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लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल |
सूरत अधिवेशन 1907 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक निर्णायक क्षण था, जहां कांग्रेस के अंदर वर्षों से पनप रहे मतभेदों ने खुलकर सामने आकर पार्टी को विभाजित कर दिया। यह अधिवेशन कांग्रेस के दो धड़ों – नरमपंथी और गरमपंथी – के बीच की खाई को उजागर करता है।
पृष्ठभूमि: बंगाल विभाजन और स्वदेशी आंदोलन का उदय
1905 में बंगाल विभाजन की घोषणा के बाद, भारतीय समाज में ब्रिटिश शासन के प्रति गहरा असंतोष फैल गया था। लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल को धार्मिक आधार पर विभाजित करने के फैसले ने भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावना को प्रबल कर दिया। इस विभाजन के विरोध में स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसमें ब्रिटिश वस्त्रों और उत्पादों का बहिष्कार किया गया और स्वदेशी वस्त्रों और उत्पादों को अपनाने की अपील की गई। स्वदेशी आंदोलन ने भारतीय जनता में राष्ट्रीयता और आत्मनिर्भरता की भावना को बढ़ाया। इस आंदोलन के नेतृत्व में कांग्रेस के गरमपंथी नेता – बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल – सामने आए, जो अधिक आक्रामक रणनीतियों की वकालत कर रहे थे।
इस समय तक, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में नरमपंथी और गरमपंथी धड़े आकार ले चुके थे। नरमपंथी नेता जैसे गोपाल कृष्ण गोखले और फिरोजशाह मेहता संविधानिक सुधारों और अंग्रेजों के साथ संवाद के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में प्रयासरत थे, जबकि गरमपंथी नेता अब शांतिपूर्ण ढंग से सुधारों की बजाय प्रत्यक्ष संघर्ष और स्वराज्य की मांग कर रहे थे।
कांग्रेस में मतभेद: कोलकाता से सूरत तक
1906 में, कांग्रेस का कोलकाता अधिवेशन आयोजित हुआ, जिसमें दादाभाई नौरोजी को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था। यह वही अधिवेशन था जिसमें पहली बार ‘स्वराज्य’ शब्द का उपयोग किया गया, लेकिन इसके मायने नरमपंथियों और गरमपंथियों के लिए अलग थे। जहां नरमपंथी स्वराज्य को संविधानिक सुधारों के माध्यम से प्राप्त करना चाहते थे, वहीं गरमपंथियों का मानना था कि यह संघर्ष और जन-आंदोलनों के माध्यम से ही संभव होगा।
कोलकाता अधिवेशन में मतभेदों के बावजूद, कांग्रेस ने विभाजन को टालने का प्रयास किया। लेकिन 1907 आते-आते ये मतभेद गहरे हो गए। गरमपंथी नेताओं का मानना था कि अब अंग्रेजों से सीधा संघर्ष करने का समय आ गया है, जबकि नरमपंथी अभी भी सुधारों के रास्ते पर चलने के पक्षधर थे।
इस बीच राष्ट्रवादियों को यह जानकारी मिली कि बॉम्बे के उदारवादी नेता स्वराज, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा पर कलकत्ता कांग्रेस द्वारा अपनाए गए रुख से पीछे हटने का इरादा रखते थे। उदारवादियों ने एक नया संविधान तैयार किया था, जिसमें स्वशासी कॉलोनियों के स्वशासन के आदर्श के साथ समझौता किया गया था। इस नए सिद्धांत को कांग्रेस की सदस्यता की अनिवार्य शर्त बनाकर राष्ट्रवादियों को कांग्रेस से बाहर करने का स्पष्ट प्रयास किया गया था।
उदारवादियों ने अधिवेशन के लिए सूरत शहर को क्यों चुना?
सूरत को उदारवादियों ने इसलिए चुना क्योंकि उस समय यह शहर उदारवादियों का गढ़ था और वहां राष्ट्रवादियों की उपस्थिति काफी कम थी। कांग्रेस का पिछला अधिवेशन नागपुर में हुआ था, जो एक मराठा क्षेत्र था और राष्ट्रवादियों के उग्र विचारों का समर्थन करता था। इसके विपरीत, गुजरात उस समय अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण और उदार विचारधारा वाला क्षेत्र था। इसलिए, उदारवादी नेताओं ने यह सुनिश्चित करने के लिए सूरत को चुना कि कांग्रेस अधिवेशन शांतिपूर्ण रहे और उनके विचारों का वर्चस्व बना रहे।
हालांकि, राष्ट्रवादी भी बड़ी संख्या में अधिवेशन में पहुंचे और अरविंदो की अध्यक्षता में एक अलग सम्मेलन आयोजित किया। इस दौरान कुछ समय के लिए यह अनिश्चित था कि बहुमत किस पक्ष को मिलेगा। लेकिन अंततः, उदारवादी 1300 प्रतिनिधियों को जुटाने में सफल हुए, जबकि राष्ट्रवादी लगभग 1100 समर्थकों को एकत्र कर सके।
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सूरत अधिवेशन 1907 में अरविंद घोष मेज पर हाथ रखकर बैठे, उनके दाहिनी ओर जी.एस. खापर्डे और बाईं ओर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक बोल रहे है। |
सूरत अधिवेशन: 26-29 दिसंबर 1907
सूरत, जो कि गुजरात के तटीय शहर के रूप में प्रसिद्ध था, इस ऐतिहासिक अधिवेशन का स्थल बना। पूरा शहर इस अधिवेशन को लेकर गहमागहमी से भरा हुआ था। अधिवेशन का उद्देश्य अगले कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव करना और पार्टी की भविष्य की रणनीति तय करना था। गरमपंथी धड़ा बाल गंगाधर तिलक को अध्यक्ष बनाने की पुरजोर कोशिश कर रहा था, जबकि नरमपंथी रास बिहारी घोष को अध्यक्ष बनाना चाहते थे।
अधिवेशन के पहले दिन, सूरत के खुले मैदान में हजारों की संख्या में कांग्रेस के कार्यकर्ता और नेता एकत्र हुए। सभा की शुरुआत गरमपंथियों और नरमपंथियों के समर्थकों के बीच बढ़ते तनाव से हुई। बाल गंगाधर तिलक के समर्थक उनकी नीतियों के पक्ष में नारे लगा रहे थे, जबकि नरमपंथी अपने संवैधानिक सुधारों के एजेंडे को बढ़ावा दे रहे थे।
सभा का संचालन जैसे ही शुरू हुआ, गरमपंथी और नरमपंथी नेताओं के बीच तीखी बहस छिड़ गई। गरमपंथियों ने खुलकर कहा कि कांग्रेस को अब ब्रिटिश सरकार से संवाद छोड़कर सीधे स्वतंत्रता की मांग करनी चाहिए, और स्वदेशी आंदोलन का पूर्ण समर्थन करना चाहिए। दूसरी ओर, नरमपंथियों ने संवाद और सुधारों का मार्ग चुना। सभा में उत्तेजना बढ़ रही थी, और जैसे ही बाल गंगाधर तिलक को अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रखा गया, वहाँ हंगामा शुरू हो गया।
सभा के दौरान, बाल गंगाधर तिलक मंच पर खड़े हुए और अपने धारा प्रवाह वक्तव्य से गरमपंथियों के आंदोलन की आवाज़ बुलंद की। उनकी बातें लोगों के दिलों में जोश भर रही थीं। सभा में बैठे गरमपंथियों के समर्थक, उनकी हर बात पर उत्साह में तालियाँ बजा रहे थे। उनकी आँखे चमक रही थीं, जैसे वह स्वतंत्रता की ज्योत देख रहे हों।
लेकिन जैसे ही नरमपंथी धड़े ने रास बिहारी घोष के नाम का प्रस्ताव रखा, स्थिति नियंत्रण से बाहर होने लगी। गरमपंथियों ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया। मंच पर और सभा में बहस अब और उग्र हो गई। लोगों के चेहरे पर तनाव साफ़ झलक रहा था। दोनों धड़ों के बीच की बहस अब केवल विचारों की नहीं थी, यह उस वक्त की राजनीति के प्रमुख मुद्दों पर सीधी टकराव की स्थिति बन गई थी।
अधिवेशन में हंगामा और विभाजन
अधिवेशन में तिलक अध्यक्ष पद के लिए एक प्रस्ताव पेश करने के लिए मंच पर गए, लेकिन नरमपंथियों द्वारा नियुक्त अध्यक्ष ने उन्हें बोलने की अनुमति देने से मना कर दिया। इसके बावजूद, तिलक ने अपने अधिकार पर जोर देते हुए अपना प्रस्ताव पढ़ना और बोलना शुरू किया, जिससे वहां भारी हंगामा हो गया। गुजराती स्वयंसेवकों ने तिलक पर हमला करने के लिए कुर्सियां उठा लीं। यह देखकर मराठा समर्थक भड़क उठे। एक मराठा ने गुस्से में जूता फेंका, जो अध्यक्ष डॉ. रास बिहारी घोष के पास जाते हुए सुरेंद्र नाथ बनर्जी के कंधे पर लगा।
हंगामे की शुरुआत होते ही हालात हाथ से निकलते गए। दोनों पक्षों के समर्थकों के बीच जोरदार बहस के बाद धक्का-मुक्की शुरू हो गई। मंच पर गरमपंथियों और नरमपंथियों के नेताओं के बीच हाथापाई की नौबत आ गई। सभा को नियंत्रित करने की कोशिशें बेकार गईं और कुछ ही मिनटों में मैदान में अफरा-तफरी मच गई।
सभास्थल पर भगदड़ मचने लगी, और दोनों धड़ों के समर्थक एक-दूसरे पर चिल्लाने लगे। तिलक के समर्थक नारों के साथ मंच की ओर बढ़ रहे थे, जबकि नरमपंथी नेता अपनी बात रखने की कोशिश कर रहे थे। यह पूरा दृश्य स्वतंत्रता संग्राम के मार्ग पर एक गहरे संकट का संकेत दे रहा था। लोग अपनी-अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे थे, लेकिन ऐसा लग रहा था कि कोई किसी को सुनने के लिए तैयार नहीं था।
हंगामे के बाद, अधिवेशन स्थगित कर दिया गया, और इस टकराव का परिणाम कांग्रेस के विभाजन के रूप में सामने आया। कांग्रेस अब दो धड़ों में बंट गई थी – गरमपंथी और नरमपंथी।
कांग्रेस का विभाजन
इस अधिवेशन के बाद, कांग्रेस आधिकारिक तौर पर दो धड़ों में विभाजित हो गई। गरमपंथी धड़ा, जो बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल का समर्थन करता था, कांग्रेस से अलग हो गया। नरमपंथी धड़ा, जिसमें गोपाल कृष्ण गोखले और फिरोजशाह मेहता जैसे नेता थे, कांग्रेस पर अपना नियंत्रण बनाए रखने में सफल रहा। इस विभाजन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को कमजोर कर दिया, और अंग्रेजी सरकार को राहत मिली क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम की एकता बिखर चुकी थी।
विभाजन के कारण
a. रणनीतिक मतभेद:
नरमपंथी और गरमपंथी धड़ों के बीच संघर्ष मुख्य रूप से रणनीति को लेकर था। गरमपंथी अब सीधे संघर्ष और स्वराज्य की मांग कर रहे थे, जबकि नरमपंथी सुधारवादी थे और संवैधानिक मार्ग से स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे।
b. अध्यक्ष पद का विवाद:
सूरत अधिवेशन का सबसे बड़ा विवाद अध्यक्ष पद को लेकर था। गरमपंथी बाल गंगाधर तिलक को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, जबकि नरमपंथी रास बिहारी घोष के पक्ष में थे। यह मुद्दा केवल व्यक्ति विशेष का नहीं था, बल्कि इससे कांग्रेस की भविष्य की दिशा तय होनी थी।
c. बंगाल विभाजन और स्वदेशी आंदोलन:
बंगाल विभाजन के खिलाफ गरमपंथियों ने जिस तरह स्वदेशी आंदोलन को अपनाया था, नरमपंथियों को वह तरीका ज्यादा आक्रामक लगा। इसके चलते दोनों पक्षों के बीच मतभेद और गहरे हो गए।
d. वैचारिक मतभेद:
नरमपंथी और गरमपंथी नेताओं के बीच वैचारिक अंतर भी गहरा था। जहां नरमपंथी ब्रिटिश राज के साथ संवाद और सुधारों के पक्षधर थे, वहीं गरमपंथी मानते थे कि बिना संघर्ष के स्वतंत्रता संभव नहीं होगी।
अधिवेशन का परिणाम और प्रभाव
सूरत अधिवेशन का यह विभाजन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए एक बड़ा झटका था। गरमपंथी नेताओं ने कांग्रेस से खुद को अलग कर लिया और अपने स्वतंत्र आंदोलन की शुरुआत की। कांग्रेस अब नरमपंथियों के नेतृत्व में चलती रही, लेकिन उसकी ताकत और जनाधार कमजोर हो गई। गरमपंथी धड़े ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ और आक्रामक नीतियों को अपनाने की योजना बनाई, जिसमें सशस्त्र क्रांति की संभावना पर विचार किया गया। वहीं, नरमपंथी अपने संवैधानिक सुधारों और शांतिपूर्ण आंदोलन के जरिए स्वतंत्रता की राह पर बढ़ते रहे।
सूरत अधिवेशन के बाद भारतीय राजनीति में गरमपंथ और नरमपंथ की धाराएं स्पष्ट रूप से अलग हो गईं, लेकिन इस विभाजन ने आंदोलन की एकता को कमजोर किया। हालांकि, 1916 में लखनऊ समझौते के जरिए दोनों धड़े एक बार फिर एक साथ आए, लेकिन सूरत अधिवेशन का विभाजन एक महत्वपूर्ण सबक था कि बिना एकजुटता के स्वतंत्रता संग्राम को प्रभावी रूप से आगे बढ़ाना कठिन होगा।
सूरत अधिवेशन के प्रभाव
सूरत अधिवेशन 1907 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इस अधिवेशन ने न केवल कांग्रेस के भीतर गहरी खाई उत्पन्न की, बल्कि इसके दीर्घकालिक परिणाम भारतीय राजनीति पर भी पड़े। यहाँ हम सूरत अधिवेशन के प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण करेंगे।
1. कांग्रेस का विभाजन
सूरत अधिवेशन में गरमपंथियों और नरमपंथियों के बीच तीव्र मतभेद स्पष्ट हुए। गरमपंथी धड़े ने आक्रामक रुख अपनाया, जबकि नरमपंथी शांति और सुधारों के पक्षधर रहे। अधिवेशन में तिलक के अध्यक्ष बनने की मांग ने नरमपंथियों के विरोध को जन्म दिया, जिससे अधिवेशन की कार्यवाही बाधित हुई। इस विभाजन ने कांग्रेस को दो हिस्सों में बाँट दिया, जिससे गरमपंथी और नरमपंथी धड़े अलग-अलग मार्गों पर चलने लगे। यह विभाजन स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण बदलाव लाने का कारण बना।
2. गंभीर राजनीतिक तनाव
इस विभाजन ने भारतीय राजनीति में गंभीर तनाव उत्पन्न किया। गरमपंथी नेताओं ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जन जागरूकता बढ़ाई और स्वदेशी आंदोलन को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीयों को ब्रिटिश सामान का बहिष्कार करने के लिए प्रेरित किया, जिससे स्वदेशी उत्पादों की बिक्री में वृद्धि हुई और भारतीय उद्योगों को एक नई दिशा मिली। यह आंदोलन ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिला रहा था और भारतीयों में राष्ट्रवादी भावना को बढ़ावा दे रहा था।
3. ब्रिटिश शासन की प्रतिक्रिया
सूरत अधिवेशन के बाद ब्रिटिश सरकार ने गरमपंथी नेताओं पर कठोर दमनात्मक कार्रवाई की। तिलक, लाला लाजपत राय और अन्य गरमपंथी नेताओं को दंडित किया गया। बाल गंगाधर तिलक को 1908 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया और मांडले (बर्मा) में छह साल की सजा सुनाई गई। इस दमन ने भारतीय लोगों में ब्रिटिश शासन के प्रति नाराजगी को और बढ़ाया और स्वतंत्रता संग्राम को गति प्रदान की।
4. स्वराज की दिशा में कदम
सूरत अधिवेशन के विभाजन ने भारतीयों को स्वराज की दिशा में संगठित और आक्रामक तरीके से आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। 1916 में लखनऊ समझौते के तहत गरमपंथी और नरमपंथी एकजुट हुए, जिसने भारत के राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया। इस एकता ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नया मोड़ दिया, जिससे भारतीय नेता अपने अधिकारों की मांग करने में अधिक आत्मविश्वासी बने।
5. महात्मा गांधी का उदय
सूरत अधिवेशन के बाद महात्मा गांधी का नेतृत्व उभरा, जिन्होंने गरमपंथियों के आक्रामक दृष्टिकोण को अपनाया और इसे असहयोग आंदोलन के माध्यम से आगे बढ़ाया। गांधीजी ने 1920 में असहयोग आंदोलन शुरू किया, जिसमें सूरत अधिवेशन की घटनाओं से प्रेरित होकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ व्यापक जन आंदोलनों का आयोजन किया। उनके नेतृत्व ने स्वतंत्रता संग्राम को एक नया दृष्टिकोण और ऊर्जा प्रदान की।
6. संगठनात्मक परिवर्तन
कांग्रेस के भीतर विभाजन ने संगठनात्मक ढांचे में बदलाव का मार्ग प्रशस्त किया। सूरत के बाद, कई नए दल और संगठनों का गठन हुआ, जैसे कि हिंदु महासभा और अन्य स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित संगठन। इन संगठनों ने स्वतंत्रता संग्राम के विभिन्न पहलुओं को लेकर अपने-अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत किए, जिससे राजनीतिक विविधता बढ़ी।
7. नए आंदोलनों की शुरुआत
सूरत अधिवेशन के प्रभाव ने नए आंदोलनों को प्रेरित किया, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गति को तेज करने में सहायक सिद्ध हुए। 1919 में जालियांवाला बाग हत्याकांड और उसके बाद के आंदोलनों ने स्वतंत्रता संग्राम को और अधिक व्यापक बना दिया। इन आंदोलनों ने भारतीय जनता में एकजुटता और सहयोग की भावना को बढ़ावा दिया, जिससे स्वतंत्रता की चाह और मजबूत हुई।
8. विदेशी प्रेरणाएँ
सूरत अधिवेशन के बाद भारत में राष्ट्रवादी भावना को बढ़ाने में अन्य देशों से भी प्रेरणा मिली। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम और रूस की अक्टूबर क्रांति के विचारों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई ऊर्जा दी। इन घटनाओं ने भारतीयों को यह सिखाया कि संघर्ष और बलिदान से स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है।
9. राष्ट्रीय एकता का महत्त्व
सूरत अधिवेशन ने यह भी दर्शाया कि भारतीय राजनीति में विभिन्न विचारधाराएँ मौजूद हैं, लेकिन अंततः सभी का लक्ष्य स्वतंत्रता प्राप्त करना था। यह अधिवेशन भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता को उजागर करता है, जो आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला सिद्ध हुआ। इसने विभिन्न समुदायों और विचारधाराओं को एक साथ लाने की प्रेरणा दी।
निष्कर्ष
सूरत अधिवेशन, 1907 भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक निर्णायक क्षण था, जिसने कांग्रेस की दिशा और स्वरूप को गहराई से प्रभावित किया। इस अधिवेशन में हुए हंगामे और विभाजन ने भारतीय राजनीति में एक नई धारा को जन्म दिया, जो संघर्ष और संवाद के बीच की खाई को गहराई से दर्शाती है।
ज्ञानवर्धक लेखन