चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रशासन: संरचना और प्रभाव

चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था की संरचना 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य न केवल एक महान् विजेता थे, बल्कि एक कुशल प्रशासक भी थे। उनके शासन के समय भारत में राजनीतिक केन्द्रीकरण की शुरुआत हुई। इस व्यवस्था ने चक्रवर्ती सम्राट की अवधारणा को व्यवहार में लाया। चन्द्रगुप्त की शासन-व्यवस्था में कई ऐसे तत्व थे, जो ईरानी और यूनानी शासन से प्रभावित थे, लेकिन उनमें कई नवीन और मौलिक पहलू भी थे। उनकी शासन-व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य जनता का हित था, चाहे कोई भी परिस्थिति हो।

 

शासन व्यवस्था के स्रोत 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था के बारे में प्रमुख जानकारी हमें कौटिल्य के “अर्थशास्त्र” और मेगस्थनीज की “इण्डिका” से मिलती है। रुद्रदामन् का गिरनार शिलालेख भी इस विषय पर बहुत महत्वपूर्ण है, विशेषकर पश्चिमी भारत के मौर्य प्रशासन के अध्ययन के लिए।

 

Map of India highlighting the empire of Chandragupta Maurya, showcasing its territorial expanse.
सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य

 

चन्द्रगुप्त मौर्य का सम्राट पद और उसकी भूमिका 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था में सम्राट का पद राजतंत्रात्मक था। पहली बार “अर्थशास्त्र” में राज्य की स्पष्ट परिभाषा दी गई, जिसमें सम्राट को सर्वोच्च स्थान दिया गया। सम्राट की स्थिति ‘कूटस्थनीय’ होती थी, अर्थात उसका अधिकार अडिग और सर्वोच्च था। वह न केवल राज्य का शासक था, बल्कि सैनिक, न्यायिक, और कार्यकारी मामलों का सर्वोच्च अधिकारी भी था।

 

सम्राट के कर्तव्यों और अधिकारों का वर्णन 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन में सम्राट हर मामले में सक्रिय रूप से शामिल होते थे। वे प्रजा की शिकायतें सुनने के लिए हमेशा उपलब्ध रहते थे। कौटिल्य ने भी यही सलाह दी थी कि राजा को प्रजा से मिलने के लिए आसानी से उपलब्ध रहना चाहिए। सम्राट की दिनचर्या बहुत कठोर थी। मेगस्थनीज के अनुसार, सम्राट दिन में नहीं सोते थे और राजसभा में बैठकर प्रजा के मामलों को सुलझाते थे। वे सार्वजनिक कार्यों के लिए पूरे दिन समर्पित रहते थे, यहां तक कि शरीर की मालिश करते समय भी जनता की शिकायतें सुनते थे।

 

चन्द्रगुप्त मौर्य की सुरक्षा व्यवस्था और जीवनशैली 

 

सम्राट का निवास स्थान एक विशाल राजमहल था। वह अपनी सुरक्षा के प्रति बहुत सतर्क रहते थे। राजमहल से बाहर निकलते समय, उनके साथ सशस्त्र अंगरक्षक होते थे। राजमार्गों पर सशस्त्र सैनिक उनकी सुरक्षा के लिए तैनात रहते थे। राजसभा भी बहुत ऐश्वर्यपूर्ण और भव्य होती थी।

 

राजमहल और सुरक्षा व्यवस्था: चन्द्रगुप्त मौर्य की जीवनशैली 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य का जीवन बहुत अनुशासित था। वह अपनी सुरक्षा पर विशेष ध्यान देते थे और हमेशा सशस्त्र अंगरक्षकों से घिरे रहते थे। राजमहल से बाहर जाने पर भी उनके साथ सैनिक होते थे, जो उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करते थे। उनकी राजसभा में ऐश्वर्य और भव्यता का आयोजन किया जाता था, लेकिन इसके साथ-साथ वे अपनी दिनचर्या में बेहद सख्त रहते थे।

 

राज्य का संचालन 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था में सम्राट का प्रमुख स्थान था। उनके द्वारा नियुक्त किए गए अधिकारी, जैसे अमात्य (मंत्री), जनपद (राज्य), दुर्ग (किला), कोष (खजाना), बल (सेना) और मित्र (सहयोगी), सभी सम्राट के नियंत्रण में रहते थे। ये सभी अंग सम्राट के द्वारा संचालित होते थे और उनके अस्तित्व के लिए सम्राट पर निर्भर रहते थे।

 

सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन में सम्राट का प्रमुख स्थान 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन पूरी तरह से केंद्रीकृत था। सम्राट के पास सभी शक्तियाँ थीं और वह राज्य के हर पहलू पर नियंत्रण रखते थे। उनके द्वारा नियुक्त किए गए अधिकारियों और संस्थाओं का संचालन उनके आदेशों और नियंत्रण के तहत होता था। सम्राट के बिना राज्य का कोई अस्तित्व नहीं था, क्योंकि सभी प्रशासनिक और सैन्य गतिविधियाँ उन्हीं पर निर्भर थीं।

 

सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन में अमात्य, मन्त्री और मन्त्रिपरिषद की भूमिका

 

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन में सम्राट अपने कार्यों में अमात्यों, मन्त्रियों और अन्य अधिकारियों से सहायता प्राप्त करते थे। अमात्य शब्द एक सामान्य संज्ञा थी, जिससे राज्य के प्रमुख पदाधिकारियों का बोध होता था। इन पदाधिकारियों को यूनानी लेखक ‘सभासद‘ और ‘निर्धारक‘ (Councillors and Assessors) कहते थे। वे सम्राट के सार्वजनिक कार्यों में मदद करते थे। उनकी संख्या भले ही कम थी, लेकिन उनकी भूमिका अत्यंत प्रभावशाली थी। प्रशासन के महत्वपूर्ण पदों का चयन भी इनकी सलाह से किया जाता था, हालांकि वे सभी मंत्री नहीं होते थे।

 

मन्त्रिणः और मन्त्रिपरिषद का कार्य चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन में 

 

सम्राट अपने अमात्यों में से कुछ व्यक्तियों को “मन्त्री” के रूप में नियुक्त करते थे। मन्त्री एक छोटी उपसमिति के सदस्य होते थे, जिसे “मन्त्रिणः” कहा जाता था। इस समिति में तीन या चार सदस्य होते थे, जिनमें युवराज, प्रधानमंत्री, सेनापति और सन्निधाता (कोषाध्यक्ष) शामिल हो सकते थे। मन्त्रिणः का काम तत्काल निर्णय लेना था।

मन्त्रिपरिषद् भी एक अन्य महत्वपूर्ण संस्था थी, जो बड़े निर्णयों में सहयोग करती थी। कौटिल्य के अनुसार, राजा के लिए बड़ी मन्त्रिपरिषद रखना उचित था, क्योंकि इससे उसकी ‘मन्त्रशक्ति’ बढ़ती थी। यहां तक कि वह इन्द्र की 1000 सदस्यीय मन्त्रिपरिषद का उदाहरण देते हैं। मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को 12,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। इस परिषद की बैठकें आवश्यक निर्णय लेने के लिए आयोजित की जाती थीं, और इसमें बहुमत से निर्णय लिए जाते थे। हालांकि, सम्राट के पास यह अधिकार था कि वह बहुमत के फैसले की उपेक्षा करके अल्पमत के निर्णय को स्वीकार कर सकता था, यदि वह राष्ट्र के हित में होता।

 

कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में मन्त्रियों की भूमिका और आवश्यकता 

 

कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र‘ में मन्त्रिपरिषद को एक वैधानिक आवश्यकता बताया गया है। उनका मानना था कि “राजत्व केवल सबकी सहायता से ही सम्भव है, सिर्फ एक पहिया नहीं चल सकती।” इसलिए राजा को सचिवों की नियुक्ति करनी चाहिए और उनसे परामर्श लेना चाहिए। “राजवृत्ति” तीन प्रकार की होती है – प्रत्यक्ष, परोक्ष और अनुमेय। इन कामों को अकेला राजा नहीं कर सकता था, इसलिए उसे अपने मंत्रियों की मदद की आवश्यकता थी।

 

मन्त्रिपरिषद के कार्य 

 

अर्थशास्त्र में मन्त्रिपरिषद के कार्यों को स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया गया है। इसका कार्य था “अनारब्ध कार्य को प्रारम्भ करना, आरंभ हुए को पूरा करना, पूरे हुए कार्य में सुधार करना और राजकीय आदेशों का कड़ाई से पालन करवाना“।

 

चन्द्रगुप्त मौर्य के केन्द्रीय प्रशासन और विभागों का विवरण 

 

अर्थशास्त्र‘ में केन्द्रीय प्रशासन का विस्तृत विवरण मिलता है। शासन को सुव्यवस्थित बनाने के लिए प्रशासन को कई विभागों में बांटा गया था। प्रत्येक विभाग का प्रमुख एक “तीर्थ” कहलाता था। कौटिल्य के अनुसार, कुल 18 तीर्थों के प्रमुखों का उल्लेख किया गया है, जो प्रशासन के विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित करते थे। इनमें प्रमुख पदाधिकारी निम्नलिखित थे- 

1. मन्त्री और पुरोहित

2. समाहर्ता (राजस्व विभाग)

3. सन्निधाता (कोषाध्यक्ष)

4. सेनापति

5. युवराज

6. प्रदेष्टा (फौजदारी न्यायाधीश)

7. नायक (सेना का प्रमुख)

8. कर्मान्तिक (उद्योगों का निरीक्षक)

9. व्यवहारिक (दीवानी न्यायाधीश)

10. मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष

11. दण्डपाल (सामग्री जुटाने वाला अधिकारी)

12. अन्तपाल (सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक)

13. दुर्गपाल (भीतर के दुर्गों का प्रबंधक)

14. नागरक (नगर का प्रमुख अधिकारी)

15. प्रशास्ता (राजकीय कागजातों का रक्षक)

16. दौवारिक (राजमहल का प्रबंधक)

17. अन्तर्वशिक (सम्राट के अंगरक्षक)

18. आटविक (जन विभाग का प्रमुख)

 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य प्रशासन में अध्यक्षों की भूमिका और कार्य

 

इसके अलावा, ‘अर्थशास्त्र‘ में कई अन्य पदों का भी उल्लेख है, जिन्हें ‘अध्यक्ष’ कहा जाता है। ये विभिन्न सरकारी विभागों के प्रमुख होते थे, जिन्हें यूनानी लेखक ‘मजिस्ट्रेट‘ कहते थे। इन विभागों में पण्याध्यक्ष (वाणिज्य), सुराध्यक्ष (शराब का विभाग), गणिकाध्यक्ष (वेश्याओं का निरीक्षक), साताध्यक्ष (कृषि), और आकराध्यक्ष (खनिज) जैसे कई विभाग शामिल थे। इन अध्यक्षों का कार्य संबंधित विभागों का निरीक्षण करना और प्रशासन में सुचारु रूप से कार्य करना था।

 

मौर्य काल में उच्च अधिकारियों का वेतन और उनके कार्य

 

मौर्य प्रशासन में उच्च अधिकारियों को अच्छा वेतन मिलता था। इन विभागीय अध्यक्षों को 1000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। मेगस्थनीज ने इन अधिकारियों के कार्यों का विवरण देते हुए बताया कि वे बाजार, नगर, नदियों, जलसंग्रहों, आखेट, कर-संग्रह और भूमि संबंधित व्यवसायों का निरीक्षण करते थे। वे सार्वजनिक मार्गों का निरीक्षण भी करते थे और रास्तों पर दूरी बताने के लिए स्तम्भ स्थापित करते थे।

 

अमात्य और उनके विभागों का संगठन 

 

मौर्य प्रशासन में अमात्य के कई स्तर होते थे। पहले स्तर के अमात्य “मन्त्रिणः” के सदस्य होते थे, दूसरे स्तर के अमात्य “मन्त्रिपरिषद” के सदस्य होते थे और तीसरे स्तर के अमात्य “विभागीय अध्यक्ष” होते थे। इन सभी पदाधिकारियों का कार्य प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों में सुव्यवस्थित करना था।

 

प्रान्तीय शासन 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य का आकार बहुत बड़ा था। इसलिए इसे विभिन्न प्रान्तों में बांटा गया था। हालांकि, उनके साम्राज्य के प्रान्तों की संख्या के बारे में निश्चित जानकारी नहीं मिलती, लेकिन कुछ प्रान्तों का उल्लेख अशोक के अभिलेखों में मिलता है। इन प्रान्तों का प्रशासन एक सुव्यवस्थित तरीके से किया जाता था, जिसमें राज्यपालों का बड़ा महत्व था।

 

प्रमुख प्रान्त 

 

अशोक के अभिलेखों से पांच मुख्य प्रान्तों के नाम ज्ञात होते हैं। ये प्रान्त चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में भी संभवतः अस्तित्व में थे। इन प्रान्तों की राजधानी और उनके भौगोलिक क्षेत्र का विवरण इस प्रकार है:

1. उदीच्य (उत्तरापथ) – इस प्रान्त में पश्चिमोत्तर क्षेत्र शामिल था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी, जो एक प्रमुख व्यापारिक और सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध थी।

2. अवन्तिट्ठ – इस प्रान्त की राजधानी उज्जयिनी थी, जो दक्षिणी मध्य भारत में स्थित थी। यह एक प्रमुख व्यापारिक मार्ग के करीब था।

3. कलिंग – कलिंग (वर्तमान ओडिशा) में तोसलि नगर की राजधानी थी। यह क्षेत्र समुद्र के किनारे होने के कारण समुद्री व्यापार में महत्वपूर्ण था।

4. दक्षिणापथ – यह प्रान्त दक्षिणी भारत का हिस्सा था। इसकी राजधानी सुवर्णगिरि थी। के. एस. आयंगर के अनुसार, यह स्थान वर्तमान कर्नाटका के रायचूर जिले के पास स्थित कनकगिरि है।

5. प्राच्य या प्रासी – यह पूर्वी भारत का क्षेत्र था, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। यह प्रान्त भारत के प्राचीन नगरों में से एक था और मौर्य साम्राज्य का प्रशासनिक केंद्र था।

 

राज्यपाल और उनके कार्य 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन में प्रान्तों का प्रशासन बड़े ही सुव्यवस्थित तरीके से होता था। प्रत्येक प्रान्त का राज्यपाल, जो प्रायः राजकुल से संबंधित होता था, राज्य के प्रशासन के लिए जिम्मेदार था। हालांकि, कभी-कभी योग्य व्यक्तियों को भी राज्यपाल बनाया जाता था। उदाहरण के तौर पर, चन्द्रगुप्त मौर्य ने पुष्यगुप्त वैश्य को काठियावाड़ का राज्यपाल नियुक्त किया था।

राज्यपालों को 12,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था, जो उनके कार्य की महत्ता को दर्शाता है। ये राज्यपाल प्रान्तों का शासन कई अमात्यों और विभागीय अध्यक्षों की सहायता से चलाते थे। इसके अलावा, राज्यपाल के पास अपनी एक मन्त्रिपरिषद भी होती थी, जो शासन संबंधी निर्णयों में उनकी मदद करती थी।

 

शासन की व्यवस्था और प्रशासन 

 

प्रत्येक प्रान्त में एक सुव्यवस्थित प्रशासन था। राज्यपाल अपने प्रान्त का शासन एक टीम के साथ चलाते थे। इस टीम में अमात्य, सचिव, और अन्य उच्च अधिकारी होते थे, जो शासन के विभिन्न कार्यों को निष्पादित करते थे। राज्यपाल के पास अपनी मन्त्रिपरिषद होती थी, जो शासन कार्यों के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लेती थी।

इसके अलावा, प्रान्तीय शासन में एक अन्य महत्वपूर्ण तत्व था—प्रशासनिक विभागों का गठन। इन विभागों का कार्य प्रान्त के भीतर सुव्यवस्थित शासन सुनिश्चित करना था। राज्यपाल और उनके प्रशासनिक सहयोगी मिलकर यह सुनिश्चित करते थे कि राज्य के सभी कार्य सही ढंग से संपन्न हों।

 

मण्डल, जिला तथा नगर प्रशासन 

 

मौर्य साम्राज्य में प्रान्तों का प्रशासन बहुत संगठित था। सम्राट के आदेशों को लागू करने के लिए प्रान्तों को कई मण्डलों में विभाजित किया गया था। इन मण्डलों का प्रशासन एक ‘प्रदेष्टा‘ नामक अधिकारी के अधीन होता था। यह अधिकारी सम्राट के अधीन काम करता था और मण्डल के विभिन्न विभागों के कार्यों का निरीक्षण करता था। अशोक के अभिलेखों में भी इसे ‘प्रादेशिक‘ कहा गया है।

 

मण्डल का विभाजन 

 

प्रत्येक मण्डल को और छोटे हिस्सों में बांटा गया था। मण्डल के अंदर कई जिले होते थे, जिन्हें ‘आहार‘ या ‘विषय‘ कहा जाता था। इन जिलों को और छोटे हिस्सों में बांटा गया था। सबसे छोटी इकाई ‘स्थानीय’ होती थी, जिसमें 800 गांव होते थे। इसके बाद ‘द्रोणमुख‘ होते थे, जो स्थानीय से ऊपर होते थे। प्रत्येक द्रोणमुख में चार सौ गांव होते थे। इन इकाइयों के प्रमुख, न्यायिक, कार्यकारी और राजस्व संबंधी अधिकारों का प्रयोग करते थे। इनके कार्यों में युक्त नामक पदाधिकारी सहायता करते थे।

 

नगर प्रशासन 

 

मौर्य साम्राज्य के नगरों का प्रशासन भी बहुत व्यवस्थित था। प्रमुख नगरों का प्रशासन नगरपालिकाओं द्वारा चलाया जाता था। नगर प्रशासन के लिए एक सभा होती थी, जिसका प्रमुख ‘नागरक‘ या ‘पुरमुख्य‘ कहलाता था। मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र के नगर परिषद की संरचना का विवरण दिया है, जिसमें पाँच-पाँच सदस्य वाली छह समितियाँ शामिल थीं।

 

नगर समितियाँ और उनके कार्य 

 

1. औद्योगिक समिति: यह समिति विभिन्न प्रकार के औद्योगिक कलाओं और कारीगरों के हितों की देख-रेख करती थी।

2. विदेशी यात्रियों की समिति: यह समिति विदेशी यात्रियों के भोजन, निवास और चिकित्सा का प्रबंध करती थी। यह उनकी यात्रा में भी सहायता करती थी।

3. जनगणना समिति: इस समिति का कार्य जनगणना का हिसाब रखना था।

4. व्यापार समिति: यह समिति नगर के व्यापार और वाणिज्य का प्रबंधन करती थी, साथ ही विक्रय की वस्तुओं और माप-तौल का नियंत्रण करती थी।

5. उद्योग समिति: यह समिति बाजारों में बिकने वाली वस्तुओं में मिलावट को रोकने का कार्य करती थी। यदि कोई व्यापारी मिलावट करता था, तो उसे दंडित किया जाता था।

6. कर समिति: यह समिति विक्रय वस्तुओं पर कर वसूलने का कार्य करती थी। कर चोरी करने वालों को कड़ी सजा दी जाती थी, कभी-कभी मृत्युदंड भी।

 

नगरों में स्वायत्त शासन 

 

मेगस्थनीज के विवरण से यह स्पष्ट होता है कि पाटलिपुत्र जैसे बड़े नगरों में स्वायत्त शासन था। यहां पर नगर प्रशासन के लिए अलग-अलग समितियाँ काम करती थीं और नगर का प्रशासन अपने स्तर पर चलता था। यह व्यवस्था संभवतः अन्य प्रमुख नगरों में भी रही होगी।

 

ग्राम-प्रशासन 

 

मौर्य साम्राज्य में ग्राम प्रशासन की व्यवस्था बहुत ही संगठित और प्रभावी थी। ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होती थी – ग्राम। हर ग्राम का एक अध्यक्ष होता था, जिसे ‘ग्रामणी‘ कहा जाता था। यह ग्रामणी ग्रामवासियों द्वारा चुना जाता था और वह एक वेतन-भोगी कर्मचारी नहीं होता था।

 

ग्रामणी और ग्रामवृद्ध परिषद 

 

ग्रामणी का कार्य ग्रामवासियों के हितों का ध्यान रखना और उनके लिए जरूरी व्यवस्थाएं करना था। वह ‘ग्रामवृद्ध परिषद‘ की सहायता से ग्राम का प्रशासन चलाता था। ग्रामवृद्ध परिषद में ग्राम के प्रमुख व्यक्ति होते थे, जो ग्रामणी के साथ मिलकर शासन के कार्यों को संचालित करते थे।

राज्य सामान्यतः ग्रामों के शासन में हस्तक्षेप नहीं करता था। ग्रामणी को ग्राम की भूमि का प्रबंधन करने और सिंचाई के साधनों की व्यवस्था करने का अधिकार था।

 

ग्राम में न्याय व्यवस्था 

 

ग्रामवृद्ध परिषद का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य था न्याय प्रदान करना। यह परिषद ग्रामों के छोटे-मोटे विवादों का हल निकालती थी और जुर्माना भी लगा सकती थी। इस प्रकार, ग्रामों में भी न्यायिक व्यवस्था थी जो गांव के स्थानीय मुद्दों को सुलझाने का कार्य करती थी।

 

कर संग्रहण और प्रशासन 

 

ग्रामणी किसानों से भूमि कर एकत्र करता था और इसे राज्य के कोषागार में जमा करता था। ग्राम सभा का प्रशासन कार्य ‘गोप‘ नामक कर्मचारी द्वारा किया जाता था। गोप ग्राम के घरों और निवासियों का विवरण रखता था और यह सुनिश्चित करता था कि सभी कर सही तरीके से एकत्रित किए जाएं।

 

कोष्ठागार और अन्न संग्रहण 

 

ग्रामों में कुछ विशेष व्यवस्थाएं भी थीं, जिनका उद्देश्य जनता की सुरक्षा और आवश्यकताओं का ध्यान रखना था। चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में सोहगौरा (गोरखपुर) और महास्थान (बंगाल) जैसे स्थानों पर कोष्ठागारों का निर्माण किया गया था। यह कोष्ठागार विशेष रूप से अकाल, सूखा या अन्य प्राकृतिक आपदाओं के समय ग्रामीण जनता की मदद करने के लिए बनवाए गए थे।

 

अन्न का संग्रहण और वितरण

 

अर्थशास्त्र में भी कोष्ठागार निर्माण का उल्लेख किया गया है। इन कोष्ठागारों में अन्न संग्रहित किया जाता था, जिसे बाद में अकाल या सूखा जैसी आपदाओं के समय लोगों के बीच वितरित किया जाता था। यह व्यवस्था यह सुनिश्चित करती थी कि जनता को कठिन समय में खाद्यान्न की कमी न हो।

 

न्याय-व्यवस्था 

 

मौर्य साम्राज्य में न्याय व्यवस्था का एक अत्यधिक सुसंगठित ढांचा था। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन में, सम्राट ही सर्वोच्च न्यायाधीश था और वह सभी प्रकार के मामलों का अंतिम निर्णय करता था। इसके अतिरिक्त, सम्पूर्ण साम्राज्य में अनेक न्यायालय भी कार्यरत थे। इन न्यायालयों में मुख्य रूप से दो प्रकार के होते थे –

 

1. धर्मस्थीय न्यायालय 

2. कण्टक-शोधन न्यायालय 

 

न्यायालयों का प्रकार और कार्य 

 

इन न्यायालयों का अंतर बहुत स्पष्ट नहीं था, लेकिन सामान्य रूप से इनका वर्गीकरण दीवानी और फौजदारी न्यायालयों के रूप में किया जा सकता है। दोनों प्रकार के न्यायालयों में तीन-तीन न्यायधीश एक साथ बैठकर मामले की सुनवाई करते थे। इसके अलावा, विदेशी नागरिकों के मामलों के लिए विशेष न्यायालय स्थापित किए गए थे।

 

दण्ड विधान और अपराध 

 

मौर्य काल में दण्ड अत्यन्त कठोर थे। सामान्य अपराधों में अक्सर आर्थिक दण्ड (जुर्माना) लगाए जाते थे। कौटिल्य ने तीन प्रकार के अर्थदण्डों का उल्लेख किया है –

1. पूर्व साहस दण्ड (48 से 96 पण तक)

2. मध्यम साहस दण्ड (200 से 500 पण तक)

3. उत्तम साहस दण्ड (500 से 1000 पण तक)

इनके अलावा, कैद, कोड़े मारना, अंग-भंग और मृत्यु दण्ड की सजा भी दी जाती थी। विशेष रूप से, कारीगरों के अंग-क्षति करने पर मृत्यु दण्ड का प्रावधान था। इसी प्रकार, करों की चोरी करने या राजकीय धन के घोटाले करने पर भी मृत्यु दण्ड की सजा दी जाती थी।

 

अपराधियों और न्याय का कठोरता

 

अर्थशास्त्र से यह भी पता चलता है कि उच्च पदों पर बैठे अधिकारी, जिन्हें ‘युक्त‘ कहा जाता था, कभी-कभी धन का अपहरण करते थे। युक्तों को इस प्रकार की दण्ड व्यवस्था से बचने के लिए विशेष ध्यान रखना पड़ता था, क्योंकि उनका गलत कार्य पकड़ा नहीं जाता था। इसके अलावा, ब्राह्मण विद्रोहियों को जल में डुबो कर मृत्यु दण्ड दिया जाता था।

 

जांच प्रक्रिया और दण्ड 

 

यदि किसी अपराध में प्रमाण नहीं मिलता था, तो जल, अग्नि या विष जैसी दिव्य परीक्षाओं का सहारा लिया जाता था। मेगस्थनीज के अनुसार, मौर्य काल में दण्डों की कठोरता के कारण अपराध बहुत कम होते थे। लोग अपने घरों को असुरक्षित छोड़ देते थे और किसी भी समझौते के लिए लिखित दस्तावेज़ नहीं करते थे। एक उदाहरण में, जब चन्द्रगुप्त के सैनिक शिविर में चोरी हुई थी, तो उसमें चोरी की गई वस्तुओं का मूल्य 200 ट्रेक्कम (Drachma) से भी कम था। यह बताता है कि मौर्य साम्राज्य में अपराध दर बहुत कम थी।

 

न्यायधीश और उनकी भूमिका 

 

अर्थशास्त्र से यह भी पता चलता है कि न्यायधीश बनने के लिए उन व्यक्तियों को चुना जाता था जिनका चरित्र धार्मिक दृष्टि से शुद्ध होता था। वे न्याय, व्यवहार, चरित्र और राजशासन का अध्ययन करके दण्ड का निर्णय करते थे। राजशासन (राजाज्ञा) को सर्वोच्च माना जाता था।

 

न्यायालय के कर्मचारियों के लिए दण्ड 

 

न्यायालय के कर्मचारियों के लिए भी दण्ड की व्यवस्था थी। यदि कोई न्यायधीश गलत बयान लिखता, निरपराध व्यक्ति को कारावास में डालता या अपराधी को छोड़ देता, तो उन्हें दण्ड दिया जाता था।

 

गुप्तचर विभाग 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रशासन अपने विस्तार और सफलता के लिए एक कुशल गुप्तचर विभाग पर निर्भर था। यह विभाग प्रशासन के महत्वपूर्ण अंगों में से एक था, जो सम्राट को साम्राज्य की गतिविधियों की सही और समय पर जानकारी देता था।

 

गुप्तचर विभाग का संरचनात्मक ढांचा 

 

गुप्तचर विभाग एक पृथक् अमात्य के अधीन कार्य करता था, जिसे ‘महामात्यापसर्प‘ कहा जाता था। इस विभाग में केवल उन्हीं व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता था जिनकी निष्ठा और चरित्र की पूरी तरह से जांच की जाती थी। गुप्तचरों को ‘गूढ़ पुरुष‘ के नाम से जाना जाता था।

 

गुप्तचरों का कार्य और कार्यप्रणाली 

 

गुप्तचरों का जाल पूरे साम्राज्य में फैला हुआ था। वे अनेक छ‌द्मवेषों में भ्रमण करते थे और सम्राट को दिन-प्रतिदिन के कार्यों की जानकारी देते थे। उनका मुख्य कार्य सम्राट और प्रशासनिक अधिकारियों की गतिविधियों पर निगाह रखना था। अर्थशास्त्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ‘शत्रु, मित्र, मध्यम और उदासीन सभी प्रकार के राजाओं की गतिविधियों पर गुप्तचरों की नियुक्ति की जानी चाहिए।’

 

गुप्तचर के प्रकार 

 

गुप्तचरों के दो प्रकार होते थे –

1. संस्थाः (स्थिर गुप्तचर) – जो एक ही स्थान पर रहते थे।

2. संचराः (यात्री गुप्तचर) – जो विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते रहते थे।

इन गुप्तचरों का कार्य पूरे साम्राज्य के हर क्षेत्र में फैला हुआ था।

 

महिलाएं और गुप्तचर कार्य 

 

गुप्तचरी के कार्य में महिलाएं भी शामिल होती थीं। विशेष रूप से, वेश्याओं को भी गुप्तचरों के पदों पर नियुक्त किया जाता था। यह कार्य उनके द्वारा की जाती थी, क्योंकि उनके पास ऐसी जानकारी तक पहुंच होती थी, जो अन्यथा पुरुषों के लिए प्राप्त करना मुश्किल था।

 

गुप्तचरों की जिम्मेदारी और दण्ड 

 

गुप्तचरों को यदि गलत सूचना देने की गलती होती, तो उन्हें दण्डित किया जाता था और पद से हटा दिया जाता था। उनका कार्य अत्यंत संवेदनशील और महत्वपर्ण था, इसलिए उनके द्वारा दी गई जानकारी पर पूरी तरह से विश्वास किया जाता था।

 

पुलिस व्यवस्था और शांति बनाए रखना 

 

गुप्तचर विभाग के अलावा, साम्राज्य में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक पुलिस व्यवस्था भी थी, जिसे अर्थशास्त्र में ‘रक्षिन्‘ कहा गया है। यह पुलिस व्यवस्था अपराधों को रोकने और जनता की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कार्य करती थी।

 

भूमि तथा राजस्व 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन में प्रशासन की सफलता एक सुदृढ़ वित्तीय आधार पर निर्भर थी। इसके लिए भूमि और कृषि पर विशेष ध्यान दिया गया था। भूमि और करों के सही तरीके से संग्रहण और वितरण के कारण मौर्य शासन को बहुत सफलता मिली।

 

राजकीय भूमि और कृषि 

 

राज्य का प्रमुख ध्यान कृषि की उन्नति पर था। अधिक से अधिक भूमि को कृषि योग्य बनाने का प्रयास किया गया। भूमि पर राज्य और किसान दोनों का अधिकार होता था। राज्य की भूमि का प्रबंधन ‘सीताध्यक्ष‘ नामक अधिकारी के द्वारा किया जाता था। इस अधिकारी के नेतृत्व में दास, कर्मकार और बंदी लोग खेती करते थे। कुछ भूमि, राज्य द्वारा किसानों को दी जाती थी ताकि वे उस पर खेती कर सकें।

 

भूमिकर और कृषि कर 

 

राज्य का प्रमुख आय स्रोत भूमि-कर था। यह कर सिद्धांततः उपज का 1/6 हिस्सा होता था, लेकिन आर्थिक स्थिति के हिसाब से इसे बढ़ाया भी जा सकता था। मौर्य काल में कृषि आय पर कर की दर 25% तक थी। यदि कोई किसान राजकीय भूमि पर खेती करता था, तो उसे उपज का आधा हिस्सा राज्य को देना होता था। इस तरह भूमि कर ‘भाग‘ के नाम से जाना जाता था। इसके अलावा, किसानों को सिंचाई कर भी देना पड़ता था।

 

राजस्व के अन्य स्रोत 

 

राजकीय आय के अन्य मुख्य स्रोत थे –

 

राजा की व्यक्तिगत भूमि से प्राप्त आय

सीमा शुल्क

चुंगी और बिक्री-कर

व्यापारिक मार्गों, सड़कों और घाटों पर लगने वाले कर

नुज्ञा शुल्क और जुर्माना

 

समाहर्ता और कर संग्रहण 

 

राजस्व को एकत्रित करने और आय-व्यय का लेखा-जोखा रखने का कार्य ‘समाहर्ता’ नामक अधिकारी के जिम्मे था। प्रांतों में कर संग्रहण के लिए ‘गोप‘ नामक अधिकारी नियुक्त किए जाते थे। मौर्य काल में पहली बार कर प्रणाली का विस्तृत रूप से विवरण दिया गया था, जिसे अर्थशास्त्र में पाया जाता है।

 

सरकारी आय का व्यय 

 

राजकीय आय का व्यय कई मदों में किया जाता था, जैसे –

1. सम्राट और उसके परिवार का भरण-पोषण

2. पदाधिकारियों का वेतन और भत्ते

3. सैन्य खर्च और सैनिक कार्यों पर धन व्यय

4. लोकहित कार्यों में खर्च, जैसे सड़कों, नहरों और जलाशयों का निर्माण

5. धार्मिक और शैक्षिक संस्थाओं को दान

इसके अलावा, राज्य द्वारा चलाए जाने वाले उद्योगों, खानों और औद्योगिक कार्यों में भी धन व्यय किया जाता था। नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए औषधालयों का निर्माण किया जाता था और दवाओं का वितरण भी राज्य द्वारा किया जाता था।

 

सेना का प्रबंधन 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य विशाल था, और इस साम्राज्य को बचाने के लिए एक मजबूत सेना की आवश्यकता थी। मौर्य साम्राज्य की सेना अत्यंत विशाल और सुसंगठित थी। इसमें पैदल सेना, घुड़सवार, हाथी, और रथों का एक मजबूत बल शामिल था। सेना का प्रबंधन और प्रशिक्षण चतुराई से किया जाता था।

 

सेना की संरचना 

 

मौर्य सेना में कुल 6 लाख पैदल सैनिक, 30 हजार घुड़सवार, 9 हजार हाथी, और करीब 800 रथ थे। सैनिकों की संख्या समाज में किसानों के बाद सबसे अधिक थी। सैनिकों को नियमित वेतन दिया जाता था। उनका मुख्य कार्य युद्ध करना था। हालांकि, शांति के समय वे आराम से जीवन जीते थे और युद्ध संबंधित सभी सामग्री राज्य द्वारा प्रदान की जाती थी। उन्हें अच्छे वेतन और पुरस्कार भी मिलते थे।

 

सेना का प्रबंधन और समितियाँ 

 

मेगस्थनीज के अनुसार, मौर्य सेना का प्रबंधन छह समितियाँ करती थीं। इन समितियों में पांच-पांच सदस्य होते थे, और प्रत्येक समिति का एक विशिष्ट कार्य था:

1. जल-सेना की व्यवस्था

2. सामग्री, यातायात, और रसद की व्यवस्था

3. पैदल सैनिकों की देखरेख

4. अश्वारोही (घुड़सवार) की व्यवस्था

5. गज-सेना (हाथियों) की व्यवस्था

6. रथों की व्यवस्था

 

सेनापति और अन्य महत्वपूर्ण अधिकारी 

 

सेनापति मौर्य सेना का प्रमुख अधिकारी था। सेनापति को “मन्त्रिणः” (मंत्री) का सदस्य भी माना जाता था और उसे 48,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। सेना के प्रत्येक अंग—अश्वारोही, गज, रथ, और पैदल—के अलग-अलग अध्यक्ष होते थे। ये अध्यक्ष सेनापति के अधीन कार्य करते थे, और इन्हें 8,000 पण का वार्षिक वेतन मिलता था।

 

नायक और युद्ध क्षेत्र में नेतृत्व 

 

युद्ध के समय, सेना का संचालन ‘नायक‘ नामक अधिकारी द्वारा किया जाता था। नायक सेनापति के बाद सबसे महत्वपूर्ण पद था, और उसे 12,000 पण का वार्षिक वेतन प्राप्त होता था। नायक का कार्य युद्ध क्षेत्र में सेना के संचालन को सुनिश्चित करना था।

 

नौसेना और दुर्ग रक्षा 

 

मौर्य साम्राज्य में एक शक्तिशाली नौसेना भी थी। अर्थशास्त्र में ‘नवाध्यक्ष‘ नामक एक पद का उल्लेख है, जो युद्ध पोतों और व्यापारिक पोतों का प्रमुख होता था। इसके अलावा, सीमांत क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए सुदृढ़ दुर्ग बनाए जाते थे। इन दुर्गों के अध्यक्ष ‘अन्तपाल‘ होते थे, जो इनकी रक्षा सुनिश्चित करते थे।

 

लोकोपकारिता के कार्य 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य, जो एक निरंकुश शासक थे, ने अपनी प्रजा के भौतिक जीवन को सुखी और सुविधाजनक बनाने के लिए कई कदम उठाए। उनकी शासन व्यवस्था में लोकोपकारिता (welfare) का प्रमुख स्थान था। उन्होंने प्रजा के कल्याण के लिए कई योजनाएँ बनाई, जिनसे जनता को न केवल सुरक्षा मिली, बल्कि जीवन में सुख-सुविधाएँ भी प्रदान की गईं।

 

यातायात और सिंचाई की व्यवस्था 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य ने यातायात को आसान बनाने के लिए विशाल राजमार्गों का निर्माण करवाया। इसके अलावा, पश्चिमी भारत में सिंचाई की सुविधा बढ़ाने के लिए सुराष्ट्र प्रदेश के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य ने प्रसिद्ध सुदर्शन झील का निर्माण करवाया। यह झील गिरनार (जूनागढ़) के पास स्थित थी और इसका निर्माण कृत्रिम बौध बनाकर किया गया था। इससे नहरों के माध्यम से सिंचाई की जाती थी।

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में सिंचाई के लिए बाँध बनाने की आवश्यकता पर बल दिया था, और संभवतः यह झील उसी विचार से प्रेरित होकर बनाई गई थी। अशोक के समय में, तुषास्प नामक राज्यपाल ने इस झील से पानी निकालने के लिए मार्ग बनाए, जिससे झील की उपयोगिता और बढ़ गई। इसे मौर्यकालीन अभियंत्रण कला का उत्कृष्ट उदाहरण माना जा सकता है।

 

स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए उपाय 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य ने नागरिकों के स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए भी कई उपाय किए। राज्य की ओर से औषधालयों और विद्यालयों की स्थापना की गई, जिससे लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएँ और शिक्षा प्राप्त हो सके।

 

प्रजा की भलाई का ध्यान 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था लोकोपकारी थी। उन्होंने प्रजाहित को सर्वोपरि रखा और उनके कल्याण के लिए निरंतर कार्य किया। उनके शासन का उद्देश्य था कि प्रजा का सुख ही राजा का सुख है, और राजा का हित प्रजा के हित में होता है। कौटिल्य ने प्रशासन की रूपरेखा इस प्रकार से बनाई थी, जिसमें प्रजा की भलाई को सबसे अहम स्थान दिया गया था।

चन्द्रगुप्त मौर्य ने व्यापारी वर्ग के शोषण से जनता को बचाने और दासों को उनके स्वामियों के अत्याचार से सुरक्षा प्रदान करने के लिए उपाय किए। उन्होंने अनाथों, विधवाओं, मृत सैनिकों और कर्मचारियों के भरण-पोषण का जिम्मा राज्य पर डाला।

 

शासन की कठोरता और आलोचना 

 

हालाँकि, चन्द्रगुप्त की शासन व्यवस्था में कई अच्छे पहलू थे, लेकिन कुछ कमियाँ भी थीं। उनका शासन तंत्र बहुत कठोर था। केन्द्रीय नियंत्रण इतना प्रबल था कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता लगभग समाप्त हो गई थी। सामान्य नागरिकों को कठोर नियंत्रण में रहना पड़ता था, और जनमत का कोई वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं था।

साम्राज्य में गुप्तचरों का व्यापक जाल था, जो न केवल सार्वजनिक बल्कि निजी मामलों में भी हस्तक्षेप करते थे। ये गुप्तचर सम्राट को हर गतिविधि से अवगत कराते थे, जिससे नागरिकों की स्वतंत्रता में और कमी आ गई। नौकरशाही का अधिकार बहुत विस्तृत था, और यह उत्पीड़न का कारण बन सकता था। दंड विधान बहुत कठोर था, जिसमें मृत्यु दंड और अमानवीय यातनाएँ आम थीं।

 

चन्द्रगुप्त का शासन और पुलिस राज्य 

 

कुछ आधुनिक विद्वानों ने इस पर आलोचना की है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने सुरक्षा की कीमत पर नागरिक स्वतंत्रता को कुचला और साम्राज्य को एक पुलिस राज्य में बदल दिया। यह सच है कि उनका शासन प्रणाली सख्त थी, लेकिन कालांतर में उनके पोते अशोक ने इन कमियों को पहचाना और प्रशासन में सुधार किया। अशोक ने अपने शासन को प्रजा के हित में और लोकोपकारी बना दिया, जिससे उसकी छवि एक दयालु और धर्मपरायण शासक के रूप में स्थापित हुई।

 

निष्कर्ष 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन व्यवस्था लोकोपकारी थी, लेकिन उसमें कुछ कमियाँ भी थीं। उन्होंने प्रजा की भलाई के लिए कई कदम उठाए थे, लेकिन उनकी शासन प्रणाली में कठोरता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कमी भी थी। इसके बावजूद, उनका शासन प्रशासन और लोकोपकारिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण उदाहरण बना। उनके शासन के बाद अशोक ने इन कमियों को समझा और सुधार कर उसे प्रजा के लिए और अधिक उपयुक्त बना दिया।

 

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