सावरकर: वीर या माफ़ीवीर

 

सावरकर
विनायक दामोदर सावरकर
             

“हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी,
जिसको देखना, कई बार देखना।”
-निदा फ़ाज़ली

विनायक दामोदर सावरकर इस नाम का जितना जिक्र होता है, उससे उसके उतने पहलू नजर आते हैं। एक हिस्से में वह एक महान क्रांतिकारी है, जिसमें अंग्रेज के खिलाफ आवाज उठाई और जेल गया, वह भी काला पानी वाली सेलुलर जेल। दूसरे हिस्से से में वह एक महान विचार है, जिसने हिंदुत्व के विचार की नींव रखी। एक नास्तिक जो गौ मांस की वकालत करता है फिर भी भारत में धार्मिक राष्ट्रवाद का नायक बन जाता है।

सावरकर की जिंदगी का दूसरा पहलू भी है। जहां लोग उसके नाम की आगे वीर लगाने पर आपत्ति करते हैं। जिनके लिए वह अभी भी महात्मा गांधी की हत्या का आरोपी है। इन सबके चलते सावरकर एक विवादास्पद व्यक्तित्व है।

उनके प्रशंसकों  और आलोचकों दोनों के पास अपने तर्क और तथ्य हैं। सारा विवाद दो बातों पर है। पहला उनका अंग्रेज सरकार से माफी मांगने पर और दूसरा महात्मा गांधी की हत्या में उनकी भूमिका पर।

हमें सावरकर का मूल्यांकन करने के लिए उनके जीवन को दो भागों में देखना होगा। पहला उनके गिरफ्तार होने से पहले और दूसरा उनके गिरफ़्तार होने के बाद।

सावरकर: एक क्रांतिकारी का जन्म

इंग्लैंड में पढ़ाई करने वाला एक 25 साल  नवजवान लड़का अंग्रेजो के मुंह पर जोरदार तमाचा उस वक्त मारता है, जब अंग्रेज 1857 के विद्रोह के दमन की 50वी वर्षगाठ माना रहे थे। उस वक्त इस नवजवान सावरकर ने एक अच्छी तरह से शोध की गई पुस्तक India’s First War of Independence लिखी। जिसके माध्यम से उस ने पहली बार ये साबित किया की 1857 का विद्रोह एक सुनियोजित और संगठीत विद्रोह था।

1899 में मित्र मेला और 1904 में अभिनव भारत नामक संगठनों के गठन के माध्यम से भारत में क्रांतिकारी आंदोलनों की नींव रखने वाले सावरकर नासिक के कलेक्टर जैक्सन की हत्या (1909) में प्रयोग की गई पिस्तौल को उपलब्ध कराने के आरोप में इंग्लैंड से निर्वासित कर भारत भेज दिया जाता है।
भारत में उन पर मुक़दमा चलता है और उन्हें काला पानी की सजा हो जाती है।

दूसरी जिंदगी: जेल और माफीनामे

सेलुलर जेल में सावरकर के 10 साल 9 महीने कठिन संघर्ष में बीते। उन्होंने अंग्रेजों को कई माफीनामे लिखे, जिसके कारण उनकी आलोचना भी हुई। उनके समर्थक इसे उनकी एक राजनीति चाल मानते हैं, जिससे वह जेल से बाहर आकर स्वतंत्रता संग्राम में फिर से सक्रिय होना चाहते थे।

1924 में, अंग्रेजों ने उन्हें दो शर्तों पर रिहा किया: वह राजनीति में सक्रिय नहीं होंगे और रत्नागिरी से बाहर जाने के लिए कलेक्टर की अनुमति लेंगे।

हालांकि, इन दोनो प्रतिबंधों को 1937 में
प्रांतों में कांग्रेस की सरकारें बनने के बाद बंबई सरकार ने हटा दिया था।

माफीनामा :

सावरकर ने पहला माफीनामा 1911 में, जेल पहुंचने के दो महीने बाद ही लिखा था। इसके बाद उन्होंने कुल छह माफीनामे लिखे। इन माफीनामों में उन्होंने खुद को अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार बताते हुए, जेल से रिहा होने की याचना की थी।

माफीनामों की व्याख्या

सावरकर के माफीनामों को लेकर विद्वानों और इतिहासकारों के बीच मतभेद हैं।

 

समर्थकों का दृष्टिकोण : 

सावरकर के समर्थक इस बात पर जोर देते हैं कि ये माफीनामे उनकी एक रणनीतिक चाल थे। उनके अनुसार, सावरकर ने ब्रिटिश सरकार को यह विश्वास दिलाने के लिए माफीनामे लिखे कि वह अब उनके खिलाफ नहीं हैं, ताकि वह जेल से बाहर आकर स्वतंत्रता संग्राम में फिर से सक्रिय हो सकें।

– सावरकर के समर्थक लेखक, जैसे कि जयप्रकाश नारायण, अपनी किताब “Savarkar: The True Story of the Father of Hindutva” में इस माफीनामों को एक राजनीतिक चाल बताते हैं। उनके अनुसार, सावरकर का उद्देश्य जेल से बाहर आकर आंदोलन को नए सिरे से गति देना था।

आलोचकों का दृष्टिकोण :

-दूसरी ओर, उनके आलोचक मानते हैं कि यह माफीनामे उनके विचारों में बदलाव को दर्शाते हैं। उनके अनुसार, सावरकर ने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को छोड़कर अंग्रेजों के साथ समझौता कर लिया था।

  – इस दृष्टिकोण को रामचंद्र गुहा की किताब “India After Gandhi” में समर्थन मिलता है। गुहा का तर्क है कि सावरकर ने अपनी कट्टर क्रांतिकारी सोच को छोड़कर राजनीतिक लाभ के लिए ब्रिटिश सरकार के साथ समझौता किया। गुहा का मानना है कि माफीनामे सावरकर के विचारों में आए बदलाव का प्रतीक हैं।

हिंदुत्व की विचारधारा: एक राजनीतिक दृष्टिकोण

हिंदुत्व की परिभाषा

सावरकर ने अपनी पुस्तक Hindutva: Who is a Hindu? में हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में प्रस्तुत किया। यह पुस्तक 1923 में लिखी गई और इसमें उन्होंने हिंदुत्व को एक सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान के रूप में परिभाषित किया, जो सभी भारतीयों को जोड़ती है।

अश्विन माहेश्वरी की किताब “Savarkar: Echoes from a Forgotten Past” में यह बताया गया है कि सावरकर का हिंदुत्व एक व्यापक सांस्कृतिक अवधारणा थी, जो केवल धार्मिक पहचान तक सीमित नहीं थी। माहेश्वरी ने यह भी लिखा है कि सावरकर ने हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में विकसित किया, जो भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदू पहचान को मजबूत करता है।

हिंदुत्व और दो राष्ट्र सिद्धांत

सावरकर का हिंदुत्व विचारधारा पर आधारित था, जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि भारत में हर व्यक्ति हिंदू नहीं हो सकता। उन्होंने इस विचार को रखा कि भारत के मुस्लिम और ईसाई समुदायों की पुण्यभूमि भारत के बाहर है, इसलिए वे भारतीय संस्कृति का पूर्ण हिस्सा नहीं हो सकते।

सावरकर के दो राष्ट्र सिद्धांत पर उनका दृष्टिकोण मनोज जोशी की किताब “Savarkar: Myth and Reality” में उल्लेखित है। जोशी ने सावरकर के इस विचार की आलोचना की है और इसे विभाजनकारी बताया है। उनका मानना है कि सावरकर का यह सिद्धांत भारतीय समाज के भीतर विभाजन को बढ़ावा देता है।

हिंदू कट्टरवाद और सावरकर की भूमिका

कट्टरपंथी हिंदुत्व का उदय

सावरकर के हिंदुत्व विचार ने भारतीय राजनीति में हिंदू कट्टरवाद के बीज बोए। उन्होंने मुस्लिम समुदाय के प्रति सख्त रुख अपनाया और हिंदू समाज को संगठित करने पर जोर दिया। सावरकर के विचारों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और हिंदू महासभा जैसे संगठनों को प्रेरित किया, जिन्होंने हिंदू राष्ट्र के विचार को आगे बढ़ाया।

सीताराम येचुरी की किताब “Savarkar and the Roots of Hindutva” में सावरकर की भूमिका को विस्तार से विश्लेषित किया गया है। येचुरी ने लिखा है कि सावरकर के विचारों ने हिंदू राष्ट्रवाद और हिंदू कट्टरवाद को मजबूत किया, जो आज भारतीय राजनीति में एक प्रमुख धारा बन गई है।

राष्ट्रीय आंदोलन में सावरकर की भूमिका :

सावरकर, मुस्लिम लीग के दो राष्ट्र के सिद्धांत से बहुत पहले ही दो राष्ट्र की बात कर देते है।

सावरकर का जीवन विरोधाभास से भरा दिखता है। 1939 में जब कांग्रेस की सरकारें इस्तीफा देती है तो वो मुस्लिम लीग के साथ मिल कर तीन प्रांतों में सरकार बनाते हैं। और फिर यही सावरकर 1944 में जब कांग्रेस, मुस्लिम लीग के साथ वार्ता करने जाती है तो वो उसे तुष्टीकरण का नाम देते हैं।

1942, में वो भारत छोड़ो आन्दोलन का विरोध करते है ये कहते हुए की भारत में हिंदुओ और अंग्रेजो के हित समान है।

गांधीजी की हत्या और सावरकर का नाम

सावरकर की छवि को उस वक्त गहरा झटका लगता है, जब उनका नाम महात्मा गांधी की हत्या में आया और हत्या के आरोप उनको गिरफ्तार किया गया।सावरकर का नाम महात्मा गांधी की हत्या में आने से हिंदू कट्टरवाद के प्रति उनके दृष्टिकोण पर गहरा असर पड़ा। नाथूराम गोडसे, जिसने गांधीजी की हत्या की, वह हिंदू महासभा से जुड़ा था और सावरकर के विचारों से प्रभावित था। लेकिन सबूतों के अभाव में वह बरी हो गए। बाद में गांधीजी की हत्या पर गठित कपूर कमीशन ने उनके महात्मा गांधी की हत्या में शामिल होने की शक की सुई उनसे हटाई नही।

मार्कंडेय काटजू की किताब “Gandhi and Savarkar: The Untold Story” में इस घटना का उल्लेख मिलता है। काटजू ने लिखा है कि गांधीजी की हत्या में सावरकर की संलिप्तता की संभावना को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने इस घटना को सावरकर की विरासत पर एक काला धब्बा बताया है।

राजनीतिक धारा और हिंदू कट्टरवाद

सावरकर के हिंदुत्व विचारों ने भारतीय राजनीति में एक नई धारा को जन्म दिया, जिसे बाद में हिंदू राष्ट्रवाद के रूप में पहचाना गया। यह धारा हिंदू संस्कृति और पहचान को भारतीय राजनीति के केंद्र में लाने पर जोर देती है।

सुभाष कश्यप की किताब “Savarkar and the Making of Modern India” में सावरकर के विचारों का विश्लेषण किया गया है। कश्यप ने लिखा है कि सावरकर के हिंदुत्व ने भारतीय राजनीति में एक नया मार्ग प्रशस्त किया, जो आज भी कई राजनीतिक दलों के लिए प्रेरणा स्रोत है।

निष्कर्ष

सावरकर का जीवन और विचारधारा कई विरोधाभासों और जटिलताओं से भरी हुई है। उनके माफीनामे, हिंदुत्व की विचारधारा, और हिंदू कट्टरवाद पर उनकी भूमिका, उनकी विरासत को जटिल और बहुआयामी बनाती है। विभिन्न लेखकों द्वारा सावरकर पर लिखी गई किताबें इस जटिलता को और गहराई से समझने का अवसर प्रदान करती हैं। सावरकर की कहानी यह बताती है कि एक व्यक्ति का जीवन और उसके विचार हमेशा सीधे और सरल नहीं होते, और उन्हें पूरी तरह से समझने के लिए हमें उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना चाहिए।

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