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मोहम्मद अली जिन्ना |
प्रोफेसर स्टेनली वोल्पर्ट का कथन
प्रोफेसर स्टेनली वोल्पर्ट (Prof. Stanley Wolpert) अपनी किताब Jinnah of Pakistan में लिखते है।
“बहुत कम ऐसे लोग हुए हैं जो अपने बूते पर न सिर्फ इतिहास को नया मोड़ देने की कूबत सकते हैं, बल्कि दुनिया का नक्शा बदलने का दम भी रखते हैं। नया राष्ट्र रचने का श्रेय भी इतिहास में बहुत कम लोग को गया है। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की गिनती उन लोगों में की जा सकती है।”
जिन्ना के राष्ट्रवादी से विभाजनकारी बनने का सवाल
जब भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बात होती है, मोहम्मद अली जिन्ना का नाम एक विवादास्पद लेकिन महत्वपूर्ण किरदार के रूप में उभरता है। एक ओर, जिन्ना को मुस्लिम लीग के नेता और पाकिस्तान के संस्थापक के रूप में जाना जाता है, तो दूसरी ओर, उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के शुरुआती दौर में एक प्रबल राष्ट्रवादी के रूप में भी याद किया जाता है। लेकिन सवाल यह है कि जिन्ना को एक राष्ट्रवादी नेता से विभाजन के मार्ग पर जाने को क्यों मजबूर होना पड़ा? क्या वे वाकई विभाजन के समर्थक थे या परिस्थितियों के शिकार?
जिन्ना का राजनीतिक जीवन और राष्ट्रवादी सोच बहुत गहरा और जटिल था। प्रारंभिक दौर में, वे भारत की स्वतंत्रता के साथ-साथ हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। इतिहास के पन्नों को पलटने पर पता चलता है कि जिन्ना का राष्ट्रवाद धीरे-धीरे कैसे बदला और क्यों उन्हें एक अलग राष्ट्र की मांग करनी पड़ी।
जिन्ना और शुरुआती भारतीय राजनीति
मोहम्मद अली जिन्ना का जन्म 26 दिसंबर 1876 को कराची में हुआ था, जो उस समय ब्रिटिश भारत का हिस्सा था। 15 साल की उम्र में वो शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए। मात्र 20 साल की उम्र में बार का एग्जाम पास करने वाले वो सबसे युवा वकील बने और जब वे भारत लौटे तो उन्हें ब्रिटिश न्यायपालिका और भारतीय राजनीति में प्रवेश मिला। जिन्ना ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत 1904 में कांग्रेस के 20वें अधिवेशन में भाग लेने के बाद शुरू की। उन्हें जल्द ही एक प्रगतिशील और उदार नेता के रूप में देखा जाने लगा।
जिन्ना का मानना था कि भारतीय उपमहाद्वीप को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आजादी मिलनी चाहिए। वे गोपाल कृष्ण गोखले के अनुयायी थे और शुरू में कांग्रेस के हिंदू-मुस्लिम एकता के सिद्धांत के समर्थक बने रहे। गोखले ने जिन्ना के राष्ट्रवादी विचारों की प्रशंसा करते हुए कहा था, “जिन्ना एक ऐसे मुसलमान नेता हैं, जो धर्म से ऊपर उठकर देश के हित में काम करने को तत्पर हैं।“
संविधानवादी नेता के रूप में जिन्ना
जिन्ना की शुरुआत की राजनैतिक पारी एक संविधानवादी नेता की रुप में हुई।
संविधानवादी का अर्थ होता है कानून में विश्वास रखते हुए, कानून में बदलाव के लिए सदन/परिषद में की जाने वाली राजनीति।
बीसवीं सदी के पहले और दूसरे दशक में जनता राजनीतिक रूप से उतनी जागरूक नहीं थी। देश में कोई व्यापक जनांदोलन नहीं हुआ, सिवाय बंगाल विभाजन के विरोध के, जो मुख्यतः बंगाल और सीमित रूप से बुर्जुआ वर्ग तक ही केंद्रित था। उस समय के राजनीतिक नेता अपने विचारों को विधान परिषदों में दिए गए भाषणों और अखबारों में लिखे लेखों के माध्यम से जनता तक पहुंचाते थे। वे न केवल जनता को जागरूक कर रहे थे, बल्कि सरकार पर भी दबाव डालने का प्रयास कर रहे थे। फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे नेता इसके प्रमुख उदाहरण थे।
गोखले ने जिन्ना को कांग्रेस में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
गोखले ने जिन्ना के राष्ट्रवादी विचारों की प्रशंसा करते हुए कहा था, “जिन्ना एक ऐसे मुसलमान नेता हैं, जो धर्म से ऊपर उठकर देश के हित में काम करने को तत्पर हैं।“। गोखले के विचारों का जिन्ना पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसी कारण, जिन्ना शुरुआती दिनों में सांप्रदायिक राजनीति के सख्त विरोधी थे। उन्होंने 1916 के लखनऊ समझौते में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच सहमति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह समझौता हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए एक मील का पत्थर था।
जिन्ना ने उस समय कहा था, “हम एक साझी राष्ट्रीयता का सपना देख रहे थे, जिसमें हिंदू और मुस्लिम साथ-साथ चलते।”
1919 में हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद, जिन्ना ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अपने विचारों को खुलकर व्यक्त किया और इसे ‘बर्बरता का प्रतीक’ कहा। यह घटना भारतीय राजनीति में जिन्ना के राष्ट्रवादी विचारों को और मजबूत कर गई।
1919 के खिलाफत आंदोलन के वक्त जब राष्ट्रवादियों को एक मौका दिखा, जनता को ब्रिटिश राज के विरुद्ध जागरूक करने का तो वो धर्म का राजनीत में प्रयोग करते है।
ये एक पैराडॉक्स ही कहा जायेगा की जिन्ना यहां धर्म और राजनीत के मेल का विरोध कर रहे है और वहीं बाद में वो धर्म की चाशनी को अपनी राजनीत में मिला कर आगे बढ़ते है। जिन्ना कहते है, “राजनीति का धर्म से घालमेल इस देश को बर्बाद कर देगा,” (संदर्भ: Speeches and Writings of Jinnah, Volume 2)
सांप्रदायिकता का उदय
1920 में जिन्ना कांग्रेस के, गांधी के दबाव में कांग्रेस के संविधानवादी दृष्टिकोण को त्यागने की वजह से कांग्रेस छोड़ देते हैं। चौरी चौरा की घटना के बाद, साल 1923 से 1927 के बीच समाज में सांप्रदायिकता तेजी से बढ़ने लगती थी। देश के विभिन्न हिस्सों से दंगों की खबरें सामान्य हो गई थीं। इतिहासकार इस बढ़ते सांप्रदायिकता के कई कारण बताते हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारण महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन का अचानक वापस लिया जाना था। जब जनता को पूरी तरह से जागरूक और संगठित कर दिया गया था, तब अचानक से उन्हें शांत रहने के लिए कहना स्वाभाविक रूप से एक अव्यवस्थित ऊर्जा पैदा करता है, जिसे कहीं न कहीं निकलना ही था। पंडित नेहरू अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखते हैं कि “जब आप ऊर्जा को एक बोतल में बंद कर देते हैं, तो एक दिन वह बोतल फटनी ही थी,” और यही ऊर्जा कम्युनिज्म के रूप में फूट पड़ी।
आईए 1920 के दशक की ओर एक नज़र डालते हैं। 1919 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट लागू हो चुका था, और औपनिवेशिक शक्ति अपने संस्थानों को मज़बूत कर रही थी। इसी दौर में सत्ता में हिस्सेदारी का संघर्ष भी शुरू होता है, जो मुख्यतः पहचान के आधार पर केंद्रित था। अंग्रेज जाति और धर्म के आधार पर विधान परिषदों और जिला बोर्डों में किसे कितना हिस्सा मिलेगा, इसका निर्धारण कर रहे थे, जिससे समाज में सांप्रदायिक तनाव बढ़ता जा रहा था।
नेहरू रिपोर्ट और जिन्ना का नया रुख
साइमन कमीशन के बाद मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में बनी नेहरू रिपोर्ट में यह सहमति बनी कि सीटों का अनुपातिक वितरण (प्रोपोर्शनल डिस्ट्रीब्यूशन) किया जाएगा। इस पर हिंदू महासभा, कांग्रेस और मुस्लिम लीग सभी सहमत थे। लेकिन अचानक हिंदू महासभा अपने वादे से पीछे हट जाती है कि केंद्रीय विधान परिषद में एक-तिहाई सीटें मुसलमानों के लिए आरक्षित रहेंगी। इस बदलाव के कारण जो आम सहमति बनी थी, वह टूट जाती है, और सांप्रदायिकता की खाई और गहरी हो जाती है।
जिन्ना एक जिद्दी स्वभाव के व्यक्ति थे। जब हिंदू महासभा अपने वादे से अचानक पीछे हट गई, तो जिन्ना को यह अनुचित लगा। उन्होंने सोचा कि यदि हमें न्यूनतम भी नहीं दिया जाएगा, तो अब हम अपनी मांगें और बढ़ाएंगे। इस प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप, जिन्ना अपने अधिकतमवादी रुख पर आ गए और उन्होंने अपना प्रसिद्ध 14 सूत्रीय एजेंडा पेश किया, जो मुस्लिम समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा के लिए उनकी प्रमुख मांगों का प्रतिवेदन था।
1930 के दशक में परिस्थितियां बदलने लगती हैं। जहां तक टू-नेशन थ्योरी का सवाल है, इसका ज़िक्र सबसे पहले जिन्ना ने नहीं किया था। भाई परमानंद ने 1901 में ही इसका उल्लेख किया था, और लाला लाजपत राय तथा सावरकर 1923 वा 1924 में इस विचार को सामने रख चुके थे। हालांकि, इस सिद्धांत की सबसे महत्वपूर्ण एंट्री 1937 में होती है, जब कांग्रेस की प्रांतीय सरकारें बनती हैं। उस समय तक फेडरलिज़्म और क्षेत्रीय शक्तियों की ही चर्चा हो रही थी, और मुस्लिम लीग की कोई खास राजनीतिक हैसियत नहीं थी। 1937 के चुनाव में मुस्लिम लीग को भारी हार का सामना करना पड़ा था, जिसके बाद जिन्ना के नेतृत्व में लीग ने अपनी राजनीतिक रणनीति में बदलाव किया।
मुस्लिम लीग के अलावा, अन्य मुस्लिम-प्रभुत्व वाली पार्टियां भी थीं, जैसे बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी, पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी, बिहार में मुस्लिम इंडिपेंडेंस पार्टी, और संयुक्त प्रांत में नेशनल एग्रीकल्चर पार्टी। ये सभी पार्टियां मुख्य रूप से खेती-किसानी और कृषि संबंधी समस्याओं पर केंद्रित थीं। लेकिन 1937 के बाद, सत्ता संरचना में जो बदलाव आया, उसमें जिन्ना ने अपने लिए प्रासंगिकता स्थापित की।
पाकिस्तान का विचार
1937 में कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों के गठन के साथ ही हिंदुओं के एक बड़े वर्ग में यह भावना उभरने लगी कि 1192 की तराइन की लड़ाई के बाद अब हिंदू शासन का समय आ गया है। यह भावना कुछ वैसी ही थी, जैसी 2014 के बाद समाज में देखी जा सकती है।
इस दौर में मुसलमानों में एक अलगाव की भावना उभरने लगती है। समाज में कई घटनाएं घटित होती हैं, जैसे किसी स्थान पर दंगे होते हैं, लेकिन दोषियों को कोई सजा नहीं मिलती। इसके साथ ही, हिंदू महासभा का कार्यकर्ता कांग्रेस का भी सदस्य होता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि दोनों पार्टियों के समर्थक कहीं न कहीं एक ही हैं। समाज में छोटी-छोटी घटनाएं जमा हो रही थीं, जैसे मुस्लिम इंजीनियर को नौकरी से हटा दिया गया, सरकारी मुस्लिम डॉक्टर का तबादला कर दिया गया, या मुस्लिम एडवोकेट जनरल को उनके पद से हटा दिया गया। इस अंडर करंट से समाज में असंतोष फैलने लगा, और इस माहौल को भांपते हुए जिन्ना 1938 के बाद देशभर में यात्रा करने लगे। इसी यात्रा के दौरान वे धीरे-धीरे एक बड़े मुस्लिम नेता के रूप में उभरने लगे।
23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग ने लाहौर में अपना अधिवेशन किया, जिसमें जो प्रस्ताव पारित हुआ, उसमें ‘पाकिस्तान‘ शब्द का कोई उल्लेख नहीं था। बाद में यह प्रस्ताव प्रसिद्ध हो गया, जिसे इतिहासकार आयशा जलाल के अनुसार, हिंदू प्रेस ने ‘पाकिस्तान रेजोल्यूशन’ के रूप में लोकप्रिय किया। वास्तव में, उस प्रस्ताव में ‘पाकिस्तान’ शब्द कहीं भी शामिल नहीं था। हालांकि, इस प्रस्ताव को लेकर इतिहासकारों के बीच मतभेद हैं। कुछ का मानना है कि यह प्रस्ताव मुसलमानों के लिए अधिकतम स्वायत्तता वाली एक संघीय इकाई (federal structure) की मांग कर रहा था, जबकि अन्य इसे मुसलमानों के लिए एक अलग राज्य की मांग के रूप में देखते हैं।
आज़ादी से पहले का भारत |
जब भारत स्वतंत्र नहीं हुआ था, उस समय एक एकीकृत ‘आईडिया ऑफ़ नेशन’ स्पष्ट नहीं था। अलग-अलग लोग अपने-अपने दृष्टिकोण रखते थे कि भारत कैसा होगा। कांग्रेस एक अखंड भारत की परिकल्पना कर रही थी, वहीं मुस्लिम लीग का विचार इससे भिन्न था। हिंदू महासभा के सावरकर तो अंग्रेजों से यह अपील करते थे कि वे सत्ता किसी एक पार्टी को न सौंपें, बल्कि इसे नेपाल के राजा को सौंपें, जो उस समय दुनिया के एकमात्र हिंदू राजा थे। इस तरह, विभिन्न विचारधाराओं और दृष्टिकोणों के चलते भारत के भविष्य को लेकर स्पष्टता का अभाव था।
जिन्ना का ‘आईडिया ऑफ़ पाकिस्तान’ बेहद धुंधला और अस्पष्ट था। आम मुसलमानों को इस बात का कोई अंदाजा नहीं था कि जिन्ना का पाकिस्तान कैसा होगा या कहां होगा। उस वक्त आम धारणा यह थी कि अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद हिंदू लोग अपने मसले नेहरू के पास जाकर हल करवाएंगे, वैसे ही मुसलमान अपने मसले जिन्ना से हल करवाएंगे। कुछ अधिकार नेहरू के पास होंगे और कुछ जिन्ना के पास। इस भौगोलिक अस्पष्टता का एक दिलचस्प उदाहरण अत्तिया हुसैन अपनी किताब Sunlight on a Broken Column में देती हैं, जहां वह सवाल उठाती हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है कि दिल्ली का लाल किला और लखनऊ का इमामबाड़ा पाकिस्तान में नहीं होंगे?
जिन्ना ने कभी भी अपने पत्ते पूरी तरह नहीं खोले। उन्होंने कभी इस का जिक्र नहीं किया की उनका पाकिस्तान कैसा होगा। हाल के वर्षों में कई इतिहासकार यह रेखांकित करते हैं कि वर्तमान पाकिस्तान का स्थान बेहद रणनीतिक है—एक ओर मिडल ईस्ट के तेल भंडार हैं और दूसरी ओर इस वक्त साम्यवादी सोवियत संघ था। जिन्ना 1930 के दशक से ही चर्चिल के साथ छद्म नाम से पत्राचार कर रहे थे। अंग्रेजों को यह एहसास था कि उन्हें भारत छोड़ना ही होगा, इसलिए उन्होंने जिन्ना को एक औजार की तरह इस्तेमाल कर देश को विभाजित किया और अपने हित साधे। अगर उस समय के मुसलमानों को यह मालूम होता कि उन्हें अपने पुरखों की जमीन और घर छोड़कर कहीं और जाना होगा, तो शायद वे पाकिस्तान के समर्थन में कभी नहीं आते।
1946-47 के बीच के घटनाक्रम और जिन्ना की दुविधा
1946 में जब कैबिनेट मिशन योजना आई, तो जिन्ना ने इसे स्वीकार करने का विचार किया। उन्होंने भारतीय संघ के विचार का समर्थन किया, जहां मुसलमानों के हितों की रक्षा हो सके। लेकिन जैसे-जैसे हालात बदले, विभाजन की मांग और मजबूत हो गई। 1947 के आते-आते जिन्ना का यह मानना हो गया था कि भारत का विभाजन ही एकमात्र समाधान है।
हालांकि, विभाजन के अंतिम समय में जिन्ना की व्यक्तिगत दुविधा स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। विभाजन के बाद उनके स्वास्थ्य ने उन्हें कमजोर कर दिया था, और वे जानते थे कि इस निर्णय के परिणाम कितने भयंकर होंगे। जिन्ना ने पाकिस्तान की स्थापना के समय कहा था, “हम इस देश का निर्माण अपने खून से कर रहे हैं, और हमें इसे एक महान राष्ट्र बनाना होगा ।”
जिन्ना की विरासत: विभाजनकारी नेता या दूरदर्शी राष्ट्रवादी?
जिन्ना की विरासत को आज भी दोनों रूपों में देखा जाता है – एक विभाजनकारी नेता के रूप में और एक दूरदर्शी राष्ट्रवादी के रूप में। विभाजन के बाद, पाकिस्तान का निर्माण हुआ, और जिन्ना उसके पहले गवर्नर-जनरल बने। हालांकि, उनके स्वास्थ्य ने उन्हें ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहने दिया, और 1948 में उनकी मृत्यु हो गई।
इतिहासकार स्टैनली वोल्पर्ट का मानना है कि जिन्ना एक ऐसे नेता थे, जिन्होंने मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा के लिए कठोर निर्णय लिए, लेकिन वे कभी भी विभाजन को इतनी भयावहता से नहीं चाहते थे। वोल्पर्ट लिखते हैं, “जिन्ना का पाकिस्तान का सपना एक सुरक्षित मुसलमान राज्य का था, लेकिन उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि इसका जन्म इतनी हिंसा और रक्तपात में होगा।”
निष्कर्ष: जिन्ना की जटिलता को समझना
“ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर,
वो इंतिज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं।
ये वो सहर तो नहीं, जिस की आरज़ू ले कर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं,
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल…“