भारत का मध्य पाषाणकाल और नवपाषाणकाल: इतिहास, जीवनशैली और पुरातात्विक खोजें

 

भारत में मध्य पाषाणकाल (Mesolithic Age) (लगभग 12,000 BC से 5,000 BC) प्राचीन मानव इतिहास का एक महत्वपूर्ण समय था, जब इंसानों ने छोटे-छोटे पत्थर के औजारों का इस्तेमाल करना शुरू किया। यह काल पुरापाषाणकाल (Paleolithic) और नवपाषाणकाल (Neolithic) के बीच का समय है।

इस समय के लोग मुख्य रूप से शिकार पर निर्भर थे, यानी वे पशुओं का शिकार करके भोजन जुटाते थे। हालांकि, उन्होंने खेती करना और पशुओं को पालना भी धीरे-धीरे सीखना शुरू कर दिया था। वे पत्थरों से बने छोटे औजारों का इस्तेमाल करते थे, जिन्हें “लघु पाषाण उपकरण” कहा जाता है। ये औजार आकार में छोटे और तीखे होते थे और शिकार, खाना पकाने या अन्य रोजमर्रा के कामों में सहायक होते थे।

भारत में मध्य पाषाणकाल (Microlithic Age) में इंसान झोपड़ियाँ बनाकर समूहों में रहने लगे थे और अंतिम संस्कार भी करने लगे थे। यह काल इंसानों के जीवन में एक बड़ा बदलाव लेकर आया, जहां वे सिर्फ खाने के लिए शिकार करने से आगे बढ़कर खेती और घरेलू जीवन की ओर भी ध्यान देने लगे।

 

मध्य पाषाणकाल की खोज 

 

भारत में मध्य पाषाणकाल (Microlithic Age) के बारे में सबसे पहले 1867 ईस्वी में जानकारी मिली। उस समय पुरातत्वविद सी. एल. कार्लाइल ने विंध्य क्षेत्र में लघु पाषाण उपकरण (Microliths) खोजे। इसके बाद भारत के कई हिस्सों से इस काल के अवशेष मिलने लगे, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि इस समय का मानव व्यापक क्षेत्र में फैला हुआ था।

 

मध्य पाषाणकालीन (Microlithic Age) उपकरणों की विशेषताएँ 

 

मध्य पाषाणकाल के उपकरण आकार में बेहद छोटे होते थे, जिनकी लंबाई लगभग आधे से लेकर पौन इंच तक होती थी। इन उपकरणों में कुण्ठित ब्लेड, टेढ़े ब्लेड, छिद्रक, स्क्रेपर, ब्यूरिन, बेधक, और चान्द्रिक प्रमुख थे। कुछ उपकरण त्रिभुज और समलम्ब चतुर्भुज के आकार के भी थे। ये उपकरण मुख्य रूप से चर्ट, चाल्सेडनी, जैस्पर, एगट, क्वार्टजाइट और फ्लिन्ट जैसे कीमती पत्थरों से बनाए गए थे। कुछ स्थानों पर हड्डी और सींग के बने उपकरण भी पाए गए हैं। इन उपकरणों की बनावट और डिजाइन से उस समय के लोगों की तकनीकी क्षमता का पता चलता है।

 

प्रमुख मध्य पाषाणकालीन पुरास्थल 

 

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में कई पुरास्थल मिले हैं, जहां मध्य पाषाणकाल के मानवों ने अपने जीवन के निशान छोड़े।

 

राजस्थान: बागोर 

 

राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में स्थित बागोर का स्थल मध्य पाषाणकाल के लिए महत्वपूर्ण है। यहाँ 1968 से 1970 के बीच वी. एन. मिश्र ने खुदाई करवाई थी। इस स्थल से मध्य पाषाणकाल के उपकरणों के साथ लौहकाल के उपकरण भी मिले हैं। यहाँ से मानव कंकाल भी मिले हैं, जो उस समय के जीवन और अंतिम संस्कार के तरीके को दर्शाते हैं।

 

गुजरात: लंघनाज 

 

गुजरात में स्थित लंघनाज एक प्रमुख मध्य पाषाणकालीन स्थल है। यहाँ एच. डी. संकालिया, बी. सुब्बाराव और ए. आर. कनेडी ने खुदाई करवाई थी। इस स्थल से लघु पाषाण उपकरणों के साथ पशुओं की हड्डियाँ, कब्रिस्तान और मिट्टी के बर्तन भी प्राप्त हुए हैं। यहाँ फ्लेक उपकरण प्रमुखता से पाए गए हैं, और साथ ही यहाँ से 14 मानव कंकाल भी मिले हैं।

 

आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के स्थल 

 

आंध्र प्रदेश के नागार्जुनकोड, गिद्दलूर और रेनिगुन्टा में भी मध्य पाषाणकाल के उपकरण मिले हैं। कर्नाटक के बेल्लारी जिले में स्थित संगनकल्लू में 1946 और 1969 में खुदाई के दौरान लघु पाषाण उपकरण मिले हैं। तमिलनाडु के तिरुनेल्वेलि जिले में टेरी पुरास्थलों से भी बड़ी संख्या में लघु पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं।

 

मध्य प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के पुरास्थल 

 

मध्य प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में भी मध्य पाषाणकालीन पुरास्थलों की खोज की गई है, जो उस समय के जीवन के बारे में गहरी जानकारी देते हैं।

 

मध्य प्रदेश: आदमगढ़ और भीमबेटका 

 

1964 में आर. वी. जोशी ने मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के आदमगढ़ शिलाश्रय से लगभग 25 हजार लघु पाषाण उपकरण प्राप्त हुए थे। भीमबेटका की गुफाओं में भी इसी काल के उपकरण मिले हैं। यहाँ से मानव अंत्येष्टि के प्रमाण भी मिलते हैं, जो उस समय के मृतक संस्कार की झलक प्रदान करते हैं। भीमबेटका के गुफाओं की खोज 1958 में वी. एस. वाकणकर ने की थी।

 

बिहार/झारखण्ड के पुरास्थल 

 

बिहार/झारखंड में रांची, पलामू, भागलपुर, और राजगीर जिलों से लघु पाषाण उपकरण मिले हैं।

 

पश्चिम बंगाल: बीरभानपुर 

 

पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में स्थित बीरभानपुर एक महत्वपूर्ण मध्य पाषाणकालीन स्थल है। यहाँ 1954 से 1957 तक खुदाई करवाई गई थी, और इस स्थल से लगभग 282 लघु पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। इनमें ब्लेड, बेधक, ब्यूरिन, चान्द्रिक, स्क्रेपर और छिद्रक शामिल हैं। इन उपकरणों का काल लगभग 4000 ईसा पूर्व निर्धारित किया गया है।

 

उत्तर प्रदेश के प्रमुख स्थल 

 

उत्तर प्रदेश में विंध्य क्षेत्र और गंगा घाटी के क्षेत्रों से मध्य पाषाणकाल के कई उपकरण प्राप्त हुए हैं।

 

मिर्जापुर और इलाहाबाद के स्थल 

 

मिर्जापुर जिले के मोरहना पहाड़ और बघहीखोर तथा इलाहाबाद जिले के मेजा में स्थित चोपानीमाण्डो नामक स्थल की खुदाई 1962 से 1980 के बीच हुई थी। यहाँ से लघु पाषाण उपकरणों के साथ मानव कंकाल भी मिले हैं। चोपानीमाण्डो एक बड़ा पुरास्थल है, जो 15,000 वर्गमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। यहाँ की खुदाई में झोपड़ियों के अवशेष और हाथ से बने मिट्टी के बर्तन भी प्राप्त हुए हैं।

 

प्रतापगढ़ के स्थल: सरायनाहर राय, महदहा और दमदमा 

 

प्रतापगढ़ के सरायनाहर राय, महदहा और दमदमा भी मध्य पाषाणकाल के महत्वपूर्ण पुरास्थल हैं। सरायनाहर राय में खुदाई से कुण्ठित ब्लेड, स्क्रेपर, चान्द्रिक और त्रिभुज आकार के उपकरण मिले हैं। महदहा में खुदाई के दौरान नर और मादा कंकाल साथ-साथ दफनाए गए हैं, जो संभवतः उस समय के सामाजिक रीति-रिवाजों को दर्शाते हैं। दमदमा में 41 मानव शवाधान, हड्डी से बने आभूषण और कई पशुओं की हड्डियाँ मिली हैं। यहाँ पर चूल्हे का भी पता चला है, जहाँ मांस पकाने के संकेत मिले हैं।

 

मध्य पाषाणकाल के जीवन का स्वरूप 

 

मध्य पाषाणकाल का जीवन पुराने पाषाणकाल से कुछ भिन्न था। इस समय के मानव मुख्य रूप से शिकार पर निर्भर थे, लेकिन वे गाय, बैल, भेड़, बकरी जैसे पशुओं का शिकार भी करते थे। इस काल में उन्होंने थोड़ा कृषि कार्य भी सीख लिया था। जैसे-जैसे उनका जीवन उन्नति कर रहा था, उन्होंने मिट्टी के बर्तन बनाना भी शुरू कर दिया था।

 

अंतिम संस्कार और धार्मिक विश्वास 

 

सरायनाहर राय और महदहा की खुदाई से मध्य पाषाणकाल के लोगों की अंत्येष्टि विधियों का भी पता चलता है। वे अपने मृतकों को समाधि में दफनाते थे और उनके साथ भोजन और औजार भी रखते थे। इससे प्रतीत होता है कि वे किसी प्रकार के परलोक जीवन में विश्वास करते थे।

 

नवपाषाणकाल (Neolithic Age)

 

नवपाषाणकाल (लगभग 5,000 BC से 1,500 BC) मानव इतिहास का वह समय है, जब इंसानों ने खेती करना, पशुपालन करना और स्थायी घर बनाना शुरू किया। इसे “नया पाषाणकाल” भी कहते हैं। इस समय के लोग सिर्फ शिकार पर निर्भर नहीं थे, बल्कि अपने भोजन के लिए अनाज उगाने लगे थे।

इस काल में इंसानों ने मिट्टी के बर्तन बनाना और उनमें खाना पकाना भी सीख लिया था। उन्होंने कुत्ते, बकरी, गाय जैसे कुछ जानवरों को पालतू बनाना शुरू कर दिया था, ताकि दूध, मांस और अन्य चीजों के लिए इन्हें पाला जा सके। नवपाषाणकाल (Neolithic Age) में इंसान पत्थरों को घिसकर तेज धार वाले औजार बनाते थे, जिनसे खेती और अन्य काम आसान हो गए थे।

इसके साथ ही, लोग अब स्थायी घरों में रहने लगे और छोटे-छोटे गाँव बनाने लगे। इस समय की सबसे बड़ी खासियत यही है कि इंसानों का जीवन एक जगह पर बसने लगा, जिससे समाज में स्थिरता आई और सभ्यता का विकास शुरू हुआ।

भारत में नवपाषाणकाल का आरंभ लगभग ईसा पूर्व 4000 के आसपास माना जाता है। इस काल में इंसानों ने पत्थरों के नए औजारों का प्रयोग किया और अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए विभिन्न तरीकों का विकास किया। नवपाषाणकालीन सभ्यता के कई पुरातात्विक साक्ष्य भारत में मिले हैं, जो विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए हैं। भारत में नवपाषाणकालीन संस्कृति को छह मुख्य क्षेत्रों में बांटा गया है: उत्तरी भारत, विंध्य क्षेत्र, दक्षिणी भारत, मध्य गंगा घाटी, मध्य-पूर्वी क्षेत्र और पूर्वोत्तर भारत।

 

उत्तरी भारत का नवपाषाणकाल 

 

बुर्जहोम और गुफकराल 

 

उत्तरी भारत में कश्मीर के क्षेत्र में नवपाषाणकालीन सभ्यता के कई प्रमुख स्थल मिले हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं बुर्जहोम और गुफकराल। बुर्जहोम की खोज 1935 में डी. टेरा और पीटरसन ने की, और 1960-64 के दौरान भारतीय पुरातत्व विभाग ने यहां खुदाई करवाई। इसी प्रकार गुफकराल की खुदाई 1981 में ए.के. शर्मा द्वारा की गई।

बुर्जहोम से प्राप्त अवशेषों में ट्रैप पत्थर की कुल्हाड़ियां, खुरपी, छेनी, कुदाल और अन्य औजार मिले हैं। यहां से कुछ हड्डियों के बने उपकरण भी प्राप्त हुए हैं, जिनमें पालिशदार बेधक प्रमुख हैं। इसके अलावा, भेड़-बकरी की हड्डियां और मिट्टी के बर्तन भी यहां से मिले हैं, जो उस समय के जीवन को दर्शाते हैं। यहां गेहूं, मटर, मसूर जैसे अनाजों के प्रमाण भी मिले हैं। खुदाई में गड्ढों वाले घरों के अवशेष भी पाए गए, जिनसे पता चलता है कि लोग पालतू कुत्तों को अपने साथ दफनाते थे। यह प्रथा केवल बुर्जहोम में पाई गई है।

गुफकराल से भी सिलबट्टा, हड्डी की सुई जैसे औजार मिले हैं, जिससे पता चलता है कि उस समय अनाज पीसने और कपड़े सिलने की परंपरा थी। मिट्टी के बर्तनों में घड़े, कटोरे, थाली और तश्तरी आदि शामिल हैं, जो हाथ और चाक दोनों से बनाए गए थे।

 

विंध्य क्षेत्र का नवपाषाणकाल

 

कोलडिहवा, महगड़ा और पंचोह 

 

विंध्य क्षेत्र के प्रमुख नवपाषाणकालीन पुरास्थल इलाहाबाद जिले में बेलन नदी के किनारे स्थित कोलडिहवा, महगड़ा और पंचोह हैं। इन स्थलों की खुदाई विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा की गई है।

कोलडिहवा से नवपाषाणकाल, ताम्रकाल और लौह काल की संस्कृति के अवशेष मिले हैं, जबकि महगड़ा और पंचोह से केवल नवपाषाणकालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहां पत्थर की कुल्हाड़ियों के साथ-साथ हथौड़े, छेनी, बसुली जैसे औजार मिले हैं। खुदाई में मिले स्तंभ गाड़ने के गड्ढों से यह संकेत मिलता है कि लोग लकड़ी के खंभों के सहारे गोलाकार झोपड़ियां बनाते थे।

यहां के बर्तनों में रस्सी की छाप वाले बर्तन, खुरदुरे बर्तन और चमकीले बर्तन शामिल हैं। कुछ बर्तनों पर सजावट भी देखी जा सकती है। कोलडिहवा की खुदाई में धान की खेती के प्रमाण मिले हैं, जो लगभग 7000-6000 ईसा पूर्व के माने जाते हैं। यहां मिट्टी के बर्तनों के ठीकरों पर धान के दाने, भूसी और पुआल के निशान भी मिले हैं। (भारत में धान की खेती का सबसे पुराना प्रमाण उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर के लहुरादेवा गांव से मिला है. यह प्रमाण करीब 7,000 ईसा पूर्व का है।

 

मध्य गंगा घाटी का नवपाषाणकाल 

 

चिरांद 

 

मध्य गंगा घाटी में चिरांद, जो बिहार के छपरा जिले में स्थित है, नवपाषाणकाल का एक महत्वपूर्ण पुरास्थल है। यहां से नवपाषाण और ताम्र-पाषाण युगीन संस्कृति के अवशेष मिले हैं। चिरांद में खुदाई के दौरान पत्थर की कुल्हाड़ियां, सिलबट्टे, हथौड़े और हड्डी और सींग से बने छेनी, सूई और चूड़ियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा, टोटी वाले बर्तन, तसले और अन्य मिट्टी के बर्तन भी मिले हैं।

यहां के लोग अपने निवास के लिए बांस-बल्ली की झोपड़ियां बनाते थे और धान, मसूर, मूंग, गेहूं, जौ आदि की खेती करते थे। यहां से गाय, बैल, हाथी और अन्य जानवरों की हड्डियां भी मिली हैं, जो उस समय के जीवन का संकेत देती हैं।

 

दक्षिणी भारत का नवपाषाणकाल 

 

दक्षिण भारत में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु से भी नवपाषाणकाल के कई महत्वपूर्ण पुरास्थल मिले हैं। इन क्षेत्रों में कृष्णा और कावेरी नदियों की घाटियों के आसपास ब्रह्मगिरि, संगनकल्लू, हल्लूर, कोडेकल और मास्की जैसे स्थल प्रमुख हैं। यहां से मिट्टी के बर्तन, हड्डी के बने औजार और पत्थर की पालिशदार कुल्हाड़ियां मिली हैं।

दक्षिणी भारत में लोग अपने निवास के लिए गोलाकार और चौकोर घर बनाते थे। खुदाई में घड़े, तश्तरी, कटोरे जैसे बर्तन मिले हैं। यहां के लोग कुथली, रागी, चना और मूंग जैसे अनाज उगाते थे। उनके पालतू पशुओं में गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सूअर प्रमुख थे।

दक्षिण भारत में नवपाषाणकाल की संभावित तिथि ईसा पूर्व 2500 से 1000 के आसपास मानी जाती है।

 

नवपाषाणकालीन संस्कृति की विशेषताएं 

 

नवपाषाणकाल की संस्कृति अपनी पूर्ववर्ती संस्कृतियों से अधिक विकसित थी। इस काल में मानव ने न केवल भोजन का उपभोग किया, बल्कि उसका उत्पादन भी किया। लोग खेती करना और जानवरों को पालना जान गए थे। इस समय का मानव खानाबदोश जीवन छोड़कर स्थायी घरों में बसने लगा था। खुदाई में मिले अवशेषों से यह भी पता चलता है कि नवपाषाणकाल के लोग अपने मृतकों को समाधियों में गाड़ते थे और अग्नि का उपयोग करना सीख चुके थे।

 

कला और चित्रकारी 

 

इस काल में कला के प्रति रुचि भी दिखाई देती है। मध्य भारत की पर्वत कंदराओं में मिले कुछ शिकार से जुड़े चित्र संभवतः इसी काल के हैं। बर्तनों पर रगड़कर चित्र बनाए जाते थे, जो इस काल के लोगों की कलात्मक रुचि का प्रमाण हैं।

नवपाषाणकालीन संस्कृति का यह विस्तृत अध्ययन हमें बताता है कि कैसे हमारे पूर्वजों ने जीवन को नए तरीके से व्यवस्थित किया और सभ्यता की नींव रखी। इस युग ने मानव इतिहास में स्थायी निवास, कृषि और पशुपालन की शुरुआत की, जो आगे चलकर समाज और सभ्यता के विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बना।

 

Further Reference 

 

1. Upinder Singh, : The Discovery of Ancient India: Early Archaeologists and the Beginnings of Archaeology

2. V. N. Misra and Peter Bellwood, : Prehistory of India

3. Tony Joseph, : Early Indians: The Story of Our Ancestors and Where We Came From

4. D. P. Agrawal, : Prehistoric India 

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