प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति: एक ऐतिहासिक विश्लेषण

किसी भी समाज या सभ्यता की मूल आत्मा को समझने के लिए वहां की स्त्रियों की स्थिति का आकलन करना सर्वोत्तम मार्ग है। किसी भी संस्कृति की श्रेष्ठता का माप, उस समाज में स्त्रियों की स्थिति के आधार पर ही अधिक सटीकता से किया जा सकता है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में, विशेषकर हिन्दू समाज में, यह अध्ययन अनिवार्य रूप से उसकी गरिमा और सामाजिक दृष्टिकोण को उजागर करता है।

 

Status of women in ancient India

 

हिन्दू समाज में स्त्रियों का सम्मानजनक स्थान

 

हिन्दू सभ्यता में महिलाओं को प्रारंभ से ही एक आदरणीय स्थान प्राप्त था। प्राचीनतम सैंधव सभ्यता में माता देवी को सर्वोच्च पद दिया जाना इस बात का प्रतीक है कि वहां स्त्रियों की स्थिति उन्नत थी। ऋग्वैदिक काल में भी समाज में महिलाओं का स्थान काफी सम्मानजनक था। उस समय महिलाओं को धार्मिक और सामाजिक अधिकार पुरुषों के समान ही प्राप्त थे। विवाह को एक पवित्र संस्कार के रूप में देखा जाता था, जिसमें पति-पत्नी दोनों को परिवार के संयुक्त अधिकारी माना जाता था।

कुछ ग्रंथों में कन्याओं के प्रति चिन्ता व्यक्त की गई है, लेकिन इसके साथ ही कुछ ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जहां पिता विशेष अनुष्ठान करते थे ताकि उन्हें योग्य कन्या प्राप्त हो। कन्या को पुत्र के समान ही शिक्षा और सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती थीं। उस समय कन्याओं का उपनयन संस्कार भी होता था और वे भी ब्रह्मचर्य का पालन करती थीं। ऋग्वेद में ऐसी कई स्त्रियों के नाम मिलते हैं जिन्होंने मंत्रों और ऋचाओं की रचना की थी। विश्वारा को “ब्रह्मवादिनी” और “मंत्रद्रष्ट्री” का दर्जा दिया गया है, और उसने ऋग्वेद के एक स्तोत्र की रचना भी की थी।

 

वैदिक स्त्रियाँ: विद्वता और दर्शन में समान अधिकार

 

वैदिक काल में दो प्रकार की महिला छात्राएँ होती थीं – ब्रह्मवादिनी और सद्योद्वाहा। ब्रह्मवादिनी महिलाएँ जीवनभर धर्म और दर्शन का अध्ययन करती थीं, जबकि सद्योद्वाहा महिलाएँ अपने विवाह तक अध्ययन करती थीं। यह भी उल्लेख मिलता है कि ऋग्वैदिक महिलाएँ दार्शनिक मुद्दों पर पुरुषों के साथ वाद-विवाद करती थीं। इस समय कन्याओं का विवाह लगभग पंद्रह या सोलह वर्ष की आयु में होता था, जिससे उन्हें अध्ययन के लिए पर्याप्त समय मिल जाता था।

इस युग में सती और पर्दा प्रथा का कोई प्रचलन नहीं था। हालांकि दो क्षेत्रों में स्त्रियों के लिए अधिकार सीमित थे – उन्हें संपत्ति का अधिकार नहीं था, और उन्हें शासन का अधिकार भी नहीं था।

 

संपत्ति और शासन के अधिकारों से वंचित

 

ऋग्वैदिक युग में स्त्रियों को संपत्ति और शासन के अधिकारों से वंचित करने के कुछ प्रमुख कारण थे। भूमि का स्वामित्व उसी व्यक्ति को दिया जाता था जो शक्तिशाली शत्रुओं से उसकी रक्षा कर सके, और यह कार्य महिलाओं के लिए कठिन माना जाता था। इसी प्रकार, प्रशासन के क्षेत्र में भी उन्हें अधिकार नहीं मिलते थे, क्योंकि आर्य उस समय विदेशी भूमि पर राज्य स्थापित कर रहे थे और ऐसे में शासन सम्बन्धी अधिकार देना राज्य की सुरक्षा के लिए जोखिम भरा माना गया।

 

उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति में बदलाव

 

उत्तर वैदिक काल में भी स्त्रियों की स्थिति वैदिक युग के समान ही थी। हालांकि, अथर्ववेद में कन्याओं को चिंता का कारण माना गया है, परंतु सामान्यत: उनकी स्थिति संतोषजनक रही। उनकी शिक्षा पर ध्यान दिया जाता था और उन्हें ब्रह्मचर्य आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता था।

हालांकि, समय के साथ उनकी शिक्षा में कुछ गिरावट देखने को मिली। धीरे-धीरे उन्हें गुरुकुल में भेजने की परंपरा समाप्त हो गई और घर पर ही शिक्षण का प्रचलन बढ़ा। केवल कुलीन परिवारों की कन्याएँ ही शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं, और उनके धार्मिक अधिकार भी कम होने लगे।

 

विवाह और पर्दा प्रथा का प्रचलन

 

उत्तर वैदिक काल में पहले की तरह विवाह का आयोजन होता था और स्त्रियों के पास अपने वर को चुनने का अधिकार भी होता था। क्षत्रिय समाज में स्वयंवर की प्रथा भी प्रचलित थी। इस समय सती प्रथा और पर्दा प्रथा का अभाव था और विधवा विवाह का भी प्रचलन था। हालांकि, धीरे-धीरे स्त्रियों के धन संबंधी अधिकारों में भी कमी आने लगी।

अल्टेकर के अनुसार, वैदिक काल की राजनीतिक आवश्यकताएँ ही सती प्रथा की समाप्ति और पुनर्विवाह को मान्यता देने के लिए उत्तरदायी थीं। ब्राह्मण और उपनिषद ग्रंथों में भी स्त्री की संतोषजनक स्थिति का वर्णन मिलता है।

 

उपनिषद युग में स्त्रियाँ: शिक्षा और दर्शन में समान भागीदारी

 

उपनिषद युग में महिलाओं की सामाजिक स्थिति में संतोषजनक स्तर बना रहा। इस काल में कुछ महिलाओं को दार्शनिक स्तर पर भी काफी सम्मान मिला। मैत्रेयी और गार्गी जैसे नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। गार्गी ने राजा जनक की सभा में याज्ञवल्क्य से गूढ़ दार्शनिक प्रश्नों पर वाद-विवाद किया था। इस काल की कुछ महिलाओं ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए दर्शन का अध्ययन किया और कई ने शिक्षण कार्य का भी अनुसरण किया।

हालांकि, ब्राह्मण ग्रंथों में यह भी वर्णित है कि स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में अधिक संवेदनशील होती हैं और बाहरी आकर्षणों की ओर जल्दी आकर्षित हो जाती हैं। कला और ललित कलाओं के प्रति उनका विशेष रुझान भी रहता था।

 

सूत्र-महाकाव्य काल में स्त्रियों की स्थिति

 

सूत्रकाल में स्त्रियों की स्थिति काफी हद तक पतन की ओर बढ़ गई थी। इस युग में बेटी का जन्म परिवारों के लिए अभिलाषा का कारण नहीं रह गया था। स्त्रियों के लिए उपनयन संस्कार समाप्त कर दिए गए, और विवाह के अतिरिक्त अन्य किसी संस्कार में उनके लिए वैदिक मंत्रों का उच्चारण नहीं किया जाता था। लड़कियों के विवाह की आयु भी घटा दी गई, जिससे उन्हें औपचारिक शिक्षा हासिल करने में मुश्किलें आईं। ईस्वी सन् के शुरुआती समय तक कई लड़कियों का उपनयन केवल एक औपचारिकता बन कर रह गया था, और इसे विवाह से ठीक पहले ही निपटा दिया जाता था। समय के साथ, उपनयन संस्कार पूरी तरह समाप्त हो गया, और विवाह को ही इसके स्थान पर मान्यता दे दी गई। अब नौ से बारह वर्ष की आयु में लड़कियों का विवाह होने लगा। उपनयन संस्कार न होने से लड़कियों की स्थिति समाज में शूद्रों की श्रेणी जैसी हो गई, और उन्हें वैदिक मंत्रों का उच्चारण करने या यज्ञ में भाग लेने की अनुमति नहीं थी। पति के साथ यज्ञ में उनकी उपस्थिति मात्र औपचारिकता बनकर रह गई।

हालांकि, धनी और कुलीन परिवारों में लड़कियों को शिक्षा देने की परंपरा जारी रही। राजघराने की महिलाओं को ललित कलाओं, जैसे संगीत, नृत्य, चित्रकला और माला निर्माण की विधिवत शिक्षा मिलती थी। वात्स्यायन ने इस विषय पर कहा कि स्त्रियों को चौसठ कलाओं में दक्ष होना चाहिए।

 

स्त्री स्वतंत्रता पर प्रतिबंध

 

सूत्रकाल में स्त्रियों की स्वतंत्रता पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगाए गए। वशिष्ठ ने कहा कि स्त्रियां स्वतंत्रता के योग्य नहीं होती हैं। उनका मानना था कि स्त्री की रक्षा बचपन में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र द्वारा होनी चाहिए। मनु और अन्य स्मृतिकारों ने भी इस मत का समर्थन किया। मनु ने तो यह तक कहा कि यदि पति दुराचारी और चरित्रहीन भी हो, तब भी पत्नी का कर्तव्य है कि वह उसकी पूजा देवता के समान करे।

 

सामाजिक अस्थिरता और स्त्रियों की स्थिति पर प्रभाव

 

ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से तीसरी शताब्दी ईस्वी तक के दौरान उत्तरी भारत में कई विदेशी आक्रमण हुए, जिससे समाज में अस्थिरता उत्पन्न हो गई और स्त्रियों की स्थिति पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा। इस काल में नियोग और पुनर्विवाह की प्रथाओं का प्रचलन बंद हो गया, और इसके स्थान पर संन्यास को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया गया। इसी काल में सती प्रथा का उदय हुआ और इसे धार्मिक यज्ञ के रूप में महिमामंडित किया गया, जिससे स्त्रियों की दशा और अधिक बिगड़ गई। हालांकि, एक क्षेत्र में स्त्रियों की स्थिति में सुधार भी हुआ। वैदिक काल में उन्हें संपत्ति के अधिकार प्राप्त नहीं थे, लेकिन विधवा और पुत्रहीन स्त्रियों की संख्या बढ़ने से उनके संपत्ति अधिकारों को मान्यता देने की जरूरत महसूस की गई।

 

पांचवीं से बारहवीं शताब्दी तक स्त्रियों की स्थिति

 

इस काल में उत्तरकालीन स्मृतियों का लेखन हुआ, और उन पर कई भाष्य लिखे गए। इस दौरान स्त्रियों की स्थिति लगातार गिरती गई, और केवल उनके संपत्ति संबंधी अधिकारों को ही समाज में मान्यता मिली। बारहवीं शताब्दी तक आते-आते विधवाओं के लिए उनके मृत पति की संपत्ति का अधिकार मान्य कर दिया गया था। इस काल में स्त्रियों के पास अपनी संपत्ति का अधिकार होता था, जिसे “स्त्रीधन” कहा जाता था। इसी दौरान स्त्रीधन का क्षेत्र विस्तारित कर दिया गया और इसमें विभाजन और उत्तराधिकार की संपत्ति भी शामिल कर दी गई। हालांकि, जीवन के अन्य क्षेत्रों में उनकी स्थिति पहले जैसी ही दयनीय बनी रही।

 

उपनयन संस्कार और बाल विवाह का प्रचलन

 

उपनयन संस्कार की समाप्ति और बाल विवाह की प्रथा ने समाज में स्त्रियों की स्थिति को और अधिक गिरा दिया। अब उनकी स्थिति शूद्रों के समान हो गई, और विवाह की आयु और भी घटा दी गई। आठ से दस वर्ष की आयु में कन्याओं का विवाह करना प्रचलन में आ गया, और सती प्रथा का विशेष रूप से राजपूत वंश में प्रचलन बढ़ा। राजपूत वंशों में कन्याओं का विवाह चौदह-पंद्रह वर्ष की आयु में किया जाता था।

कुछ राजकुमारियों और कुलीन परिवार की कन्याओं को प्रशासन और सैन्य विषयों की शिक्षा भी दी जाती थी, क्योंकि उन्हें संरक्षण के उद्देश्य से शासन का भार उठाना पड़ता था। इससे उनके विवाह की आयु कुछ हद तक बढ़ जाती थी, जबकि सामान्य परिवारों की कन्याओं का विवाह बाल्यावस्था में ही कर दिया जाता था। बारहवीं शताब्दी तक कुछ कुलीन परिवारों की कन्याएं साहित्य की शिक्षा ग्रहण करती थीं, और उनमें से कुछ कवयित्रियों और आलोचिकाओं के रूप में प्रसिद्ध भी हुईं।

 

मुस्लिम सत्ता का प्रभाव और पर्दा प्रथा का प्रचलन

 

मुस्लिम सत्ता की स्थापना के साथ ही स्त्रियों की शिक्षा का ह्रास होना शुरू हुआ। विवाह के लिए दस वर्ष की आयु आदर्श मानी जाने लगी, और इस आयु से पहले शिक्षा संभव नहीं रह गई। समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन बढ़ गया, जिससे कन्याओं का सार्वजनिक जीवन समाप्त हो गया और उनका कार्यक्षेत्र घर के भीतर ही सीमित रह गया। स्त्रियों की अज्ञानता के कारण स्मृतिकारों ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि पति ही पत्नी का एकमात्र देवता है और उसका धर्म केवल उसकी आज्ञा मानना और उसकी पूजा करना है।

इस युग में कुलीन परिवारों में बहुविवाह का प्रचलन सामान्य हो गया, और बाल विधवाओं की संख्या में भी वृद्धि हुई। अब किसी संभ्रांत परिवार की विधवा पुनर्विवाह नहीं कर सकती थी। आठवीं शताब्दी के बाद समाज में विधवाओं के मुण्डन की प्रथा भी प्रचलित हो गई। स्त्रियों को वैदिक साहित्य और दर्शन के अध्ययन से वंचित कर दिया गया, जिससे उनके ज्ञान के क्षेत्र में गिरावट आई।

 

प्राचीन काल में स्त्री का स्थान और धन संबंधी अधिकार

 

प्राचीन भारतीय समाज में स्त्री को संपत्ति का एक प्रकार माना जाता था, जिसे उपहार स्वरूप दिया जा सकता था। पति का अपनी पत्नी पर संपूर्ण अधिकार होता था, और यहाँ तक कि उसे अपनी पत्नी को किसी भी प्रकार से प्रयोग में लेने का हक था। महाकाव्य महाभारत के कुछ उदाहरणों से यह प्रतीत होता है कि स्त्री को द्यूत क्रीड़ा (जुआ) में भी दाँव पर रखा जा सकता था। युधिष्ठिर ने इसी अधिकार के तहत द्रौपदी को दाँव पर लगा दिया था। हालांकि, व्यावहारिक स्तर पर ऐसी प्रथाओं को सामाजिक दृष्टि से स्वीकार नहीं किया गया था। महाभारत के अनुसार, सभा में युधिष्ठिर के इस कृत्य की निंदा भी हुई थी।

वैदिक युग में सभ्य परिवारों में स्त्री का सम्मानपूर्ण स्थान था। स्त्री को परिवार की संपत्ति का हिस्सा माना जाता था और उसे ‘दम्पति’ (पति-पत्नी दोनों के लिए प्रयुक्त शब्द) संबोधन से परिवार की संपत्ति में समान भागीदार का दर्जा प्राप्त था। लेकिन, समाज में कुछ उदाहरण मिलते हैं जहाँ स्त्रियों को संपत्ति की तरह व्यवहार किया जाता था। जैसे-जैसे समाज विकसित हुआ, प्रथम और द्वितीय शती के स्मृतिकारों ने स्पष्ट रूप से यह नियम बनाया कि किसी भी परिस्थिति में स्त्री और संतान को उपहार या बिक्री की वस्तु नहीं माना जा सकता है।

 

वैदिक युग में स्त्री का अधिकार और परिवार की संपत्ति में सहभागिता

 

भारतीय सभ्यता में पति-पत्नी दोनों को वैदिक युग से ही पारिवारिक संपत्ति का संयुक्त अधिकारी माना गया है। विवाह के समय पति यह प्रतिज्ञा करता था कि वह आर्थिक मामलों में अपनी पत्नी के अधिकारों और हितों की रक्षा करेगा। हालांकि, संयुक्त अधिकार का यह सिद्धांत व्यावहारिक रूप में स्त्रियों के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध नहीं हुआ। उसे केवल अपने निर्वाह के लिए पति से सहायता प्राप्त करने का अधिकार था। मनुस्मृति में कहा गया है कि पति अपनी पत्नी के उचित निर्वाह की व्यवस्था किए बिना कहीं यात्रा पर नहीं जा सकता। इसके अतिरिक्त, अगर पुरुष ने दूसरी शादी कर ली तो भी उसे प्रथम पत्नी के निर्वाह के लिए उचित प्रबंध करना पड़ता था।

 

स्त्रीधन का अधिकार और विस्तार

 

हिंदू व्यवस्थाकारों ने स्त्री को चल-संपत्ति पर पूर्ण अधिकार प्रदान किया। इसके अंतर्गत मूल्यवान वस्त्र, आभूषण और अन्य बहुमूल्य वस्तुएँ आती थीं। ऐसी संपत्ति को स्त्रीधन कहा गया। प्रारंभिक व्यवस्थाकारों के अनुसार, स्त्री को उसकी संपत्ति के निपटान का अधिकार नहीं था। मनु के अनुसार, पत्नी पति की अनुमति के बिना अपनी संपत्ति का कोई भी भाग बेच नहीं सकती थी। बाद में, स्त्रीधन के दो भाग किए गए

(1) सौदायिक (जिसे स्त्री पर पूर्ण अधिकार मिला हुआ था) , और

(2) असौदायिक (जिसे वह केवल उपयोग कर सकती थी लेकिन बेच नहीं सकती थी)।

 

स्त्रीधन पर पति और परिवार का अधिकार

 

शास्त्रकारों का मानना था कि स्त्रीधन पर केवल स्त्री का अधिकार होता है, और सामान्यत: पति भी उस पर अधिकार नहीं कर सकता था। पति को केवल तभी अधिकार था जब परिवार संकट में हो। ऐसे समय में पति इसका उपयोग कर सकता था, लेकिन स्थिति सुधरने पर उसे लौटाना भी अनिवार्य था। अगर पति की मृत्यु हो जाती तो परिवार के अन्य सदस्य स्त्रीधन लौटाने के लिए बाध्य होते थे।

 

उत्तराधिकार में स्त्रीधन

 

यदि स्त्री की संतान होती, तो स्त्रीधन की संपत्ति पर पुत्री को प्राथमिकता मिलती थी। यदि संतान न हो, तो यह संपत्ति स्त्री के पिता या भाई के पास चली जाती थी। अविवाहित कन्याओं को इस संपत्ति का अधिक अधिकार दिया गया था, जबकि विवाहिता को समान भाग प्राप्त करने का विधान था।

 

स्त्रीधन का क्षेत्र और सामाजिक दृष्टिकोण

 

प्रारंभिक काल में स्त्रीधन का क्षेत्र सीमित था और इसमें वस्त्र, आभूषण आदि ही आते थे। परंतु बाद में जब इसका दायरा बढ़ गया, तो उत्तराधिकार में स्त्रीधन का विभाजन पुत्रों और पुत्रियों के बीच समान रूप से किया जाने लगा। मनुस्मृति में इस सिद्धांत का प्रतिपादन मिलता है।

 

सती प्रथा का उद्भव और विकास

 

प्राचीन समाज में यह मान्यता थी कि मृत्यु के बाद भी व्यक्ति का अस्तित्व बना रहता है और उसे उस लोक में जीवनयापन के लिए वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। इस विश्वास के कारण मृतक के साथ दैनिक जीवन की वस्तुएं और यहां तक कि उनके सेवकों, घोड़ों, और पत्नियों को भी उनके साथ दफनाया जाता था ताकि वे परलोक में मृतक की सेवा कर सकें। यह परंपरा धीरे-धीरे सती प्रथा का आधार बनी, जिसमें मृत पति के साथ पत्नी को भी जलाया जाने लगा। इस प्रथा का प्रचलन विश्व की अनेक प्राचीन सभ्यताओं में देखा गया है।

ऐसा माना जाता है कि भारत में आगमन के पहले यूरोपीय जातियों में भी यह प्रथा प्रचलित थी। लेकिन जब आर्य भारत पहुंचे तो इस प्रथा का उनका पालन समाप्त हो चुका था, और इसके कोई संकेत न तो अवेस्ता में मिलते हैं और न ही ऋग्वेद में। हालांकि, अथर्ववेद में एक पुरानी परंपरा का वर्णन मिलता है जिसमें पत्नी प्रतीकात्मक रूप से अपने मृत पति की चिता पर लेटती थी, फिर परिजन उसे चिता से उठने के लिए प्रोत्साहित करते थे और उसके भविष्य के लिए समृद्धि की कामना करते थे। यह इंगित करता है कि वैदिक काल में सती प्रथा प्रचलित नहीं थी और विधवा विवाह सामान्य था। न ही ब्राह्मण साहित्य और गृह्यसूत्रों में, और न ही बौद्ध ग्रंथों में, इसका उल्लेख मिलता है। मेगस्थनीज और कौटिल्य जैसे विदेशी और भारतीय लेखक भी सती प्रथा का कोई संदर्भ नहीं देते। प्रारंभिक धर्मसूत्रों और स्मृतियों में भी सती प्रथा का संकेत नहीं मिलता, जिससे यह स्पष्ट होता है कि चौथी शताब्दी ईसा पूर्व तक भारतीय समाज में सती प्रथा का प्रचलन नहीं था।

 

सती प्रथा का भारत में प्रवेश

 

सती प्रथा का भारतीय समाज में विस्तार चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद किसी समय हुआ। रामायण के मूल अंशों में इसका उल्लेख नहीं है, लेकिन बाद के उत्तरकाण्ड में वेदवती की माता के सती होने का वर्णन है, जो कि संभवतः बाद में जोड़ा गया है। महाभारत में भी कुछ साक्ष्य मिलते हैं जैसे पांडु की पत्नी माद्री का सती होना। हालांकि, महाभारत में कई ऐसे उदाहरण भी हैं जहां पतियों की मृत्यु के बाद उनकी पत्नियां जीवित रहीं, जैसे अभिमन्यु, घटोत्कच और द्रोण की पत्नियां। इसी प्रकार, यादवों की विधवाएं भी अर्जुन के साथ हस्तिनापुर तक गईं। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय तक यह प्रथा समाज के हर वर्ग में प्रचलित नहीं थी।

 

गुप्तकाल और सती प्रथा का प्रसार

 

गुप्तकाल से सती प्रथा को समर्थन मिलना शुरू हुआ। इसका सबसे पहला अभिलेखीय साक्ष्य 510 ईस्वी का एरण शिलालेख है, जिसमें वर्णन है कि गुप्त राजा भानुगुप्त के मित्र गोपराज की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी भी अग्नि में जल मरी। हर्षचरित में भी प्रभाकरवर्धन की पत्नी यशोमती का अपने पति की मृत्यु से पूर्व सती होने का उल्लेख मिलता है।

 

सती प्रथा का विरोध

 

सती प्रथा के प्रसार के बावजूद, समाज में इसका विरोध भी हुआ। बाणभट्ट ने इसे मूर्खतापूर्ण कार्य कहकर इसका विरोध किया और इसे आत्महत्या माना, जिसका कोई फल नहीं होता। उन्होंने इसे अमानवीय और बर्बर प्रथा बताया। मध्यकालीन टीकाकार मेधातिथि भी इसे आत्महत्या मानते हुए विधवा के लिए निषिद्ध मानते थे। दिवण्णभट्ट ने भी इसे अधिक जघन्य बताया।

 

सती प्रथा का औपचारिक विस्तार

 

हालांकि विरोध के बावजूद, समाज में धीरे-धीरे इस प्रथा का प्रचलन बढ़ने लगा। सातवीं शताब्दी से इसे धार्मिक विकल्प के रूप में मान्यता मिलने लगी। हारीत के अनुसार, सती व्रत द्वारा पत्नी अपने पति के पापों से मुक्ति दिला सकती है और दोनों स्वर्ग में दीर्घकाल तक सुखपूर्वक रहते हैं। इस प्रकार सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी के बीच यह प्रथा समाज में मजबूती से स्थापित हो गई। कल्हण की राजतरंगिणी में इस प्रथा का वर्णन मिलता है, जिसमें राजपरिवार की महिलाओं के सती होने का वर्णन है।

 

सती प्रथा का विस्तार और ब्राह्मण समाज में प्रवेश

 

प्रारंभ में सती प्रथा केवल क्षत्रिय या योद्धा कुलों में ही सीमित थी। पद्मपुराण में स्पष्टतः कहा गया है कि यह प्रथा ब्राह्मणों के लिए निषिद्ध है। लेकिन दसवीं शताब्दी के बाद से ब्राह्मणों में भी इसका प्रचलन बढ़ने लगा। राजपूत काल में यह प्रथा विशेष रूप से लोकप्रिय हो गई। इस काल के लेखों में इसके साक्ष्य मिलते हैं।

 

सती प्रथा पर धार्मिक अंधविश्वास और सामाजिक दृष्टिकोण

 

धीरे-धीरे सती प्रथा हिंदू धर्म में मान्यता प्राप्त कर गई। धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वास ने इसे बढ़ावा दिया। जिमूतवाहन ने दायभाग में लिखा है कि सती प्रथा का उद्देश्य स्त्री को संपत्ति के अधिकार से वंचित करना था, जिससे उसे पति के साथ जल मारा जाता था।

 

मुगल काल से ब्रिटिश काल तक सती प्रथा पर अंकुश

 

बारहवीं शताब्दी के बाद राजपूत समाज में सती प्रथा का अत्यधिक प्रचलन हो गया। मुगल सम्राट अकबर ने इस पर रोक लगाने का प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हो सके। अंततः ब्रिटिश काल में लॉर्ड विलियम बेंटिक ने 1829 ईस्वी में इस अमानवीय प्रथा को कानून बनाकर समाप्त कर दिया।

 

विधवा की दशा

 

भारत में विधवाओं की स्थिति ऐतिहासिक रूप से अत्यंत कठिन रही है। वैदिक और उत्तर वैदिक काल में, पति की मृत्यु के बाद पत्नी को पुनर्विवाह का अधिकार था। इस दौरान नियोग की प्रथा भी प्रचलित थी, जिसके तहत एक विधवा अपने देवर से सन्तानोत्पत्ति हेतु यौन संबंध स्थापित कर सकती थी। लेकिन लगभग पाँचवीं शताब्दी के आसपास, ये प्रथाएँ धीरे-धीरे समाप्त होने लगीं। दशवी शताब्दी तक विधवाओं के पुनर्विवाह की प्रथा भी समाप्त हो गई, और उन्हें अपवित्र माना जाने लगा।

इस नई स्थिति के कारण, विधवाओं के सिर के बाल काट दिए जाते थे, और वे किसी भी मांगलिक कार्य में भाग नहीं ले सकती थीं। उन्हें कठोर ब्रह्मचर्य का जीवन जीने के लिए मजबूर किया जाता था। कुछ विधवाएँ जीवन की कठिनाइयों से मुक्ति पाने के लिए सतीव्रत का पालन करती थीं।

दूसरी शताब्दी ईस्वी के बाद से विधवाओं को संपत्ति संबंधी अधिकार दिए गए, जिससे उनकी स्थिति में थोड़ी बहुत सुधार हुआ। लेकिन समाज में उन्हें अक्सर अपमानित किया जाता था, और कई बार उन्हें बलात् चिता में झोंका जाता था। उनके प्रति समाज का दृष्टिकोण नकारात्मक हो गया, और यदि वे अपने परिवार में रहती थीं, तो उन्हें कठोर श्रम करके जीवन यापन करना पड़ता था। अकेले रहने पर भी, उनका निर्वाह मुश्किल होता था।

विधवाओं को मुण्डित सिर और नंगे हाथों के साथ रहना पड़ता था, और उन्हें अशुभ माना जाता था। रामायण में विधवा स्त्री को महती आपदा कहा गया है। कुछ विधवाएँ धार्मिक पवित्रता एवं साधना का जीवन व्यतीत करती थीं, और परिवार एवं समाज की सेवा उनके लिए आदर्श थी।

 

पर्दा प्रथा का प्रचलन

 

हिंदू समाज में पर्दा प्रथा का आरंभ कब हुआ, इस पर विद्वानों में मतभेद है। यह निश्चित है कि वैदिक युग में इसका प्रचलन नहीं था। उस समय महिलाएँ स्वतंत्रता के साथ सार्वजनिक स्थानों पर जा सकती थीं और पुरुषों के साथ सहजता से मिल सकती थीं। ‘ऋग्वेद’ से स्पष्ट होता है कि विवाह के बाद वधू सभी आगंतुकों को दिखाई जाती थी और यह अपेक्षित था कि वह वृद्धावस्था तक सार्वजनिक मंचों पर भाषण दे।

महाकाव्यों में भी पर्दा प्रथा का प्राचीनतम उल्लेख मिलता है, लेकिन इसके पहले के संस्करणों से यह स्पष्ट नहीं होता। रामायण में कहीं भी रानियों को पर्दा धारण करते नहीं देखा गया है। महाभारत में द्रौपदी और कुन्ती का उल्लेख भी इसी प्रकार का है, जहाँ वे स्वतंत्रता से सार्वजनिक जीवन जीती हैं।

हिंदू समाज में पर्दा प्रथा का विस्तार ईस्वी सन् के प्रारंभ से दिखाई देता है, विशेषकर राजकुलों में। बौद्ध काल में भी कुछ रानियाँ पर्दा युक्त रथों में यात्रा करती थीं। भास के नाटकों में भी पर्दा प्रथा का उल्लेख मिलता है।

हालाँकि, यह स्पष्ट है कि पर्दा प्रथा का व्यापक प्रचलन बारहवीं शताब्दी के बाद मुस्लिम आक्रमण के प्रभाव से हुआ। मुस्लिम समाज में यह प्रथा कड़ाई से अपनाई जाती थी, और हिंदू सरदारों एवं सामंतों ने इसे अनुकरण किया। उत्तरी भारत में मुस्लिम सत्ता लंबे समय तक रही, जिससे यह प्रथा अधिक लोकप्रिय हो गई, जबकि दक्षिण में इसका प्रचलन कम रहा।

 

प्राचीन ग्रंथों में स्त्रियों की प्रतिष्ठा

 

प्राचीन भारतीय ग्रंथों में स्त्रियों के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण पाए जाते हैं। कुछ ग्रंथों में स्त्रियों की आलोचना की गई है, लेकिन कई स्थानों पर उन्हें उच्च सम्मान दिया गया है। वैदिक काल में स्त्री को पुरुष के समान सामाजिक और धार्मिक प्रतिष्ठा मिली थी। शतपथ ब्राह्मण में उसे पुरुष की अर्धांगिनी बताया गया है।

महाभारत के अनुसार, गृहणी ही वास्तव में गृह को संचालित करती है, और जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है, वहाँ देवताओं की कृपा बनी रहती है। मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है कि जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं।

अतः यह स्पष्ट है कि हिंदू समाज में स्त्रियों के प्रति उदार एवं आदरपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया गया। उनकी महत्ता को अनेक ग्रंथों और महाकाव्यों में उजागर किया गया है, जो उनके समाज में महत्वपूर्ण स्थान को दर्शाता है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top