मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण
मौर्य साम्राज्य लगभग तीन शताब्दियों तक शक्तिशाली था। लेकिन अशोक की मृत्यु के बाद यह कमजोर होने लगा। फिर, इसका विघटन तेज़ी से हुआ। पहले संगठन टूटने लगे। फिर, साम्राज्य भी बिखरने लगा।
अन्ततः, 184 ईसा पूर्व में मौर्य साम्राज्य का अंत हुआ। इसके अंतिम सम्राट बृहद्रथ थे। उन्हें उनके ही सेनापति पुष्यमित्र ने मारा। इस तरह से मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया। मौर्य साम्राज्य का पतन किसी एक कारण का परिणाम नहीं था। इसके बजाय, कई कारणों ने मिलकर इस दिशा में योगदान दिया।
सामान्यत: हम मौर्य साम्राज्य के विघटन और पतन के लिए निम्नलिखित कारणों को जिम्मेदार मान सकते हैं।

अशोक के अयोग्य और निर्बल उत्तराधिकारी
सम्राट अशोक की मृत्यु के बाद, मौर्य साम्राज्य में शासन के लिए अयोग्य और निर्बल उत्तराधिकारी आए। वे साम्राज्य के संगठन और संचालन के लिए सक्षम नहीं थे। यह बात साहित्यिक साक्ष्यों से भी स्पष्ट होती है। उदाहरण के तौर पर, राजतरंगिणी से यह पता चलता है कि कश्मीर में जालौक ने स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया। इसी प्रकार, तारानाथ के विवरण से यह पता चलता है कि वीरसेन ने गन्धार प्रदेश में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। कालीदास के मालविकाग्निमित्र में यह उल्लेख मिलता है कि विदर्भ भी एक स्वतन्त्र राज्य बन गया था।
इन घटनाओं से यह साफ़ होता है कि मौर्य साम्राज्य का विभाजन हुआ। इसके बाद, कोई भी शासक इतना सक्षम नहीं था कि वह इन राज्यों को एक छतरी के नीचे ला सके। इस स्थिति में यवनों का विरोध संगठित रूप से नहीं हो सका और साम्राज्य का पतन तय था।
मौर्य प्रशासन का अतिशय केन्द्रीयकरण
मौर्य साम्राज्य का प्रशासन अत्यधिक केन्द्रीयकृत था। सभी महत्वपूर्ण कार्य राजा के सीधे नियंत्रण में होते थे। राजा को वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति का पूरा अधिकार था। ये अधिकारी राजा के व्यक्तिगत कर्मचारी होते थे और उनकी भक्ति सिर्फ राजा के प्रति होती थी, न कि राष्ट्र या राज्य के प्रति।
इस प्रशासन में जनमत का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं की कमी थी। साम्राज्य में गुप्तचर तंत्र बहुत सशक्त था, जिससे सामान्य नागरिक की स्वतंत्रता पर असर पड़ता था। राज्य केवल सार्वजनिक जीवन ही नहीं, बल्कि व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में भी हस्तक्षेप करता था। इस तरह की व्यवस्था में शासन की सफलता पूरी तरह सम्राट की व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर करती थी। अशोक की मृत्यु के बाद, जब निर्बल उत्तराधिकारी आए, तो केन्द्रीय नियंत्रण कमजोर पड़ गया। इस कारण साम्राज्य का विकेन्द्रीकरण स्वाभाविक रूप से हुआ।
राष्ट्रीय चेतना का अभाव
मौर्य साम्राज्य में राष्ट्रीय चेतना का अभाव था। इस समय राष्ट्र की अवधारणा बहुत स्पष्ट नहीं थी। पूरे साम्राज्य में समान परंपराएं, भाषा और ऐतिहासिक धरोहरें नहीं थीं। भौतिक दृष्टि से भी, साम्राज्य के विभिन्न हिस्से समान रूप से विकसित नहीं थे।
राजनीतिक दृष्टि से भी राष्ट्रीय एकता का कोई मजबूत आधार नहीं था। इसका उदाहरण इस तथ्य से मिलता है कि जब भी भारत पर यवनों ने आक्रमण किया, उनका सामना अलग-अलग शासकों ने अपने तरीके से किया। पोरस और सुभगसेन जैसे शासक, जो सिकंदर और अन्तियोकस से युद्ध कर रहे थे, उन्होंने इसे व्यक्तिगत रूप से किया। पाटलिपुत्र के शासकों से इनको कोई सहायता नहीं मिली। इस प्रकार, मौर्य साम्राज्य में राष्ट्रीय एकता का अभाव था, जिससे राजनीतिक विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया तेज हुई।
रोमिला थापर का दृष्टिकोण
प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर ने मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों में प्रशासन के संगठन और राज्य की अवधारणा को सबसे महत्वपूर्ण बताया है। उनका मानना है कि इन दोनों कारणों ने साम्राज्य के पतन को गति दी।
मौर्य साम्राज्य में आर्थिक और सांस्कृतिक असमानताएँ
मौर्य साम्राज्य विशाल था, लेकिन इसमें आर्थिक और सांस्कृतिक असमानताएँ भी थीं।
आर्थिक असमानताएँ
मौर्य साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में आर्थिक स्थिति में बड़ा फर्क था। गंगाघाटी का क्षेत्र अधिक समृद्ध था, जबकि उत्तर-दक्षिण के अन्य प्रदेशों की स्थिति कमजोर थी। गंगाघाटी में कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था थी, और यहाँ व्यापार के लिए उपयुक्त अवसर भी मौजूद थे। लेकिन, दक्षिणी क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था अस्थिर थी। यहाँ व्यापार और वाणिज्य को ज्यादा सुविधाएँ नहीं मिल पाई थीं।
प्रशासन साम्राज्य के उत्तरी भाग की अर्थव्यवस्था से भली-भाँति परिचित था। यदि दक्षिणी क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था भी समान रूप से विकसित होती, तो साम्राज्य में आर्थिक सामंजस्य स्थापित किया जा सकता था।
मौर्य साम्राज्य में सांस्कृतिक असमानताएँ
सांस्कृतिक स्तर पर भी विभिन्नता थी। प्रमुख व्यावसायिक नगरों और ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी विषमता थी। प्रत्येक क्षेत्र की सामाजिक प्रथाएँ और भाषाएँ अलग-अलग थीं।
अशोक ने प्राकृत भाषा को अपने अभिलेखों में इस्तेमाल किया था और इसे राष्ट्र भाषा बनाने का प्रयास किया था। लेकिन उत्तर-पश्चिम में यूनानी और अरामेईक भाषाएँ, और दक्षिण में तमिल भाषाएँ, इस एकता के रास्ते में बड़ी रुकावट बनीं। यह सांस्कृतिक विषमता भी मौर्य साम्राज्य के पतन में योगदान देने वाला कारण हो सकती है।
प्रान्तीय शासकों के अत्याचार
मौर्य साम्राज्य के दूरदराज़ क्षेत्रों में प्रान्तीय शासकों के अत्याचार आम बात थी। इन अत्याचारों ने जनता को मौर्य शासन के खिलाफ भड़काया।
अत्याचारों का विवरण
दिव्यावदान में इन अत्याचारों का उल्लेख मिलता है। एक प्रमुख घटना तक्षशिला की है। बिन्दुसार के शासनकाल में तक्षशिला में पहला विद्रोह हुआ था। अशोक को इसे दबाने के लिए भेजा गया। जब अशोक तक्षशिला पहुँचे, तो वहाँ के लोगों ने उनसे कहा, “हम न तो राजकुमार के विरोधी हैं और न ही राजा बिन्दुसार के। परंतु दुष्ट अमात्य हमसे बुरा व्यवहार करते हैं।“
इसके बाद, अशोक ने अपने पुत्र कुमाल को तक्षशिला भेजा ताकि वह अत्याचारों को रोक सके। यही स्थिति अन्य प्रदेशों में भी रही होगी। उदाहरण के लिए, कलिंग में भी प्रान्तीय शासकों के दुर्व्यवहार से लोग दुखी थे। अशोक ने अपने कलिंग लेख में न्यायाधीशों को निर्देश दिया कि वे न्याय में निष्पक्ष और उदार रहें।
परवर्ती मौर्य शासकों का अत्याचार
इसके अलावा, परवर्ती मौर्य शासकों में शालिशूक को अत्याचारी के रूप में जाना जाता है। इन अत्याचारों के कारण जनता मौर्य शासन से नफरत करने लगी।
इन सब कारणों के परिणामस्वरूप, मौर्य साम्राज्य के निर्बल शासकों के काल में कई प्रदेशों ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।
मौर्य साम्राज्य में करों की अधिकता
मौर्य साम्राज्य के बाद के वर्षों में देश की आर्थिक स्थिति बहुत ही संकटग्रस्त हो गई थी। इस स्थिति के कारण शासकों ने अनावश्यक तरीके से करों का संग्रह बढ़ा दिया था।
करों का संग्रह
मौर्य शासकों ने जनता पर अत्यधिक कर लगाए। पंतजलि ने लिखा है कि शासक अपना कोष भरने के लिए जनता की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करते थे। वे छोटे-छोटे मूर्तियाँ बनवाकर उन्हें बेचते थे, और इस तरह से धन एकत्र करते थे।
मौर्य साम्राज्य में एक बहुत बड़ी सेना थी, साथ ही अधिकारियों का भी एक विशाल वर्ग था। इस सेना और अधिकारियों के रखरखाव के लिए अधिक धन की जरूरत थी। यह धन जनता से कर लगाकर प्राप्त किया जाता था। मौर्य शासकों ने जनता पर सभी प्रकार के कर लगाए थे।
करों की अत्यधिक संख्या
अर्थशास्त्र में करों की एक लंबी सूची मिलती है। यदि इन करों को सचमुच लिया गया हो, तो जनता के लिए जीना मुश्किल हो गया होगा। यह स्थिति बहुत ही कठिन थी। इसके कारण जनता पर भारी दबाव पड़ा।
जनता का असंतोष और विद्रोह
इस तरह की स्थितियों के कारण यह संभावना जताई जा सकती है कि करों के अत्यधिक बोझ से तंग आकर जनता ने मौर्य शासकों के खिलाफ विद्रोह किया। जब शासक कमजोर हो गए, तो यह जन असंतोष साम्राज्य की एकता और स्थिरता के लिए खतरनाक साबित हुआ।
अशोक के धन दान का प्रभाव
कुछ विद्वानों का मानना है कि अशोक ने बौद्ध संघों को बहुत अधिक धन दान में दिया था। इस कारण राजकोष खाली हो गया था। इस खाली कोष को भरने के लिए परवर्ती शासकों ने तरह-तरह के उपायों द्वारा जनता से कर वसूले। इसके परिणामस्वरूप जनता का जीवन कठिन हो गया।
अशोक की नीतियाँ और मौर्य साम्राज्य
मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए कुछ विद्वानों ने अशोक की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया है। इनमें से एक प्रमुख विद्वान पंडित हर प्रसाद शास्त्री थे। उनका मानना था कि अशोक की अहिंसा की नीति के कारण ब्राह्मणों के साथ संघर्ष हुआ और मौर्य साम्राज्य का अंत हुआ। हालांकि, हेमचंद्र रायचौधरी ने शास्त्री के विचारों का खंडन किया और बताया कि अशोक की नीतियाँ किसी भी रूप में ब्राह्मण-विरोधी नहीं थीं। आइए, हम इन दोनों विद्वानों के विचारों पर चर्चा करते हैं।
पंडित हर प्रसाद शास्त्री के विचार
पंडित हर प्रसाद शास्त्री ने अशोक की नीतियों को इस प्रकार विश्लेषित किया:
- पशुबलि पर रोक: शास्त्री जी ने कहा कि अशोक ने पशुबलि पर रोक लगाई, जो कि ब्राह्मणों पर आक्रमण था। उनका मानना था कि ब्राह्मण ही यज्ञ कराते थे, और इस प्रकार अशोक ने उनकी शक्ति और सम्मान को चोट पहुँचाई।
- रूपनाथ शिलालेख: पं. शास्त्री ने यह भी कहा कि अशोक के रूपनाथ के शिलालेख में यह लिखा था कि उसने ‘भू-देवों‘ (ब्राह्मणों) को मिथ्या साबित कर दिया। इस कथन को शास्त्री जी ने ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाने के रूप में लिया।
- धम्ममहामात्रों की नियुक्ति: शास्त्री जी का कहना था कि अशोक के धम्ममहामात्रों ने ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया।
- दण्ड समता: पं. शास्त्री ने यह भी कहा कि अशोक ने न्याय के क्षेत्र में ‘दण्ड समता‘ और ‘व्यवहार समता‘ का सिद्धांत लागू किया, जिससे ब्राह्मणों को उनके विशेषाधिकार से वंचित कर दिया गया।
- पुष्यमित्र का विद्रोह: शास्त्री जी ने कहा कि अशोक की मृत्यु के बाद, ब्राह्मणों ने पुष्यमित्र के नेतृत्व में विद्रोह किया और मौर्य साम्राज्य का अंत कर दिया।
हेमचंद्र रायचौधरी का प्रतिवाद
हेमचंद्र रायचौधरी ने शास्त्री जी के विचारों का खंडन किया और यह सिद्ध किया कि अशोक की नीतियाँ ब्राह्मणों के खिलाफ नहीं थीं। उन्होंने निम्नलिखित तर्क दिए:
- अहिंसा और ब्राह्मणों का संबंध: रायचौधरी के अनुसार, अशोक की अहिंसा की नीति ब्राह्मणों के खिलाफ नहीं थी। दरअसल, ब्राह्मणों के ग्रंथों में भी अहिंसा का उल्लेख मिलता है। उपनिषदों में भी हिंसा और पशुबलि का विरोध किया गया है।
- रूपनाथ शिलालेख का सही अर्थ: शास्त्री जी ने रूपनाथ के शिलालेख के अर्थ को गलत समझा। रायचौधरी के अनुसार, इसका सही अर्थ यह है कि भारतवासी पहले देवताओं से अलग थे, लेकिन अब वे अपने उच्च नैतिक चरित्र के कारण देवताओं से जुड़े हुए हैं। इस वाक्य में कोई ब्राह्मण विरोधी भावना नहीं है।
- धम्ममहामात्रों का उद्देश्य: रायचौधरी ने कहा कि धम्ममहामात्रों को ब्राह्मणों के कल्याण के लिए भी नियुक्त किया गया था। अशोक ने हमेशा यह कहा कि ब्राह्मणों के साथ उदार व्यवहार किया जाए। इसलिए यह तर्क गलत है कि धम्ममहामात्रों की नियुक्ति से ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँची।
- दण्ड-समता का उद्देश्य: अशोक ने न्याय प्रणाली में ‘दण्ड-समता‘ और ‘व्यवहार-समता‘ का सिद्धांत लागू किया, ताकि सभी जगह निष्पक्ष रूप से न्याय मिल सके। इसका उद्देश्य किसी वर्ग को नुकसान पहुँचाना नहीं था, बल्कि न्याय की समानता को सुनिश्चित करना था।
- ब्राह्मणों और मौर्य सम्राटों के बीच संघर्ष: रायचौधरी ने यह स्पष्ट किया कि मौर्य सम्राटों और ब्राह्मणों के बीच संघर्ष का कोई प्रमाण नहीं है। इसके अलावा, यह भी सच नहीं है कि अशोक के सभी उत्तराधिकारी बौद्ध थे। जालौक को राजतरंगिणी में शैव और बौद्ध-विरोधी बताया गया है। इसके अलावा, पुष्यमित्र की सेनापति के पद पर नियुक्ति यह साबित करती है कि प्रशासन में ब्राह्मणों की उपस्थिति थी।
पुष्यमित्र शुंग का विद्रोह
रायचौधरी ने पुष्यमित्र शुंग के विद्रोह को ब्राह्मण प्रतिक्रिया के रूप में नहीं देखा। उन्होंने कहा कि यदि यह एक बड़ा ब्राह्मण विद्रोह होता, तो अन्य ब्राह्मण शासकों से उसे सहायता मिलती। चूंकि मौर्य साम्राज्य पहले ही कमजोर हो चुका था, इस कारण किसी बड़े विद्रोह की आवश्यकता नहीं थी। पुष्यमित्र द्वारा बृहद्रथ की हत्या एक सामान्य घटना थी, जो किसी ब्राह्मण असंतोष से संबंधित नहीं थी।
अशोक की शान्तिवादी नीति: क्या मौर्य साम्राज्य का पतन इसकी वजह था?
रायचौधरी ने यह भी कहा कि अशोक की शान्तिवादी नीति ने मौर्य साम्राज्य को सैनिक दृष्टि से कमजोर कर दिया। उनके अनुसार, अशोक के उत्तराधिकारी शान्ति के माहौल में पले-बढ़े थे और उन्होंने सैनिक अभियानों की बजाय धर्म प्रचार को महत्व दिया। इसी कारण मौर्य साम्राज्य यवनों के आक्रमण का सामना नहीं कर सका। शान्तिवादी नीति के चलते मौर्य साम्राज्य में सेना निष्क्रिय हो गई और इसका परिणाम साम्राज्य के पतन के रूप में सामने आया।
अशोक की शान्तिवादी नीति और मौर्य साम्राज्य का पतन
सम्राट अशोक की शान्तिवादी नीति पर विभिन्न विद्वानों ने विचार किए हैं। हेमचंद्र रायचौधरी ने इसे सही ठहराया था, लेकिन यदि हम इस पर आलोचनात्मक दृष्टि डालें तो यह पूरी तरह से निराधार प्रतीत होता है। हम यह जानते हैं कि अशोक एक व्यावहारिक शासक था और उसने अपने राज्य में कुछ ऐसे कार्य किए, जो उसके शान्तिवादी रुख के खिलाफ थे।
अशोक की नीति में विरोधाभास
यदि अशोक उतना शान्तिवादी और अहिंसावादी होता, जितना कि रायचौधरी ने समझा है, तो वह अपने राज्य में मृत्युदंड को समाप्त कर देता। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। वह कलिंग युद्ध के बाद भी इस युद्ध को स्वीकार करता है और इसके ऊपर कोई नैतिक आशंका व्यक्त नहीं करता। बल्कि, वह अपने सैनिक बल के परिप्रेक्ष्य में सीमान्त प्रदेशों और जंगली जनजातियों को यह चेतावनी देता है कि यदि वे अपराध नहीं छोड़ेंगे, तो उनकी हत्या कर दी जाएगी। अशोक के इन अभिलेखों से यह साफ होता है कि उसकी सैनिक शक्ति सुदृढ़ थी और उसने इसे अपने शासन के लिए प्रयोग किया।
अशोक की सैनिक शक्ति
अशोक ने कभी भी अपने सैनिकों की संख्या कम नहीं की और न ही उन्हें धर्म प्रचार में लगा दिया। यदि उसने ऐसा किया होता, तो यह बात वह अपने अभिलेखों में गर्व से लिखता। इसके बजाय, वह हमेशा अपनी सैनिक शक्ति का अहसास कराता है और इसे साम्राज्य की सुरक्षा के लिए उपयोग करता है। यह स्पष्ट करता है कि अशोक की शान्तिवादी नीति का पालन करने का कारण उसकी सेना की मजबूती और देश की आंतरिक शांति थी।
व्यावहारिक दृष्टिकोण से अशोक की शान्तिवादी नीति
अशोक ने अपनी शान्तिवादी नीति को इसलिए अपनाया क्योंकि उसके साम्राज्य की सीमाएँ सुरक्षित थीं और भीतर शांति और व्यवस्था थी। किसी भी बड़े साम्राज्य को इस तरह से लंबे समय तक शांति से चलाने के लिए एक मजबूत प्रशासन की आवश्यकता होती है। अगर अशोक ने सैनिक निरंकुशवाद अपनाया होता, तो भी मौर्य साम्राज्य का पतन निश्चित था। ऐसा होता तो, जैसे सिकंदर, नेपोलियन, हिटलर, और मुसोलिनी जैसे सैनिक नेताओं को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था, वैसे ही अशोक की भी आलोचना होती।
अशोक और मौर्य साम्राज्य का पतन
मौर्य साम्राज्य का पतन स्वाभाविक कारणों से हुआ था और इसके लिए अशोक को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं होगा। अशोक के उत्तराधिकारी कमजोर और अयोग्य थे, इसके लिए भी अशोक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। राधाकुमुद मुकर्जी का कहना है कि यदि अशोक अपने पिता और पितामह की रक्त और लौह की नीति का पालन करता, तो भी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ होता।
अशोक की धरोहर
राधाकुमुद मुकर्जी का यह भी कहना है कि अशोक के कारण भारतीय संस्कृति ने सभ्य दुनिया पर नैतिक आधिपत्य कायम किया। उसकी शान्तिवादी नीति और बुद्ध के उपदेशों को फैलाने की दिशा में किए गए कार्यों के कारण भारतीय संस्कृति की धरोहर शताब्दियों तक जीवित रही। आज भी लगभग दो हजार वर्षों बाद भी, अशोक की धरोहर और उसकी नीति पूरी तरह से लुप्त नहीं हुई है।
निष्कर्ष
इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए अशोक को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है। अशोक की शान्तिवादी नीति और उसकी शासन प्रणाली ने उसे एक महान शासक के रूप में स्थापित किया। मौर्यसाम्राज्य का पतन स्वाभाविक कारणों का परिणाम था, और अशोक का इसमें कोई दोष नहीं था। उसकी नीति ने भारतीय संस्कृति को एक नई दिशा दी और शताब्दियों तक उसकी महानता को याद किया गया।