रैयतवाड़ी व्यवस्था: भारतीय कृषि में ऐतिहासिक परिवर्तन

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था क्या है?

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था एक प्रकार की भूमि कर संग्रहण प्रणाली थी, जिसे ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में लागू किया गया। इस व्यवस्था में किसान को ज़मीन का मालिक माना गया और उन्हें कर का भुगतान करने की जिम्मेदारी दी गई। “रैयत” शब्द का अर्थ है किसान, और “वाड़ी” का मतलब है भूमि या खेत। इस व्यवस्था के तहत, किसानों को ज़मीन पर स्वामित्व का अधिकार प्राप्त था, लेकिन उन्हें उस भूमि पर उत्पादित होने वाली फसल से कर अदा करना होता था।

इस व्यवस्था में, ज़मीन का मालिकाना किसान के पास था, लेकिन यदि वे कर का भुगतान नहीं करते थे, तो उनकी ज़मीन जब्त हो सकती थी। रैयतवाड़ी व्यवस्था में किसानों को सीधा तौर पर भूमि कर चुकाने की जिम्मेदारी दी गई, और यह ज़मीन से प्राप्त उत्पादन का एक हिस्सा होता था।

 

Thomas Munro portrait - British colonial administrator and Governor of Madras during the British Raj
रैयतवाड़ी व्यवस्था के जनक थॉमस मुनरो

रैयतवाड़ी व्यवस्था का इतिहास

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था ब्रिटिश भारत में भूमि राजस्व संग्रहण की एक महत्वपूर्ण प्रणाली थी, जिसे 19वीं शताब्दी की शुरुआत में लागू किया गया। यह व्यवस्था मुख्य रूप से मद्रास, बॉम्बे और असम के क्षेत्रों में प्रभावी रही। इसका प्रारंभिक प्रयोग 1792 में अलेक्जेंडर रीड ने तमिलनाडु के बारामहल और सलम जिलों में किया, जहां उन्होंने महसूस किया कि किसानों (रैयत) से सीधे कर वसूला जा सकता है। इसके बाद 1820 में थॉमस मुनरो ने इसे व्यापक रूप से मद्रास प्रेसीडेंसी में लागू किया। इसलिए थॉमस मुनरो को रैयतवाड़ी व्यवस्था का जनक माना जाता है। इस व्यवस्था के तहत किसान भूमि के स्वामी माने गए और उन्हें सरकार को सीधे भू-राजस्व अदा करना पड़ता था।

रैयतवाड़ी व्यवस्था की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि बंगाल में लागू स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement) की विफलताओं ने यह दिखाया कि जमींदारों के माध्यम से राजस्व संग्रहण किसानों का शोषण बढ़ा रहा था और राजस्व में स्थिरता भी नहीं आ रही थी। दक्षिण भारत और असम जैसे क्षेत्रों में, जहां छोटे-छोटे किसान अपनी भूमि पर काम कर रहे थे, जमींदारी व्यवस्था प्रभावी नहीं हो सकती थी। रैयतवाड़ी व्यवस्था में अंग्रेजों ने किसानों से सीधे कर वसूली का मॉडल अपनाया, जिससे बिचौलियों की भूमिका समाप्त हो गई। इसके लागू होने वाले क्षेत्रों में मद्रास प्रेसीडेंसी (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक), बॉम्बे प्रेसीडेंसी (महाराष्ट्र, गुजरात), और असम के कुछ हिस्से शामिल थे। इस व्यवस्था के अन्तर्गत कुल ब्रिटिश भारत के भू-क्षेत्र का 51 प्रतिशत हिस्सा शामिल था।

इस व्यवस्था के अंतर्गत राजस्व की दर भूमि की उपज के आधार पर तय की जाती थी, जो फसल की उत्पादकता और भूमि की उर्वरता पर निर्भर थी। हालांकि, राजस्व की दर इतनी अधिक थी (कई बार उपज का 50% तक), कि किसान अक्सर साहूकारों से कर्ज लेने को मजबूर हो जाते थे। प्राकृतिक आपदाओं और अकाल के समय भी राजस्व माफ नहीं किया जाता था, जिससे किसान गरीब होते गए। इसके बावजूद, इस व्यवस्था ने किसानों को उनकी भूमि का कानूनी स्वामित्व दिया, जो उस समय एक क्रांतिकारी कदम माना गया।

1830 के दशक में इसे बॉम्बे और असम में भी लागू किया गया, लेकिन इस व्यवस्था ने किसानों की आर्थिक स्थिति को और अधिक दयनीय बना दिया। यह व्यवस्था कर्ज के दुष्चक्र और शोषण का कारण बनी, जिससे कई किसान अपनी जमीनें खोने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि 19वीं और 20वीं शताब्दी में किसानों के असंतोष ने स्वतंत्रता संग्राम में किसान आंदोलनों को प्रेरित किया। यह व्यवस्था अंग्रेजों के लिए राजस्व संग्रहण का एक स्थायी माध्यम साबित हुई, लेकिन भारतीय किसानों के लिए यह आर्थिक दुर्दशा और सामाजिक असंतोष का कारण बनी। 

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था के मुख्य तत्व

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था का उद्देश्य किसानों को भूमि का मालिकाना अधिकार देना था। इसके तहत, किसानों को अपनी भूमि पर अधिकार तो दिया गया, लेकिन उन्हें भूमि कर का भुगतान भी करना होता था। इस व्यवस्था में कई महत्वपूर्ण तत्व थे, जिनकी विशेषताओं ने इसे अन्य भूमि व्यवस्थाओं से अलग किया।

 

किसान का भूमि स्वामित्व

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था का एक प्रमुख तत्व था किसान को भूमि का स्वामित्व देना। इस व्यवस्था के तहत किसानों को अपनी भूमि का कानूनी स्वामित्व प्राप्त था, जिससे वे अपनी भूमि का उपयोग करने, बेचने या गिरवी रखने के स्वतंत्र थे। इस व्यवस्था को 1820 में थॉमस मुनरो द्वारा मद्रास प्रेसीडेंसी में लागू किया गया था। किसानों को जमीन का स्वामित्व दिया गया था, लेकिन यह शर्त रखी गई थी कि यदि किसान समय पर कर नहीं चुका पाता, तो भूमि सरकार के पास चली जाती थी। 1820 के बाद इस प्रणाली को बॉम्बे और बंगाल में भी लागू किया गया, जिससे किसानों को अधिक सुरक्षा मिली, लेकिन साथ ही उन्हें भारी कर भुगतान का भी सामना करना पड़ा।

 

सरकार को सीधे राजस्व भुगतान

 

इस व्यवस्था में किसान सीधे सरकार को राजस्व अदा करते थे, जिसमें जमींदार या बिचौलिए का कोई भूमिका नहीं थी। कर की दर आमतौर पर भूमि की उत्पादकता और उसकी उर्वरता पर आधारित होती थी। यह राजस्व किसानों के लिए एक बड़ा बोझ बन गया, क्योंकि आमतौर पर कर की दर 50% तक होती थी, जिससे किसान अपनी उपज का आधा हिस्सा राजस्व के रूप में दे देते थे। उदाहरण के लिए, मद्रास में 1830 के दशक तक किसानों को अपनी फसल का आधा हिस्सा सरकार को देना पड़ता था, जो आर्थिक दबाव का मुख्य कारण था।

 

भूमि का वर्गीकरण

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था के तहत भूमि का वर्गीकरण भी एक महत्वपूर्ण तत्व था। किसानों की भूमि का मूल्यांकन उनकी उत्पादन क्षमता के आधार पर किया जाता था। यह मूल्यांकन विभिन्न कारकों जैसे जलवायु, मौसम, और भूमि की गुणवत्ता पर निर्भर करता था।

किसानों की भूमि को विभिन्न श्रेणियों में बांटा गया था, जैसे कि उर्वरक भूमि, कम उपज देने वाली भूमि, और उच्च गुणवत्ता वाली भूमि। इसके आधार पर प्रत्येक किसान से राजस्व की दर निर्धारित की जाती थी।

उत्पादन के आधार पर कर सुनिश्चित करता था कि किसानों से वसूला गया कर उनकी भूमि की उत्पादन क्षमता और कृषि उत्पादन के अनुसार हो। हालांकि यह आदर्श था, लेकिन प्रायः किसानों के साथ अन्याय होता था, क्योंकि कर की दर कभी-कभी अधिक होती थी और इसे अदायगी में अनियमितताएँ भी होती थीं। यह प्रक्रिया 1835 के बाद प्रमुख रूप से लागू की गई, और इसने किसानों के लिए कर दरों को थोड़ा अधिक लचीला बनाने का प्रयास किया। हालांकि, इसके बावजूद अधिकतर किसान राजस्व के भुगतान में परेशान रहते थे, क्योंकि इसके लिए उन्हें अपने उत्पादों को कम दामों पर बेचना पड़ता था।

 

किसानों को कृषि में स्वतंत्रता

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था में किसानों को कुछ हद तक स्वतंत्रता प्राप्त थी, क्योंकि वे किसान स्वामी थे और उन्हें अपने भूमि पर कृषि कार्य करने की पूरी आज़ादी थी।

इससे पहले ज़मीनदारों के अधीन काम करने वाले किसान अब अपनी ज़मीन के मालिक थे और उन्हें किसी अन्य व्यक्ति को किराया नहीं देना पड़ता था। इससे किसानों को अपनी खेती में निर्णय लेने की स्वतंत्रता मिली।

हालांकि, किसानों को कृषि के लिए कुछ स्वतंत्रता मिली, लेकिन कर वसूली की अत्यधिक दर और भूमि के अस्थायी स्वामित्व ने किसानों को अपनी भूमि में कोई सुधार करने से रोका।

 

राजस्व भुगतान की कठोरता

 

किसानों को हर वर्ष निर्धारित समय सीमा के भीतर राजस्व भुगतान करना अनिवार्य था। इस व्यवस्था में प्राकृतिक आपदाओं, जैसे अकाल, सूखा या बाढ़ के दौरान भी कोई छूट नहीं दी जाती थी। 1876-77 के मद्रास अकाल के दौरान लाखों किसान अपने कर का भुगतान नहीं कर पाए और उनकी भूमि जब्त कर ली गई। उस समय सरकार ने राजस्व की दर में कोई राहत नहीं दी, जिसके कारण लाखों किसान गरीबी और कर्ज के जाल में फंसे रहे।

 

भूमि का नियमित सर्वेक्षण और पुनर्मूल्यांकन

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था के तहत भूमि का नियमित सर्वेक्षण और पुनःमूल्यांकन किया जाता था। भूमि की उर्वरता और उत्पादन क्षमता के आधार पर कर की दर तय की जाती थी। 1830 के दशक में मद्रास और बॉम्बे प्रांतों में भूमि का पुनःसर्वेक्षण किया गया, ताकि राजस्व दरों को संशोधित किया जा सके। हालांकि, यह प्रक्रिया किसानों के लिए जटिल और महंगी थी, क्योंकि उन्हें अपने भूमि माप को नियमित रूप से जांचना और फिर से सर्वेक्षण की प्रक्रिया में भाग लेना पड़ता था।

 

राजस्व का नकद भुगतान

 

किसानों को राजस्व नकद में अदा करना पड़ता था, जो अक्सर उनकी उपज को बाजार में बेचने की आवश्यकता को बढ़ाता था। यह किसानों के लिए कठिन था, क्योंकि उन्हें अपने उत्पादों को तत्काल बाजार में बेचना पड़ता था, जो अकसर सस्ते दामों पर होता था। 1871 में एक रिपोर्ट में यह उल्लेख किया गया था कि किसानों को अपने उत्पादों को अक्सर मूल्य से कम कीमत पर बेचने के लिए मजबूर किया जाता था, जिससे उन्हें पर्याप्त लाभ नहीं मिलता था।

 

जमींदार और बिचौलियों की समाप्ति

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था ने जमींदारों और अन्य बिचौलियों की भूमिका को समाप्त कर दिया। इस व्यवस्था में किसान सीधे सरकार से जुड़े थे, जिससे प्रशासनिक खर्चों में कमी आई, लेकिन साथ ही किसानों पर बढ़ते हुए कर और प्रशासन की कठोरता का प्रभाव पड़ा। 1850 के दशक में, जमींदारी व्यवस्था के तहत किसानों को जमींदारों को कर चुकाना पड़ता था, जबकि रैयतवाड़ी प्रणाली में सीधे सरकार को भुगतान करना होता था, जिससे बिचौलियों का प्रभाव समाप्त हुआ।

हालांकि, अधिकारियों के पास अधिक कर वसूली के अधिकार होने के कारण भ्रष्टाचार और शोषण की समस्याएँ बढ़ी। कई बार अधिकारियों ने किसानों से अधिक कर वसूला या उन्हें गलत तरीके से परेशान किया।

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था का उद्देश्य और लक्ष्य

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था के लागू होने का मुख्य उद्देश्य भारतीय कृषि में सुधार लाना और ब्रिटिश शासन के लिए स्थिर राजस्व स्रोत की व्यवस्था करना था। यह एक ऐसी प्रणाली थी जिसमें किसानों को अपनी ज़मीन पर स्वामित्व प्राप्त था, लेकिन इसके साथ-साथ उन्हें उस भूमि से उत्पन्न होने वाली उपज का एक हिस्सा ब्रिटिश सरकार को कर के रूप में देना होता था।

इस व्यवस्था के माध्यम से ब्रिटिश शासन ने कृषि सुधार और राजस्व वसूली को सुनिश्चित करने के कुछ मुख्य उद्देश्य और लक्ष्य निर्धारित किए थे। आइए, इस व्यवस्था के उद्देश्यों और लक्ष्यों को विस्तार से समझते हैं।

 

स्थिर राजस्व स्रोत प्राप्त करना

 

ब्रिटिश शासन के लिए सबसे बड़ा उद्देश्य स्थिर और विश्वसनीय राजस्व स्रोत बनाना था। ब्रिटिश सरकार को भारतीय उपमहाद्वीप से राजस्व की आवश्यकता थी, और रैयतवाड़ी व्यवस्था इसके लिए एक महत्वपूर्ण कदम था।

• रैयतवाड़ी व्यवस्था के तहत, कर सीधे किसानों से वसूला जाता था। इससे भूमि स्वामित्व के अधिकार के साथ कर वसूली की प्रक्रिया सरल और प्रभावी हो गई। सरकार को यह सुनिश्चित करना था कि उसके पास एक निश्चित और स्थिर राजस्व आये, और रैयतवाड़ी व्यवस्था ने इस लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद की।

• इससे पहले, जमीनदारों के माध्यम से कर वसूला जाता था, जिससे वसूली में भ्रष्टाचार और मध्यस्थों का हस्तक्षेप बढ़ जाता था। रैयतवाड़ी व्यवस्था ने इस प्रक्रिया को सीधे किसानों तक पहुँचाया, जिससे सरकार को राजस्व की अधिक विश्वसनीय और निष्पक्ष वसूली मिली।

 

कृषि सुधारों की दिशा में कदम

 

ब्रिटिश शासन ने भारतीय कृषि को आधुनिक बनाने और उत्पादन बढ़ाने के लिए कृषि सुधार लाने का प्रयास किया। रैयतवाड़ी व्यवस्था इस दिशा में एक कदम था, क्योंकि इसने किसानों को स्वामित्व और स्वतंत्रता का एक प्रकार का अधिकार दिया।

• रैयतवाड़ी व्यवस्था के तहत, किसानों को भूमि का स्वामित्व दिया गया था। इससे किसानों को अपनी भूमि पर लंबी अवधि तक अधिकार मिल गया, जो उन्हें कृषि में सुधार और विकास के लिए प्रेरित करता था। हालांकि यह स्वामित्व स्थायी नहीं था और कर की अत्यधिक दर के कारण किसानों के लिए यह अस्थिर हो सकता था, फिर भी यह एक स्वतंत्रता का कदम था।

• रैयतवाड़ी व्यवस्था के तहत किसानों को अपनी भूमि पर स्वामित्व मिला, जिससे उन्हें अपनी भूमि में सुधार करने की प्रेरणा मिल सकती थी। हालांकि, इसके साथ ही कर के अत्यधिक बोझ और अन्य समस्याएँ थीं, फिर भी यह व्यवस्था कृषि सुधार के लिए एक संभावित वातावरण प्रदान करती थी।

 

भूमि से संबंधित विवादों का निवारण

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था का एक और उद्देश्य था भूमि विवादों को कम करना और कृषि संबंधी समस्याओं को हल करना। इससे पहले भारतीय कृषि प्रणाली में ज़मीन पर स्वामित्व और अधिकार को लेकर कई तरह के विवाद होते थे, खासकर जमीनदारों और किसानों के बीच। रैयतवाड़ी व्यवस्था ने भूमि के स्वामित्व को किसानों को सौंप कर इन विवादों को कम करने की कोशिश की।

• रैयतवाड़ी व्यवस्था में किसानों को उनकी ज़मीन का स्वामित्व अधिकार दिया गया था। इस व्यवस्था के तहत किसानों को अपनी भूमि पर अधिकार मिला, जिससे भूमि विवादों की संभावना कम हुई। हालांकि, यह अधिकार अस्थायी था, और कर न चुकाने पर भूमि जब्त करने का अधिकार सरकार को था, फिर भी किसानों को कुछ हद तक कानूनी सुरक्षा मिली।

• रैयतवाड़ी व्यवस्था ने किसानों को सीधे सरकार के साथ संबंध स्थापित करने का मौका दिया, जिससे ज़मीन से संबंधित विवादों का हल जल्दी और सटीक तरीके से किया जा सकता था।

 

भ्रष्टाचार पर नियंत्रण

 

ब्रिटिश शासन का एक और उद्देश्य था भ्रष्टाचार और शोषण पर नियंत्रण पाना, जो उस समय भारतीय कृषि में ज़मीनदारों और मध्यस्थों के माध्यम से बढ़ रहा था। रैयतवाड़ी व्यवस्था के द्वारा, किसान और सरकार के बीच सीधा संपर्क स्थापित हुआ, जिससे मध्यस्थों के प्रभाव को कम किया गया।

• इससे पहले, कर वसूली का कार्य जमीनदारों के माध्यम से होता था, जिनके पास किसानों को शोषित करने और भ्रष्टाचार करने की पूरी स्वतंत्रता थी। रैयतवाड़ी व्यवस्था में इस प्रक्रिया को सीधे सरकार के अधिकारी द्वारा नियंत्रित किया गया, जिससे भ्रष्टाचार की समस्या को कम करने का प्रयास किया गया।

• रैयतवाड़ी व्यवस्था ने किसान और प्रशासन के बीच सीधे संपर्क की प्रक्रिया को शुरू किया, जिससे अधिकारियों को कर संग्रहण में अधिक निष्पक्षता और स्पष्टता प्राप्त हुई।

 

भूमि के उत्पादकता में वृद्धि

 

ब्रिटिश शासन ने कृषि उत्पादकता में वृद्धि को एक मुख्य लक्ष्य माना था, क्योंकि भारतीय कृषि से भारी मात्रा में राजस्व एकत्रित करना था। रैयतवाड़ी व्यवस्था ने इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किसानों को स्वामित्व और प्रेरणा देने का प्रयास किया, ताकि वे अधिक उत्पादन कर सकें।

• किसानों को अपनी भूमि पर स्वामित्व मिलने से उन्होंने अपनी भूमि की उपज बढ़ाने के लिए मेहनत की। यह माना जाता था कि अगर किसान भूमि के मालिक होते हैं, तो वे अपनी भूमि की उपज बढ़ाने के लिए नई तकनीकों और कृषि विधियों का इस्तेमाल करेंगे।

• हालांकि रैयतवाड़ी व्यवस्था के कारण उत्पादकता में महत्वपूर्ण सुधार नहीं हुआ, फिर भी यह व्यवस्था कृषि सुधार के लिए एक बुनियादी ढांचा तैयार करती थी, जिससे भविष्य में कृषि उत्पादकता में सुधार की संभावना थी।

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था के गुण और दोष

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था की स्थापना का उद्देश्य भारतीय कृषि में सुधार लाना और ब्रिटिश सरकार के लिए एक स्थिर राजस्व व्यवस्था तैयार करना था। हालांकि इसके कई लाभ थे, लेकिन इस व्यवस्था ने किसानों के जीवन में कई समस्याएँ भी उत्पन्न कीं।

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था के लाभ

 

किसानों को भूमि पर स्वामित्व का अधिकार

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था के तहत, किसानों को अपनी भूमि पर स्वामित्व प्राप्त हुआ। इससे पहले, भूमि का स्वामित्व जमीनदारों के पास होता था और किसान किरायेदार के रूप में काम करते थे। रैयतवाड़ी व्यवस्था ने किसानों को स्वतंत्रता दी, जिससे वे अपनी भूमि पर अधिक मनोरंजन और नवाचार के साथ खेती कर सकते थे।

• किसानों को अपनी ज़मीन पर स्वामित्व मिला, जिससे वे ज़मीन के सच्चे मालिक बन गए और उन्हें भूमि पर किसी अन्य व्यक्ति का किराया नहीं देना पड़ा।

• स्वामित्व मिलने के बाद किसानों को अपनी ज़मीन की उपज बढ़ाने के लिए प्रेरणा मिली, क्योंकि उनके पास अब अपनी ज़मीन के परिणामों के प्रति जिम्मेदारी थी।

 

राजस्व संग्रहण में सुधार

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था ने राजस्व संग्रहण को अधिक संगठित और सुनिश्चित किया। इससे पहले, ज़मीनदारों द्वारा कर वसूली में अक्सर भ्रष्टाचार और अनियमितताएँ होती थीं। 

• रैयतवाड़ी व्यवस्था ने किसानों को सीधे सरकार से जुड़ा किया, जिससे राजस्व की वसूली में पारदर्शिता बढ़ी और भ्रष्टाचार में कमी आई।

• किसानों से सीधे कर वसूला गया, जिससे मध्यस्थों की भूमिका कम हो गई और सरकार को राजस्व का एक स्थिर स्रोत मिला।

• सरकार को इस व्यवस्था से भूमि पर नियंत्रण मिला और कर की वसूली अधिक निष्पक्ष और संगठित हुई।

 

भूमि विवादों का निवारण

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था के तहत, किसानों को भूमि पर कानूनी स्वामित्व मिला, जिससे भूमि विवादों में कमी आई। पहले, ज़मीनदारों के बीच भूमि के अधिकार को लेकर अक्सर संघर्ष होते थे, और किसानों को अपने हक के लिए संघर्ष करना पड़ता था। रैयतवाड़ी व्यवस्था ने किसानों को स्वामित्व अधिकार दिए, जिससे भूमि विवाद कम हुए।

• भूमि के स्वामित्व के साथ किसानों को क़ानूनी सुरक्षा मिली, और यह व्यवस्था भूमि संबंधी विवादों को सुलझाने में सहायक सिद्ध हुई।

• भूमि विवादों के समाधान के कारण कृषि क्षेत्र में स्थिरता आई, जिससे किसानों को अपनी भूमि में सुधार करने का अवसर मिला।

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था की हानियाँ

 

किसानों पर कर का अत्यधिक बोझ

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था के सबसे बड़े दोषों में से एक था कर का अत्यधिक बोझ। किसानों को अपनी ज़मीन से प्राप्त उपज का एक बड़ा हिस्सा राजस्व के रूप में सरकार को देना पड़ता था। यह कर आमतौर पर भूमि के उत्पादन का 50% तक हो सकता था, जो किसानों के लिए भारी बोझ था।

• अगर किसी वर्ष फसल खराब हो जाती थी या प्राकृतिक आपदा (सूखा, बाढ़ आदि) आती थी, तो किसानों को फिर भी कर का भुगतान करना पड़ता था। इससे उनके ऊपर आर्थिक दबाव बढ़ जाता था, और उन्हें अपनी ज़मीन को खोने का खतरा होता था।

• अत्यधिक कर के कारण कई किसान कर्ज़ के बोझ तले दब गए थे। जब वे कर का भुगतान नहीं कर पाते थे, तो उनकी भूमि जब्त हो सकती थी, जिससे शोषण और किसानों की दरिद्रता बढ़ती थी।

 

भूमि का अस्थायी स्वामित्व

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था में किसानों को भूमि का स्वामित्व तो मिला था, लेकिन यह स्वामित्व स्थायी नहीं था। अगर किसान समय पर कर का भुगतान नहीं करते थे, तो उनकी ज़मीन सरकार द्वारा जब्त की जा सकती थी। यह अस्थिरता किसानों के लिए एक बड़ी समस्या थी क्योंकि वे हमेशा अर्थिक असुरक्षा का सामना करते थे।

• किसानों को अपने भूमि पर स्थायी स्वामित्व की गारंटी नहीं थी, और यह उनके लिए तनाव का कारण बनता था। वे हमेशा राजस्व वसूली के डर से जूझते रहते थे।

• कई बार जब किसान कर का भुगतान नहीं कर पाते थे या उनकी फसल खराब हो जाती थी, तो वे आत्महत्या करने तक पर मजबूर हो जाते थे। यह एक गंभीर समस्या थी, जो रैयतवाड़ी व्यवस्था से जुड़ी हुई थी।

 

कृषि में सुधार की कमी

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था का उद्देश्य कृषि सुधार था, लेकिन व्यावहारिक रूप से इस व्यवस्था ने किसानों को अत्यधिक दबाव में डाल दिया, जिससे उनके पास अपनी कृषि में सुधार करने के लिए समय और संसाधन नहीं थे।

• जबकि भूमि के स्वामित्व के कारण किसानों को कुछ स्वतंत्रता मिली थी, फिर भी वे नवीन कृषि तकनीकों या सुधारों को अपनाने में असमर्थ थे, क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य सिर्फ कर चुकाना होता था, न कि भूमि सुधार।

• भूमि का अस्थायी स्वामित्व और कर्ज का बोझ किसानों को कृषि सुधारों में निवेश करने से रोकते थे। इसके कारण कृषि में नवाचार और प्रौद्योगिकी का उपयोग में कमी आई।

 

भ्रष्टाचार और शोषण

 

जबकि रैयतवाड़ी व्यवस्था में किसानों से सीधे कर वसूली की प्रक्रिया शुरू की गई थी, फिर भी कई जगहों पर सरकारी अधिकारियों द्वारा किसानों से अत्यधिक कर वसूलने और भ्रष्टाचार की घटनाएँ बढ़ी। अधिकारियों को किसानों पर दबाव डालने और उन्हें अधिक कर देने के लिए मजबूर किया जाता था, जिससे किसानों का शोषण होता था।

• कई बार अधिकारियों ने किसानों से अत्यधिक कर वसूला या उन्हें मनोबल तोड़ने के लिए दबाव डाला। इसके परिणामस्वरूप किसानों को कर्ज़ में डाला गया, और भ्रष्टाचार की समस्या बढ़ी

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था की आलोचना

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था, जिसे ब्रिटिश शासन ने भारतीय उपमहाद्वीप में लागू किया, को कई इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों और कृषि विशेषज्ञों ने आलोचना की है। इस व्यवस्था ने भारतीय किसानों के जीवन में अस्थिरता और आर्थिक तंगी को जन्म दिया, साथ ही इसने कई सामाजिक और राजनीतिक समस्याएँ भी उत्पन्न कीं।

 

किसानों पर अत्यधिक कर का बोझ

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था की सबसे बड़ी आलोचना इसके द्वारा लगाए गए अत्यधिक करों से जुड़ी है। ब्रिटिश शासन ने कृषि उत्पाद पर उच्च कर वसूला, जिससे किसानों पर भारी वित्तीय बोझ पड़ा। कर का भुगतान करना किसानों के लिए एक कठिन कार्य बन गया, क्योंकि उन्हें अपने उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा सरकार को देना पड़ता था।

• रैयतवाड़ी व्यवस्था में कर की दर बहुत उच्च थी। किसानों को फसल के उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा—कभी-कभी आधा—सरकार को देना पड़ता था। अगर फसल खराब हो जाती या प्राकृतिक आपदाएँ आ जातीं, तो भी किसानों को कर का भुगतान करना पड़ता था। इससे किसानों के लिए आर्थिक संकट पैदा हो गया और वे अपने परिवार का पालन-पोषण भी मुश्किल से कर पाते थे।

• अत्यधिक कर और अन्य आर्थिक दबावों के कारण कई किसान कर्ज़ में डूब गए। यदि वे समय पर कर का भुगतान नहीं करते थे, तो उनकी ज़मीन जब्त की जा सकती थी, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और भी खराब हो जाती थी। यह पूरी प्रक्रिया किसानों के शोषण और उनके आत्महत्या तक पहुंचने के कारण बनी थी।

 

भूमि का अस्थायी स्वामित्व

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था में किसानों को भूमि पर स्वामित्व तो मिला, लेकिन यह स्वामित्व स्थायी नहीं था। यह अस्थायी स्वामित्व किसानों के लिए असुरक्षा और आर्थिक दबाव का कारण बना। यदि किसान कर का भुगतान नहीं करते थे, तो उनकी ज़मीन जब्त की जा सकती थी, और उन्हें फिर से किरायेदार की स्थिति में आना पड़ता था।

• हालांकि किसानों को भूमि पर स्वामित्व मिला था, लेकिन यह अधिकार शर्तों पर आधारित था। अगर किसान कर नहीं चुकाते थे, तो उनका भूमि पर अधिकार छीन लिया जाता था। इससे किसानों को कभी भी अपनी ज़मीन खोने का डर बना रहता था, और उनके लिए अपनी कृषि में निवेश करना जोखिम भरा हो जाता था।

• अस्थायी स्वामित्व ने किसानों को कृषि सुधारों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया। उन्हें यह डर था कि उनकी ज़मीन छिन सकती है, इसलिए वे अपनी ज़मीन की उर्वरता और उत्पादकता बढ़ाने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करते थे।

 

कृषि सुधारों में कमी

 

ब्रिटिश शासन ने रैयतवाड़ी व्यवस्था को कृषि सुधार के एक रूप के रूप में प्रस्तुत किया था, लेकिन वास्तव में इस व्यवस्था ने भारतीय कृषि में कोई महत्वपूर्ण सुधार नहीं किया। इसके बजाय, यह व्यवस्था किसानों के लिए आर्थिक असुरक्षा और कृषि उत्पादन में कमी का कारण बनी।

• रैयतवाड़ी व्यवस्था ने किसानों को भूमि का स्वामित्व तो दिया, लेकिन उन्हें कृषि में नवीनतम तकनीकों और सुधारों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया। इसके कारण भारतीय कृषि में उत्पादकता में कोई बड़ा सुधार नहीं हुआ। इसके विपरीत, यह व्यवस्था किसानों को सिर्फ कर चुकाने के लिए मजबूर करती थी, जिससे उनका ध्यान कृषि विकास पर कम और कर वसूली पर ज्यादा था।

• रैयतवाड़ी व्यवस्था के कारण किसानों का आत्मविश्वास कम हुआ और वे कृषि में सुधार के लिए तैयार नहीं थे। क्योंकि किसान अपनी ज़मीन खोने के डर से हमेशा संघर्ष में रहते थे, इसलिए वे नई विधियों या प्रौद्योगिकी का प्रयोग करने से बचते थे। इस कारण कृषि क्षेत्र में सुधार की गति धीमी रही।

 

भूमि पर दबाव और बढ़ता शोषण

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था ने ब्रिटिश सरकार को राजस्व की संपूर्ण स्वतंत्रता दी, लेकिन किसानों पर इससे भारी दबाव पड़ा। किसानों को अधिक से अधिक राजस्व देने के लिए मजबूर किया गया, जबकि भूमि के उपजाऊ होने के बावजूद कृषि उत्पादन में बहुत सीमित सुधार हुआ।

• रैयतवाड़ी व्यवस्था के तहत किसानों को भूमि के उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटिश सरकार को देना पड़ता था। इसने किसानों को किसान-मालिक की तुलना में एक प्रकार से किरायेदार बना दिया। क्योंकि कर दरें अत्यधिक थीं, इसलिए किसानों को अपनी भूमि से मिल रही उपज का अधिकतर हिस्सा सरकार को दे देना पड़ता था।

• इस व्यवस्था ने ब्रिटिश शासन को किसानों का शोषण करने का अधिक अवसर दिया। क्योंकि किसानों को अपनी ज़मीन से उपज का एक बड़ा हिस्सा कर के रूप में देना पड़ता था, इसलिए उन्हें अपनी ज़मीन से कोई असल लाभ नहीं मिलता था। उनके पास अपनी ज़मीन का सामाजिक और आर्थिक उपयोग सीमित था, जिससे उनका शोषण बढ़ा।

 

ब्रिटिश नीति में अन्याय और पक्षपात

 

ब्रिटिश शासन ने रैयतवाड़ी व्यवस्था को लागू करते समय भारतीय समाज और किसानों के हितों को नज़रअंदाज़ किया। ब्रिटिश अधिकारियों ने अपने स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए इस व्यवस्था को लागू किया, जिससे भारतीय किसानों को कम से कम लाभ हुआ।

• रैयतवाड़ी व्यवस्था में किसानों को कोई सामाजिक सुरक्षा या आर्थिक सहायता नहीं दी गई। प्राकृतिक आपदाओं, सूखा या अन्य समस्याओं के समय किसानों को कोई राहत नहीं मिलती थी। इसके परिणामस्वरूप, किसानों को किसी भी प्रकार की आर्थिक अस्थिरता का सामना करना पड़ता था।

• ब्रिटिश शासन के तहत लागू की गई रैयतवाड़ी व्यवस्था में शोषण और भेदभाव की भावना अधिक थी। ज़मीनदारों और अन्य उच्च वर्ग के लोग अक्सर इस व्यवस्था का फायदा उठाते थे, जबकि किसान, जो वास्तविक उत्पादक थे, उन्हें केवल कर देने के लिए मजबूर किया गया।

 

निष्कर्ष

 

रैयतवाड़ी व्यवस्था ने भारतीय कृषि और राजस्व प्रणाली में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाए। थॉमस मुनरो द्वारा पेश की गई इस व्यवस्था ने सीधे कृषकों से कर वसूलने की प्रक्रिया को लागू किया, जिससे भूमि मालिकों और कृषकों के बीच सीधा संबंध स्थापित हुआ। हालांकि, इस व्यवस्था ने कृषकों को कुछ हद तक भूमि पर मालिकाना हक दिया, लेकिन इसके साथ कई चुनौतियाँ भी आईं, जैसे कि उच्च कर दरें और प्राकृतिक आपदाओं के कारण किसानों पर अतिरिक्त बोझ। फिर भी, रैयतवाड़ी व्यवस्था ने भारतीय भूमि राजस्व प्रणाली में महत्वपूर्ण योगदान दिया और इसे आधुनिक कृषि नीति के विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। इस व्यवस्था का प्रभाव भारतीय समाज, अर्थव्यवस्था और प्रशासन पर दूरगामी प्रभाव छोड़ने वाला था, जिसे आज भी कृषि और भूमि सुधारों के संदर्भ में याद किया जाता है।

 

Select References

 

1. R.C. Dutta – Economic History of India, 2 vols

2. Eric Stokes – The Peasants and the Raj

3. Morris D. Morris – Indian Economy in the Nineteenth Century: A symposium 

 

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