मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाएं : विवादास्पद प्रयोग, विफलताएँ और ऐतिहासिक सबक

 

मध्यकालीन भारत के सबसे चर्चित शासक मुहम्मद बिन तुगलक को इतिहास “प्रयोगधर्मी सुल्तान” के रूप में याद करता है। उन्होंने राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद स्थानांतरित करने, ताँबे की सांकेतिक मुद्रा चलाने, और कृषि सुधार जैसे क्रांतिकारी फैसले लिए। लेकिन ये योजनाएं अक्सर विवादों और विफलताओं से घिरे रहे। इस लेख में हम जानेंगे कि क्यों इन प्रयोगों को “दूरदर्शिता भरी गलतियाँ” कहा जाता है, कैसे जालसाजी और अव्यावहारिक योजनाओं ने इन्हें डुबो दिया, और आज के लिए क्या सबक छोड़ गए ये ऐतिहासिक प्रयोग।  

 

मुहम्मद बिन तुगलक के सुधार: नई सोच के साथ जोखिम भरे प्रयोग

 

मुहम्मद बिन तुगलक, जिसे राजामुंदरी के एक अभिलेख में मुहम्मद तुग़लक़ (जौना या जूना ख़ाँ) को दुनिया का ख़ान कहा गया है, जिसका मूल नाम ‘उलूग ख़ाँ’ था, को इतिहास में एक “प्रयोगधर्मी शासक” के तौर पर याद किया जाता है। उन्होंने प्रशासन को मज़बूत बनाने और पूरे साम्राज्य में एकरूपता लाने के लिए कई सुधार किए। लेकिन इनमें से अधिकतर योजनाएँ विवादों में घिर गईं। चलिए, समझते हैं कि क्यों?  

 

आदेशों का अम्बार: काग़ज़ी घोड़े दौड़ाने की कोशिश

 

इब्नबतूता के मुताबिक़, मुहम्मद तुगलक ने सैकड़ों आदेश (मंशूर) जारी किए। पर हैरानी की बात यह है कि इनमें से ज़्यादातर को ठीक से लागू नहीं किया गया। इतिहासकार बरनी ने इन आदेशों को दो हिस्सों में बाँटा:  

1. प्रशासनिक और राजनीतिक बदलाव

2. आर्थिक और कृषि नीतियाँ

दिलचस्प बात यह है कि ये दोनों श्रेणियाँ आपस में जुड़ी हुई थीं। मसलन, कृषि सुधारों का असर प्रशासन पर पड़ता था।  

 

प्रशासनिक बदलाव: एक जैसे नियम, अलग-अलग नतीजे

 

मुहम्मद तुगलक चाहते थे कि पूरी सल्तनत में एक ही तरह के नियम लागू हों। इसलिए, कर वसूली के तरीक़ों को स्टैंडर्ड बनाया गया। साथ ही, अधिकारियों की ज़िम्मेदारियाँ साफ़ की गईं। पर एक समस्या थी—दूर के इलाक़ों में इन नियमों को मनवाना मुश्किल हो गया। नतीजतन, कई जगह अराजकता फैल गई।  

 

Muhammad Tughlaq issuing orders to circulate symbolic coins for silver in 1330 CE, with a heap of symbolic coins in front of him.
मुहम्मद तुगलक 1330 ईस्वी में चांदी के लिए सांकेतिक सिक्कों को पारित करने का आदेश देते हुए।

आर्थिक प्रयोग: सोने से ताँबे तक का सफ़र

 

सबसे मशहूर प्रयोग था सोने-चाँदी के सिक्कों की जगह ताँबे के सिक्के चलाना। मकसद था अर्थव्यवस्था में नकदी की कमी दूर करना। लेकिन नकली सिक्के बनाने वालों ने इसका फ़ायदा उठाया। इसके अलावा, किसानों को बीज और कर्ज़ देकर कृषि उत्पादन बढ़ाने की कोशिश की गई। पर यह योजना भी पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाई।  

 

विफलता के पीछे क्या था? जल्दबाज़ी या तैयारी की कमी?

 

इतिहासकारों का मानना है कि इन सुधारों में दूरदर्शिता तो थी, लेकिन योजना बनाने और लागू करने में अंतर था। जैसे:  

– ताँबे के सिक्के लाने से पहले नकली सिक्कों को रोकने का इंतज़ाम नहीं किया गया।  

– राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद ले जाने का फ़ैसला बिना जनता की सुविधा का ख्याल किए लिया गया। 

इस वजह से आम लोगों को लंबी यात्राएँ करनी पड़ीं और नाराज़गी फैली।  

 

बरनी vs इब्नबतूता: दो नज़रिये, एक कहानी

 

बरनी ने इन प्रयोगों को “अधूरी सोच का नतीजा” बताया। उनके अनुसार, सुल्तान बिना सलाह के जल्दी-जल्दी फ़ैसले लेते थे। वहीं, इब्नबतूता ने लिखा कि स्थानीय अधिकारी आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते थे। उदाहरण के लिए, कर वसूलने वाले अधिकारी किसानों से ज़्यादा पैसे ऐंठ लेते थे।  

इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी मुहम्मद तुगलक को “तर्कवादी” बताते हैं। उनके मुताबिक़, वह धार्मिक परंपराओं को बिना सवाल नहीं मानते थे। हालाँकि, बरनी उन पर आध्यात्मिक और राजनीतिक सत्ता को मिलाने का आरोप भी लगाते हैं। साथ ही, उनके जल्दबाज़ फ़ैसलों और क्रोधी स्वभाव की आलोचना की गई। इब्नबतूता जैसे यात्रियों ने भी उन पर अत्यधिक सज़ा और इनाम देने की नीति को ग़लत बताया।  

 

सबक़ और सीख: आज के लिए क्या संदेश है?  

 

मुहम्मद बिन तुगलक के प्रयोग सिखाते हैं कि योजना और उसकी व्यावहारिकता में फ़र्क होता है। सुधार करते समय जनता की सहमति और प्रशासनिक तैयारी ज़रूरी है। हालाँकि, उनकी नीतियाँ मध्यकालीन भारत में आर्थिक प्रबंधन की चुनौतियों को समझने का अच्छा उदाहरण हैं।  

 

सफलता-विफलता का मिलाजुला दौर

 

मुहम्मद तुगलक ने जो किया, वो उस ज़माने के हिसाब से बहुत बड़ा जोखिम था। उनके प्रयोगों ने दिखाया कि पुराने सिस्टम में नई सोच घुसाना कितना मुश्किल है। आज भी, उनकी नीतियाँ हमें सिखाती हैं कि बदलाव लाने के लिए सही समय और सही तरीक़ा चुनना क्यों ज़रूरी है।

 

मुहम्मद बिन तुगलक का विवादास्पद फैसला : दिल्ली से दौलताबाद की ओर पलायन  

 

मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल का सबसे चर्चित फैसला था दिल्ली की जगह देवगिरी (दौलताबाद) को नई राजधानी बनाना। समकालीन इतिहासकार बरनी के अनुसार, इस कदम ने दिल्ली को तबाह कर दिया, लेकिन बाद के अध्ययन बताते हैं कि यह बात बढ़ा-चढ़ाकर कही गई। कुछ लोगों ने इसे सुलतान का दिल्लीवासियों को सजा देने का तरीका बताया, पर सच यह है कि यह फैसला गहरी सोच-विचार के बाद लिया गया था।

 

राजधानी हस्तांतरण के पीछे की वजह

 

मुहम्मद बिन तुगलक चाहते थे कि दक्षिण भारत पर नियंत्रण आसान हो। देवगिरी पहले से ही दक्षिणी अभियानों का केंद्र था और पहाड़ियों से घिरे होने के कारण यहाँ का मौसम सुहावना था। 17वीं सदी के इतिहासकार फरिश्ता के मुताबिक, सुल्तान के सलाहकारों ने उज्जैन को भी सुझाया, लेकिन देवगिरी को प्राथमिकता दी गई। यह शहर पहले से समृद्ध था और सुलतान इसे अच्छी तरह जानते थे।

 

कैसे की गई तैयारी?

 

1327 में कर्नाटक से लौटते समय राजधानी बदलने का निर्णय लिया गया। तैयारी के तौर पर दिल्ली से दौलताबाद तक सड़कों के किनारे पेड़ लगाए गए और हर दो मील पर रुकने की व्यवस्था की गई। इन स्टेशनों पर यात्रियों के लिए खाने-पीने का प्रबंध किया गया। साथ ही, हर स्टेशन पर एक सूफी संत को रखा गया ताकि लोगों को आध्यात्मिक सुकून मिले।  

 

दिल्ली से दौलताबाद : कैसे हुआ पलायन?

 

1328-29 के बीच सुलतान ने दिल्ली के प्रमुख लोगों, सूफियों, विद्वानों और अपने परिवार को दौलताबाद भेजा। लोगों पर सीधे आदेश तो नहीं दिए गए, लेकिन दबाव बनाया गया। शाही अधिकारी उनके घरों की जाँच करते थे। गर्मी के मौसम में लंबी यात्रा के दौरान कई लोगों की मौत हो गई।  

 

दौलताबाद में क्या हुआ स्वागत?

 

पहुँचने वालों के लिए शहर को अलग-अलग मोहल्लों में बाँटा गया। सैनिकों, व्यापारियों, न्यायाधीशों और कारीगरों के लिए अलग इलाके बनाए गए। हर मोहल्ले में मस्जिद, बाजार और सार्वजनिक स्नानागार जैसी सुविधाएँ थीं। सरकार ने लोगों को मुफ्त भोजन और रहने की जगह दी, साथ ही आर्थिक मदद भी की।  

 

विफलता की कहानी : क्यों टूटा सपना?

 

दिल्ली से जबरन पलायन कराए गए लोग खुश नहीं थे। वे दिल्ली को अपना घर मानते थे, जबकि दौलताबाद को ‘विदेशी धरती‘ समझते थे। इसी बीच, 1334-35 में दक्षिण में बड़ा विद्रोह हुआ। सुल्तान के सैनिक बुबोनिक प्लेग की चपेट में आ गए और खुद वे बीमार पड़ गए। अफवाह फैली कि सुल्तान मर गए हैं, जिसके बाद दक्षिण के इलाके दिल्ली सल्तनत से अलग हो गए।  

दिल्ली लौटने की अनुमति और परिणाम

 

1335-37 के बीच सुल्तान ने लोगों को दिल्ली वापस जाने दिया। यह योजना महंगी साबित हुई और आम लोगों के बजाय उच्च वर्ग को नुकसान हुआ। हालाँकि, दौलताबाद में बसे सूफी संतों और विद्वानों ने इसे इस्लामी शिक्षा का केंद्र बना दिया। बाद में यहाँ बहमनी सल्तनत को इसका फायदा मिला।  

 

ऐतिहासिक सबक और विरासत 

 

मुहम्मद बिन तुगलक की यह योजना भले ही असफल रही, लेकिन इससे कई सबक मिले। पलायन के दौरान बनाई गई सड़कें और सुविधाएँ व्यापार के लिए उपयोगी रहीं। दौलताबाद में बसे विद्वानों ने इस शहर को सांस्कृतिक धरोहर बनाया। आज भी यह फैसला भारतीय इतिहास की सबसे दिलचस्प घटनाओं में गिना जाता है।  

 

क्या कहते हैं स्रोत?

 

इब्नबतूता के यात्रा वृत्तांत के अनुसार, 1334 तक दिल्ली फिर से भर गई थी। दिल्ली के आसपास मिले संस्कृत शिलालेख और सिक्के बताते हैं कि शहर पूरी तरह उजड़ा नहीं था। हालाँकि, इस पलायन ने साबित कर दिया कि बिना जनसमर्थन के बड़े फैसले खतरनाक हो सकते हैं।

 

मुहम्मद बिन तुगलक के विवादास्पद अभियान: खुरासान और कराचिल की कहानी 

 

मध्यकालीन भारत के इतिहास में मुहम्मद बिन तुगलक को उनके महत्वाकांक्षी लेकिन विवादित फैसलों के लिए याद किया जाता है। इनमें खुरासान अभियान और कराचिल अभियान खासे चर्चित हैं। दिलचस्प बात यह है कि ये दोनों अभियान आपस में जुड़े हुए थे, हालाँकि इनके पीछे के उद्देश्य अलग-अलग थे। आइए, इन घटनाओं को समझें!

 

खुरासान अभियान: मंगोलों के खिलाफ सुरक्षा की कोशिश

 

इस अभियान को शुरू करने का मुख्य कारण मध्य एशिया में बढ़ते मंगोल खतरे को रोकना था। चंगेज खान की मृत्यु के बाद, मंगोल साम्राज्य दो हिस्सों में बँट गया था – चग़ताई शाखा (तुर्किस्तान) और हलाकू शाखा (ईरान-इराक)। मुहम्मद बिन तुगलक चाहते थे कि सिंध और पंजाब को इन आक्रमणों से सुरक्षित रखा जाए।  

इसके लिए, उन्होंने 3.7 लाख सैनिकों की विशाल सेना तैयार की। हालाँकि, सेना की भर्ती जल्दबाजी में की गई थी। घोड़ों की नस्ल, सैनिकों के कौशल या उनके हथियारों का ठीक से परीक्षण नहीं हुआ। बरनी के अनुसार, सेना को इक्ता (जमीन) के जरिए भुगतान किया गया, लेकिन एक साल तक निष्क्रिय रहने के बाद उन्हें भंग कर दिया गया।  

 

ग़ज़नी और काज़ी का रोचक किस्सा

 

इस अभियान की पृष्ठभूमि में एक दिलचस्प घटना जुड़ी है। मंगोल शासक तर्माशिरीन ने 1326-27 में भारत पर हमला किया था, जो असफल रहा। इसके बाद, मुहम्मद बिन तुगलक ने ग़ज़नी के क्षेत्र को सुरक्षित करने के लिए वहाँ के काज़ी (न्यायाधीश) को अपने दरबार में बुलाया। बरनी इस फैसले को “निंदनीय” बताते हैं, लेकिन यह तुगलक की रणनीति का हिस्सा था।  

 

कराचिल अभियान: हिमालय की चुनौती 

 

खुरासान अभियान के तुरंत बाद, 1333 में कराचिल अभियान शुरू हुआ। इसका लक्ष्य हिमाचल के कुलू-काँगड़ा क्षेत्र पर कब्जा करना था। मजेदार बात यह है कि बरनी इसे गलती से खुरासान से जोड़ देते हैं। उनका मानना था कि इससे तुर्किस्तान से घोड़े मिल सकते थे और एशिया तक रास्ता बन सकता था!  

हकीकत में, यह अभियान बुरी तरह विफल रहा। दिल्ली की सेना पहाड़ियों में बहुत आगे निकल गई, जिससे वापसी का रास्ता कट गया। करीब 10,000 सैनिक मारे गए। हालाँकि, कुछ समय बाद स्थानीय शासक ने संधि कर ली और सुल्तान की अधीनता स्वीकार की। साथ ही, पहाड़ी के निचले इलाकों के उपयोग के लिए कर भी देने लगा।  

 

इतिहासकारों की नजर में ये अभियान

 

बाद के इतिहासकारों जैसे बदायुनी और फरिश्ता ने कराचिल को “चीन विजय” बताया। दरअसल, मध्यकाल में भूगोल की समझ धुंधली थी। लोगों को लगता था कि हिमालय के पार चीन (खिताई) बसा है। इसलिए, इन अभियानों के उद्देश्यों को लेकर भ्रम बना रहा।  

 

क्यों महत्वपूर्ण हैं ये अभियान?

 

यद्यपि ये अभियान सीधे तौर पर सफल नहीं रहे, लेकिन इनसे मुहम्मद बिन तुगलक की नीतियों की जटिलता समझ आती है। एक तरफ, उन्होंने मंगोल खतरे को गंभीरता से लिया। दूसरी ओर, सेना प्रबंधन और योजना की कमजोरियाँ सामने आईं।  

 

सबक और विरासत

 

इन घटनाओं से पता चलता है कि बिना तैयारी के बड़े सैन्य अभियान खतरनाक हो सकते हैं। साथ ही, मध्यकालीन भारत की सीमाएँ सुरक्षित करने की कोशिशें अक्सर स्थानीय चुनौतियों से टकराती थीं। आज भी, इतिहासकार मुहम्मद बिन तुगलक को एक “प्रयोगशील शासक” मानते हैं, जिनके सपने उनकी प्रजा से आगे निकल गए थे!

 

Coins from the reign of Muhammad bin Tughlaq, showcasing his unique currency reforms.
मुहम्मद बिन तुगलक काल के सिक्के

 

मुहम्मद बिन तुगलक का सांकेतिक मुद्रा प्रयोग: एक दिलचस्प कहानी 

 

मुहम्मद बिन तुगलक को इतिहास में उनके साहसिक फैसलों के लिए जाना जाता है। इनमें से एक था ‘सांकेतिक मुद्रा‘ का प्रयोग, जिसे 1329-30 में शुरू किया गया। यह कहानी नाकामी की भी है और नई सोच की भी। चलिए, इसे आसान भाषा में समझते हैं।

 

क्यों शुरू हुआ सांकेतिक मुद्रा का प्रयोग? 

 

दरअसल, सुलतान चाहते थे कि सोने-चाँदी की कमी को दूर करने के लिए ताँबे-पीतल के सिक्के चलाए जाएँ। इन सिक्कों को चाँदी-सोने के बराबर मूल्य दिया गया। आधुनिक दुनिया में यह विचार आम है, लेकिन मध्यकाल में यह एक नई कोशिश थी। बाद में पता चला कि चीन में पहले से कागजी मुद्रा (चान) चलती थी। मगर भारत में यह प्रयोग पहली बार हो रहा था।

 

चीन और ईरान के अनुभवों से सबक 

 

इतिहासकार बरनी के मुताबिक, मुहम्मद बिन तुगलक ने चीन के कूबलाई खान से प्रेरणा ली थी। 1260 में शुरू हुई चान मुद्रा सफल रही, लेकिन 1294 में ईरान में इसे लागू करने की कोशिश नाकाम हो गई। वहाँ तो सिर्फ 8 दिन में ही इसे वापस लेना पड़ा। इससे साफ है कि सांकेतिक मुद्रा को सही तरीके से लागू करना बहुत मुश्किल था।

 

महत्वाकांक्षा या खजाने की जरूरत? 

 

इस प्रयोग के पीछे की वजह पर बहस होती रही। कुछ का कहना है कि सुलतान दुनिया जीतने की चाहत रखते थे, जिसके लिए बड़ी सेना और धन चाहिए था। दूसरी ओर, बरनी ने बताया कि उनका खजाना पहले ही उपहारों और पुरस्कारों से खाली हो चुका था। हालाँकि, सोने-चाँदी की कमी को मुख्य वजह नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रयोग फेल होने पर सुलतान ने वापस सोने-चाँदी के सिक्के ही दिए।

 

जालसाजी ने डुबो दी कोशिश  

 

इस प्रयोग की असली मुश्किल थी जाली सिक्कों पर रोक लगाना। बरनी ने लिखा है—”हर हिंदू के घर में टकसाल बन गया।” मतलब, लोगों को ताँबे-पीतल के सिक्के बनाने का तरीका पता था। नतीजा यह हुआ कि बाजार में नकली सिक्कों की बाढ़ आ गई। इनकी कीमत पत्थरों जितनी रह गई। व्यापार चौपट होने लगा। गुस्से में आकर सुलतान ने 1333 में यह प्रयोग बंद कर दिया।

 

क्या थे सिक्कों के खास लक्षण? 

 

मुहम्मद बिन तुगलक के सिक्कों पर फारसी-अरबी में खास निशान बने थे। प्रोफेसर मुहम्मद हबीब के अनुसार, ये काँस्य के सिक्के थे। मगर आम लोग असली और नकली में फर्क नहीं कर पाते थे। जाली सिक्कों का ढेर किलों के बाहर लंबे समय तक पड़ा रहा, क्योंकि सरकार ने उन्हें स्वीकार नहीं किया।

 

विफलता के बाद क्या हुआ?  

 

इस प्रयोग के बंद होने के बाद भी खजाने को बहुत नुकसान नहीं हुआ। 1333 तक सभी टोकन सिक्के वापस ले लिए गए। दिलचस्प बात यह है कि इब्न बतूता ने 1334 में दिल्ली आने पर इसका जिक्र तक नहीं किया। यानी, यह घटना जल्दी ही भुला दी गई।

 

क्या होता अगर प्रयोग सफल होता? 

 

अगर मुहम्मद बिन तुगलक की सांकेतिक मुद्रा चल निकलती, तो भारत का व्यापार बढ़ सकता था। उस समय पूरी दुनिया में चाँदी की कमी थी। सुलतान ने पहले ही चाँदी के सिक्कों (टंका) का वजन कम कर दिया था। मगर यह नई व्यवस्था स्थायी नहीं बन पाई। हालाँकि, इससे साबित होता है कि मुहम्मद बिन तुगलक ने आर्थिक समस्याओं को हल करने की कोशिश की थी।

 

सांकेतिक मुद्रा: इतिहास की एक अनोखी मिसाल 

 

मुहम्मद बिन तुगलक का सांकेतिक मुद्रा प्रयोग दिखाता है कि नई सोच के साथ-साथ सही योजना भी जरूरी है। जालसाजी और जनता के विश्वास की कमी ने इसे डुबो दिया। फिर भी, यह कोशिश मध्यकालीन भारत की आर्थिक चुनौतियों को समझने का एक महत्वपूर्ण पाठ है।

 

मुहम्मद बिन तुगलक के कृषि सुधार: सफलता या विफलता?   

 

मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में कृषि सुधारों को लेकर बहुत उतार-चढ़ाव देखने को मिले। कुछ नीतियाँ किसानों के लिए मुसीबत बन गईं, तो कुछ ने भविष्य के लिए रास्ता दिखाया। आइए, इसकी पूरी कहानी समझते हैं।

 

कर बढ़ोतरी और किसानों पर दबाव 

 

जब मुहम्मद बिन तुगलक सत्ता में आया, तो उसने भूमि-राजस्व (कर) की दरें बढ़ाने का फैसला किया। इतिहासकार बरानी के मुताबिक, कर को “एक से दस या बीस गुना” तक बढ़ा दिया गया। हालाँकि, यह एक मुहावरा था—वास्तव में दर कितनी बढ़ी, यह स्पष्ट नहीं है। इसके अलावा, पुराने कर जैसे चराई कर और घर कर को सख्ती से वसूला गया। मवेशियों को चिह्नित किया गया और घरों की गिनती की गई।  

सबसे बड़ी समस्या यह थी कि कर का आकलन वास्तविक उपज के बजाय मानक उपज के आधार पर किया जाता था। साथ ही, नकद भुगतान में आधिकारिक मूल्य का इस्तेमाल होता था, जो बाजार से कम होता था। इन सबने किसानों को बर्बादी की कगार पर पहुँचा दिया।

 

विद्रोह और अकाल की मार   

 

कर बढ़ोतरी के विरोध में किसान विद्रोह शुरू हो गया। बरानी लिखते हैं कि किसानों ने अनाज के ढेर जलाए और मवेशियों को भगा दिया। दिल्ली और दोआब का बड़ा इलाका बर्बाद हो गया। विद्रोह को दबाने के लिए सुलतान ने सैन्य कार्रवाई की। खुत और मुक़द्दम (गाँव के मुखिया) या तो मारे गए या जंगलों में छिप गए। सेना ने जंगलों को घेरकर सख्त कदम उठाए।  

इसी दौरान, 1334-35 में भीषण अकाल शुरू हुआ, जो सात साल तक चला। दोआब और मालवा में अनाज की कमी हो गई। बारिश भी नहीं हुई, जिससे हालात और बिगड़े। अनाज की कीमतें आसमान छूने लगीं।

 

राहत के प्रयास और नई योजनाएँ 

 

अकाल से निपटने के लिए दिल्ली में राहत शिविर खोले गए। अवध से अनाज मंगवाया गया, क्योंकि वहाँ फसल अच्छी थी। सुलतान ने किसानों को कृषि ऋण (सोंधार) भी दिए, ताकि वे बीज, औज़ार और कुएँ खुदवा सकें।  

इसके बाद, मुहम्मद बिन तुगलक ने एक बड़ी योजना बनाई। दिवान-ई-अमीर-ई-कोही नामक नया कार्यालय बनाया गया, जिसका मकसद 100 किमी × 100 किमी के इलाके में खेती का विस्तार करना था। इस योजना के दो मुख्य लक्ष्य थे:  

1. बंजर ज़मीन को उपजाऊ बनाना।  

2. फसलों की किस्मों में सुधार करना (जैसे गेहूँ की जगह जौ बोना)।  

इसके लिए 100 अधिकारियों (शिकदार) को नियुक्त किया गया। उन्हें 70 लाख टंका से ज़्यादा की रकम ऋण के रूप में दी गई। मगर यह योजना भी विफल रही। बरानी के अनुसार, अधिकारी “लालची और अक्षम” थे। उन्होंने पैसा अपने निजी खर्चों में उड़ा दिया।

 

असफलता के पीछे की वजहें

 

मुहम्मद बिन तुगलक की नीतियों की विफलता के कई कारण थे:  

स्थानीय अधिकारियों पर नियंत्रण की कमी: अधिकारी किसानों का शोषण करते थे। अव्यावहारिक लक्ष्य: बंजर ज़मीन को तुरंत उपजाऊ बनाना मुश्किल था।  

भ्रष्टाचार: ऋण का पैसा ग़लत हाथों में चला गया।  

हालाँकि, इन कोशिशों का एक सकारात्मक पहलू भी था। कृषि ऋण का विचार बाद के सुलतानों और मुगलों तक पहुँचा। यह मुगल कृषि नीति का अहम हिस्सा बना।

 

इतिहास में क्या छोड़ गए ये सुधार?

 

मुहम्मद बिन तुगलक के प्रयोगों को पूरी तरह विफल नहीं कहा जा सकता। अगर उसकी मृत्यु न होती, तो शायद नतीजे अलग होते। उसके उत्तराधिकारी फिरोज तुगलक ने सभी ऋण माफ कर दिए, लेकिन कृषि ऋण की अवधारणा को जीवित रखा।  

दिलचस्प बात यह है कि  अलाऊद्दीन खिलजी और मुहम्मद बिन तुगलक दोनों ने ऐसी नीतियाँ बनाईं, जिन्हें मुगलों ने आगे बढ़ाया। इस तरह, ये सुधार भारतीय कृषि के इतिहास में एक पुल की तरह काम करते हैं।

 

सबक और विरासत 

 

मुहम्मद बिन तुगलक के कृषि सुधार हमें सिखाते हैं कि योजना और कार्यान्वयन दोनों महत्वपूर्ण हैं। कर बढ़ोतरी और अकाल ने उसकी छवि खराब की, लेकिन कृषि ऋण जैसे विचारों ने भविष्य को प्रभावित किया। इतिहास में उसे एक साहसी सुलतान माना जाता है, जिसकी गलतियाँ भी सीख देती हैं।

 

निष्कर्ष 

 

मुहम्मद बिन तुगलक की योजनाएं भारतीय इतिहास के सबसे दिलचस्प प्रयोगों में गिने जाते हैं। चाहे वह दौलताबाद पलायन हो, सांकेतिक मुद्रा का प्रयोग, या कृषि ऋण की अवधारणा—इन सभी ने साबित किया कि बिना जनसमर्थन और व्यावहारिक योजना के बदलाव खतरनाक हो सकते हैं। हालाँकि, इन विफलताओं ने आगे के शासकों और मुगलों को कृषि व आर्थिक प्रबंधन के महत्वपूर्ण सबक दिए। बरनी के अनुसार, मुहम्मद बिन तुगलक की नीतियाँ बिना तैयारी के लागू की गईं। नतीजतन, अराजकता फैली और विद्रोह हुए। इसके बावजूद, उन्हें भारतीय इतिहास में एक पढ़े-लिखे और खुले विचारों वाले शासक के तौर पर याद किया जाता है। आज भी, तुगलक के प्रयोग हमें याद दिलाते हैं कि नई सोच के साथ-साथ जमीनी तैयारी और जनभागीदारी भी उतनी ही जरूरी है।  

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top