वर्णाश्रम व्यवस्था का परिचय
हिन्दू समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्थान है, जिसमें समाज को दो मुख्य आधारों – वर्ण और आश्रम – में विभाजित किया गया था। यह व्यवस्था मनुष्य के स्वभाव और उसके प्रशिक्षण पर आधारित थी, जिसका उद्देश्य समाज में सामंजस्य बनाए रखना और सभी को उनके उत्तरदायित्व का एहसास कराना था। इस लेख में हम वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति और विकास का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करेंगे।
वर्ण व्यवस्था का उद्देश्य और महत्व
प्राचीन हिन्दू शास्त्रकारों ने वर्ण व्यवस्था को समाज में विभिन्न कार्यों का बंटवारा करके स्थिरता और संगठन बनाए रखने के उद्देश्य से तैयार किया। यह व्यवस्था सुनिश्चित करती थी कि हर व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करके समाज और स्वयं का विकास कर सके। इस व्यवस्था में व्यक्ति का परिवार, समुदाय, और समाज के प्रति निष्ठापूर्ण दायित्व होता था, जिससे समाज में एक स्वस्थ और शांतिपूर्ण वातावरण बना रहता। इस प्रकार समाज में वर्ग-संघर्ष और प्रतिस्पर्धा का स्थान नहीं था और हर वर्ग अपने दायित्वों का सम्मान करता था।
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति और विकास
‘वर्ण’ शब्द संस्कृत के ‘वृ’ धातु से निकला है, जिसका अर्थ ‘चयन’ या ‘वृत्ति’ होता है। प्राचीन समय में इसका अर्थ ‘रंग’ भी था, जिससे आर्यों ने अपने आप को श्वेत वर्ण और दास-दस्युओं को कृष्णवर्ण से संबोधित किया था। परंतु बाद में समाज में वृत्ति और व्यवसाय के आधार पर वर्णों का विभाजन हुआ। जैसे-जैसे समय बीता, यह विभाजन जन्म के आधार पर हो गया और वर्ण व्यवस्था धीरे-धीरे जाति में बदल गई।
वर्ण व्यवस्था का दिव्य सिद्धांत
प्राचीन ग्रंथों में वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति को दिव्य माना गया है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में कहा गया है कि समाज के चारों वर्णों की उत्पत्ति विराट पुरुष के चार अंगों से हुई है – ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य जंघे से और शूद्र पैरों से। समाज को एक शरीर के रूप में दर्शाने का यह प्रयास था, जहां प्रत्येक वर्ण का एक निश्चित कार्य था।
ब्राह्मण, मुख से उत्पन्न होकर समाज के शिक्षक बने, क्षत्रिय भुजाओं से उत्पन्न होकर समाज की रक्षा करते थे, वैश्य जंघा से उत्पन्न होकर समाज के लिए अन्न का उत्पादन करते थे, और शूद्र पैर से उत्पन्न होकर अन्य तीनों वर्णों की सेवा करते थे। इस विचार को महाभारत, गीता, और पुराणों में भी समर्थन मिला है।
गुण और कर्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था का सिद्धांत
वास्तव में, वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति में कर्म (कार्य) ही मुख्य कारक था। गीता में भगवान कृष्ण ने वर्णों की उत्पत्ति को गुण (सतोगुण, रजोगुण, और तमोगुण) और कर्म (कार्य) के आधार पर बताया। जिनमें सत्व गुण प्रधान होता था, उन्हें ब्राह्मण कहा गया; रज प्रधान होने पर व्यक्ति क्षत्रिय बनते थे; रज और तम गुण वाले वैश्य और तम प्रधान व्यक्ति शूद्र माने जाते थे।
प्रारंभिक वर्ण व्यवस्था और कालांतर में परिवर्तन
प्राचीन समय में समाज को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया गया था – आर्य और दास। आर्यों के भारत में स्थिर हो जाने के बाद, उन्होंने भिन्न-भिन्न कर्मों के आधार पर वर्गों का निर्माण किया। धार्मिक कर्मों के लिए ब्राह्मण, युद्धकला में निपुण क्षत्रिय, और जनसाधारण को वैश्य कहा गया। इसके बाद, शूद्र वर्ग को जोड़ा गया।
शुरुआत में शूद्रों को निम्न स्थान प्राप्त था, लेकिन विद्वानों का मानना है कि यह वर्ग आर्य और अनार्य दोनों के श्रमिक वर्ग का समावेश था। जैसे-जैसे आर्थिक और सामाजिक असमानता बढ़ी, श्रमिक वर्ग की पहचान एक स्वतंत्र वर्ग के रूप में होने लगी।
वर्ण व्यवस्था में कर्म का महत्व
महाभारत के शान्तिपर्व और वायु पुराण में वर्ण व्यवस्था में कर्म की महत्ता को दर्शाया गया है। महाभारत में कहा गया है कि समाज का निर्माण ब्राह्मण वर्ण से हुआ, और बाद में कर्म के आधार पर अन्य वर्णों का उदय हुआ। वायु पुराण में कहा गया कि समाज के विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार हुई।
इस प्रकार, यह स्पष्ट होता है कि वर्ण व्यवस्था का प्रारम्भिक स्वरूप कर्म या कार्य पर आधारित था। कालांतर में जब वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म पर केंद्रित हुआ, तो इसने जातियों का रूप ले लिया। महाकाव्यों के काल तक (लगभग 5वीं सदी ईसा पूर्व) वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो चुकी थी।
ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का विकास
प्राचीन भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था का आधार शुरू से ही व्यक्तियों के गुणों और कार्यों पर आधारित था। ऋग्वैदिक काल में समाज मुख्यतः तीन वर्गों में विभाजित था: ब्रह्म (ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े), क्षत्र (रक्षा और शासन में संलग्न), और विश (सामान्य जन या कृषक, व्यापारी आदि)। इस समय शूद्र का वर्ण अलग रूप में नहीं था, और एक ही परिवार के लोग अलग-अलग व्यवसाय अपना सकते थे। इसका प्रमाण एक ऋषि के कथन में मिलता है: “मैं कवि हूं, मेरा पिता वेद्य और मेरी माता अन्न पीसने का कार्य करती है।” इससे स्पष्ट है कि एक ही परिवार के सदस्य भिन्न व्यवसाय अपना सकते थे। खान-पान और विवाह में भी कोई प्रतिबंध नहीं था। इसलिए, ऋग्वैदिक समाज में वर्ण व्यवस्था जन्म या वंश पर आधारित न होकर गुण और कर्म पर आधारित थी।
उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का रूपांतरण
उत्तर वैदिक काल तक चारों वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – स्पष्ट हो चुके थे। इस समय ब्राह्मणों का समाज में सर्वोच्च स्थान था और उन्हें देवता का रूप माना गया। वे धार्मिक क्रियाओं के संचालक और राजा के पुरोहित होते थे। क्षत्रिय वर्ण का कार्य शासन और रक्षा था, और कई क्षत्रिय अपने ज्ञान के कारण भी प्रसिद्ध थे। वैश्य समाज में तीसरे स्थान पर थे, जिनका मुख्य कार्य कृषि और पशुपालन था। वहीं, शूद्र वर्ण की स्थिति न्यून मानी गई और उन्हें धार्मिक कार्यों से वंचित रखा गया। इस काल में शूद्रों की स्थिति खराब नहीं थी, और उनमें से कुछ ने शिक्षा और समाज में स्थान भी पाया। वर्ण व्यवस्था में भले ही विभाजन की भावना जन्म ले चुकी थी, लेकिन यह कठोर रूप नहीं ले पाई थी।
सूत्र काल में वर्ण व्यवस्था का सख्ती से पालन
सूत्र काल (600-300 ईसा पूर्व) में वर्ण व्यवस्था को सख्ती से लागू किया गया। इस समय समाज ने जन्म को वर्ण का आधार मान लिया और ऊंच-नीच की भावना का विकास हुआ। राजा को कहा गया कि वह वर्ण धर्म की रक्षा करे। इसी काल में अपराधों के लिए अलग-अलग दंड भी दिए जाने लगे। ब्राह्मणों को विशेष अधिकार मिले और शूद्रों को अधिकारों से वंचित कर दिया गया। इस समय शूद्रों की स्थिति समाज में अत्यंत नीच मानी गई। इस काल में जैन और बौद्ध धर्म का उदय हुआ, जिन्होंने जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था का विरोध किया और इसे कर्म पर आधारित बताने की कोशिश की। क्षत्रियों और वैश्यों की स्थिति समाज में मजबूत होने लगी, लेकिन शूद्रों की स्थिति अब भी निम्न स्तर पर ही रही।
महाकाव्य काल में वर्ण व्यवस्था
महाकाव्य काल में वर्ण व्यवस्था में कुछ बदलाव देखे गए। महाभारत के अनुसार, समाज ने शूद्रों के प्रति थोड़ी सहानुभूति दिखाई। विदुर और मातंग जैसे शूद्र व्यक्तियों ने अपने सत्कर्मों के कारण समाज में सम्मान पाया। कृषि और व्यापार जैसे कार्यों में शूद्रों को सीमित रूप से अनुमति दी गई थी। युधिष्ठिर ने अपने राजसूय यज्ञ में शूद्र प्रतिनिधियों को भी बुलाया, जो समाज में शूद्रों के प्रति बदलते दृष्टिकोण का सूचक है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी चारों वर्णों का वर्णन है और यह राजा का कर्तव्य माना गया कि वह समाज में वर्ण व्यवस्था को बनाए रखे।
धर्मशास्त्र काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरूप
धर्मशास्त्रों के काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरूप कठोर हो गया। इस काल में वर्ण को जन्म पर आधारित माना गया और अलग-अलग वर्गों के व्यवसाय और कर्तव्यों का निर्धारण किया गया। समाज में वर्णसंकर जातियों का उदय हुआ। मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था के सिद्धांतों का विस्तार से वर्णन मिलता है। शुंग काल में समाज को इसी के अनुसार व्यवस्थित किया गया। गुप्त काल तक वर्ण व्यवस्था में कुछ लचीलापन था, जिसमें अनुलोम विवाह (उच्च वर्ण के पुरुष का निचले वर्ण की स्त्री से विवाह) को मान्यता प्राप्त थी।
गुप्त काल और हर्षकाल में वर्ण व्यवस्था की कठोरता
गुप्त काल के बाद बाहरी आक्रमणों के कारण समाज में अव्यवस्था फैली और वर्ण व्यवस्था में कठोरता आ गई। हर्षकालीन अभिलेखों से पता चलता है कि राजा हर्ष वर्ण व्यवस्था के पक्षधर थे। इस काल में खान-पान और विवाह के नियमों में कट्टरता आ गई। राजपूत काल तक आते-आते परंपरागत वर्ण व्यवस्था में विभाजन और अस्पृश्यता की भावना ने गहरा रूप ले लिया।
वर्णों के कर्तव्य और उनके धर्म
प्राचीन ग्रंथों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्तव्यों का विस्तार से उल्लेख मिलता है। महाभारत के शांतिपर्व में सभी वर्णों को पालन करने के लिए 9 धर्म बताए गए हैं:
1. सत्य बोलना
2. क्रोध न करना
3. न्यायप्रिय होना
4. क्षमा करना
5. विवाहिता पत्नी से ही संतानोत्पत्ति करना
6. पवित्र आचरण रखना
7. कलह से दूर रहना
8. ईमानदार होना
9. सेवकों का पालन करना
अर्थशास्त्र में भी अहिंसा, सत्य वचन, पवित्रता, ईर्ष्या न करना, दान और क्षमा को सभी वर्णों का धर्म बताया गया है। इसके बाद, प्रत्येक वर्ण के विशिष्ट और आपतकालीन कर्तव्यों का वर्णन मिलता है।
वर्णाश्रम के चार वर्ण
1. ब्राह्मण वर्ण
समाज में ब्राह्मण का स्थान सर्वोत्तम और सर्वाधिक सम्मानित था। इसे वर्ण व्यवस्था में सबसे पहले स्थान दिया जाता था। माना जाता था कि ब्राह्मण का उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से हुई थी, और इस कारण उसे ज्ञान और वाणी का भंडार माना जाता था। ब्राह्मण का धर्म मुख्य रूप से छः कर्तव्यों में निहित था:
(1) अध्ययन,
(2) अध्यापन,
(3) यज्ञ करना,
(4) यज्ञ कराना,
(5) दान देना और
(6) दान लेना।
महाभारत में इसे आत्मनियंत्रण, तप, और अध्यापन का कर्तव्य बताया गया था। गीता में ब्राह्मण के कर्तव्यों में शम (अन्तःकरण का निग्रह), दम (इन्द्रियों का दमन), तप, क्षमा, सरलता, ज्ञान और आस्तिकता का महत्व बताया गया है।
मनुस्मृति में ब्राह्मण के कर्तव्य के रूप में अध्ययन और अध्यापन को प्रमुखता दी गई है, जो उस समय ब्राह्मण की सामाजिक श्रेष्ठता के प्रमाण थे। ब्राह्मण को समाज में दंड से मुक्ति मिली हुई थी। गौतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि राजा को ब्राह्मणों को शारीरिक दंड, कारावास, जुर्माना, देशनिष्कासन, अपमान और मृत्युदंड से बचाना चाहिए। किसी अपराध की स्थिति में, ब्राह्मणों के मस्तक पर चिह्न अंकित कर दिए जाते थे, जिससे उनका अपराध पहचाना जा सकता था।
ब्राह्मणों का आपदधर्म भी प्राचीन साहित्य में वर्णित है। संकट के समय वह क्षत्रिय और वैश्य के कर्तव्यों का पालन कर सकते थे। इसके अलावा, वह शस्त्र भी उठा सकते थे और शासन कर सकते थे। अगर उनकी जीविका के लिए यह भी पर्याप्त न होता, तो वह कृषि, पशुपालन और व्यापार कर सकते थे। हालांकि, ब्राह्मणों को वैश्यवृत्ति अपनाने पर कुछ नियमों का पालन करना पड़ता था, जैसे कि मदिरा, नमक, तिल, मांस, पका हुआ अन्न आदि की बिक्री करना निषिद्ध था।
2. क्षत्रिय वर्ण
क्षत्रिय समाज का दूसरा प्रमुख वर्ण था। महाभारत में इसे प्रजा की रक्षा, यज्ञ करना, और दान देने का विशेष कर्तव्य सौंपा गया था। ऋग्वेद में इसे ‘क्षेत्र’ कहा गया, जिसका अर्थ है ‘रक्षा करने वाला।’ गीता में भी कृष्ण ने क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्तव्यों में शौर्य, तेज, धैर्य और चातुर्य का उल्लेख किया है। अर्थशास्त्र में कहा गया है कि क्षत्रिय का धर्म युद्ध के माध्यम से जीविका अर्जित करना और सभी प्राणियों की रक्षा करना है।
मनुस्मृति में क्षत्रियों के कर्तव्य के रूप में प्रजा की रक्षा, दान, यज्ञ, वेदपठन और विषयों में अनासक्ति को वर्णित किया गया है। यह भी कहा गया है कि दस वर्ष का ब्राह्मण भी एक साल के क्षत्रिय से श्रेष्ठ है। साथ ही, कुछ क्षत्रिय शासकों का नाम भी प्राचीन साहित्य में मिलता है जो अपने दार्शनिक ज्ञान के लिए प्रसिद्ध थे। राजा जनक ने याज्ञवल्क्य को शिक्षा दी थी और धर्मार्थ में उनसे पराजित भी हुए थे।
क्षत्रिय का आपदधर्म वैश्यवृत्ति, कृषि और व्यापार था, लेकिन इसके लिए भी कई सीमाएँ थीं। मनुस्मृति के अनुसार, अगर वह व्यापार करते थे, तो उन्हें तिल, नमक, पशु, मानव, मधु आदि का व्यापार नहीं करना चाहिए था। वे सूदखोरी से भी दूर रहते थे।
3. वैश्य वर्ण
वैश्य समाज का तीसरा वर्ण था, जो मुख्य रूप से व्यापार, कृषि और पशुपालन में लगा था। महाभारत में इसे कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य का कर्तव्य सौंपा गया है। गीता में भी इन्हें अपने स्वाभाविक कर्मों में कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य करने का उल्लेख किया गया है। कौटिल्य ने भी इन्हें अध्ययन और दान देने के साथ यज्ञ करने का आदेश दिया था। हालांकि, समय के साथ वैश्य मुख्य रूप से व्यापार में ही लग गए थे और अध्ययन से उनकी रुचि कम हो गई थी।
वैश्य वर्ग की सामाजिक स्थिति में गुप्तकाल तक कई परिवर्तन आए। पहले, वैश्यों को शूद्रों से अधिक सम्मानित माना जाता था, लेकिन समय के साथ उनका स्तर गिरने लगा। शूद्रों ने कृषि और व्यापार में वैश्यवृत्ति को अपनाया और वैश्यों का स्थान धीरे-धीरे उनसे लिया। हालांकि, ग्यारहवीं शती में व्यापार के पुनरुत्थान से वैश्य की स्थिति में सुधार हुआ।
वैश्य का आपतकालीन धर्म क्षत्रिय और शूद्र की वृत्तियाँ अपनाने का था। बौद्धायन के अनुसार, वैश्य को शस्त्र ग्रहण करने का अधिकार था, और संकट के समय उसे शूद्रवृत्ति भी अपनानी पड़ती थी।
द्विज वर्ण
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को ‘द्विज’ कहा जाता था, क्योंकि इनका उपनयन संस्कार द्वारा दूसरा जन्म होता था। उपनयन संस्कार को सामाजिक जन्म भी कहा जाता था, जो व्यक्ति को अपने जातिगत कर्तव्यों का पालन करने के लिए सक्षम बनाता था।
इन तीनों वर्णों का समाज में प्रमुख स्थान था और उनका मुख्य उद्देश्य समाज की भलाई के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करना था। समय के साथ, इन वर्णों के कर्तव्यों और उनके सामाजिक कर्तव्यों में बदलाव आया, लेकिन इनके अधिकार और दायित्व हमेशा समाज में प्रभावी रहे।
4. शूद्र वर्ण –
समाज का चतुर्थ एवं सबसे निम्न वर्ण शूद्र था। विराट् पुरुष अथवा ब्रह्मा के पैरो से उत्पन्न होने के कारण उसे समाज के सभी वर्षों का भार ढोना पड़ता था। उसका मुख्य कर्म द्विजातियों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य की सेवा करना था। उसे अत्यन्त हेय समझा जाता था जो सभी प्रकार के अधिकारों एवं संस्कारों से रहित था। उसका जीवन पूर्णतया अपने स्वामी की दया पर निर्भर था। विभिन्न ग्रन्थो में उसके प्रति हीन भावो का उल्लेख प्राप्त होता है। रामशरण शर्मा ने प्राचीन भारतीय समाज में शूद्रो की स्थिति का विस्तारपूर्वक विश्लेषण किया है। उनका मत है कि पूर्व तथा उत्तर-वैदिककाल तक शुद्र को अपवित्र नहीं माना जाता था। जब समाज कृषि प्रधान हो गया तथा वर्णों में विभाजित हो गया तब उच्च वर्ग के लोग अपने लिये विशेष अधिकार तथा सुविधाओं की मांग करने लगे। तभी शूद्र को अपवित्र घोषित कर दिया गया। मूलतः शूद्र श्रमिक वर्ग के लोग थे। उत्तर वैदिककाल तक कोई भी कार्य अपने स्वरूप के कारण अपवित्र नहीं माना जाता था। यहाँ तक कि चमड़े का काम भी घृणा से नहीं देखा जाता था। शारीरिक श्रम के प्रति सम्मान का भाव मिलता है। शूद्र राजनैतिक जीवन में भी भाग ले सकते थे। रत्नियों की सूची में भी उनके नाम मिलते हैं, जैसे रथकार तथा तक्षन्। राजसूय एवं राज्याभिषेक जैसे समारोहों के अवसर पर शूद्र प्रतिनिधि उपस्थित रहते थे। उत्तर वैदिककाल तक वर्षों का अन्तर प्रबल और व्यापक नहीं था। इस काल के अन्त में शूद्र के प्रति हीनता के भाव का विकास हुआ। (शतपथ ब्राह्मण में प्रथम बार हम चारो वर्षों को बुलाने के लिये चार संबोधनों का उल्लेख पाते है- एहि, आगहि, आद्रव तथा आघाव। अब उसे अध्ययन, उपनयन आदि से वंचित कर दिया गया। वह यज्ञ में भाग नहीं ले सकता था तथा उसे अपवित्र घोषित किया गया। मांगलिक कार्यों के समय उसकी उपस्थिति, दर्शन, स्पर्श आदि पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। शर्मा की धारणा है कि शूद्रों को यज्ञों से वंचित शायद उनकी निर्धनता के कारण किया गया क्योकि वे उन पर धन व्यय करने में समर्थ नहीं थे। कुछ धनी शूद्र यज्ञ में भाग ले सकते थे। उपनिषदों में कहीं-कहीं शूद्रों की हीनता का विरोध किया गया है। बृहदारण्यक तथा छान्दोग्य उपनिषदों में बताया गया है कि ‘ब्रह्म लोक में सभी समान माने जाते है तथा चाण्डाल को भी यज्ञ का अवशेष पाने का अधिकार है।’
सूत्र काल में शूद्रो की स्थिति –
शूद्रो की स्थिति धर्मसूत्रों के काल (ई० पू० 600-300) में सर्वाधिक दयनीय हो गयी तथा उन्हें पूर्णतया द्विजों की मर्जी पर छोड़ दिया गया। उनकी तुलना पशु से की गयी तथा उनका एकमात्र कार्य उच्च वर्णों की सेवा करना बताया गया। गौतम ने व्यवस्था दी कि शूद्र को उच्च वर्षों के भोजन का उच्छिष्ट (जूठन) ग्रहण करना चाहिए तथा उनके द्वारा उतार फेंके गये जूते, छाता, चटाई, वस्त्रादि का उपयोग करना चाहिए। एक स्थान पर बताया गया है कि जो वस्त्र चूहों द्वारा कटकर चिथड़ा कर दिये जाते थे, वे ही शूद्र के उपयोग के लिये होते थे। शूद्रों के ऊपर आर्थिक अशक्तताये लाद दी गयी तथा उन्हें बेगार के लिये मजबूर किया गया। राजनैतिक सगठन में शूद्र का कोई स्थान नहीं रह गया तथा न्याय के मामले में भी उसके साथ भेदपूर्ण व्यवहार होने लगा। उसके लिये कठोरतम दण्ड का विधान किया गया। आपस्तम्ब तथा बौद्धासन ने यह विधान क्रिया कि शूद्र की हत्या करने वाले व्यक्ति के लिये वही प्रायश्चित होता है जो कोवे, उल्लू, मेढक, कुत्ते आदि की हत्या के लिये है। समाज में अस्पृश्यता का उदय हुआ तथा शूद्र को अछूत माना जाने लगा। आपस्तम्ब के अनुसार शूद्र द्वारा स्पर्श किया गया अन्न ब्राह्मण के लिये त्याज्य है। गौतम के अनुसार स्नातक को शूद्र का पानी तक नहीं पीना चाहिये। इसी काल में जैन तथा बौद्ध धर्मो का उदय हुआ। महावीर तथा बुद्ध ने छुआ-छूत का विरोध करते हुए मानव नात्र की सम्मानता का उपदेश दिया। इससे शूद्रों को स्थिति में कुछ सुधार तो हुआ लेकिन वर्ण व्यवस्था के प्राचीन ढाँचे में कोई खास परिवर्तन नहीं आया। निम्न वर्ण की स्थिति यथावत् बनी रही। शूद्रो को सेवक रखने पर किसी को आपत्ति नहीं हुई। स्वयं बुद्ध का झुकाव भी कुलीन वर्ग की ओर था। वे वैश्य या शूद्र को क्षत्रिय वर्ण के ऊपर रखने को प्रस्तुत नहीं थे। इस काल के अन्त तक वैश्यों के शूद्रों में मिल जाने से उनकी संख्या और अधिक बढ़ गयी।
शूद्र वर्ण की उत्पति के कारण –
इतिहासकार रामशरण शर्मा ने शूद्र वर्ण को उत्पत्ति के लिये आर्थिक कारणों को ही उत्तरदायी ठहराया है। उनके अनुसार लोहे के औजारो के प्रयोग से गंगा घाटी में बड़े-बड़े कृषि क्षेत्र अस्तित्व में आ गये। भूमि का वितरण असमान रहा। कुछ लोगों के पास बहुत अधिक भूसम्पदा थी। महाजनपदों के उदय के कारण बड़े-बड़े अधिकारियों का उदय हुआ जिन्हें घरेलू काम के लिये नौकरों को आवश्यकता पड़ी। धनी पुरोहितों को भी सेवकों की आवश्यकता थी। राजाओं के लिये हथियार तथा कृषकों के लिये औजार बनाने के लिए बड़े पैमाने पर शिल्पियों एवं मजदूरों की आवश्यकता पड़ी। इस प्रकार की परिस्थिति में जिस समाज की रचना हुई उसमें दासों, कर्मकारो, शिल्पियों एवं घरेलू सेवको को शूद्र की संज्ञा प्रदान को गयी। उन पर जो भारी अशक्तताये लादी गयी उनके पीछे यह उद्देश्य था कि वे बराबर उच्च वर्गों की सेवा करे, अपने श्रम को उनकी सुख-सुविधा के लिये अर्पित करे तथा उनके विरुद्ध किसी प्रकार का विद्रोह न करें।
मौर्य काल में शूद्रों की स्थिति –
मौर्यकाल तक आते-आते हम शूद्रों को स्थिति में सुधार के कुछ चिह्न देखते है। अर्थशास्त्र में उनका धर्म द्विजातियों की सेवा के साथ ही साथ ‘वार्ता’ अर्थात कृषि, पशुपालन मिलता है और वाणिज्य भी बताया गया है। जिसका अर्थ है शूद्र किसान। ‘शूद्र कर्षक’ का भी उल्लेख स्पष्ट है कि मौर्य काल में शूद्र वात्तवृित्ति द्वारा भी अपना जीवन निर्वाह करते थे। वे विभिन्न शिल्पों का अनुसरण करते थे। कौटिल्य ने उन्हें सेना में भर्ती होने की भी छूट दी। उन्हें सम्पत्ति रखने का भी अधिकार था। मनुस्मृति से भी पता चलता है कि शूद्र सम्पत्ति रखते थे। अशोक के लेखों से पता चलता है कि दासी और सेवकों के साथ उदार व्यवहार होता था। अशोक ने दण्ड तथा व्यवहार में भी समता स्थापित कर दिया।
इतिहासकारों की राय –
रोमिला थापर, रामशरण शर्मा जैसे विद्वान् मौर्यकालीन समाज में शूद्रों की स्थिति के अत्यन्त दयनीय होने की बात करते हैं। उनके अनुसार मौर्यकाल में राजकीय नियंत्रण अत्यन्त कठोर था। प्राकृतिक साधनों के अधिकाधिक उपयोग की लालसा से राज्य में शूद्र वर्ण को रोमीय हेलाटो (Heylots) की स्थिति में ला दिया। थापर ने बताया है कि अशोक ने कलिंग युद्ध के डेढ़ लाख युद्ध बन्दियों भूमि साफ कराने तथा नई बस्तियों बसाने के कार्य में नियोजित कर दिया। शर्मा मौर्यकालीन समाज को तुलना यूनान तथा रोम के समाज से करते हुए लिखते है कि यूनान तथा रोम में जो कार्य दास करते थे वही भारतीय समाज में शूद्र करते थे यद्यपि भारतीय समाज दास समाज नहीं था। शर्मा ने आगे बताया है कि अशोक की बहुविध घोषणाये एक आदर्शवादी शासक द्वारा इस प्रकार की कठोर नीतियों को छोड़ने की इच्छा मात्र को व्यक्त करती है जिन्हें यथार्थरूप कभी नहीं दिया जा सका। किन्तु मौर्य समाज का यह चित्रण हमारी लोकोपकारी शासन की मान्यताओं के विपरीत है तथा प्राचीन इतिहास में प्रत्येक वस्तु को शक्ति एवं सम्पत्ति के आधार पर आकने का प्रयास है। यहाँ भारतीय सामाजिक व्यवस्था को मार्क्सवादी आधार पर विवृत करने का प्रयत्न किया गया है, जो भारतीय प्रमाणों के प्रकाश मे समीचीन नहीं लगता। इस बात के लिये कोई आधार नहीं है कि अशोक ने डेढ़ लाख युद्धबन्दियो को बंजर भूमि साफ करने के लिये निर्वासित कर दिया। अशोक कहीं अपने उद्देश्य पर प्रकाश नहीं डालता। निर्वासन के लिये अन्य कारण भी रहे होंगे। संभव है कि विद्रोह की आशंका को समाप्त करने के लिये उन्हें हटाया गया हो। इसी प्रकार मात्र कार्यों की समता के आधार पर हम यूनानी-रोमन दासों की कोटि में भारतीय दासों को कदापि नहीं रख सकते। जो कार्य प्राचीन समय में यूनानी-रोमन दास करते थे, वे सभी कार्य आज के मजदूरों द्वारा किया जाता है। किन्तु मात्र कार्यों के आधार पर ही आधुनिक मजदूरों को हम दास नहीं कह सकते। यदि हम यूनानी-सेमन दासों को भारतीय शूद्र मान ले तो मानना पड़ेगा कि यहाँ शूद्र स्वतंत्र किसान नहीं थे। अर्थशास्त्र के प्रमाण से स्पष्ट हो जाता है कि मौर्य काल में शूद्र को सम्पत्ति रखने, कृषि करने, पशुपालन तथा व्यापार के स्वतंत्र अधिकार मिले हुए थे। उसे कृषियोग्य भूमि खरीदने का भी अधिकार था। दायगत नियमों में वर्णसंकर जातियों तक की उपेक्षा नहीं की गयी है। अतः मौर्यकालीन शूद्रों की दशा यूनानी-रोमन दासों से कहीं अधिक अच्छी थी।
गुप्तकाल में शूद्रो की स्थिति –
गुप्तकाल तक आते-आते शूद्रों ने वैश्यों का स्थान ग्रहण कर लिया। वे पूर्णतया कृषि तथा व्यापार का कार्य करने लगे। गुप्तकालीन स्मृतियाँ शूद्रों को सभी प्रकार के वस्तुओं की बिक्री का अधिकार प्रदान करती है। वैश्यों ने कृषिकर्म त्याग दिया तथा यह पूर्णतया शूद्र वर्ण का एकाधिकार हो गया। पूर्वमध्यकाल में शूद्र कृषक ही थे। शूद्रों की स्थिति में यह परिवर्तन सामन्ती प्रवृत्तियों के विकसित हो जाने के कारण हुआ। भूमि अनुदानों की अधिकता के कारण सामन्तों तथा भू-स्वामियों की संख्या अधिक हो गयी। इन्हें अपने खेतों पर काम कराने के लिये बड़ी संख्या में श्रमिकों को आवश्यकता पड़ी। इसकी पूर्ति शूद्र वर्ण द्वारा ही संभव थी। प्रभूत उत्पादन के कारण शूद्रों को भी कृषि की आय का अच्छा लाभ प्राप्त होने लगा जिससे उनकी आर्थिक दशा काफी अच्छी हो गयी। इस प्रकार शूद्रों ने कृषि को वैश्यों के अधिकार से छीन लिया। बी० एन० एस० यादव का विचार है कि बारहवी शती तक समाज में जाति प्रथा के विरोध की जो भावना प्रबल हुई उसके लिये निम्न वर्गों की आर्थिक स्थिति में सुधार होना भी एक प्रमुख कारण था। पूर्व मध्यकालीन समाज में शूद्रों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी। शूद्रों का एक वर्ग पवित्र आचरण युक्त था तथा शास्त्रों के आदेशानुसार धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन करता था। इसे समाज में प्रतिष्ठित स्थान मिला हुआ था। पूर्वमध्य युग के टीकाकार मेधातिथि एवं विश्वरूप ने उन्हें व्याकरण आदि विषय के ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार देते हुए यह व्यवस्था दी कि वे स्मृति विहित सभी धार्मिक कार्यों को कर सकते है। लक्ष्मीधर के अनुसार विशुद्ध मन तथा मस्तिष्क वाला शूद्र व्यक्ति पतित ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण के व्यक्ति की अपेक्षा श्रेष्ठतर होता है। किन्तु समाज में शूद्रों का एक अन्य वर्ग भी था जो हीन वृत्ति एवं अपवित्र आचरण वाला था। इन्हें चाण्डाल आदि कहा गया तथा इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी नहीं थी। इनकी गणना अछूतों में की जाती थी।
अछूतों को ‘अन्त्यज’ कहा गया है जो गाँवों तथा नगरों की सीमा के बाहर निवास करते थे। अनेक पेशेवर जातियाँ इस समय अछूतो की श्रेणी में शामिल कर ली गयी तथा अस्पृश्यता सम्बन्धी नियमों को विस्तृत बना दिया गया। इस काल के स्मृतिकारों ने बौद्ध, जैन, वाममार्गी शाक्त आदि सम्प्रदायों के अनुयायियों तक को अस्पृश्य घोषित कर दिया।
प्रायः सभी शास्त्रकारो ने शूद्रों को आपातकाल में वैश्यवृत्ति द्वारा अपनी जीविका चलाने की अनुमति प्रदान की है।