प्राचीन भारतीय इतिहास में सम्राट अशोक का नाम एक प्रेरणा के रूप में लिया जाता है। जैसे किसी साहित्यिक काव्य में नायक की यात्रा संघर्ष से शांति की ओर होती है, ठीक वैसे ही अशोक का जीवन भी एक महान परिवर्तन की कहानी है। युद्ध के मैदान में विजय प्राप्त करने के बाद, उन्होंने अंततः अहिंसा और धार्मिक सहिष्णुता की राह अपनाई। इस परिवर्तन को एक नई दिशा देने के लिए ‘धम्म‘ को अपनाया गया, जो केवल एक धर्म नहीं, बल्कि एक जीवन दर्शन था।
इस धम्म के सिद्धांतों को राज्य में लागू किया गया और समाज में शांति का वातावरण स्थापित किया गया। धीरे-धीरे, यह सिद्धांत सिर्फ मौर्य साम्राज्य तक सीमित नहीं रहे, बल्कि पूरी दुनिया में फैलने लगे। इस लेख में हम देखेंगे कि कैसे अशोक के धम्म ने न केवल उनके साम्राज्य, बल्कि समग्र भारतीय समाज को एक नई दिशा दी।

अशोक का धम्म
अशोक के शासनकाल में उनकी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए थे। इनमें से एक प्रमुख कदम था “धम्म” का प्रचार। यह शब्द संस्कृत के “धर्म” का प्राकृत रूप है, लेकिन अशोक के लिए यह विशेष महत्व रखता था। धम्म के बारे में अपने अभिलेखों में अशोक ने विस्तार से बताया है। यह विचार और आचारधारा अशोक के विश्व इतिहास में प्रसिद्ध होने का प्रमुख कारण है।
धम्म क्या है?
अशोक के दूसरे स्तम्भ-लेख में वह खुद से सवाल करते हैं, “कियं चु धम्मे?” अर्थात् “धम्म क्या है?” इस सवाल का जवाब वह अपने दूसरे और सातवें स्तम्भ लेख में देते हैं। इन लेखों में अशोक ने धम्म को बनाने वाले कुछ विशेष गुणों की पहचान की है, जो इस प्रकार हैं:
अल्प पाप (कम पाप करना)
अत्यधिक कल्याण (अधिक भलाई करना)
दया (दूसरों के प्रति सहानुभूति रखना)
दान (अन्य लोगों को सहायता देना)
सत्यवादिता (सत्य बोलना)
पवित्रता (साफ़-सुथरा रहना)
मृदुता (विनम्र होना)
साधुता (धार्मिक जीवन जीना)
धम्म के लिए आवश्यक आचार
इन गुणों को व्यवहार में लाने के लिए अशोक ने कुछ आचारों को आवश्यक बताया है। ये आचार प्रजा के जीवन में सुधार के लिए दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं। इन्हें निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है:
1. प्राणियों की हत्या न करना ( अनारम्भो प्राणानाम् )
2. प्राणियों को कोई नुकसान न पहुँचाना ( अविहिंसा भूतानाम् )
3. माता-पिता की सेवा करना ( मातरि-पितरि सुसूसा )
4. वृद्धों की सेवा करना ( थेर सुसूसा )
5. गुरुओं का सम्मान करना ( गुरूणाम् अपचिति )
6. मित्रों, परिचितों, ब्राह्मणों और श्रमणों के साथ अच्छा व्यवहार करना ( मित सस्तुत नाटिकाना बहमण-समणाना दान सपटिपति )
7. दासों और नौकरों के साथ अच्छा व्यवहार करना ( दास-भतकम्हि सम्य प्रतिपति )
8. कम खर्च करना ( अप-व्ययता )
9. कम संचय करना ( अपभाण्डता )
धम्म का निषेधात्मक पक्ष
अशोक ने धम्म के सकारात्मक गुणों के साथ-साथ कुछ नकारात्मक गुणों का भी उल्लेख किया है, जिनसे दूर रहना आवश्यक है। इन नकारात्मक गुणों को ‘आसिनव‘ कहा गया है। ये गुण व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में रुकावट डालते हैं। इन दुर्गुणों को अशोक ने तीसरे स्तम्भ लेख में ‘पाप’ के रूप में व्यक्त किया है। ये दुर्गुण इस प्रकार हैं:
1. क्रूरता
2. निष्ठुरता
3. क्रोध
4. अहंकार
5. ईर्ष्या
अशोक के अनुसार, व्यक्ति को इन दुर्गुणों से बचना चाहिए और अच्छे गुणों को अपने जीवन में अपनाना चाहिए। इसके लिए आत्म-निरीक्षण आवश्यक है। केवल इस प्रकार ही धम्म की सच्ची भावना का पालन किया जा सकता है।

धम्म का प्रभाव और उसका महत्व
अशोक के लिए धम्म बहुत प्रिय था। उन्होंने इसे भौतिक जीवन के आचरणों से भी जोड़ा। वह मानते थे कि धम्म किसी भी भौतिक सुख-सुविधा से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। अशोक ने अपने नवें शिलालेख में जीवन के विभिन्न अवसरों पर किए जाने वाले मंगलों का उल्लेख किया और इन्हें अल्पफल वाला बताया। वहीं, धम्म को उन्होंने महाफल वाला माना।
अशोक ने 11वें शिलालेख में सामान्य दान और धम्मदान की तुलना की। उन्होंने धम्मदान को सर्वोत्तम बताया, जो केवल वस्तु दान नहीं, बल्कि धम्म का उपदेश देना, धम्म में भाग लेना और धम्म से अपने आप को जोड़ने के रूप में व्यक्त होता है।
अशोक का धम्म विजय और सैनिक विजय
अशोक ने तेरहवें शिलालेख में सैनिक विजय और धम्म-विजय की तुलना की। वह मानते थे कि सैनिक विजय में हिंसा, घृणा और हत्या होती है, जबकि धम्म-विजय प्रेम, दया, मृदुता और उदारता से भरी होती है। अशोक ने कलिंग युद्ध के पश्चात हिंसा पर पश्चाताप किया और धम्म-विजय को सर्वोत्तम माना।
अशोक की धम्म विजय
सम्राट अशोक के तेरहवें शिलालेख में ‘धम्म विजय‘ की महत्वपूर्ण चर्चा की गई है। इस लेख में अशोक ने बताया कि देवताओं के प्रिय धम्म विजय को सबसे बड़ी विजय मानते हैं। वह यह मानते थे कि यह विजय केवल उनके राज्य में ही नहीं, बल्कि उनके पड़ोसी राज्यों तक भी फैली है। अशोक का यह संदेश बहुत ही शांति और प्रेम से भरा था, जिसमें युद्ध या हिंसा का कोई स्थान नहीं था। यह विजय एक तरह से धम्म का प्रचार और पालन करने की थी।
धम्म विजय का प्रसार
अशोक ने बताया कि उनकी धम्म-विजय छह सौ योजन तक फैली हुई थी, जिसमें अन्तियोक नामक यवन राजा और अन्य चार राजा तुरमय, अन्तिकिन, मग और अलिक सुन्दर है भी शामिल थे। इसके अलावा दक्षिण में चोल, पाण्ड्य और ताम्रपर्णि तक यह विजय पहुंची थी। इसी तरह उनके राज्य में यवनों, कम्बोजों, आन्ध्रक और पुलिन्दों में भी लोग धम्म के अनुशासन को मानने लगे थे। वे यह भी कहते हैं कि जहाँ देवताओं के प्रिय के दूत नहीं गए, वहां भी लोग धम्म का पालन करते हैं और करते रहेंगे। इससे यह स्पष्ट होता है कि यह विजय शांति और प्रेम से प्राप्त हुई थी।
अशोक की धम्म विजय का असली उद्देश्य
अशोक ने अपनी धम्म-विजय को केवल एक धर्म का प्रचार माना। उनके लिए यह कोई राजनैतिक विजय नहीं थी, बल्कि यह एक अभियान था, जिसमें उन्होंने धर्म का प्रचार किया। यह कोई युद्ध या संघर्ष द्वारा प्राप्त विजय नहीं थी, बल्कि यह एक तरह का शांति मिशन था। यदि यह विजय राजनैतिक होती तो अशोक खुद अपने राज्य में इसका दावा नहीं करते। यह केवल उस समय के अन्य राज्यों में धर्म के प्रचार का प्रतीक था, जिसमें अशोक ने किसी भी प्रकार की हिंसा का प्रयोग नहीं किया।

धम्म विजय और राजनैतिक विजय में अंतर
अशोक की ‘धम्म विजय‘ राजनैतिक विजय से बिल्कुल अलग थी। पहले के शासक जैसे कौटिल्य, महाभारत, और समुद्रगुप्त ने धम्म विजय को राजनैतिक प्रभुत्व के रूप में देखा था। इन शासकों ने अपने प्रतिद्वंद्वियों को पराजित करके उन्हें उपहार और भेंट देकर विजय प्राप्त की थी। वहीं, अशोक का धम्म विजय शुद्ध रूप से धार्मिक प्रचार था, जिसमें लोगों को धर्म के पालन के लिए प्रेरित किया गया।
अशोक और हिंसा
अशोक ने भारतीय इतिहास में पहली बार राजनीति में हिंसा का त्याग किया। पहले के शासक युद्ध के जरिए अपनी विजय को मानते थे, लेकिन अशोक ने इसे नकारते हुए अहिंसा और धर्म को प्राथमिकता दी। अशोक का मानना था कि राजनीति में हिंसा धर्म के खिलाफ है, और इसे उन्होंने अपने शासन में लागू किया। यह विचार पहले कभी किसी शासक ने नहीं रखा था। हालांकि बुद्ध और जैन धर्म के समर्थक भी हिंसा का विरोध करते थे, लेकिन वे इसे केवल व्यक्तिगत जीवन तक सीमित रखते थे। अशोक ने इस सिद्धांत को शासकीय जीवन में लागू किया।
अशोक के धम्म का स्वरूप
अशोक के धम्म का स्वरूप बहुत ही सरल और सर्वग्राही था, जिससे यह एक पहेली जैसा लग सकता है। इस धम्म में किसी दार्शनिक या तत्वमीमांसीय सवाल का समाधान नहीं किया गया। अशोक ने न तो महात्मा बुद्ध के चार आर्य सत्य का उल्लेख किया, न ही अष्टांगिक मार्ग का। इसके अलावा आत्मा-परमात्मा के संबंध में कोई अवधारणा नहीं दी। इस वजह से विद्वान इस धम्म को अलग-अलग तरीकों से समझते हैं।
अशोक के धम्म के बारे में विद्वानों के मत
कुछ विद्वान इसे ‘राजधर्म‘ मानते हैं, जैसे फ्लीट का कहना है कि यह अशोक के राजकर्मचारियों के लिए था। हालांकि, यह विचार पूरी तरह से तर्कसंगत नहीं लगता। अशोक के शिलालेखों से साफ है कि यह धम्म केवल राजकर्मचारियों तक सीमित नहीं था, बल्कि सामान्य जनता के लिए भी था। राधाकुमुद मुकर्जी ने इसे ‘सभी धर्मों की साझी सम्पत्ति‘ कहा है। उनके अनुसार, अशोक का व्यक्तिगत धर्म बौद्ध धर्म था, लेकिन जो धर्म उन्होंने जनता के लिए प्रचारित किया, वह ‘सभी धर्मों का सार‘ था। रमाशंकर त्रिपाठी और विसेन्ट स्मिथ जैसे विद्वान भी इसी विचार को सही मानते हैं। त्रिपाठी का कहना है कि अशोक के धम्म के तत्व सार्वभौमिक थे और किसी एक धर्म को बढ़ावा देने के आरोप से इसे नहीं जोड़ा जा सकता।
अशोक के धम्म का बौद्ध धर्म से संबंध
फ्रांसीसी विद्वान सेनार्ट के अनुसार, अशोक का धम्म उस समय के बौद्ध धर्म का एक सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत करता है। वहीं रोमिला थापर का मत है कि यह अशोक का अपना आविष्कार था, जो बौद्ध और हिन्दू विचारधारा से प्रभावित था। उनके अनुसार, अशोक ने जो जीवन पद्धति सुझाई, वह व्यावहारिक और नैतिक थी। इसका उद्देश्य उन लोगों के बीच समन्वय स्थापित करना था, जो दार्शनिक विचारों में उलझे नहीं थे।
अशोक के धम्म पर डी. आर. भण्डारकर का दृष्टिकोण
डी. आर. भण्डारकर ने एक अलग विचार प्रस्तुत किया। भण्डारकर अशोक के धम्म को ‘उपासक बौद्धधर्म‘ (Buddhism for the Laity) कहते हैं। उनके अनुसार, अशोक का धम्म न तो सभी धर्मों का सार था, न ही बौद्ध धर्म का पूर्ण चित्रण था। उनके अनुसार, अशोक का धम्म बौद्ध धर्म के उपासक रूप से लिया गया था। भिक्षु बौद्ध धर्म और उपासक बौद्ध धर्म में अंतर था। अशोक गृहस्थ थे और उन्होंने उपासक बौद्ध धर्म को अपनाया, जो सामान्य गृहस्थों के लिए था। इसमें सामाजिक और नैतिक नियमों का पालन करना महत्वपूर्ण था।
अशोक के धम्म पर उपासक बौद्ध धर्म का प्रभाव
अशोक के धम्म और बौद्ध ग्रंथों के उपासक धर्म के बीच समानताएँ देखी जा सकती हैं। उदाहरण के तौर पर, दीघनिकाय के ‘सिगालावादसुत्त‘ में वे उपदेश दिए गए हैं, जो बौद्ध ने सामान्य गृहस्थों के लिए दिए थे। इन उपदेशों में माता-पिता की सेवा, गुरुओं का सम्मान, मित्रों और रिश्तेदारों के साथ अच्छा व्यवहार, और दासों के साथ सही आचरण की बात की गई थी। अशोक ने भी इसी प्रकार के सामाजिक और नैतिक मूल्यों को अपने धम्म में समाहित किया।
अशोक के धम्म पर रोमिला थापर का दृष्टिकोण
रोमिला थापर का कहना है कि अशोक की धम्म नीति साम्राज्य में एकता स्थापित करने के उद्देश्य से थी। उन्होंने यह समझा कि एकता केवल कठोर नियंत्रण से नहीं, बल्कि भावनात्मक एकता से हो सकती है। इसके लिए उन्होंने धम्म का प्रचार किया। थापर के अनुसार, अशोक ने धम्म को एक सामाजिक उत्तरदायित्व के रूप में देखा, जिसका उद्देश्य मनुष्य के व्यवहार में मानवीय भावनाओं का संचार करना था।
अशोक के धम्म का उद्देश्य
कुछ विद्वान मानते हैं कि अशोक ने धम्म नीति को अपने साम्राज्य में जनाक्रोश को शांत करने के लिए अपनाया था, विशेषकर कलिंग युद्ध के बाद। लेकिन यह विचार बहुत अधिक कल्पना पर आधारित लगता है, क्योंकि तेरहवें शिलालेख में अशोक की जो भावनाएँ व्यक्त हुई हैं, वे इसके विपरीत हैं। अशोक का वास्तविक उद्देश्य अपने प्रजा का भौतिक और नैतिक कल्याण था। उन्होंने जो धम्म नीति बनाई, वह किसी राजनैतिक चाल से नहीं, बल्कि सच्चे दिल से अपनी जनता के भले के लिए थी।
धम्म प्रचार के उपाय
अशोक ने बौद्ध धर्म को अपनाने के बाद शुरू में इसे ज्यादा प्रचारित नहीं किया। बौद्ध धर्म ग्रहण करने के एक वर्ष बाद तक, वह सिर्फ एक सामान्य उपासक के रूप में रहा। इस दौरान उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए कोई विशेष कदम नहीं उठाए। हालांकि, बाद में वह संघ की शरण में आया और वहां कुछ समय तक रहा। इस समय में उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। वह खुद इस बात से चमत्कृत था कि इस छोटे से समय में बौद्ध धर्म में इतनी वृद्धि हुई, जितनी पहले कभी नहीं हुई थी।
अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार के उपाय
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए कई प्रभावी और विविध उपाय अपनाए। उसने अपने विशाल साम्राज्य के विभिन्न साधनों का उपयोग किया। इन उपायों से बौद्ध धर्म का प्रचार केवल भारत में ही नहीं, बल्कि उसके साम्राज्य के अन्य हिस्सों में भी हुआ। आइए, हम अशोक के प्रमुख धर्म प्रचार उपायों पर चर्चा करें।
धर्म-यात्राओं का प्रारंभ
अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार धर्म-यात्राओं से शुरू किया। वह अपने अभिषेक के दसवें वर्ष में बोधगया गया। यह उसकी पहली धर्म यात्रा थी। इससे पहले, वह अन्य राजाओं की तरह केवल विहार यात्राओं पर जाया करता था, जिसमें मृगया और मनोरंजन प्रमुख होते थे। लेकिन कलिंग युद्ध के बाद, उसने विहार यात्राएं छोड़ दीं और धर्म-यात्राएं शुरू की। इन धर्म यात्राओं के दौरान, अशोक ने ब्राह्मणों, श्रमणों, वृद्धों, और जनपदों के लोगों से मिलकर उनसे धर्म का आदेश लिया और उनके साथ धर्म पर चर्चा की। इसके अलावा, अपने अभिषेक के बीसवें वर्ष में, वह लुम्बिनी ग्राम गया और वहां के कर को घटाकर 1/8 कर दिया। उसने नेपाल की तराई स्थित निग्लीवा में कनकमुनि के स्तूप को भी समृद्ध किया। इन कार्यों से जनता पर गहरा प्रभाव पड़ा और वे बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हुए।
अशोक द्वारा राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति
अशोक का साम्राज्य बहुत विशाल था, और यह संभव नहीं था कि वह सभी स्थानों पर जाकर खुद धर्म का प्रचार करता। इसलिए उसने अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को धर्म प्रचार का कार्य सौंपा। स्तम्भ-लेख तीन और सात से यह जानकारी मिलती है कि उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक और युक्त नामक अधिकारियों को धर्म के प्रचार का आदेश दिया। ये अधिकारी हर पाँचवे वर्ष अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर धर्म का प्रचार करते थे और जनता को धर्म की शिक्षाएं देते थे।
धर्मश्रावन और धर्मोपदेश की व्यवस्था
अशोक ने धर्म प्रचार के उद्देश्य से धर्मश्रावन (धम्म सावन) और धर्मोपदेश (धम्मानुसथि) की व्यवस्था भी की। इसके तहत, साम्राज्य के विभिन्न पदाधिकारी जगह-जगह जाकर लोगों को धर्म के विषय में शिक्षा देते थे। ये अधिकारी राजा द्वारा जारी धर्म-सम्बन्धी घोषणाओं से भी जनता को अवगत कराते थे। इस प्रकार, धर्म का प्रचार नियमित रूप से किया जाता था।
अशोक द्वारा धर्ममहामात्रों की नियुक्ति
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्ममहामात्रों का एक नया वर्ग बनाया। अपने अभिषेक के तेरहवें वर्ष में उसने धर्ममहामात्रों की नियुक्ति की। पांचवे शिलालेख में अशोक ने बताया कि पुराने समय में धर्ममहामात्र नियुक्त नहीं होते थे, लेकिन उसने इन्हें नियुक्त किया। इन अधिकारियों का कार्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभावना को समाप्त करना और धर्म की एकता को बढ़ावा देना था। इन धर्ममहामात्रों ने धर्म के प्रचार में अहम भूमिका निभाई और धर्म की वृद्धि में मदद की।
दिव्य रूपों का प्रदर्शन
अशोक ने धर्म को लोकप्रिय बनाने के लिए दिव्य रूपों का प्रदर्शन भी किया। वह जनता को यह दिखाना चाहता था कि धर्म का पालन करने से उन्हें स्वर्गीय सुख मिल सकते हैं। उसने स्वर्गीय रूपों जैसे विमान, हस्ति और अग्निस्कन्ध का प्रदर्शन किया। यह प्रदर्शन लोगों को धर्म की ओर आकर्षित करते थे और उन्हें यह विश्वास दिलाते थे कि धर्म का पालन करने से वे देवत्व प्राप्त कर सकते हैं।
अशोक के लोकोपकारिता के कार्य
अशोक ने धर्म के प्रचार के लिए कई लोकोपकारी कार्य भी किए। उसने पशु-पक्षियों की हत्या पर रोक लगाई और उनके लिए चिकित्सा सुविधाओं का प्रबंध किया। उसने अपने राज्य और अन्य राज्यों में मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सा व्यवस्था की। इसके अलावा, उसने रास्तों में वटवृक्ष लगाए, कुएं खुदवाए और विश्राम गृह बनवाए। उसने प्याऊ भी चलवाए ताकि लोग प्यासे न रहें। इन कार्यों का उद्देश्य लोगों को धम्म का पालन करने के लिए प्रेरित करना था। इन प्रयासों ने जनता पर अच्छा प्रभाव डाला और उन्हें धर्म की ओर आकर्षित किया।
धर्मलिपियों का खुदवाना
अशोक ने धर्म के प्रचार के लिए शिलाओं और स्तम्भों पर धर्म के सिद्धांतों को उत्कीर्ण करवाया। ये शिलालेख पूरे साम्राज्य में फैले हुए थे। इनका एक उद्देश्य था कि ये शिलालेख चिरस्थायी रहें और आने वाली पीढ़ियों को धर्म का अनुसरण करने के लिए प्रेरित करें। इन लेखों में धर्म के उपदेश और शिक्षाएं लिखी होती थीं और ये पाली भाषा में होते थे, जो उस समय की आम जनता की भाषा थी। इन धर्मलिपियों ने बौद्ध धर्म को और अधिक लोकप्रिय बनाया।
अशोक की राजकीय घोषणाएं और आदेश
अशोक ने राजकीय घोषणाओं और आदेशों के माध्यम से भी धर्म का प्रचार किया। इन आदेशों में बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का पालन करने की अपील की जाती थी। उसने नागरिकों से धर्म के बारे में प्रश्न पूछने की भी व्यवस्था की थी, ताकि लोग धर्म के बारे में अधिक जान सकें।
अशोक द्वारा विदेशों में बौद्ध धर्म का प्रचार
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार को केवल भारत तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसने विदेशों में भी धर्म प्रचारक भेजे। उसने विभिन्न देशों में बौद्ध धर्म का प्रसार करने के लिए अपने दूतों को भेजा, जिससे धर्म का प्रभाव एशिया के विभिन्न हिस्सों तक फैला। इसके लिए उसने कई देशों में अपने राजदूत भेजे और बौद्ध धर्म की शिक्षा दी।
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए विदेशों में दूत भेजे। दूसरे और तेरहवें शिलालेखों में उन देशों का उल्लेख है, जहाँ उसने प्रचारक भेजे थे। दक्षिणी भारत के चोल, पाड्य, सतियपुत्त, केरलपुत्त और ताम्रपर्णि (लंका) जैसे राज्यों में प्रचारकों को भेजा गया। तेरहवे शिलालेख में पांच यवन राजाओं का उल्लेख है जिनके राज्यों में अशोक के धर्म प्रचारक गए थे। ये राजा थे:
1. अन्तियोक (सीरियाई नरेश)
2. तुरमय (मिस्री नरेश)
3. अन्तिकिनि (मेसीडोनियन नरेश)
4. मग (एपिरस)
5. अलिंकसुन्दर (सिरीन)
अन्तियोक सीरिया का राजा एन्टियोकस द्वितीय थियोस था। तुरमय मिस्र का शासक टालमी द्वितीय फिलाडेल्फस था, जबकि अन्तिकिन मेसीडोनिया का एन्टिगोनस गोनाटास था। इस शिलालेख में यह भी बताया गया कि जहाँ देवताओं के प्रिय के दूत नहीं पहुंचे थे, वहां के लोग भी धर्मानुशासन और धर्म के प्रचार को सुनकर उसका पालन करने लगे।
यूनानी राज्यों में धम्म प्रचार
कुछ विद्वान यह मानते थे कि अशोक के धर्म प्रचारक यूनानी राज्यों में नहीं गए थे। उनका कहना था कि यूनानी अपनी संस्कृति और धर्म से अत्यधिक संतुष्ट थे और वे भारतीय धर्मों को स्वीकार नहीं कर सकते थे। इसके बावजूद, अशोक के दूतों का उद्देश्य यवनों को बौद्ध धर्म में दीक्षित करना नहीं था। उनका उद्देश्य वहां रहने वाले भारतीय राजनयिकों और अधिकारियों को धर्म का प्रचार करने के लिए प्रेरित करना था।
अशोक के प्रचारक केवल धर्म के उपदेश ही नहीं देते थे, बल्कि उन्होंने उन क्षेत्रों में लोकहितकारी कार्यों की शुरुआत भी की थी, जैसे मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सा की व्यवस्था। इस प्रकार, अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार किया, और संभवतः पश्चिमी एशिया में भी इसका प्रभाव पड़ा।
अशोक के धम्म प्रचार का वैश्विक धार्मिक प्रभाव
सिकंदर के बाद आए यवनों ने अपनी पुरानी संस्कृति को छोड़कर भारतीय संस्कृति को अपनाया था। इसका सबसे अच्छा उदाहरण मेनांडर और हेलियोडोरस हैं। इसके अलावा, मिस्र के राजा टालमी फिलाडेल्फस ने सिकंदरिया में एक बड़ा पुस्तकालय बनवाया था। जिसका मकसद भारतीय ग्रंथों का अनुवाद और संरक्षण करना था। इस सबके बीच, अगर यह सुना जाए कि अशोक के धम्म प्रचार के कारण कुछ यूनानी बौद्ध धर्म अपनाने लगे, तो यह कोई हैरानी की बात नहीं होगी।
अशोक के धम्म प्रचार का असर इतना गहरा था कि पश्चिमी एशिया में बौद्ध धर्म फैल गया था। वहां के विभिन्न धर्मों जैसे ईसाई, एसनस, और राप्यूटी पर भी बौद्ध धर्म का प्रभाव देखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, ईसाई और बौद्ध धर्मों के कुछ रीति-रिवाजों में बहुत समानता है, जैसे पाप की स्वीकृति, उपवास रखना, भिक्षुओं का ब्रह्मचारी रहना, और माला पहनना। यह प्रथाएं भारत में बौद्ध धर्म के प्राचीन समय से ही प्रचलित थीं, तो यह कहना सही होगा कि ईसाइयों ने ये बातें बौद्धों से ही सीखी थीं। और यह सब अशोक के धर्म-प्रचार के कारण ही हुआ था।
अशोक के धम्म का विदेशों में प्रभाव
अशोक के धर्म प्रचार का प्रभाव केवल भारतीय सीमाओं तक ही सीमित नहीं रहा। सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार, पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तृतीय संगीति आयोजित की गई थी। इसके बाद, बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए कई भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गए। महावंश में इन भिक्षुओं के नाम इस प्रकार मिलते हैं:
धर्म प्रचारक देश
1. मज्जन्तिक – कश्मीर और गन्धार
2. महारक्षित – यवन देश
3. मज्जिम – हिमालय देश
4. धर्मरक्षित – अपरान्तक
5. महाधर्मरक्षित – महाराष्ट्र
6. महादेव – महिषमण्डल (मैसूर या मान्धाता)
7. रक्षित – वनवासी (उत्तरी कन्नड़)
8. सोन और उत्तर – सुवर्णभूमि
9. महेंद्र और संघमित्रा – लंका
लंका में बौद्ध धर्म का प्रचार
सम्राट अशोक के पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा ने लंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया। महेंद्र ने लंका के शासक तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। संभवतः तिस्स ने बौद्ध धर्म को अपने राज्य धर्म के रूप में स्वीकार किया और अशोक के अनुकरण पर ‘देवानाम् पिय‘ की उपाधि ग्रहण की।
अशोक का धर्म प्रचार और बौद्ध धर्म का प्रसार
महान अशोक द्वारा किए गए धर्म प्रचार के कारण बौद्ध धर्म भारत की सीमाओं से बाहर फैल गया। यह एक अंतर्राष्ट्रीय धर्म बन गया। अशोक ने बिना किसी राजनीतिक या आर्थिक स्वार्थ के धर्म का प्रचार किया, जो इतिहास में एक अद्वितीय उदाहरण है। उसका यह धर्म प्रचार कार्य न केवल भारत, बल्कि एशिया के कई हिस्सों में भी प्रभावी था।
निष्कर्ष
अशोक का बौद्ध धर्म के प्रचार कार्य बहुत प्रभावशाली था। उसने भारत और विदेशों में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए कई उपाय अपनाए। उसकी इस धर्म प्रचार यात्रा ने बौद्ध धर्म को केवल भारत में ही नहीं, बल्कि एशिया के अन्य हिस्सों में भी एक प्रमुख धर्म बना दिया। यह बौद्ध धर्म का प्रचार किसी भी प्रकार के राजनीतिक या आर्थिक स्वार्थ से मुक्त था, और इसके फलस्वरूप धर्म ने पश्चिमी एशिया में भी अपनी जड़ें फैलाई। अशोक ने धर्म के प्रचार के माध्यम से एक अमूल्य धरोहर छोड़ी, जिसे आज भी याद किया जाता है।