कश्मीर का भारत-पाकिस्तान विवाद: 1947 का इतिहास और भारतीय सेना की भूमिका

 

कश्मीर का नाम लेते ही ज़ेहन में डल झील की तस्वीर उभरती है, कहवा की महक आती है, वाजवान का जायका आता है।
और बैकग्राउंड में बेमिसाल मूवी का आनंद बक्शी साहब का लिखा गीत

कितनी खूबसूरत यह तस्वीर है,
मौसम बेमिसाल बेनजीर है,
यह कश्मीर है यह कश्मीर है।

लेकिन यही कश्मीर 1947 में भारत और पाकिस्तान के बीच सबसे बड़ा विवाद बन गया।
कश्मीर का भारत-पाकिस्तान विवाद केवल ज़मीन का नहीं था, बल्कि यह दो नए बने देशों की पहचान, राजनीति और अस्तित्व से जुड़ा हुआ था।
आज हम जानेंगे कि कैसे माउंटबेटन, सरदार पटेल, जिन्ना और महाराजा हरि सिंह के फैसलों ने इस विवाद की नींव रखी और किस तरह भारतीय सेना ने निर्णायक भूमिका निभाई।

 

माउंटबेटन का कश्मीर दौरा और कश्मीर का भारत-पाकिस्तान विवाद की शुरुआत

 

VP Menon अपनी किताब The Story of the integration of Indian States मैं लिखते हैं कि माउंटबेटन जून के तीसरे हफ्ते में कश्मीर पहुंचकर महाराजा हरि सिंह को बताते हैं कि कश्मीर का आजाद रहना व्यावहारिक नहीं होगा और ब्रिटिश सरकार कश्मीर को डोमिनियन स्टेटस का दर्जा नहीं दे सकती।माउंटबेटन ने महाराजा हरि सिंह को आश्वासन दिया कि यदि वे 15 अगस्त 1947 तक भारत या पाकिस्तान में से किसी भी तरफ जाने का फैसला लेते हैं तो जिस देश में वो विलय करते है वह देश उनकी हिफाजत करेगा।

 

सरदार पटेल का दृष्टिकोण और जूनागढ़ से कश्मीर का भारत-पाकिस्तान विवाद

 

शुरुआत में सरदार पटेल कश्मीर को भारत में मिलने के पक्ष में नहीं थे। इसका कारण था वहां की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी। पटेल की ज्यादा दिलचस्पी हैदराबाद में थी क्योंकि वह भारत के दक्षिण के बीचोबीच था। वह हैदराबाद को किसी भी कीमत पर पाकिस्तान में नहीं जाने देना चाहते थे।

कश्मीर के प्रति सरदार पटेल के रुख में बदलाव की वजह बना अरब सागर के किनारे बसी छोटी सी रियासत जूनागढ़

जूनागढ़ में पाकिस्तान के द्वारा चलाए गए गंदे चाल की वजह से सरदार पटेल के रुख में सख्ती आई।

 

जिन्ना की कश्मीर यात्रा का प्रयास और विवाद की पृष्ठभूमि

 

24 अगस्त 1947 को फेफड़े की बीमारी से जूझ रहे जिन्ना कुछ दिन के लिए कश्मीर में आराम करना चाह रहे थे । इस संदर्भ में उन्होंने अपने सेक्रेटरी विलियम बर्नी से कहा कि कश्मीर जाकर सितंबर के मध्य में दो सप्ताह तक उनके वहां रहने का प्रबंध कर दे।
जिन्ना यह मानकर बैठे थे की तीन चौथाई से अधिक मुसलमान आबादी वाला कश्मीर पके हुए फल की तरह उनकी गोदी में गिर जायेगा।
लेकिन 5 दिन बाद जब यह अंग्रेज अफसर जो उत्तर लेकर लौटा उसे सुनकर जिन्ना के होश फाख्ता हो गए।
महाराजा हरि सिंह नहीं चाहते थे कि जिन्ना कश्मीर में कदम रखें। जिन्ना को पहली बार कश्मीर को लेकर संकेत मिला कि कश्मीर का घटनाक्रम उनके हिसाब से नहीं चल रहा था जैसा वह सोच कर बैठे थे।

 

पाकिस्तान की गुप्त योजना और कश्मीर का भारत-पाकिस्तान विवाद गहराना

 

अगले 48 घंटे बाद पाकिस्तान सरकार ने एक गुप्तचर को कश्मीर के हालात का जायज़ा लेने के लिए और महाराजा हरि सिंह के इरादों का पता लगाने के लिए वहां भेजा।
गुप्तचर जो समाचार लेकर वापस आया उसने पाकिस्तान के हुक्मरानों के पैरो तले ज़मीन खिसका दी। उसने बताया कि महाराजा हरि सिंह का अपनी रियासत कश्मीर को पाकिस्तान में मिलने का कोई इरादा नहीं है।

सितंबर 1947 के मध्य में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने लाहौर में एक गुप्त बैठक बुलाई। बैठक यह तय करने के लिए बुलाई गई की महाराजा हरि सिंह को पाकिस्तान में विलय करने के लिए कैसे मजबूर किया जाए।

इस बैठक में नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर के मुख्यमंत्री
अब्दुल कय्यूम खान ने सुझाया की पठान कबिलियाई को जेहाद के नाम पर कश्मीर भेजा जाए।
यह बैठक प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की एक कड़ी चेतावनी के साथ समाप्त हुई कि इस मीटिंग की बाते पाकिस्तान की सेना, उसके अंग्रेज अफसर, सरकारी कर्मचारियों किसी को भी इसकी कानों कान भनक न लगने पाए।

 

कश्मीर पर पाकिस्तान का हमला और भारत की प्रतिक्रिया

 

tribal irregulars from the north west frontier on the way to attack kashmir in 1947
1947 में उत्तर-पश्चिम सीमांत से कश्मीर के लिए निकले कबायली हमलावर।

 बेशुमार दौलत और जन्नत की हूरों की उम्मीद में पठान ट्रैकों में भरकर बैठ गए।
और इधर महाराज हरि सिंह की फौज के मुसलमान सिपाहियों ने बगावत कर दी और टेलीफोन की लाइन काट दी।

22 अक्टूबर 1947 को पठानों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। श्रीनगर का रास्ता पठानों के सामने खुला हुआ था। मुजफ्फराबाद से श्रीनगर की 135 मील लंबी पक्की सड़क पर पहरे और निगरानी का कोई इंतजाम नहीं था। इतनी दूरी तो कबिलियाई फौज सूरज निकलने से पहले ही पूरा करना चाहती थी। पर नियति को कुछ और ही मंजूर था।

जब सैराब हयात खान अपनी फौज के साथ श्रीनगर कीओर कूच करने का निश्चय किया तो उसे पता चला कि उसकी फौज तो गायब है, ट्रैकों के पास एक भी पठान नहीं है l
अपने कश्मीरी भाइयों को आजादी दिलाने का उनका जिहाद शुरू हुआ मुजफ्फराबाद के हिंदू बाजारों को लूटपाट करने से और 75 मील का सफर तय करने में उन्हें 48 घंटे लग गए।
लॉर्ड माउंटबेटन और नेहरू को कश्मीर पर पाकिस्तान के आक्रमण के बारे में 24 अक्टूबर को थाईलैंड के विदेश मंत्री के सम्मान में दिए गए भोज के दौरान पता चला । नेहरू यह समाचार सुनकर स्तब्थ रह गए।

 

भारतीय सेना की कार्रवाई और कश्मीर का भारत-पाकिस्तान विवाद का निर्णायक मोड़

 

अगले दिन भारतीय वायु सेवा के एक DC 3 विमान से बीपी मेनन श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरे उनके साथ में थे कर्नल सैम मानकशॉ और वायु सेवा के एक और अधिकारी।
वीपी मेनन ने महाराजा हरि सिंह से साफ कह दिया कि जब तक महाराज विधिवत
विलय के कागजात पर हस्ताक्षर नहीं कर देंगे और अपनी रियासत को कानूनी तौर पर भारत का हिस्सा नहीं बना देंगे तब तक भारत कश्मीर में अपनी फौज नहीं भेजेगा।

लॉर्ड माउंटबेटन ने नेहरू के संकोच के बावजूद उन्हें इस बात के लिए राजी कर लिया कि कश्मीर के विलय के समझौते में एक बुनियादी शर्त यह शामिल कर दी जाए कि भारत में महाराज के रियासत के विलय को अस्थाई समझा जाए।
रियासत के विलय को स्थाई रूप तभी दिया जाएगा जब कश्मीर में शांति और व्यवस्था की स्थापना हो जाने पर, जनमत संग्रह के जरिए यह पता लगा लिया जाए कि कश्मीर की जनता क्या चाहती है।

27 अक्टूबर 1947 को 9 डीसी 3 विमानों से सिख रेजीमेंट के 329 सिपाही और 8 टन फौजी सामान उतारा गया।
माउंटबेटन ने देश में परिवहन के फौजी और गैर फौजी की जितने भी साधन थे वह सभी कश्मीर में फौज और रसद को भेजने में लगा दिए कुछ ही दिनों में एक लाख भारतीय सैनिक कश्मीर में थे।

 

संयुक्त राष्ट्र का हस्तक्षेप और कश्मीर का भारत-पाकिस्तान विवाद अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनना

 

जिन्ना गुस्से से लाल पीले हो रहे रहे थे। उन्होंने पाकिस्तानी फौज के सिपाहियों को कविलियाई पठानों के कपड़े पहन कर कश्मीर में भेजने का आदेश दियाl

अंत में यह लड़ाई संयुक्त राष्ट्र संघ पहुंची, बर्लिन, फिलिस्तीन और कोरिया की तरह विश्व की समस्याओं की सूची में शामिल कर दी गई।

 

निष्कर्ष: कश्मीर का भारत-पाकिस्तान विवाद और दक्षिण एशिया पर इसका प्रभाव

 

कश्मीर केवल एक खूबसूरत घाटी नहीं, बल्कि इतिहास का ऐसा अध्याय है जिसने भारत और पाकिस्तान की दिशा तय की।
माउंटबेटन की सलाह, सरदार पटेल की बदलती रणनीति, जिन्ना की महत्वाकांक्षा और महाराजा हरि सिंह के फैसले, इन सबने मिलकर कश्मीर का भारत-पाकिस्तान विवाद पैदा किया।
1947 में कबायली हमले और भारतीय सेना की निर्णायक कार्रवाई ने इस विवाद को और गहरा कर दिया।
संयुक्त राष्ट्र तक पहुँचे इस मामले ने आने वाले दशकों में दोनों देशों के रिश्तों को प्रभावित किया और आज भी दक्षिण एशिया की राजनीति का केंद्र बना हुआ है।

 

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