ऋग्वैदिक कालीन धर्म और धार्मिक विश्वास

धर्म और धार्मिक विश्वास: ऋग्वैदिक आर्य समाज की धार्मिक प्रणाली 

 

ऋग्वैदिक आर्य समाज का धार्मिक जीवन अत्यंत विस्तृत और जटिल था, जबकि उनका सामाजिक और आर्थिक जीवन सरल था। उनके धार्मिक विश्वासों में ‘बहुदेववाद’ प्रमुख था। आर्य उनके देवताओं को प्राकृतिक शक्तियों के रूप में देखते थे। इन देवताओं का मानवीकरण किया गया था। ऋग्वेद में देवताओं को तीन मुख्य वर्गों में बांटा गया था:

 

1. पृथ्वी के देवता (Earth Gods) 

पृथ्वी, अग्नि, सोम, वृहस्पति, मातरिश्वन् और नदियों के देवता प्रमुख थे। इन देवताओं का प्राकृतिक और जीवन से गहरा संबंध था। इनकी पूजा विशेष रूप से भूमि, जल, अग्नि और सूर्य से जुड़े कार्यों में की जाती थी। ऋग्वेद में इन देवताओं के मंत्रों द्वारा प्राकृतिक शक्तियों का नियंत्रण प्राप्त करने की कोशिश की जाती थी।

 

2. अंतरिक्ष के देवता (Sky Gods)

इन्द्र, रुद्र, वायु, यम, प्रजापति आदि को इस श्रेणी में रखा गया। इन देवताओं का कार्य आकाशीय और आंतरिक ऊर्जा को नियंत्रित करना था। इन्द्र को प्रमुख रूप से युद्ध और तूफान के देवता के रूप में पूजा जाता था, जबकि यम को मृत्यु के देवता के रूप में सम्मानित किया गया था। रुद्र और वायु को जीवनदायिनी शक्तियों के रूप में पूजा जाता था।

 

3. आकाश के देवता (Heavenly Gods)

द्यौस, वरुण, सूर्य, विष्णु, आदित्य आदि आकाश से संबंधित देवता थे। आकाशीय देवताओं का महत्व जीवन की संरचना और वैदिक व्यवस्था में था। वरुण को आकाश के नियंता और सूर्य को जीवन और प्रकाश का स्रोत माना गया। सूर्य को आत्मज्ञान का प्रतीक और मृत्यु के बाद के जीवन के मार्गदर्शक के रूप में सम्मानित किया जाता था।

 

इसके अलावा कुछ अमूर्त भावनाओं के द्योतक देवता जैसे श्रद्धा, मन्यु, धातृ आदि भी थे। इन देवताओं में इन्द्र, वरुण और अग्नि को प्रमुख स्थान प्राप्त था, जिनकी उपासना से ऋग्वैदिक आर्य समाज का धार्मिक जीवन समृद्ध होता था।

Vedic people performing a traditional Yajna (sacrificial fire ritual) with offerings to the sacred fire during a religious ceremony.
यज्ञ करते ऋग्वैदिक आर्य

देवताओं की विशेषताएँ (Characteristics of Gods)

 

इन्द्र को विश्व का स्वामी माना जाता था। वह मुख्यतः युद्ध के देवता थे। आर्य मानते थे कि इन्द्र ने असुरों पर विजय प्राप्त की थी। इन्द्र को ‘पुरन्दर’ कहा गया था। वह मेघों को रोककर जल की वर्षा करते थे। 

वरुण को जगत का नियंता और देवताओं का पोषक माना गया। वह आकाश, पृथ्वी और सूर्य के भी निर्माता थे। उन्हें सत्य के देवता के रूप में भी पूजा जाता था। 

अग्नि का महत्व सबसे अधिक था। अग्नि के द्वारा यज्ञ संपन्न होते थे और आहुतियाँ देवताओं तक पहुंचाई जाती थीं। अग्नि को देवताओं के बीच संवाद का महत्वपूर्ण साधन माना जाता था। ऋग्वेद का पहला श्लोक अग्नि देवता को समर्पित है।

 

देवताओं की उपासना (Worship of Gods)

 

देवताओं की उपासना मुख्य रूप से यज्ञों द्वारा की जाती थी। यज्ञ में दूध, अन्न, घी, मांस और सोम की आहुतियाँ दी जाती थीं। यज्ञों का तरीका बहुत जटिल था और इनकी सफलता के लिए विशेष रूप से मंत्रों का उच्चारण और कर्मकांड की शुद्धता पर जोर दिया जाता था। ऋग्वेद में धर्म शब्द विधि के अर्थ में उपयोग हुआ है, जो नैतिकता से संबंधित नहीं था,बल्कि सही और शुद्ध तरीके से जीवन जीने का मार्गदर्शन करता था। धर्म के साथ-साथ ‘ऋत्’ शब्द भी महत्वपूर्ण था। ऋत् का अर्थ था सत्य और अविनाशी सत्ता।

 

ऋत् और धर्म का संबंध (Connection Between Rta and Dharma)

 

ऋत् को विश्व की नैतिक और भौतिक व्यवस्था माना गया। यह व्यवस्था को कायम रखने वाला तत्व था। देवता ऋत् के रूप में कार्य करते थे और ऋत् की रक्षा करते थे। डॉ. राधाकृष्णन ने ऋत् को सदाचार और बुराइयों से दूर मार्ग बताया। समय के साथ धर्म और ऋत् का संबंध और अधिक स्पष्ट हुआ और धर्म का रूप नैतिकता से जुड़ने लगा। यह वैदिक समाज में जीवन की व्यवस्थितता, नैतिकता और कार्यों के सही मार्ग को नियंत्रित करता था।

 

देवताओं की एकता और बहुदेववाद का अंत (Unity of Gods and the End of Polytheism) 

 

ऋग्वैदिक समय में देवताओं की संख्या बहुत अधिक थी। लेकिन धीरे-धीरे ऋषियों ने इस बहुदेववाद को चुनौती दी और देवताओं की संख्या को कम किया। पृथ्वी और आकाश को ‘द्यावापृथ्वी’ के रूप में एकत्रित किया गया। मित्र और वरुण, ऊषा और रात्रि को भी संयुक्त किया गया। ऋग्वैदिक ऋषियों ने सर्वोच्च देवता की खोज की और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ‘सत्’ एक है, जिसे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। इस विचार को अद्वैतवाद का पहला संकेत माना जाता है।

 

विराट पुरुष और अद्वैतवाद (Vishwarupa and Advaita)

 

ऋग्वेद में विराट पुरुष की कल्पना की गई है। इसे विश्वकर्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, और अदिति जैसे नाम दिए गए हैं। विराट पुरुष को सहस्त्र सिर, सहस्त्र नेत्र और सहस्त्र पैर वाला बताया गया है। यह समस्त पृथ्वी में व्याप्त है। यही अद्वैतवाद की पहली अनुभूति मानी जाती है। इसके अनुसार, सृष्टि का हर तत्व विराट पुरुष का हिस्सा है और अद्वैत (अखंडता) का प्रतीक है।

 

परलोक और नैतिक जीवन (Afterlife and Moral Life) 

 

ऋग्वैदिक आर्य समाज में परलोक के बारे में भी कुछ विचार थे। वे मानते थे कि मृतात्मा यम के द्वारा शासित लोक में निवास करती है। स्वर्ग को बहुत सुंदर और सुखद बताया गया था, जहाँ सभी सुख, शक्ति और समृद्धि प्राप्त होती थी। वहीं नरक को दुष्कर्मों के लिए दंड स्थल के रूप में कल्पित किया गया था। देवताओं की उपासना और यज्ञों द्वारा जीवन की नैतिकता को बनाए रखा जाता था। वे विश्वास करते थे कि सही कर्म और यज्ञों से मृत्यु के बाद सुखी और समृद्ध जीवन प्राप्त किया जा सकता है।

 

नैतिकता और जीवन (Ethics and Life)

 

ऋग्वेद में जीवन को पूरा जीने का आदर्श था। इसमें जीवन के सुखों को त्यागने की बात नहीं की गई थी। ऋग्वैदिक ऋषियों का विश्वास था कि जीवन के सुखों का पूरा उपयोग किया जाना चाहिए। वे दीर्घायु, धन, वीरता और शक्ति की प्रार्थनाएँ करते थे। जीवन को बन्धन के रूप में नहीं बल्कि उपभोग के रूप में देखा गया था।

 

निष्कर्ष (Conclusion)

 

ऋग्वैदिक धर्म और धार्मिक विश्वास बहुत जटिल और विस्तृत थे। देवताओं की उपासना से लेकर, ऋत् और धर्म के संबंध, विराट पुरुष की कल्पना तक, सब कुछ मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए था। ऋग्वैदिक विचारों में आदर्श जीवन जीने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण था, जो जीवन के सभी पहलुओं को समृद्ध और नैतिक बनाने के उद्देश्य से था।

इन धार्मिक विश्वासों से यह स्पष्ट होता है कि ऋग्वैदिक समाज ने जीवन को एक पूर्ण और संतुलित तरीके से जीने का मार्गदर्शन दिया, जिसमें प्राकृतिक और नैतिक शक्तियाँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं।

 

Select References 

 

1. A.L. Basham – The Wonder That Was India

2. D. N. Jha – Early India : A Concise History

3. Stephen Knapp – Ancient History of Vedic Culture

4. Roshan Gupta –The Ancient History of India, Vedic Period: A New Interpretation

 

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