13वीं-14वीं सदी का दिल्ली सल्तनत: सामाजिक और धार्मिक परिवर्तनों का दौर
13वीं-14वीं सदी का दिल्ली सल्तनत काल भारतीय इतिहास में सामाजिक और धार्मिक परिवर्तनों का महत्वपूर्ण दौर था। इस युग में तुर्क-अफगान शासकों के साथ स्थानीय परंपराओं का अनूठा समन्वय देखने को मिला। अभिजात वर्ग (नोबल्स) की शक्ति संघर्ष, व्यापारिक वर्ग की उन्नति, ग्रामीण जमींदारों का प्रभाव, और हिन्दू-मुस्लिम समाज के बीच टकराव व सहयोग की गाथाएँ इस काल को विशिष्ट बनाती हैं। साथ ही, जाति व्यवस्था, दास प्रथा, और स्त्रियों की भूमिका में रूढ़िवादी परंपराएँ भी इस युग की पहचान थीं। यह लेख सल्तनत कालीन सामाजिक और धार्मिक जीवन के उन पहलुओं को उजागर करता है, जिन्होंने भारत के सांस्कृतिक ताने-बाने को गहराई से प्रभावित किया।
13वीं-14वीं सदी में भारत का अभिजात वर्ग: ताकत, संघर्ष और बदलाव की कहानी
कौन थे दिल्ली सल्तनत के ‘नोबल्स’?
13वीं सदी के उत्तर भारत में सबसे प्रभावशाली समूह अभिजात वर्ग (नोबल्स) था। इन्हें मुख्यतः तीन श्रेणियों में बाँटा गया: खान (सबसे ऊँची रैंक), मलिक और अमीर। हालाँकि, यह वर्गीकरण हमेशा स्पष्ट नहीं रहा। शुरुआत में, छोटे प्रशासनिक पदों वाले लोगों जैसे सरजंदार (राजा की निजी सेना प्रमुख) या साक़ी-ए-ख़ास (पेय पदार्थों का प्रभारी) को ‘अमीर’ कहा जाता था। बाद में, यह शब्द धनी और प्रभावशाली लोगों के लिए आम हो गया।
मंगोल प्रभाव और ‘खान’ की उत्पत्ति
दिल्ली सल्तनत में ‘खान’ का टाइटल मंगोलों से प्रेरित था। मंगोल साम्राज्य में ‘ख़ान’ 10,000 सैनिकों का कमांडर होता था। भारत में यह उपाधि विशेष सम्मान देने के लिए इस्तेमाल की जाती थी। उदाहरण के लिए, बलबन को उलुग़ ख़ान की उपाधि मिली। अन्य नोबल्स को इमाद-उल-मुल्क, ख़्वाजा जहाँ जैसे टाइटल्स दिए जाते थे। इन्हें विशेषाधिकार भी मिलते थे, जैसे महँगे कपड़े, झंडे, नगाड़े और हथियार।
रईसों की संख्या और गुटबाज़ी
13वीं सदी में रईसों की संख्या काफी कम थी। इल्तुतमिश के समय 32 मलिक थे, जिनमें 8 विदेशी राजकुमार शामिल थे। अलाउद्दीन ख़िलजी के दौरान यह संख्या बढ़कर 48 हो गई। इनमें तीव्र गुटबाज़ी देखी गई, जहाँ तुर्क, ताजिक, ख़िलजी और हिंदुस्तानी समूहों के बीच संघर्ष होते थे। मजेदार बात यह है कि कई रईस गुलामी से उठकर यहाँ तक पहुँचे थे!
अशराफ और अजलाफ: सामाजिक विभाजन की शुरुआत
रईसों और उलेमा को अशराफ (सम्मानित वर्ग) कहा जाता था। इनके विपरीत अजलाफ (निम्न वर्ग) थे, जिनमें किसान, बुनकर और मजदूर शामिल थे। दोनों वर्गों के बीच विवाह या सामाजिक मेलजोल निषेध था। यह विभाजन भारत आकर और कठोर हुआ, क्योंकि यहाँ जाति व्यवस्था पहले से मौजूद थी।
नौकरियों पर बहस: कौन पाए उच्च पद?
उच्च वर्गों का मानना था कि केवल ‘अशराफ’ को ही शासन में बड़े पद मिलने चाहिए। जब मुहम्मद तुग़लक़ ने नाइयों, रसोइयों और हिंदुओं को उच्च पद दिए, तो विवाद खड़ा हो गया। बाद में, फ़िरोज़ तुग़लक़ ने केवल उन्हें चुना जो ‘सम्मानित परिवारों’ से थे। हैरानी की बात यह है कि उनका वज़ीर ख़ान-ए-जहाँ एक धर्मांतरित ब्राह्मण था, जिसे सभी ने स्वीकार किया!
रईसों की अमीरी: कितना कमाते थे नवाब?
अलाउद्दीन ख़िलजी के समय से राजस्व प्रणाली बदली। रईसों को नकद वेतन मिलने लगा। एक मलिक को 50,000-60,000 टंके, अमीर को 30,000-40,000 टंके मिलते थे। फ़िरोज़ तुग़लक़ के दौरान यह और बढ़ा—ख़ान-ए-जहाँ को सालाना 13 लाख टंके मिलते थे! मृत्यु के बाद कुछ रईसों के 50 लाख टंके तक की संपत्ति मिली, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था के केंद्रीकरण का संकेत था।
व्यापार और संस्कृति में रईसों की भूमिका
धीरे-धीरे, रईसों ने व्यापार और सांस्कृतिक गतिविधियों में रुचि लेना शुरू किया। मुहम्मद तुग़लक़ ने शिहाबुद्दीन कज़्रूनी को जहाज़ देकर ‘व्यापारियों का राजा’ बनाया। संस्कृति के क्षेत्र में अमीर ख़ुसरो और ज़िया नक्शबंदी जैसे लोगों ने हिंदुस्तानी-मुस्लिम संस्कृति को बढ़ावा दिया। इस तरह, योद्धा रईस धीरे-धीरे कला के संरक्षक बनने लगे।
एक बदलते समाज की झलक
दिल्ली सल्तनत काल का अभिजात वर्ग न सिर्फ़ सैन्य शक्ति, बल्कि सामाजिक बदलावों का प्रतीक था। विदेशी मूल के लोगों से लेकर स्थानीय धर्मांतरितों तक, हर वर्ग ने इस व्यवस्था को आकार दिया। हालाँकि, जाति और वर्ग के विभाजन ने भारतीय समाज पर लंबे समय तक प्रभाव छोड़ा। यही कारण है कि मुग़ल काल तक आते-आते यह व्यवस्था और परिष्कृत हो गई।
सरदार से जमींदार तक: ग्रामीण भारत के असली मालिक कौन थे?
राजपूतों का ग्रामीण प्रभुत्व: सत्ता खोने के बाद भी दबदबा!
13वीं-14वीं सदी में राजपूतों ने बड़े शहरों की सत्ता तो खो दी, लेकिन गाँवों पर उनकी पकड़ बरकरार रही। पंजाब, दोआब, गुजरात जैसे इलाकों में इन्हें राय, राणा या रावत कहा जाता था। ये अपने किलों में रहते थे और छोटी सेनाएँ रखते थे। दिलचस्प बात यह है कि तुर्क शासक इन्हें ‘दुश्मन’ बताते थे, लेकिन असल में इनके साथ समझौते करते थे। शर्त सिर्फ़ इतनी थी कि ये नियमित नज़राना (टैक्स) दें और वफादारी दिखाएँ।
तुर्क सुल्तान और हिंदू सरदार: दोस्ती-दुश्मनी का खेल
दोनों के रिश्ते हमेशा तनावपूर्ण नहीं थे। उदाहरण के लिए, बलबन के दरबार में दूर-दूर से हिंदू राय आते थे। फ़िरोज़ तुग़लक़ जब बंगाल पर हमला करने गया, तो गोरखपुर के राय उदय सिंह ने उसकी मदद की और 20 लाख टंका नज़राना दिया। वहीं, मलिक छज्जू के विद्रोह के समय स्थानीय सरदारों ने उसका साथ दिया। हालाँकि, तुर्क शासकों की नीति थी कि जब भी मौका मिले, इन सरदारों की ताकत घटाई जाए।
जमींदार शब्द का जन्म: कैसे बदला इतिहास?
14वीं सदी आते-आते जमींदार शब्द चर्चा में आया। यह शब्द भारत में ही बना और पहली बार अमीर खुसरो ने इस्तेमाल किया। शुरुआत में, यह उन बिचौलियों के लिए प्रयोग होता था जो सरदारों की ज़मीनों पर टैक्स वसूलते थे। धीरे-धीरे, पुराने सरदारों को भी जमींदार कहा जाने लगा। मुग़ल काल तक आते-आते यह शब्द ज़मीन के वंशानुगत मालिकों के लिए प्रचलित हो गया।
सरदारों की लाइफ़स्टाइल: अमीरी और गरीबी का फ़र्क
इतिहासकारों के अनुसार, सरदारों की जीवनशैली बेहद भव्य थी। उनके पास महलनुमा किले, निजी सेना और विशाल ज़मीनें होती थीं। मगर गाँव के आम लोग गरीबी में जीते थे। यहाँ तक कि सुल्तानों द्वारा लगाए गए नए टैक्स सिस्टम से सरदारों के विशेषाधिकार घटे, पर किसानों का बोझ कम नहीं हुआ।
मुग़ल काल की नींव: क्यों महत्वपूर्ण थे जमींदार?
जमींदार सिर्फ़ टैक्स वसूलने वाले नहीं थे। ये गाँवों के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे की रीढ़ थे। इन्होंने स्थानीय विवाद सुलझाए, छोटी सेनाएँ रखीं और संकट के समय लोगों की मदद की। मुग़लों ने इस व्यवस्था को और मजबूत किया। आगे चलकर, अंग्रेज़ों ने भी जमींदारी प्रथा को हथियार बनाया।
सत्ता के बदलते चेहरे
दिल्ली सल्तनत काल के सरदार और जमींदार साबित करते हैं कि भारत की असली ताकत हमेशा गाँवों में रही। ये लोग सुल्तानों के साथ झगड़ते भी थे और सहयोग भी करते थे। आज भी ग्रामीण भारत में जमींदारी प्रथा के अवशेष देखे जा सकते हैं, जो इसके ऐतिहासिक महत्व को दिखाते हैं।
दिल्ली सल्तनत के गुमनाम नायक: न्यायधीश, अधिकारी और उलेमा
काज़ी से मुफ़्ती तक: गाँव-शहर के फ़ैसलाकर्ता
दिल्ली सल्तनत के शासन को चलाने में कई पर्दे के पात्रों का योगदान था। हर शहर में काज़ी और मुफ़्ती नियुक्त किए जाते थे, जो मुस्लिम समुदाय के झगड़े सुलझाते थे। दिलचस्प बात यह है कि हिंदुओं को अपने रीति-रिवाजों के हिसाब से फ़ैसले लेने की आज़ादी थी। इसके अलावा, दाद-बक नामक अधिकारी टैक्स की गलत वसूली रोकते थे, जबकि मुहतसिब सड़कों पर नज़र रखता था कि कोई शरिया कानून न तोड़े।
मदरसों से मकबरों तक: उलेमा का साम्राज्य
मस्जिदों के इमाम, क़ुरान पढ़ने वाले और मदरसों के शिक्षक मिलकर उलेमा वर्ग बनाते थे। इन्हें समाज में बहुत इज्ज़त दी जाती थी। हैरानी की बात यह कि कई उलेमा विदेशों से आए थे—कुछ मंगोलों से बचकर, तो कुछ भारत की दौलत देखकर! पर इनमें से कई को भारत की सामाजिक बारीकियों की समझ नहीं थी, जिससे हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ता था।
पढ़े-लिखों की दोहरी ज़िंदगी: सम्मान भी, आलोचना भी
उलेमा वर्ग पर अक्सर भ्रष्टाचार के आरोप लगते थे। मशहूर कवि अमीर खुसरो ने तो काज़ियों को “अहंकारी और मौकापरस्त” बताया। वहीं, बलबन के बेटे बुग़रा ख़ान ने इन्हें “दुनियादारी में डूबे लोग” कहकर चेतावनी दी। मगर एक सच्चाई यह भी थी कि ये लोग शासकों और आम जनता के बीच सेतु का काम करते थे।
कागज़-कलम वाले सिपाही: प्रशासन की रीढ़
अलाउद्दीन ख़िलजी के नए टैक्स सिस्टम ने हज़ारों क्लर्क और अधिकारियों को जन्म दिया। इनमें आमिल (टैक्स कलेक्टर) और मुहर्रिर (लेखाकार) शामिल थे। हैरानी की बात यह कि 14वीं सदी तक हिंदू भी इस वर्ग में शामिल होने लगे थे! मुहम्मद तुग़लक़ ने तो फ़ारसी जानने वाले हिंदुओं को बड़े पद दिए। यही वह दौर था जब एक नया शिक्षित मध्यम वर्ग उभरा।
गाँव के रिकॉर्डकीपर: मुकद्दम और पटवारी
शहरी अधिकारियों के अलावा, गाँवों में मुकद्दम और पटवारी होते थे। ये ज़मीन के रिकॉर्ड रखते थे और टैक्स वसूलते थे। दिलचस्प बात यह कि ये पद अक्सर स्थानीय लोगों को मिलते थे, जिन्हें गाँव की भाषा और हालात की अच्छी समझ होती थी।
सबक और विरासत: क्यों याद रखें इन्हें?
दिल्ली सल्तनत की यह प्रशासनिक मशीनरी आज के भारत की नींव है। काज़ी का रोल आज के जजों में, तो मुहतसिब की ड्यूटी पुलिस व्यवस्था में देखी जा सकती है। उलेमा वर्ग की तरह आज भी धार्मिक नेता समाज को प्रभावित करते हैं। सबसे बड़ा सबक यह कि प्रशासन चलाने के लिए सिर्फ़ शासक नहीं, सैकड़ों गुमनाम चेहरों का योगदान ज़रूरी होता है।
भारत का प्राचीन व्यापारिक इतिहास: समृद्धि के सूत्र
प्राचीन काल से ही भारत में व्यापार की गौरवशाली परंपरा रही है। धर्मशास्त्रों में ऋण, खरीद-बिक्री और अनुबंधों से जुड़े नियमों का विस्तार से वर्णन किया गया था, जो व्यापारिक व्यवस्था की परिपक्वता को दिखाता है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि वैश्य समुदाय को ‘द्विज’ का दर्जा देकर उनकी सामाजिक-आर्थिक महत्ता को स्वीकार किया गया।
व्यापारियों की श्रेणियाँ: बड़े और छोटे खिलाड़ी
व्यापारिक दुनिया में बड़े और छोटे खिलाड़ियों के बीच साफ अंतर था। ‘नगर श्रेष्ठिन’ यानी बड़े व्यापारी राजाओं के करीबी माने जाते थे। पंचतंत्र की कहानियाँ बताती हैं कि ये लोग शाही परिवारों से खुलकर मेलजोल रखते थे। दूसरी ओर, छोटे दुकानदार (बनिक) और परिवहनकर्ता (बंजारे) अपने स्तर पर काम करते थे।
लंबी दूरी के व्यापार का जादू: हुंडी और बीमा
लंबे रास्ते के व्यापार को ‘हुंडी प्रणाली’ के जरिए फंड किया जाता था। जोखिम को कम करने के लिए बीमा की व्यवस्था भी थी। इसके अलावा, चाँदी के टंके जैसी मजबूत मुद्रा प्रणाली, सुरक्षित सड़कें और शहरों का विकास व्यापार को गति देते थे। साथ ही, इस्लामिक दुनिया से जुड़ाव ने पश्चिम एशिया के साथ रिश्ते मजबूत किए।
मुल्तानी व्यापारी: धन के असली धनी
मध्यकाल में मुल्तान (आज का पाकिस्तान) व्यापार का बड़ा केंद्र था। बोलन दर्रे से कंधार, हेरात और बुखारा तक सीधा कनेक्शन होने के कारण यहाँ के व्यापारी ‘सिल्क रोड’ के जरिए चीन से लेबनान तक सामान पहुँचाते थे। दिलचस्प बात यह है कि इतिहासकार बरनी के अनुसार, मुल्तानी और दिल्ली के ‘साह’ व्यापारी इतने अमीर हो गए थे कि सोना-चाँदी सिर्फ उनके घरों में ही दिखता था!
धार्मिक स्वतंत्रता और सुरक्षा का फायदा
जलालुद्दीन खिलजी के शासन में मुल्तानी व्यापारियों को पूरी धार्मिक आजादी मिली थी। दिल्ली में भी इन्हें बिना डर के रहने और व्यापार करने की छूट थी। इस वजह से ये लोग ऐशो-आराम की जिंदगी जीते थे।
दिल्ली बाजार के नए सितारे: दलाल और विदेशी व्यापारी
अलाउद्दीन खिलजी के बाजार नियंत्रण के बाद ‘दलालों’ का उदय हुआ। ये कमीशन एजेंट खरीददार और विक्रेता को जोड़कर पैसा कमाते थे। बरनी ने घोड़ों के व्यापार में सक्रिय मुस्लिम दलालों की तीखी आलोचना की है। उनके मुताबिक, ये इतने ताकतवर हो गए थे कि सुल्तान के आदेशों को भी नजरअंदाज कर देते थे!
विदेशी व्यापारियों का जलवा
दिल्ली के बाजारों में इराकी, ईरानी और खुरासानी मुस्लिम व्यापारी हावी थे। इब्नबतूता लिखते हैं कि भारत में सभी विदेशी व्यापारियों को ‘खुरासानी’ कहा जाता था। अफगान व्यापारी घोड़ों और काफिला व्यापार में माहिर थे। हैरानी की बात यह है कि अलाउद्दीन के काजी हिसामुद्दीन के पिता-दादा भी मुल्तान के बड़े व्यापारी थे!
गुजरात: समुद्री व्यापार का गढ़
गुजरात में भारतीय और विदेशी व्यापारियों का जबरदस्त नेटवर्क था। मिस्र के शिहाबुद्दीन काज़रूनी जैसे लोग, जो खंभात में रहते थे और कई जहाजों के मालिक थे, यहाँ सक्रिय थे। साथ ही, जैन, मारवाड़ी, गुजराती बनिया और बोहरा समुदाय भी व्यापार में आगे थे। रोचक तथ्य: अलाउद्दीन का प्रसिद्ध जनरल मलिक काफूर भी एक गुजराती व्यापारी से खरीदा गया था!
क्या आप जानते हैं?
– ‘हुंडी प्रणाली’ आज के बैंक ड्राफ्ट जैसी थी
– मुल्तानियों में ज्यादातर हिंदू व्यापारी थे
– सड़क सुरक्षा बढ़ने से व्यापारी लंबे रूट चुनते थे
– ‘साह’ शब्द का मतलब होता था बड़ा साहूकार
इस तरह, व्यापारिक वर्ग ने न सिर्फ भारत की अर्थव्यवस्था को गति दी, बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान में भी अहम भूमिका निभाई। आज भी मारवाड़ी या गुजराती बनिया समुदायों की व्यापारिक सूझबूझ इसी ऐतिहासिक विरासत की देन है!
सुल्तानों की शानो-शौकत और उनका प्रभाव
मध्यकालीन भारत के सुल्तानों की जीवनशैली आलीशान महलों, महँगे कपड़ों, हरम में सैकड़ों महिलाओं और रिश्तेदारों के रखरखाव पर टिकी थी। इसके अलावा, उनके राजकीय अस्तबल, कवियों-विद्वानों को दिए जाने वाले उपहार और गहनों का खजाना भी प्रजा पर रौब जमाने का जरिया था। आज के अमीरों की तरह, इन सुल्तानों के व्यक्तिगत खर्चों पर ज्यादा चर्चा करने की जरूरत नहीं, लेकिन उनकी जीवनशैली का समाज पर गहरा असर जरूर पड़ता था।
उनकी जीवनशैली के उदाहरण
बलबन के चचेरे भाई मलिक किश्ली ख़ान ने एक बार कवियों को अपने सभी घोड़े और 10,000 टंके दान कर दिए थे। वहीं, बलबन के कोतवाल फखरुद्दीन ने हर साल 12,000 कुरान पाठकों को सहायता दी और 1000 गरीब लड़कियों की शादी का खर्च उठाया। यही नहीं, वह कभी एक ही कपड़ा दोबारा नहीं पहनता था! मुहम्मद बिन तुगलक के एक अमीर मीर मकबूल ने सालाना साढ़े तीन लाख टंके खर्च किए, जबकि फिरोज तुगलक के वज़ीर के हरम में 20,000 महिलाएँ रहती थीं।
अमीरों की फिजूलखर्ची
अमीरों की यह फिजूलखर्ची सिर्फ दिखावे तक सीमित नहीं थी। इनके कारण देश में विशेष उद्योगों का विकास हुआ, जो महँगे कपड़े, गहने और लक्ज़री सामान बनाते थे। हालाँकि, अधिकांश अमीर अपना धन जमा करने या उत्पादक कामों में लगाने के बजाय खर्च कर देते थे। सिर्फ मुहम्मद बिन तुगलक और फिरोजशाह तुगलक के समय बाग़ों के निर्माण जैसे कुछ अपवाद सामने आए।
अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ा?
सुल्तानों और अमीरों की शानो-शौकत ने अर्थव्यवस्था को दो तरह से प्रभावित किया। एक तरफ, लक्ज़री सामानों की मांग से नए उद्योग पनपे, तो दूसरी तरफ आम लोगों की जिंदगी महँगाई और कम मजदूरी से जूझती रही।
विशेष उद्योगों का उदय
अमीरों की जरूरतों को पूरा करने के लिए देशभर में रेशमी कपड़े, गहने और शाही साज-सामान बनाने वाले उद्योग फले-फूले। इन उद्योगों में काम करने वालों की संख्या का सही अंदाज़ा तो नहीं, लेकिन माना जाता है कि यह संख्या काफी बड़ी रही होगी।
पैसे का इस्तेमाल कैसे होता था?
दिलचस्प बात यह है कि अमीर अपना पैसा न तो बचाते थे और न ही कारोबार में लगाते थे। मुहम्मद तुगलक के दौर में बाग़ों के निर्माण को छोड़कर, ज्यादातर धन विलासिता में ही बहा दिया जाता था। इससे आम जनता को रोजगार तो मिलता था, लेकिन अर्थव्यवस्था का संतुलन बिगड़ता रहा।
आम लोगों की ज़िंदगी कैसी थी?
शहरों में रहने वाले मध्यम वर्ग और गरीबों का जीवन कीमतों और मजदूरी के उतार-चढ़ाव पर निर्भर था। हकीम, कवि या संगीतकार जैसे पेशेवरों की स्थिति उनके संरक्षकों पर टिकी होती थी। उदाहरण के लिए, अमीर खुसरो के पिता को बलबन से सालाना 1200 टंके मिलते थे।
कीमतों और मजदूरी का खेल
अलाउद्दीन खिलजी से पहले कीमतों के बारे में जानकारी कम है, लेकिन उसने बाजार नियंत्रण से खाद्यान्न सस्ते करवाए। बरनी के मुताबिक, गेहूँ 7½ जीतल प्रति मन और चावल 5 जीतल पर मिलता था। मजदूरी इतनी कम थी कि एक कारीगर को महीने में सिर्फ 1½ से 2 टंके मिलते थे। हालाँकि, छह जीतल की रोटी और मांस की यखनी 8-10 लोगों के लिए काफी होती थी।
अलाउद्दीन का बाजार कंट्रोल
अलाउद्दीन की मौत के बाद मूल्य नियंत्रण टूट गया। कीमतें बढ़ने लगीं और मजदूरी चार गुना हो गई। इब्नबतूता के अनुसार, कीमतें डेढ़ गुना तक बढ़ीं, लेकिन मजदूरी भी उसी अनुपात में ऊपर गई। अलाउद्दीन के बाजार नियंत्रण प्रणाली पर अधिक जानने के लिए
फिरोज के समय की स्थिति
फिरोज तुगलक के शासन में कीमतें फिर से गिर गईं, लेकिन मजदूरी ऊँची बनी रही। इतिहासकार अफीफ़ के मुताबिक, यह बिना किसी कोशिश के हुआ। माना जाता है कि अच्छी फसल और चाँदी की कमी जैसे कारणों से कीमतों में उतार-चढ़ाव होता रहा।
इतिहासकारों के बीच बहसें
आज भी विद्वानों में इस बात को लेकर मतभेद हैं कि मध्यकालीन भारत में कीमतों के उतार-चढ़ाव का मुख्य कारण क्या था। कुछ का मानना है कि खेती के विस्तार और फसल अच्छी होने से कीमतें नियंत्रित रहीं, तो कुछ चाँदी की वैश्विक कमी को जिम्मेदार ठहराते हैं। इस प्रकार, सुल्तानों की विलासिता से लेकर आम आदमी तक के जीवन की कहानी आर्थिक और सामाजिक पहेलियों से भरी है।
नगर और नगर जीवन: कारीगर और दास
उत्तर भारत में नगरों का पुनरुत्थान
10वीं शताब्दी के बाद उत्तर भारत में नगरों का विस्तार हुआ। 13वीं शताब्दी में तुर्की शासन स्थापित होने के साथ नगरों का महत्व और बढ़ा। दिल्ली इस्लामी दुनिया के पूर्वी भाग का सबसे बड़ा नगर बना। दौलताबाद (देवगिरि) को भी समान महत्व प्राप्त हुआ। अन्य प्रमुख नगरों में मुल्तान, लाहौर, करा (आधुनिक प्रयागराज के निकट), लखनौती और खंबायत शामिल थे।
नगरों की सामाजिक संरचना
नगरों में कुलीन वर्ग, व्यापारी, दुकानदार, सैनिक और शिल्पकार रहते थे। सबसे बड़ा वर्ग सेवकों, दासों, कारीगरों, संगीतकारों, कलाकारों और भिखारियों का था। हालांकि, इनके सामाजिक जीवन के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। नगरों में विभिन्न जातीय और सामाजिक पृष्ठभूमि के लोग रहते थे, जिससे यह विविधताओं का केंद्र बनते थे।
नगरों में सुरक्षा व्यवस्था
कोतवाल नगर में प्रवेश और सुरक्षा की निगरानी करता था। वह कानून व्यवस्था बनाए रखने के साथ-साथ बाजार और अनैतिक गतिविधियों (जैसे जुआ, वेश्यावृत्ति) पर भी नजर रखता था। पेशे से जुड़े लोग अपने-अपने मोहल्लों में रहते थे। रात में इन मोहल्लों को सुरक्षा के लिए बंद कर दिया जाता था।
नगरों की भौगोलिक संरचना
नगरों में अलग-अलग वर्गों के लिए निश्चित क्षेत्र होते थे। राजा और कुलीन वर्ग के लिए विशेष इलाके बनाए जाते थे। वहीं, मेहतर, चर्मकार और भिखारी नगर की दीवारों के भीतर, लेकिन बाहरी हिस्सों में रहते थे। दिल्ली में बड़ी संख्या में भिखारी रहते थे। वे कुलीनों के घरों से दान लेते थे या सूफी संतों की दरगाहों में शरण लेते थे। कई बार ये भिखारी हथियार लेकर घूमते थे, जिससे कानून व्यवस्था प्रभावित होती थी।
नगरों में शिल्प और कारीगर
नगर शिल्पकला के महत्वपूर्ण केंद्र थे। बुनाई, कढ़ाई, कपड़ों पर चित्रकारी जैसी कलाएं फली-फूलीं। शाही कारखानों में कारीगर काम करते थे। यहाँ सोने-चाँदी की जरीदार कढ़ाई वाले वस्त्र और रेशमी कपड़े बनाए जाते थे। अधिकतर कारीगर अपने घरों पर काम करते थे और जाति-आधारित श्रेणियों (गिल्ड) में संगठित थे।
ग्रामीण और शहरी शिल्पकला
शिल्प केवल नगरों तक सीमित नहीं थी। दक्षिण भारत और गुजरात में छोटे नगरों और गाँवों में विशेष वस्त्र उत्पादन होता था। भारत में शिल्पकला नगर और गाँव के बीच विभाजित नहीं थी। कई कारीगर गाँवों से नगरों की ओर आते थे, जिससे नगरों का विकास होता था।
दास प्रथा: भारत और पश्चिम एशिया में इसका प्रभाव
दास प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही थी। भारत, पश्चिम एशिया और यूरोप में यह आम बात थी। हिंदू शास्त्रों में दासों के विभिन्न प्रकार बताए गए हैं—कुछ जन्म से, कुछ खरीदे हुए, कुछ युद्ध में पकड़े गए और कुछ उत्तराधिकार में मिले। अरबों और तुर्कों ने भी इस प्रथा को अपनाया। सबसे सामान्य तरीका युद्ध में बंदी बनाकर दास बनाने का था। महाभारत में भी युद्धबंदियों को दास बनाना स्वाभाविक माना गया है।
भारत और पश्चिम एशिया में दास बाजार
भारत और पश्चिम एशिया में दासों का व्यापार बहुत बड़ा था। तुर्की, काकेशियाई, ग्रीक और भारतीय दासों की मांग अधिक थी। अफ्रीका, विशेष रूप से अबीसीनिया से भी, कुछ दास आयात किए जाते थे। पुरुषों और महिलाओं को घरेलू कार्यों, संगति या उनके विशेष कौशल के कारण खरीदा जाता था। सुंदर युवतियाँ और कुशल दास ऊँची कीमत पर बिकते थे।
युद्ध और दास प्रथा
तुर्कों ने भारत में आकर भी इस परंपरा को जारी रखा। 1195 में गुजरात के आक्रमण के दौरान कुतुबुद्दीन ऐबक ने 20,000 लोगों को दास बनाया। कालिंजर पर हमले में यह संख्या 50,000 तक पहुँच गई। बलबन और अलाउद्दीन खिलजी के समय बड़े पैमाने पर दास बनाने की घटनाएँ कम हुईं, लेकिन फिर भी युद्धबंदियों को दास बनाया जाता था। शांतिपीठी अभियानों के दौरान हजारों पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को पकड़कर दिल्ली के बाजारों में बेचा गया। बारानी ने लिखा कि सुंदर लड़के और दासियाँ गाय-बैलों की तरह बिकते थे।
दासों का उपयोग और उनका जीवन
मध्य एशिया में तुर्की दासों का उपयोग सैन्य कार्यों में होता था, जबकि दिल्ली में वे घरेलू सेवाओं के लिए बिकते थे। छोटे अधिकारी भी दास रखते थे। आमतौर पर, दासों को कारीगर बनने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता था। दासियाँ कताई जैसे कार्यों में लगाई जाती थीं। यहाँ तक कि कुछ सूफी संत भी अपने दासों की कमाई पर निर्भर थे।
फिरोज तुगलक और दास नीति
फिरोजशाह तुगलक ने इस प्रथा में बदलाव किया। उसने युद्ध में पकड़े गए अमीर दासों को सुल्तान की सेवा में भेजने का आदेश दिया। इसके तहत 1,80,000 दास एकत्र किए गए। इनमें से कुछ को धार्मिक शिक्षा दी गई, जबकि 12,000 दासों को कारीगर बनाकर विभिन्न परगनों में भेजा गया। इससे स्पष्ट होता है कि नगरों में प्रशिक्षित कारीगरों की कमी थी।
दासों की स्थिति और विद्रोह
दासों को सशस्त्र बलों में भी रखा गया, लेकिन तुर्की मॉडल पर जनिसारी बल बनाने का प्रयास असफल रहा। फिरोज तुगलक की मृत्यु के बाद दासों का यह समूह राजा बनाने की कोशिश करने लगा, लेकिन इसे हराकर खत्म कर दिया गया।
मुगल काल में दास प्रथा
मुगलों के समय घरेलू दासता जारी रही, लेकिन दासों की भूमिका उत्पादन और सैन्य गतिविधियों में सीमित थी। हालाँकि, दास प्रथा अमानवीय थी और इसने स्वतंत्र श्रम की स्थिति को प्रभावित किया। इससे मजदूरी दरें गिर गईं और श्रमिकों की स्वतंत्रता बाधित हुई।
हिन्दू समाज की जड़ों में बदलाव की कमी
इस दौर में हिन्दू समाज की बुनियादी संरचना लगभग वैसी ही रही। स्मृति ग्रंथों में ब्राह्मणों को ऊँचा दर्जा देने की परंपरा कायम रही, लेकिन इस वर्ग के अयोग्य लोगों की आलोचना भी खुलकर की गई। दिलचस्प बात यह है कि ब्राह्मणों को सामान्य समय में भी खेती करने की छूट मिली थी। कारण साफ था—यज्ञ और धार्मिक कर्मकांड से कलियुग में पेट नहीं भरता था!
क्षत्रिय और शूद्र: कर्तव्यों की कहानी
क्षत्रियों का मुख्य काम दुष्टों को सजा देना और सज्जनों की रक्षा करना बताया गया। साथ ही, हथियार रखने का अधिकार सिर्फ उन्हीं के पास था। दूसरी तरफ, शूद्रों के नियम पहले जैसे ही थे—उनका मुख्य काम ऊँची जातियों की सेवा करना था। हालाँकि, शराब और मांस के अलावा कोई भी व्यवसाय चलाने की उन्हें इजाजत थी। वेद पढ़ने पर पाबंदी जारी रही, लेकिन पुराण सुनने की छूट थी। कुछ लेखक तो शूद्र के साथ रहने-बैठने तक को गलत मानते थे!
स्त्रियों की स्थिति: पुराने ढर्रे पर चलता समाज
इस काल में महिलाओं की जिंदगी में कोई खास बदलाव नहीं आया। बाल विवाह का चलन जारी रहा, और पत्नी का मुख्य धर्म पति की सेवा करना ही माना जाता था। विधवा पुनर्विवाह को तीन ऊँची जातियों के लिए पूरी तरह मना कर दिया गया। हालाँकि, अगर पति ने छोड़ दिया हो या गंभीर बीमारी हो, तो शादी तोड़ने की गुंजाइश कुछ लेखकों ने दी।
सती प्रथा और संपत्ति के नए नियम
सती प्रथा को लेकर लेखकों में मतभेद थे। कुछ इसे पूरी तरह समर्थन देते थे, तो कुछ शर्तों के साथ। इब्न बतूता जैसे यात्रियों ने इसका जीवंत वर्णन किया है। उन्होंने देखा कि एक महिला को सुल्तान की इजाजत के बाद ही चिता पर चढ़ने दिया गया। संपत्ति के मामले में, विधवाओं को नया अधिकार मिला—पुत्रहीन पति की अलग की गई संपत्ति पर उनका पूरा हक था। वे इसे बेच भी सकती थीं या इस्तेमाल कर सकती थीं।
पर्दा प्रथा: डर से शुरू, प्रतिष्ठा का प्रतीक बना
उच्च वर्ग की महिलाओं में पर्दा करने का चलन तेजी से बढ़ा। इसकी शुरुआत का कारण था आक्रमणकारियों से सुरक्षा का डर। मगर बाद में यह अमीरों की पहचान बन गया। ध्यान देने वाली बात यह है कि पर्दे का विचार भारत में विदेशी प्रभाव से आया। अरब और तुर्क इसे अपने साथ लाए, जिससे उत्तर भारत में यह फैला। नतीजतन, महिलाएँ पुरुषों पर ज्यादा निर्भर होने लगीं।
मुस्लिम समाज: जाति की दीवारें यहाँ भी!
मुस्लिम समाज भी नस्ल और जाति के आधार पर बँटा हुआ था। तुर्क, ईरानी और अफगान आपस में शादी तक नहीं करते थे। हैरानी की बात यह है कि हिन्दुओं से मुसलमान बने लोगों के साथ भी भेदभाव किया जाता था। यहाँ तक कि मुस्लिम समाज ने हिन्दुओं की जाति व्यवस्था जैसी रूढ़ियाँ अपना ली थीं!
हिन्दू-मुस्लिम संबंध: टकराव और सहयोग की मिली-जुली कहानी
दोनों समुदायों के बीच सामाजिक मेलजोल कम था। मुसलमान खुद को श्रेष्ठ समझते थे, तो हिन्दू उन्हें शूद्रों जैसा व्यवहार देते थे। मगर यह धारणा गलत है कि दोनों एकदम अलग थे। हकीकत यह है कि मुस्लिम सेनाओं में हिन्दू सैनिक होते थे। अमीरों के निजी सलाहकार भी हिन्दू हुआ करते थे। स्थानीय प्रशासन में तो हिन्दू अधिकारियों का बोलबाला था। फिर भी, सांस्कृतिक अंतर और हितों के टकराव ने तनाव पैदा किया, जिससे समन्वय की रफ्तार धीमी हो गई।
परंपरा और बदलाव की धीमी रफ्तार
इस पूरे काल में सामाजिक ढाँचे की जड़ें मजबूत बनी रहीं। जाति, रीति-रिवाज और स्त्रियों की भूमिका में बड़े बदलाव नहीं आए। मगर संपत्ति के अधिकार और सामाजिक व्यवहार के कुछ नए नियमों ने आगे के बदलावों की नींव जरूर रखी। दोनों समुदायों के बीच टकराव के बावजूद, प्रशासन और रोजमर्रा के जीवन में सहयोग की कहानियाँ भी इस दौर की पहचान हैं।
निष्कर्ष
दिल्ली सल्तनत काल ने भारतीय समाज को एक जटिल सामाजिक-धार्मिक ढाँचा प्रदान किया। अशराफ और अजलाफ जैसे वर्गीकरण, गुलामी से उठकर अमीर बनने वाले अभिजात वर्ग , मुल्तानी व्यापारियों की समृद्धि, और ग्रामीण जमींदारों की सत्ता ने इस युग को गतिशील बनाया। वहीं, हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था की मजबूती, स्त्रियों पर पाबंदियाँ, और हिन्दू-मुस्लिम संबंधों में तनाव व सहअस्तित्व की मिश्रित छवि दिखाई दी। धार्मिक स्तर पर उलेमाओं का प्रभाव और सूफी-भक्ति आंदोलनों की शुरुआत ने भविष्य के सांस्कृतिक संवाद की नींव रखी। यह काल सामाजिक विरोधाभासों, आर्थिक बदलावों और सांस्कृतिक समन्वय का प्रतीक है, जिसकी छाप मुगल काल तक देखी जा सकती है।