जब बक्सर की विजय की खबर इंग्लैंड पहुंची, तो लंदन में सामान्य राय थी कि वह व्यक्ति, जिसने बंगाल में कंपनी की राजनीतिक शक्ति की नींव रखी थी, उसे फिर से भेजा जाना चाहिए ताकि उस नींव पर मजबूत इमारत को खड़ी किया जा सके। इस प्रकार रॉबर्ट क्लाइव को बंगाल में ब्रिटिश उपनिवेशों का गवर्नर और कमांडर-इन-चीफ नियुक्त कर भेजा गया।
कोलकाता पहुंचने पर क्लाइव ने पाया कि उत्तर भारत की पूरी राजनीतिक व्यवस्था एक उथल-पुथल में थी। बंगाल का प्रशासन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त था। संपत्ति के लालच और उसके साथ जुड़ी हुई सभी बुराइयों ने कंपनी के कर्मचारियों के चरित्र को गिरा दिया था, जिससे कंपनी के व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और लोगों पर अत्याचार हुआ।

राजनीतिक समझौते
अवध के साथ समझौता
क्लाइव का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कार्य पराजित शक्तियों के साथ संबंधों को व्यवस्थित और स्पष्ट करना था। वह अवध गए और शुजा-उद-दौला, जो अवध के नवाब वज़ीर थे, से इलाहाबाद में मुलाकात की और 16 अगस्त 1765 को उनसे इलाहाबाद का संधि समझौता किया। इस समझौते के तहत शुजा-उद-दौला को अपनी संपत्तियों में पुष्टि मिली, लेकिन कुछ शर्तों के तहत:-
(1) नवाब ने इलाहाबाद और कड़ा को सम्राट शाह आलम को सौंप दिया;
(2) नवाब ने कंपनी को युद्ध के हर्जाने के रूप में 50 लाख रुपये देने पर सहमति जताई;
(3) नवाब ने बनारस के ज़मींदार बलवंत सिंह को उनके सम्पत्ति का पूरा कब्जा बनाए रखने की पुष्टि की।
इसके अलावा, नवाब ने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक आक्रामक और रक्षात्मक संधि की, जिसमें वह कंपनी को आवश्यकता पड़ने पर नि:शुल्क सैन्य सहायता देने के लिए बाध्य हुआ और कंपनी ने नवाब को उसकी सीमा की रक्षा के लिए सैनिकों की मदद देने का वचन दिया, बशर्ते नवाब सैनिकों के खर्च का भुगतान कंपनी को करे।
शाह आलम II के साथ समझौता
दूसरी इलाहाबाद संधि (अगस्त 1765) के तहत फरार सम्राट शाह आलम को कंपनी की सुरक्षा में लिया गया और उसे इलाहाबाद में निवास करने के लिए कहा गया। शाह आलम को इलाहाबाद और कड़ा सौंपे गए, जिन्हें अवध के नवाब ने दे दिया था। इसके बदले में सम्राट ने 12 अगस्त 1765 को एक फरमान जारी किया, जिसमें कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा का दीवानी हमेशा के लिए देने की अनुमति दी। इसके बदले में कंपनी ने सम्राट को हर साल 26 लाख रुपये की राशि देने और इन प्रांतों के निजामत के खर्च को उठाने का वचन दिया, जो 53 लाख रुपये निर्धारित किया गया था।
क्लाइव के राजनीतिक समझौतों में स्थिति की वास्तविकताओं को समझने की गहरी समझ दिखाई दी। उन्होंने अवध को अपनी सीमा में समाहित नहीं किया क्योंकि यह कंपनी को एक विशाल भूमि सीमा की रक्षा करने की जिम्मेदारी में डालता और अफगान आक्रमणकारी अहमद शाह अब्दाली और मराठों से हमलों का खतरा बढ़ा देता। अवध के साथ मित्रवत संधि ने नवाब को कंपनी का एक मजबूत सहयोगी बना दिया और अवध को एक बफर राज्य बना दिया। इस प्रकार, शुजा-उद-दौला को एक आभारी सहयोगी बना दिया गया, जो कंपनी के साथ स्वार्थ की बंधन में बंधा हुआ था। शाह आलम के साथ क्लाइव का समझौता भी व्यावहारिक समझदारी को दर्शाता है। उन्होंने दिल्ली की ओर मार्च को ‘निरर्थक और व्यर्थ परियोजना’ घोषित किया और सम्राट को एक पेंशनभोगी बना दिया, जिससे वह कंपनी के लिए एक सहायक ‘रबर स्टांप’ बन गया। शाह आलम का फरमान कंपनी के बंगाल में राजनीतिक लाभ को कानूनी रूप से वैध कर दिया।
बंगाल का समझौता – ड्यूल सिस्टम
क्लाइव ने बंगाल की राजनीतिक उलझन का समाधान एक नए प्रशासनिक व्यवस्था के तहत किया, जिसे ड्यूल सिस्टम (Dual System) कहा गया। इस व्यवस्था में कंपनी को वास्तविक शक्ति मिली, जबकि प्रशासन की जिम्मेदारी बंगाल के नवाब के ऊपर थी। इस प्रणाली के तहत कंपनी ने राजनीतिक नियंत्रण तो हासिल किया, लेकिन प्रांतीय प्रशासन की जिम्मेदारी नवाब के पास बनी रही।
क्या था ये ड्यूल सिस्टम/द्वैध शासन (Dyarchy) ?
जब दो शासक मिलकर एक ही स्थान पर शासन करते हैं, तो इसे द्वैध शासन (Diarchy) कहा जाता है। इस प्रकार के शासन में, एक शासक सत्ता का कार्य संचालन करता है, जबकि दूसरा शासक अपने कर्तव्यों को नियंत्रित करता है। यह व्यवस्था आमतौर पर एक शासक के द्वारा पद को आजीवन ग्रहण करने और फिर उसे अपने उत्तराधिकारी, जैसे पुत्र या रिश्तेदार को सौंपने की परंपरा पर आधारित होती है।
द्वैध शासन का सिद्धांत सबसे पहले लियोनेल कर्टिस ने अपनी पुस्तक “डायर्की” में बताया था।
1765 में बंगाल, बिहार और उड़ीसा में ईस्ट इंडिया कंपनी को भू-राजस्व वसूलने का अधिकार था, जबकि बंगाल का प्रशासन नवाब के नाम पर चल रहा था। इस तरह, सत्ता के दो केंद्र थे – एक कंपनी के पास और दूसरा नवाब के पास। बंगाल में इस द्वैध शासन (Dual Government)की शुरुआत रॉबर्ट क्लाइव ने की थी।
मुग़ल काल की प्रशासनिक संरचना
मुगल साम्राज्य के समय में प्रत्येक प्रांत में दो प्रमुख सरकारी अधिकारी होते थे: सूबेदार और दीवान। सूबेदार की जिम्मेदारी थी सैन्य रक्षा, पुलिस और अपराध न्यायपालिका पर नियंत्रण, जबकि दीवान का कार्य था वित्तीय मामलों का प्रबंधन और राजस्व से जुड़ी जिम्मेदारियाँ निभाना। ये दोनों अधिकारी एक-दूसरे पर निगरानी रखते थे और केंद्रीय सरकार के प्रति जवाबदेह होते थे। लेकिन औरंगजेब की मृत्यु के बाद, मुग़ल साम्राज्य कमजोर हो गया, और बंगाल के नवाब मुरशिद कुली ख़ान ने दोनों कार्यों—निजामत और दीवानी—को अपने हाथ में ले लिया।
कंपनी का दीवानी अधिकार
12 अगस्त 1765 को शाह आलम द्वारा जारी किए गए फरमान के अनुसार, कंपनी को दीवानी अधिकार प्रदान किए गए। इसके बदले में कंपनी को सम्राट शाह आलम को हर साल 26 लाख रुपये देने थे और निजामत के खर्चों के लिए 53 लाख रुपये भी देने थे। इस समय, फरवरी 1765 में, नज्म-उद-दौला को नवाब बनने की अनुमति दी गई थी, लेकिन यह शर्त थी कि वह प्रांत की सैन्य रक्षा और विदेशी मामलों की जिम्मेदारी कंपनी को सौंप देंगे। साथ ही, नागरिक प्रशासन का कार्य कंपनी द्वारा नियुक्त उप-सूबेदार के जिम्मे होगा, जिसे बिना कंपनी की अनुमति के हटाया नहीं जा सकता था।
इस प्रकार, कंपनी ने सम्राट से दीवानी अधिकार और नवाब से निजामत अधिकार प्राप्त किए।
कंपनी का दीवानी कार्य और प्रशासन
कंपनी को राजस्व संग्रहण का कार्य सीधे तौर पर करने के लिए तैयार नहीं थी। इसलिए, कंपनी ने दीवानी कार्यों को संभालने के लिए बंगाल में मोहम्मद रेज़ा ख़ान और बिहार में राजा शिताब रॉय को उप-दीवान नियुक्त किया। साथ ही, मोहम्मद रेज़ा ख़ान को उप-नाज़िम भी बनाया गया। इस प्रकार, प्रशासनिक कार्य भारतीय एजेंटों द्वारा संचालित किया गया, जबकि असल में सत्ता कंपनी के हाथों में रही। इस शासन प्रणाली को ड्यूल सिस्टम या ड्याचार्की (Dyarchy) कहा गया, यानी दो शक्तियों का शासन – एक कंपनी और दूसरा नवाब।
हालांकि, असल में यह व्यवस्था एक दिखावा थी, क्योंकि पूरी राजनीतिक शक्ति कंपनी के पास थी और भारतीय एजेंट केवल उनके उद्देश्यों के लिए एक उपकरण की तरह इस्तेमाल होते थे।
ड्यूल सिस्टम का क्लाइव द्वारा औचित्य
क्लाइव अच्छी तरह से जानते थे कि सारी शक्ति कंपनी के पास आ चुकी थी, और नवाब के पास सिर्फ नाम और आभास रह गया था। उन्होंने इसे स्वीकार किया और यह तर्क दिया कि इस प्रणाली की जरूरत थी। उन्होंने अपनी बात निम्नलिखित कारणों से रखी:
1. पहला कारण – अगर कंपनी ने स्पष्ट रूप से सत्ता का दावा किया होता, तो इससे भारतीय राजाओं को कंपनी के खिलाफ एकजुट होने का मौका मिल सकता था और युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो सकती थी। इससे कंपनी के लिए संघर्ष बढ़ सकता था।
2. दूसरा कारण – फ्रांसीसी, डच या डेनिश जैसे विदेशी शक्तियाँ कंपनी को सूबाही का अधिकार स्वीकार करतीं या नहीं, यह संदेहजनक था। इसके अलावा, ये शक्तियाँ उन जिलों के व्यापारिक कर्तव्यों और क्विट-रेंट्स को कंपनी को देने के लिए तैयार नहीं होतीं, जिन्हें वे लंबे समय से अपने कब्जे में रखे हुए थे।
3. तीसरा कारण – अगर कंपनी ने खुले तौर पर राजनीतिक शक्ति का दावा किया होता, तो इंग्लैंड के अन्य देशों, जैसे फ्रांस, हॉलैंड, पुर्तगाल और स्वीडन, से कूटनीतिक विवाद हो सकते थे। यह भी संभव था कि ये देश एक एंटी-ब्रिटिश मोर्चा बना लें, जैसा कि बाद में 1778-80 में अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुआ।
4. चौथा कारण – कंपनी के पास प्रशासन के कार्यों को प्रभावी ढंग से चलाने के लिए पर्याप्त प्रशिक्षित कर्मचारी नहीं थे। क्लाइव ने निदेशक मंडल को बताया था कि अगर “वर्तमान संख्या के तीन गुने कर्मचारी भी होते, तो भी कार्य की व्यवस्था सही ढंग से नहीं चल पाती।” जो कर्मचारी उपलब्ध थे, वे भारतीय रीति-रिवाज, भाषाओं और प्रथाओं से अपरिचित थे।
5. पाँचवां कारण – निदेशक मंडल को इलाकों का अधिग्रहण करने के खिलाफ आपत्ति थी, क्योंकि इससे उनके व्यापार और मुनाफे पर असर पड़ सकता था। वे व्यापार और वित्त में अधिक रुचि रखते थे, न कि क्षेत्रीय विस्तार में।
6. आखिरी कारण – क्लाइव यह भी समझते थे कि यदि बंगाल में राजनीतिक शक्ति का खुला अधिग्रहण किया जाता, तो ब्रिटिश संसद कंपनी के मामलों में हस्तक्षेप कर सकती थी। इससे कंपनी के व्यापार और प्रशासनिक स्वतंत्रता पर प्रतिकूल असर पड़ सकता था।
क्लाइव द्वारा स्थापित ड्यूल सिस्टम में बंगाल में असल शक्ति कंपनी के पास थी, जबकि नवाब के पास केवल दिखावे का अधिकार था। इस प्रणाली ने कंपनी को राजनीतिक और प्रशासनिक नियंत्रण प्रदान किया, लेकिन भारतीय अधिकारियों को केवल उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया गया। क्लाइव ने इस व्यवस्था को इस आधार पर उचित ठहराया कि इसके जरिए वह विदेशी शक्तियों से संघर्ष और भारतीय राजाओं से एकजुट होने के खतरे को टाल सकते थे, साथ ही कंपनी के लिए प्रशासनिक कठिनाइयों से बच सकते थे।
ड्यूल सिस्टम के दुष्प्रभाव
क्लाइव द्वारा स्थापित ड्यूल सिस्टम की योजना न केवल अप्रभावी साबित हुई, बल्कि इसने बंगाल में अराजकता और उलझन पैदा की। यह व्यवस्था अपने शुरुआत से ही विफल रही थी और इसके परिणाम बेहद विनाशकारी थे।
(a) प्रशासनिक विघटन
ड्यूल सिस्टम में निजामत (स्थानीय प्रशासन) की शक्तियां बहुत सीमित कर दी गई थीं। इसके कारण कानून और व्यवस्था पूरी तरह से नष्ट हो गई। नवाब के पास न तो कानून लागू करने की ताकत थी और न ही न्याय देने की। दूसरी ओर, कंपनी ने प्रशासन में कोई भूमिका निभाने से मना कर दिया। नतीजतन, ग्रामीण इलाकों में डाकू खुलेआम घूमते थे और सन्यासियो के हमलावरों ने सरकार को मजाक बना दिया। सरकारी अधिकारी अपनी जिम्मेदारियों से भागते रहे और प्रशासन में घोटाले और भ्रष्टाचार बढ़ता गया। गवर्नर और काउंसिल के सदस्य भी अपनी लालच के कारण ईमानदार भारतीयों को नियुक्त नहीं कर पाए। इस भ्रष्टाचार के माहौल में बंगाल की जनता बहुत कष्ट भोग रही थी। ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स में सर जॉर्ज कॉर्नवाल ने 1858 में कहा था, “मैं पूरी दृढ़ता से यह कहता हूं कि ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन 1765 से 1784 तक दुनिया की सबसे भ्रष्ट और लूटतंत्र सरकार थी।”
(b) कृषि का पतन
बंगाल, जो कभी भारत का अनाज घर था, अब बर्बादी के कगार पर था। भूमि कर को हर साल सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को सौंप दिया जाता था, जिससे राजस्व वसूली के ठेकेदारों का भूमि से कोई स्थायी संबंध नहीं था। वे किसानों से अत्यधिक कर वसूलते थे और इस प्रक्रिया में किसानों का शोषण करते थे। विलियम बोल्ट्स, जो उस समय कंपनी के कर्मचारी थे, ने लिखा था कि “किसानों को राजस्व अधिकारियों द्वारा दंडित किया जाता था, और अक्सर उन्हें अपने बच्चों को बेचने के लिए मजबूर किया जाता था ताकि वे अपने कर चुका सकें, या फिर वे देश छोड़ने के लिए बाध्य होते थे।” इसके परिणामस्वरूप, कई किसान जंगलों में भाग गए या डाकुओं के दल में शामिल हो गए। 1769 में, कंपनी के कर्मचारी रिचर्ड बिचेट ने अपनी रिपोर्ट में कहा, “यह देखकर एक अंग्रेज को दुख होता है कि कंपनी के शासन के बाद, इस देश के लोग पहले से भी अधिक दुखी हो गए हैं।” 1770 में आई अकाल की आपदा ने हालात और भी बिगाड़ दिए। इस दौरान, मृतकों के शवों को खाकर जीवितों को खाने के लिए मजबूर किया गया। अकाल के समय, भूमि कर कठोरता से वसूला गया और कंपनी के कर्मचारी खाद्य वस्तुओं का व्यापार करके मुनाफा कमाते रहे, जबकि आम लोग भूख से परेशान थे।
(c) व्यापार और वाणिज्य का विघटन
कृषि संकट ने देश के व्यापार और वाणिज्य को भी बुरी तरह प्रभावित किया। 1717 में सम्राट फर्रुखसियर द्वारा जारी किए गए फरमान के अनुसार, कंपनी को बंगाल में शुल्क मुक्त व्यापार करने की अनुमति प्राप्त थी। इसका गलत उपयोग किया गया, जिससे भारतीय व्यापारियों को भारी नुकसान हुआ। कंपनी के कर्मचारी न केवल व्यापारियों के रूप में, बल्कि शासकों के रूप में भी व्यापार करते थे और उन्होंने भारतीय व्यापारियों से सस्ते दामों पर सामान बेचकर उन्हें गरीब बना दिया। क्लाइव ने हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा था कि कंपनी के व्यापारी “सिर्फ व्यापारी नहीं थे, बल्कि शासक भी थे, जिन्होंने हजारों व्यापारियों से रोटी छीन ली और उन्हें भिखारी बना दिया।”
(d) उद्योग और कौशल का नाश
बंगाल का हथकरघा उद्योग भी ड्यूल सिस्टम से बुरी तरह प्रभावित हुआ। कंपनी ने राजनीतिक दबाव का उपयोग करके बंगाल के रेशमी उद्योग को हतोत्साहित किया, क्योंकि यहां के रेशमी कपड़े इंग्लैंड के रेशमी कपड़ों से प्रतिस्पर्धा करते थे। 1769 में, कंपनी के निदेशकों ने आदेश दिया कि बंगाल में कच्चे रेशमी के उत्पादन को बढ़ावा दिया जाए, जबकि रेशमी वस्त्रों के निर्माण को हतोत्साहित किया जाए। इसके कारण, बंगाल के रेशम कातने वालों को कंपनी के कारखानों में काम करने के लिए मजबूर किया गया। कई कातने वालों ने इस उत्पीड़न से बचने के लिए अपनी अंगुलियां काट दी। कंपनी के एजेंटों ने बुनकरों को अनुबंध पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया और न करने पर उन्हें पीटा गया। बुनकरों को एक व्यापारी से दूसरे व्यापारी के पास जबरन भेजा जाता था। “इस प्रक्रिया में होने वाली ठगी” को बोल्ट्स ने “कल्पना से परे” बताया, और कहा कि इसका अंत हमेशा गरीब बुनकर के शोषण में होता था।
(e) नैतिक पतन
ड्यूल सिस्टम के कारण बंगाल समाज में नैतिक पतन भी देखा गया। किसान समझने लगे थे कि जितना अधिक वे मेहनत करेंगे, उतना ही अधिक उन्हें कर देना होगा। इससे उन्हें अब काम करने का कोई प्रोत्साहन नहीं था। इसी तरह, बुनकरों ने भी महसूस किया कि वे अपनी मेहनत का पूरा लाभ नहीं पा सकते, इसलिए उन्होंने अपना काम उतनी मेहनत से नहीं किया। इसके परिणामस्वरूप समाज में स्थिरता आई और एक गहरी गिरावट दिखाई दी। इस व्यवस्था ने बंगाल को न केवल आर्थिक रूप से कमजोर किया, बल्कि सामाजिक और नैतिक पतन को भी बढ़ावा दिया।
निष्कर्ष
ड्यूल सिस्टम ने बंगाल के प्रशासन, कृषि, व्यापार, उद्योग और समाज पर गहरे दुष्प्रभाव डाले। इस व्यवस्था ने न केवल बंगाल की आर्थिक स्थिति को नष्ट किया, बल्कि वहां की सामाजिक और नैतिक संरचनाओं को भी नुकसान पहुँचाया। इस शासन व्यवस्था के कारण बंगाल में भ्रष्टाचार, शोषण और अराजकता का वातावरण बन गया, जो इस प्रदेश के पतन का कारण बना।
SELECT REFERENCES
1. Nanda Lal Chatterji, : Clive as an Administrator.
2. G. W. Forrest, : Life of Lord Clive, 2 vols.
3. Lord Macaulay, : Historical Essays: Lord Clive.
4. G. B. Malleson, : Life of Lord Clive.
5. Percival Spear, : Master of Bengal: Clive and his India.