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जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस |
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास विभिन्न व्यक्तित्वों और विचारधाराओं का संगम है। इसमें जहां महात्मा गांधी का अहिंसक आंदोलन है, वहीं भगत सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियाँ भी शामिल हैं। इसी कड़ी में दो महत्वपूर्ण नेता हैं, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस। नेहरू और बोस के बीच के संबंधों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा और दशा को प्रभावित किया। दोनों का उद्देश्य भले ही भारत की स्वतंत्रता था, लेकिन उनके विचार, दृष्टिकोण और कार्यशैली में मौलिक अंतर थे। इस लेख में नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के आपसी संबंधों, उनके दृष्टिकोण, और स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिकाओं का विस्तृत विश्लेषण किया जाएगा।
नेहरू और बोस का प्रारंभिक जीवन और करियर
जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर 1889 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ। नेहरू का परिवार उच्च सामाजिक वर्ग का था, और उन्हें विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा गया। नेहरू ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा हाररो और ईटन स्कूल से प्राप्त की और फिर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल की। इंग्लैंड में पढ़ाई के दौरान, नेहरू ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रति जागरूकता विकसित की और ब्रिटिश शासन की नीतियों की आलोचना की।
नेहरू 1912 में भारत लौटे और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। उन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और अहिंसात्मक संघर्ष के माध्यम से ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष किया।
सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक, उड़ीसा में हुआ। बोस ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा भारतीय स्कूलों से प्राप्त की और फिर उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए। वहाँ उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। बोस की शिक्षा ने उन्हें पश्चिमी विचारधारा से अवगत कराया, लेकिन उन्होंने भारतीय संस्कृति और समाज के प्रति गहरी निष्ठा रखी।
बोस 1920 के दशक में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हो गए और उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर झुकाव दिखाया। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए क्रांतिकारी तरीके अपनाने लगे।
प्रारंभिक सहयोग और विचारधारा
नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के बीच के संबंधों की शुरुआत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) के मंच से हुई। 1920 और 1930 के दशक में, दोनों नेता कांग्रेस के भीतर महत्वपूर्ण पदों पर थे और ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई में सहयोगी थे।
सुभाष चंद्र बोस की विचारधारा में राष्ट्रवाद और समाजवाद का अनूठा संगम था। वह मानते थे कि भारत की स्वतंत्रता के लिए समाज के हर वर्ग को एकजुट होकर लड़ना होगा। उनके अनुसार, ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष आवश्यक था। इसके विपरीत, नेहरू का दृष्टिकोण आधुनिकता, धर्मनिरपेक्षता और संवैधानिक सुधारों पर आधारित था। नेहरू ने भारतीय समाज के विकास के लिए औद्योगिकीकरण, शिक्षा और सामाजिक सुधारों को प्राथमिकता दी।
दोनों नेताओं के बीच यह वैचारिक अंतर तब भी देखा जा सकता है जब सुभाष चंद्र बोस 1930 के दशक में यूरोप की यात्रा पर गए और फासीवादी शक्तियों से प्रभावित हुए। वहीं, नेहरू ने इस दौर में लोकतंत्र और समाजवाद को ही उचित रास्ता माना।
नेहरू और बोस के बीच शुरुआती सहयोग का उदाहरण 1928 के कांग्रेस अधिवेशन में देखा जा सकता है। जब मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक प्रस्ताव रखा गया जिसमें डोमिनियन स्टेटस की मांग की गई, तो बोस ने इसे नकारते हुए पूर्ण स्वराज की मांग की। नेहरू भी बोस के साथ खड़े रहे। यह पहला बड़ा अवसर था जब दोनों नेताओं ने मिलकर कांग्रेस के भीतर एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर गांधी के नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठाई।
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नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, महात्मा गांधी के साथ हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में (सन् 1938) उन दोनों के बीच राजेन्द्र प्रसाद और नेताजी के बाएं सरदार बल्लभ भाई पटेल भी दिख रहे हैं।(साभार: विकिपीडिया) |
1939 का कांग्रेस अध्यक्षीय चुनाव
नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के बीच के संबंधों में 1939 का कांग्रेस अध्यक्षीय चुनाव एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इस चुनाव ने दोनों नेताओं के बीच के वैचारिक मतभेदों को स्पष्ट कर दिया।
सुभाष चंद्र बोस ने 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में अध्यक्ष पद संभाला था और उन्होंने कांग्रेस के भीतर अपने विचारों को प्रसारित करने का प्रयास किया। 1939 में बोस ने पुनः अध्यक्ष पद के लिए अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की। उनके विरोध में गांधी ने पट्टाभि सीतारमैया का समर्थन किया। यह चुनाव एक बड़ी राजनीतिक घटना में तब्दील हो गया, जिसमें बोस की जीत ने गांधी और नेहरू के नेतृत्व को चुनौती दी। बोस की जीत से कांग्रेस के भीतर गहरे मतभेद पैदा हो गए।
नेहरू ने इस समय गांधी के साथ खड़े होते हुए बोस के कुछ विचारों और रणनीतियों पर अपनी असहमति जताई। बोस ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश शासन के खिलाफ जर्मनी और जापान से सहायता प्राप्त करने की योजना बनाई, जिसे नेहरू ने नैतिक रूप से गलत और भारत के हितों के खिलाफ माना।
बोस की इस योजना को कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी समर्थन नहीं दिया, और इस स्थिति ने बोस को कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया। इसके बाद बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया, जो एक अलग विचारधारा और रणनीति के साथ काम करने वाली पार्टी बनी। यह घटना नेहरू और बोस के बीच वैचारिक मतभेदों को और भी गहरा करने वाली थी।
नेहरू और बोस के व्यक्तिगत दृष्टिकोण
नेहरू और सुभाष चंद्र बोस दोनों के व्यक्तित्व और दृष्टिकोण में गहरे अंतर थे।
नेहरू का दृष्टिकोण:
नेहरू का जीवन दर्शन उनके समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष विचारों में निहित था। वह मानते थे कि भारत की स्वतंत्रता के बाद देश को एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी राष्ट्र के रूप में विकसित करना आवश्यक है। नेहरू ने हमेशा से शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के माध्यम से देश की तरक्की का सपना देखा। उनकी पुस्तक The Discovery of India में उन्होंने भारत की विविधता, संस्कृति और इतिहास पर गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। नेहरू का मानना था कि एक मजबूत लोकतांत्रिक ढांचा ही देश को एकजुट रख सकता है और सभी नागरिकों को समान अवसर प्रदान कर सकता है। उन्होंने भारतीय योजना आयोग की स्थापना की, जो नेहरू के सामाजिक और आर्थिक सुधारों के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था।
बोस का दृष्टिकोण:
इसके विपरीत, सुभाष चंद्र बोस का दृष्टिकोण अधिक राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी था। बोस ने स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष को आवश्यक माना। उनका मानना था कि ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता केवल अहिंसा से संभव नहीं है। इसलिए उन्होंने आज़ाद हिंद फौज (INA) का गठन किया और भारत की स्वतंत्रता के लिए सैन्य अभियान चलाया। बोस की सोच में भारत की स्वतंत्रता के बाद एक सशक्त और स्वावलंबी राष्ट्र का निर्माण करना प्राथमिक था। उन्होंने विभिन्न मौकों पर भारतीय समाज को एकजुट करने और विदेशी शक्तियों के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरित किया।
दृष्टिकोणों में अंतर:
नेहरू और बोस के बीच दृष्टिकोण का अंतर भारतीय राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिकाओं को भी प्रभावित करता था। नेहरू ने हमेशा से संवैधानिक तरीकों और शांतिपूर्ण आंदोलनों पर जोर दिया, जबकि बोस ने क्रांतिकारी विचारधारा और सशस्त्र संघर्ष को प्राथमिकता दी। बोस का मानना था कि भारत को आजादी सिर्फ क्रांति के माध्यम से मिल सकती है, जबकि नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र और समाजवाद को प्राथमिकता दी।
स्वतंत्रता के बाद के भारत पर नेहरू और सुभाष के विचार
नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के स्वतंत्रता के बाद के भारत को लेकर भी विचार अलग-अलग थे।
नेहरू का दृष्टिकोण:
नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद एक आधुनिक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष भारत की नींव रखने पर जोर दिया। उन्होंने भारत के लिए पंचवर्षीय योजनाओं का खाका तैयार किया और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का विकास किया। उनका मानना था कि आर्थिक विकास और औद्योगिकीकरण के बिना भारत का उत्थान संभव नहीं है। नेहरू का विचार था कि भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में विकसित करना चाहिए, जहां सभी धर्मों के लोग समान अधिकार और अवसर पा सकें। उन्होंने संसद के माध्यम से भारत के संविधान को लागू किया और लोकतंत्र को भारतीय समाज का मूल आधार बनाया।
बोस का दृष्टिकोण:
सुभाष चंद्र बोस का स्वतंत्रता के बाद का दृष्टिकोण नेहरू से भिन्न था। बोस ने एक सशक्त और स्वावलंबी भारत की परिकल्पना की थी, जिसमें देश के सभी नागरिकों को समान अवसर और अधिकार मिलें। उन्होंने स्वतंत्रता के बाद भारत को एक सशक्त राष्ट्र के रूप में विकसित करने का सपना देखा था, जो विश्व मंच पर अपनी पहचान बना सके। बोस ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही आज़ाद हिंद सरकार की स्थापना की थी, जिसमें उन्होंने स्वतंत्र भारत के प्रशासन और विकास की योजनाओं को स्पष्ट किया। उनका मानना था कि भारत को एक मजबूत सैन्य शक्ति के रूप में विकसित करना आवश्यक है, ताकि देश अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता को बनाए रख सके।
नेहरू और बोस के बीच पत्राचार और साहित्यिक योगदान
नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के बीच के पत्राचार ने उनके विचारों और दृष्टिकोणों को और स्पष्ट किया। 1939 में बोस ने नेहरू को कई पत्र लिखे, जिनमें उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने क्रांतिकारी दृष्टिकोण की वकालत की।
बोस के पत्र:
सुभाष चंद्र बोस के पत्रों में उनके क्रांतिकारी विचार और रणनीतियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। उन्होंने नेहरू को लिखे अपने पत्रों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष की आवश्यकता पर जोर दिया और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजी जर्मनी और इंपीरियल जापान से समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया। बोस ने अपने पत्रों में नेहरू को अपने विचारों को समझाने की कोशिश की और उन्हें इस संघर्ष में सहयोग देने के लिए प्रेरित किया।
नेहरू के पत्र:
जवाहरलाल नेहरू ने अपने पत्रों में बोस के विचारों पर असहमति जताई, परंतु उनके प्रयासों की सराहना भी की। नेहरू ने बोस के सशस्त्र संघर्ष की रणनीति को नैतिक रूप से गलत और भारत के दीर्घकालिक हितों के खिलाफ माना। नेहरू ने अपनी पुस्तक The Discovery of India में भारतीय समाज और इतिहास पर अपने विचार प्रस्तुत किए और स्वतंत्रता के बाद भारत के विकास के लिए आवश्यक सुधारों की चर्चा की। उनके पत्र और लेख स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और उसके बाद के भारत के विकास के उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से उजागर करते हैं।
साहित्यिक योगदान:
सुभाष चंद्र बोस की The Indian Struggle और नेहरू की The Discovery of India जैसी पुस्तकें उनके विचारों और दृष्टिकोणों को बेहतर ढंग से समझने में सहायक हैं। बोस की पुस्तक में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनके संघर्ष और क्रांतिकारी विचारधारा का विस्तार से वर्णन किया गया है, जबकि नेहरू की पुस्तक में भारतीय इतिहास और संस्कृति का व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। इन पुस्तकों में दोनों नेताओं ने स्वतंत्रता संग्राम और भारतीय समाज के विकास के बारे में अपने विचार व्यक्त किए हैं, जो उनके वैचारिक मतभेदों और संघर्षों को उजागर करते हैं।
निष्कर्ष: नेहरू और सुभाष चंद्र बोस का योगदान और वैचारिक संघर्ष
जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस दोनों भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दो प्रमुख स्तंभ थे। हालांकि उनके दृष्टिकोण और विचारधारा में मौलिक अंतर था, फिर भी दोनों का उद्देश्य एक ही था—भारत की स्वतंत्रता और उसके बाद एक सशक्त और समृद्ध राष्ट्र का निर्माण।
नेहरू का योगदान:
नेहरू का योगदान मुख्यतः उनकी समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष नीतियों में देखा जा सकता है। उन्होंने स्वतंत्रता के बाद भारत के आर्थिक और सामाजिक ढांचे को विकसित करने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। नेहरू ने भारत के लिए पंचवर्षीय योजनाओं की नींव रखी, जिससे देश में औद्योगिकीकरण और आर्थिक विकास को बढ़ावा मिला। उनके द्वारा स्थापित शिक्षा और विज्ञान के संस्थान आज भी भारत की प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। नेहरू का धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण भारत के लिए एकता और अखंडता का प्रतीक बना रहा। उन्होंने लोकतंत्र को भारतीय समाज का आधार बनाया और भारतीय संविधान के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
बोस का योगदान:
सुभाष चंद्र बोस का योगदान उनके राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी विचारों में निहित है। बोस ने स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष को प्राथमिकता दी और आज़ाद हिंद फौज के माध्यम से ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक मजबूत सैन्य अभियान चलाया। बोस का नेतृत्व और उनके विचार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरणा का स्रोत बने। उनके द्वारा स्थापित आज़ाद हिंद सरकार और भारतीय राष्ट्रीय सेना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक नया मार्ग प्रशस्त किया। बोस की सोच और उनकी कार्यशैली ने भारतीय समाज को एकजुट किया और देशभक्ति की भावना को बढ़ावा दिया।
वैचारिक संघर्ष:
नेहरू और बोस के बीच का वैचारिक संघर्ष केवल व्यक्तिगत मतभेदों तक सीमित नहीं था, बल्कि यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के व्यापक संदर्भ में था। नेहरू ने जहां संवैधानिक तरीकों और अहिंसक आंदोलन को प्राथमिकता दी, वहीं बोस ने क्रांतिकारी संघर्ष और सशस्त्र आंदोलन को जरूरी समझा। यह वैचारिक संघर्ष भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर भी परिलक्षित हुआ, खासकर 1939 के कांग्रेस अध्यक्षीय चुनाव के दौरान, जहां दोनों नेताओं के बीच मतभेद स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आए।
दृष्टिकोणों का प्रभाव:
स्वतंत्रता के बाद नेहरू का दृष्टिकोण भारत की नीतियों और विकास की दिशा को प्रभावित करता रहा, जबकि बोस का दृष्टिकोण एक अलग धारा के रूप में देखा गया। नेहरू के नेतृत्व में भारत ने एक धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी राष्ट्र का निर्माण किया, जबकि बोस के विचार स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारी आंदोलन को प्रेरित करते रहे।
नेहरू और बोस के रिश्तों का सार:
नेहरू और बोस के बीच के रिश्तों का विश्लेषण हमें यह समझने में मदद करता है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम केवल एक नेता या विचारधारा का संघर्ष नहीं था, बल्कि यह विभिन्न विचारधाराओं और दृष्टिकोणों का संगम था। नेहरू और बोस दोनों ने अपने-अपने तरीके से स्वतंत्रता संग्राम में योगदान दिया और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को आगे बढ़ाया।
नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के बीच के वैचारिक मतभेद भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय हैं। इन दोनों नेताओं के योगदान और संघर्षों को समझने से हमें यह जानने में मदद मिलती है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम कितना विविध और जटिल था। नेहरू और बोस के दृष्टिकोण और उनके बीच के मतभेद आज भी इतिहासकारों, विद्वानों और छात्रों के बीच अध्ययन और चर्चा के विषय बने हुए हैं।
अंततः, नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के बीच का संबंध भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में महत्वपूर्ण था। उनके विचारों का संघर्ष और सहयोग भारतीय राजनीति और समाज के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। उनके योगदान को समझने से हमें यह भी सीख मिलती है कि विचारधाराओं के मतभेद के बावजूद, यदि उद्देश्य एक हो, तो राष्ट्र को आगे बढ़ाने में हर दृष्टिकोण का महत्व होता है।