्रदान करने का एक प्रमुख केंद्र बना। इसके संस्थापक सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की थी, जो आगे चलकर AMU में परिवर्तित हुआ।
AMU ने मुस्लिम समाज के छात्रों को पश्चिमी विज्ञान, गणित, और आधुनिक प्रशासनिक ज्ञान से परिचित कराया। इसके साथ ही, यहां इस्लामी शिक्षा और साहित्य का भी अध्ययन होता था। इस विश्वविद्यालय ने भारतीय मुस्लिम समाज में आधुनिकता और राष्ट्रवाद के विचारों को बढ़ावा दिया।
सर सैयद अहमद खान ने AMU के माध्यम से मुस्लिम समाज में शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने का कार्य किया। उनका उद्देश्य मुस्लिम समाज को आधुनिक ज्ञान से सशक्त करना था ताकि वे भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभा सकें।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU)
BHU की स्थापना के साथ, शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान का प्रसार नहीं था, बल्कि छात्रों को भारतीय समाज की आवश्यकताओं के अनुसार तैयार करना था। मालवीय का मानना था कि भारतीय छात्रों को विज्ञान, कला, और तकनीकी ज्ञान प्राप्त करना चाहिए ताकि वे समाज में अपनी भूमिका निभा सकें।
राष्ट्रवादी आंदोलन में शिक्षा का प्रभाव
राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान शिक्षा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रमुख भूमिका निभाई। स्वदेशी शिक्षा संस्थानों ने भारतीय युवाओं को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया और उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ खड़े होने के लिए प्रेरित किया। इन शिक्षा संस्थानों ने भारतीय युवाओं में राष्ट्रीयता की भावना को जगाया और उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी के लिए प्रेरित किया।
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भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर (IIT खड़गपुर) |
स्वतंत्र भारत: राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों का विकास
भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, शिक्षा को विकास का मुख्य साधन मानते हुए कई महत्वपूर्ण नीतियाँ और सुधार लागू किए गए। इन सुधारों का उद्देश्य एक समावेशी, आधुनिक, और व्यावसायिक शिक्षा प्रणाली का निर्माण करना था, ताकि भारतीय युवा न केवल आत्मनिर्भर बनें, बल्कि वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकें। शिक्षा में सुधार के लिए विभिन्न आयोगों और नीतियों का गठन किया गया, जिनमें राधाकृष्णन आयोग (1948), कोठारी आयोग (1968), 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति, और 2020 की नई शिक्षा नीति (NEP 2020) प्रमुख थे।
राधाकृष्णन आयोग (1948-49): उच्च शिक्षा में सुधार
1948 में स्वतंत्रता के बाद, राधाकृष्णन आयोग का गठन किया गया था, जिसका उद्देश्य भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली में सुधार करना था। यह आयोग उच्च शिक्षा को आधुनिक बनाने और युवाओं को व्यावसायिक शिक्षा के साथ नैतिक और सांस्कृतिक शिक्षा प्रदान करने के लिए स्थापित किया गया था।
– विश्वविद्यालयों का पुनर्गठन:
आयोग ने सिफारिश की कि भारतीय विश्वविद्यालयों में बहु-विषयक शिक्षा होनी चाहिए। इसका मुख्य उद्देश्य शिक्षा को पश्चिमी मॉडल से अलग रखते हुए भारतीय मूल्यों और परंपराओं पर आधारित बनाना था।
– शिक्षक प्रशिक्षण:
शिक्षकों के प्रशिक्षण पर विशेष जोर दिया गया। आयोग ने शिक्षकों के लिए बेहतर वेतन, प्रशिक्षण और अनुसंधान में अवसर बढ़ाने की सिफारिश की ताकि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हो सके।
– धार्मिक और नैतिक शिक्षा:
आयोग ने शिक्षा में नैतिक और धार्मिक मूल्यों के समावेश की वकालत की। इसका उद्देश्य शिक्षा को केवल पेशेवर ज्ञान तक सीमित न रखकर, चरित्र निर्माण का भी माध्यम बनाना था।
कोठारी आयोग (1964-66) और 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति: समग्र सुधार
कोठारी आयोग (1964-66) ने शिक्षा के सभी स्तरों में व्यापक सुधार की सिफारिश की। यह आयोग भारतीय शिक्षा को वैज्ञानिक, तकनीकी, और व्यावसायिक रूप से सक्षम बनाने के उद्देश्य से गठित किया गया था। इसकी सिफारिशों पर 1968 की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की गई।
– समान शिक्षा:
कोठारी आयोग ने प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक समान शिक्षा प्रणाली की वकालत की, जिससे समाज के सभी वर्गों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सके। इसका उद्देश्य शिक्षा को समावेशी बनाना था, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों और पिछड़े वर्गों के लिए।
– तीन-भाषा नीति:
आयोग ने तीन-भाषा नीति (मातृभाषा, हिंदी, और अंग्रेजी) की सिफारिश की, जिसका उद्देश्य भाषाई विविधता को प्रोत्साहित करना था। इससे छात्रों में राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक समझ को बढ़ावा देने का प्रयास किया गया।
– व्यावसायिक शिक्षा:
तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया। आयोग ने तकनीकी संस्थानों और व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना की सिफारिश की, ताकि भारतीय युवा तकनीकी रूप से कुशल बन सकें।
1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 1986): समावेशी और व्यावसायिक शिक्षा
1986 में भारत की दूसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 1986) लागू की गई, जिसका उद्देश्य शिक्षा में समता और गुणवत्ता सुनिश्चित करना था। इसमें खासकर हाशिए पर मौजूद समुदायों, महिलाओं, और पिछड़े वर्गों के लिए शिक्षा को सुलभ बनाना था।
– सर्व शिक्षा अभियान:
NEP 1986 के तहत प्रारंभिक शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान शुरू किया गया, जिसका उद्देश्य प्रत्येक बच्चे को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना था।
– महिला शिक्षा पर जोर:
इस नीति ने महिलाओं के लिए शिक्षा को बढ़ावा दिया और महिला शिक्षा के लिए विशेष योजनाएं लागू कीं, जैसे कि महिला बाल विकास विभाग द्वारा संचालित योजनाएं।
– राष्ट्रीय साक्षरता मिशन:
NEP 1986 के अंतर्गत राष्ट्रीय साक्षरता मिशन (National Literacy Mission) की शुरुआत की गई, जिसका लक्ष्य 15-35 आयु वर्ग के लोगों को साक्षर बनाना था। इस मिशन ने ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में साक्षरता दर को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
2020 की नई शिक्षा नीति (NEP 2020): 21वीं सदी के लिए शिक्षा का पुनर्गठन
नई शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020) भारतीय शिक्षा में अब तक का सबसे बड़ा सुधार है। इसका उद्देश्य शिक्षा को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के योग्य बनाना और भारतीय युवाओं को व्यावसायिक, नैतिक, और बौद्धिक रूप से समृद्ध बनाना है।
– 5+3+3+4 संरचना:
NEP 2020 ने पुराने 10+2 मॉडल को बदलकर 5+3+3+4 संरचना को अपनाया। इस मॉडल के तहत बच्चों को पाँच साल की प्रारंभिक शिक्षा, तीन साल की मध्य शिक्षा, तीन साल की माध्यमिक शिक्षा, और चार साल की उच्च माध्यमिक शिक्षा प्रदान की जाती है। इस संरचना का उद्देश्य बच्चों के शुरुआती वर्षों में बौद्धिक विकास को बढ़ावा देना है।
– मल्टी-डिसिप्लिनरी शिक्षा:
नई नीति के तहत छात्रों को विभिन्न विषयों का चयन करने की स्वतंत्रता दी गई है, जिससे वे अपनी रुचियों के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर सकें। इसका उद्देश्य छात्रों के व्यावसायिक कौशल का विकास करना और शिक्षा को अधिक लचीला बनाना है।
– मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा:
NEP 2020 ने प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा का उपयोग करने की सिफारिश की। इसका उद्देश्य बच्चों को उनके सांस्कृतिक और भाषाई परिवेश से जोड़ना है, जिससे उनके बौद्धिक विकास में सहायता मिले।
– शिक्षा का डिजिटलीकरण:
NEP 2020 ने ऑनलाइन शिक्षा और डिजिटल लर्निंग को बढ़ावा दिया। इसके तहत डिजिटल प्लेटफॉर्म्स जैसे कि दीक्षा और स्वयं का विकास किया गया, जिससे छात्रों को डिजिटल माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिले। विशेष रूप से ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों में यह कदम क्रांतिकारी साबित हुआ।
– कौशल विकास और व्यावसायिक शिक्षा:
नई नीति ने छात्रों के कौशल विकास पर विशेष जोर दिया। इसके तहत व्यावसायिक शिक्षा को औपचारिक शिक्षा प्रणाली का हिस्सा बनाया गया, ताकि छात्रों को व्यावहारिक जीवन में उपयोगी कौशल सिखाया जा सके।
आधुनिक विश्वविद्यालयों और डिजिटल शिक्षा का उदय
भारत में शिक्षा का एक नया युग आधुनिक विश्वविद्यालयों और डिजिटल तकनीक के साथ आया। स्वतंत्रता के बाद, शिक्षा के क्षेत्र में जो सबसे बड़े और महत्वपूर्ण बदलाव देखे गए, उनमें उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी संस्थानों की स्थापना और डिजिटल शिक्षा का क्रांतिकारी उदय था। भारत में शिक्षा के इस नए चरण ने न केवल विज्ञान, प्रौद्योगिकी, और प्रबंधन शिक्षा के क्षेत्र में दुनिया भर में अपनी पहचान बनाई, बल्कि वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी मानव संसाधन का भी निर्माण किया।
आधुनिक विश्वविद्यालयों का विकास: IITs और IIMs का योगदान
स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने उच्च शिक्षा को सशक्त और प्रतिस्पर्धात्मक बनाने के लिए कई अग्रणी संस्थानों की स्थापना की, जिनका उद्देश्य विज्ञान, प्रौद्योगिकी, और प्रबंधन के क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त करना था। इसमें सबसे प्रमुख भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IITs) और भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIMs) का विकास है।
– IITs:
1950 और 1960 के दशकों में, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की स्थापना की गई। पहला IIT 1951 में खड़गपुर में स्थापित किया गया। इसके बाद, बॉम्बे (1958), मद्रास (1959), कानपुर (1959), और दिल्ली (1961) में अन्य IITs स्थापित हुए। इन संस्थानों का उद्देश्य इंजीनियरिंग और तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में विश्वस्तरीय शिक्षा प्रदान करना था। आज, IITs भारत के सर्वोच्च इंजीनियरिंग संस्थान माने जाते हैं, और यहाँ से पढ़े हुए छात्र न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी प्रौद्योगिकी और विज्ञान के क्षेत्र में उच्च पदों पर हैं।
– IIMs:
प्रबंधन शिक्षा में गुणवत्ता प्रदान करने के उद्देश्य से भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIMs) की स्थापना की गई। 1961 में IIM कलकत्ता और IIM अहमदाबाद की स्थापना की गई, जो भारत में प्रबंधन शिक्षा के प्रमुख केंद्र बने। इनके बाद 1973 में IIM बेंगलुरु की स्थापना की गई। इन संस्थानों ने भारत को प्रबंधन के क्षेत्र में वैश्विक मंच पर अग्रणी स्थान दिलाया। IIMs से निकले छात्र प्रमुख कंपनियों और संगठनों के नेतृत्व में भूमिका निभाते हैं।
डिजिटल शिक्षा का उदय:
ऑनलाइन शिक्षा और ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म तकनीकी विकास ने भारत की शिक्षा प्रणाली में एक नई क्रांति लाई है, जिसमें डिजिटल शिक्षा और ऑनलाइन लर्निंग प्लेटफॉर्म्स ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इंटरनेट और तकनीकी उपकरणों की बढ़ती पहुंच ने शिक्षा को नए आयाम दिए हैं, जिससे छात्र अब कहीं से भी, किसी भी समय, किसी भी विषय की शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं।
– ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म:
भारत में डिजिटल शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कई ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म विकसित किए गए हैं। इनमें प्रमुख रूप से स्वयं (SWAYAM), दीक्षा (DIKSHA), नेशनल डिजिटल लाइब्रेरी (NDLI) और कोर्सेरा (Coursera) जैसे प्लेटफार्म शामिल हैं। ये प्लेटफार्म विभिन्न विषयों में उच्च गुणवत्ता वाली सामग्री और पाठ्यक्रम प्रदान करते हैं, जिनका उद्देश्य छात्रों को सुलभ और किफायती शिक्षा देना है।
– राष्ट्रीय डिजिटल शिक्षा आर्किटेक्चर (NDEAR):
शिक्षा के डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने के लिए NDEAR का विकास किया गया, जो एकीकृत डिजिटल संरचना के माध्यम से शिक्षा को अधिक प्रभावी और सुलभ बनाने का प्रयास है। यह पहल डिजिटल रूप से संगठित और व्यक्तिगत रूप से सुसंगत शिक्षा प्रदान करने का लक्ष्य रखती है।
– ऑनलाइन शिक्षा का विस्तार:
विशेष रूप से COVID-19 महामारी के दौरान, जब पारंपरिक शिक्षा संस्थानों को बंद कर दिया गया था, डिजिटल शिक्षा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। Zoom, Google Meet, और Microsoft Teams जैसे वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग प्लेटफॉर्म्स ने छात्रों को ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लेने और उनकी शिक्षा जारी रखने में मदद की। इसके साथ ही, शैक्षिक ऐप्स और पोर्टल्स ने भी डिजिटल शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा योगदान दिया।
भविष्य की डिजिटल शिक्षा: संभावनाएँ और चुनौतियाँ
डिजिटल शिक्षा की तेजी से बढ़ती पहुँच ने भविष्य में शिक्षा के लिए नए रास्ते खोले हैं, लेकिन इसके साथ ही कुछ चुनौतियाँ भी हैं।
– व्यापकता और समावेशिता:
डिजिटल शिक्षा ने शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में शिक्षा को सुलभ बनाने का प्रयास किया है, लेकिन अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की सीमित पहुँच और डिजिटल साक्षरता की कमी से इसे पूर्ण रूप से लागू करना चुनौतीपूर्ण है।
– कौशल विकास:
डिजिटल शिक्षा ने छात्रों को नई तकनीकों जैसे डेटा एनालिटिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग, और साइबर सिक्योरिटी जैसे विषयों में विशेषज्ञता प्राप्त करने के अवसर प्रदान किए हैं। यह भविष्य में भारत को तकनीकी और व्यावसायिक कौशल के क्षेत्र में अग्रणी बना सकता है
– मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रभाव:
लंबे समय तक डिजिटल माध्यम से अध्ययन करने से छात्रों पर मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ा है। विशेष रूप से स्क्रीन टाइम और व्यक्तिगत संपर्क की कमी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा है।
शिक्षा में चुनौतियाँ और भविष्य के लिए दिशा
भारत जैसे विविधता वाले देश में शिक्षा के क्षेत्र में कई चुनौतियाँ सामने आती हैं, जिन्हें हल करना अत्यंत आवश्यक है। शैक्षिक असमानता, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में शिक्षा की अलग-अलग स्थिति, और लड़कियों की शिक्षा जैसे मुद्दे आज भी मुख्य समस्याओं के रूप में देखे जाते हैं। इसके साथ ही, भविष्य में प्रौद्योगिकी, वैश्वीकरण, और कौशल आधारित शिक्षा के साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) जैसे क्षेत्रों का शिक्षा में प्रवेश नए अवसर और चुनौतियाँ दोनों लेकर आएगा।
शैक्षिक असमानता और ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की पहुंच
भारत में शिक्षा की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है शैक्षिक असमानता। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच शिक्षा की गुणवत्ता में बड़ा अंतर है। ग्रामीण इलाकों में स्कूलों की कमी, प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव, और बुनियादी सुविधाओं की कमी बच्चों के सीखने के स्तर को प्रभावित करती हैं। 2020 की ASER रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण भारत में प्राथमिक स्कूलों में नामांकित 5वीं कक्षा के बच्चों में से 30% से अधिक बच्चों को दूसरी कक्षा का पाठ पढ़ने में कठिनाई होती है।
इसके अलावा, डिजिटल डिवाइड भी एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरी है। COVID-19 महामारी के दौरान ऑनलाइन शिक्षा पर जोर दिया गया, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट और डिजिटल उपकरणों की कमी के कारण लाखों छात्रों को शिक्षा से वंचित होना पड़ा। सरकारी योजनाओं जैसे PM eVidya और DIKSHA ने कुछ हद तक इस समस्या को कम किया, लेकिन यह समस्या अभी भी व्यापक स्तर पर बनी हुई है।
लड़कियों की शिक्षा: चुनौतियाँ और समाधान
भारत में लड़कियों की शिक्षा में भी कई बाधाएँ हैं, विशेष रूप से ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में। सामाजिक मान्यताएँ, आर्थिक असमानता, और स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव लड़कियों के लिए शिक्षा में बाधा डालते हैं। राष्ट्रीय बालिका शिक्षा मिशन जैसी योजनाओं के बावजूद, अभी भी कई क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा को लेकर जागरूकता की कमी है।
2020 की UNICEF रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लड़कियों की माध्यमिक शिक्षा तक पहुंच 62% है, जो लड़कों की तुलना में काफी कम है। इस असमानता को कम करने के लिए बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, सुकन्या समृद्धि योजना जैसी सरकारी योजनाओं के माध्यम से लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसके अलावा, स्कूलों में लड़कियों के लिए स्वच्छता और सुरक्षा से संबंधित बुनियादी सुविधाओं में सुधार किया जा रहा है, ताकि अधिक से अधिक लड़कियाँ स्कूलों में बने रहें और शिक्षा प्राप्त कर सकें।
शिक्षा का भविष्य: प्रौद्योगिकी और वैश्वीकरण का प्रभाव
आधुनिक शिक्षा प्रणाली में प्रौद्योगिकी और वैश्वीकरण का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है। कौशल आधारित शिक्षा, ई-लर्निंग प्लेटफार्म, और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीकों ने शिक्षा के स्वरूप को पूरी तरह बदल दिया है। अब विद्यार्थी पारंपरिक पुस्तकों तक सीमित नहीं हैं; इंटरनेट और ऑनलाइन संसाधनों के माध्यम से वे वैश्विक स्तर पर उपलब्ध ज्ञान तक पहुँच सकते हैं।
कौशल आधारित शिक्षा आज के समय की प्रमुख आवश्यकता बन गई है। शिक्षा का उद्देश्य केवल सैद्धांतिक ज्ञान तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि अब प्रैक्टिकल और व्यावसायिक कौशल को बढ़ावा दिया जा रहा है। 2020 की नई शिक्षा नीति (NEP) में इसका विशेष उल्लेख किया गया है, जिसमें छात्रों को मल्टी-डिसिप्लिनरी शिक्षा और कौशल विकास के अवसर प्रदान किए जा रहे हैं।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और मशीन लर्निंग जैसी तकनीकों ने भी शिक्षा में अपनी जगह बना ली है। AI का प्रयोग व्यक्तिगत शिक्षण, शिक्षकों के सहायक उपकरण, और ऑनलाइन कोर्सेज में तेजी से हो रहा है। उदाहरण के तौर पर, Byju’s और Unacademy जैसे प्लेटफार्म AI का उपयोग कर छात्रों के लिए व्यक्तिगत शिक्षा मार्गदर्शन उपलब्ध करा रहे हैं। भविष्य में, AI के माध्यम से शिक्षा में और अधिक सुधार की संभावनाएँ हैं, जैसे कि अनुकूलित पाठ्यक्रम और शिक्षण सामग्री का निर्माण।
कौशल आधारित शिक्षा और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का समावेश
भविष्य की शिक्षा प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होगा कौशल आधारित शिक्षा। वर्तमान समय में कंपनियाँ सिर्फ डिग्रीधारक विद्यार्थियों की बजाय उन छात्रों को प्राथमिकता दे रही हैं जिनके पास व्यावहारिक और तकनीकी कौशल हैं। 2021 की World Economic Forum रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक कंपनियों को अगले पांच वर्षों में 50% से अधिक कर्मचारियों को नए कौशल में प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और ऑटोमेशन जैसी तकनीकों के बढ़ते प्रभाव के कारण भी शिक्षा में कौशल आधारित पाठ्यक्रम की जरूरत बढ़ी है। भविष्य में, AI द्वारा संचालित स्मार्ट क्लासरूम, वर्चुअल रियलिटी (VR) और ऑगमेंटेड रियलिटी (AR) जैसी तकनीकें छात्रों को एक इमर्सिव और इंटरएक्टिव शिक्षण अनुभव प्रदान करेंगी।
भारतीय शिक्षा के आधुनिक इतिहास की कुछ महत्वपूर्ण घटनाएँ इस प्रकार हैं:
– 1780: ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा ‘कोलकाता मदरसा’ की स्थापना।
– 1791: बनारस में ‘संस्कृत कॉलेज’ की स्थापना ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा।
– July 10, 1800: कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना लॉर्ड वेलेजली द्वारा।
– 1813: एक आदेश के तहत शिक्षा के लिए धन खर्च करने का निर्णय लिया गया।
– 1835: मैकाले का घोषणापत्र प्रकाशित हुआ, जिसने भारतीय शिक्षा में बदलाव की नींव रखी।
– 1848: महात्मा जोतिबा फुले ने पुणे में लड़कियों के लिए भारत का पहला प्राथमिक विद्यालय खोला।
– 1854: वुड का घोषणापत्र शिक्षा सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।
– 1857: कलकत्ता, बंबई, और मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई।
– 1870: बाल गंगाधर तिलक द्वारा फर्ग्यूसन कॉलेज की स्थापना।
– 1882: हण्टर आयोग का गठन।
– 1886: आर्य समाज द्वारा लाहौर में दयानंद ऐंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना।
– 1893: काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना, और महाराज सयाजी राव गायकवाड़ ने अनिवार्य शिक्षा की शुरुआत की।
– 1898: श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा काशी में ‘सेंट्रल हिंदू कॉलेज’ की स्थापना।
– 1901: लॉर्ड कर्ज़न द्वारा शिमला में गुप्त शिक्षा सम्मेलन।
– 1902: भारतीय विश्वविद्यालय आयोग का गठन और हरिद्वार के पास गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना।
– 1904: भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम लागू हुआ।
– 1905: स्वदेशी आंदोलन के दौरान कलकत्ता में जातीय शिक्षा परिषद की स्थापना और नैशनल कॉलेज की शुरुआत, जिसके पहले प्राचार्य अरविंद घोष थे।
– 1906: बड़ोदा के महाराज सयाजी राव गायकवाड़ द्वारा निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की शुरुआत।
– 1911: गोपाल कृष्ण गोखले ने निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के लिए प्रयास किया।
– 1916: मदन मोहन मालवीय द्वारा काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना।
– 1919-1920: महर्षि अरविंद ने ‘अ सिस्टम ऑफ नेशनल एजुकेशन’ पर कई लेख प्रकाशित किए।
– 1937-1938: गांधीवादी विचारों पर आधारित बुनियादी शिक्षा योजना लागू की गई।
– 1945: सार्जेंट योजना लागू हुई।
– 1948-1949: विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन हुआ।
– 1951: खड़गपुर में भारत के पहले आईआईटी की स्थापना।
– 1952-1953: माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन।
– 1956: विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) की स्थापना।
– 1961: एनसीईआरटी की स्थापना और पहले दो आईआईएम की स्थापना अहमदाबाद और कोलकाता में।
– 1964-1966: कोठारी शिक्षा आयोग का गठन और रिपोर्ट प्रस्तुत की गई।
– 1968: कोठारी आयोग की सिफारिशों के आधार पर पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू हुई।
– 1976: संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा को ‘राज्य’ विषय से “समवर्ती” सूची में डाला गया।
– 1985: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU) की स्थापना।
– 1986: नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अपनाया गया।
– 1992: राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में आचार्य राममूर्ति समिति द्वारा संशोधन।
– 2001: सर्व शिक्षा अभियान की शुरुआत, और रूड़की विश्वविद्यालय को IIT का दर्जा दिया गया।
– 2009: भारतीय संसद द्वारा निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिनियम (RTE) पारित।
– 2020: July 29 को नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लागू की गई, जो भारतीय शिक्षा के व्यापक सुधार का प्रतीक बनी।