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इजराइल 1947 से वर्तमान तक |
बालफ़ोर की चिट्ठी: एक ऐतिहासिक मोड़
किसने सोचा था की 2 नवंबर, 19170 को ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर बालफ़ोर की लिखी चिट्ठी भविष्य में ऐसे जंगो का आगाज़ करेगी, जिसकी तपिश 100 सालो बाद भी मानवता महसूस करेगी।
जब बालफ़ोर ने अंग्रेज सरकार की फिलीस्तीन में यहूदियों के लिए एक नए राष्ट्र के निर्माण करने की नीयत को बयान किया था, उस वक्त फिलीस्तीन में 90% गैर यहूदी रहते थे और अगले 31 सालो में अधिकतर गैर यहूदी फिलीस्तीन से गायब हो गए।
ब्रिटिश साम्राज्य और यहूदियों के लिए वादा
इजराइल की कहानी शुरू होती है एक सवाल से। अंग्रेजों को एक नए देश के निर्माण का वादा क्यों करना पड़ा था?
जवाब साधारण है।
ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की रक्षा के लिए।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार एक तरफ अरब नेताओं से Ottoman साम्राज्य से उनकी आजादी का वादा कर रही थी, वही अंग्रेज यूरोप के यहूदियों से फिलिस्तीन में Jewish Homeland का भी वादा कर रहे थे।
1917 तक अंग्रेजों को पता चल चुका था कि Ottoman साम्राज्य का पतन निश्चित है इसलिए वह पूरब और पश्चिम के व्यापार को जोड़ने वाली स्वेज नहर के मुहाने Red Sea में वो अपना एक अड्डा चाहते थे।
मार्क्सवाद का प्रभाव
दूसरा, मई 1917 में रूस में बोल्शेविक क्रांति हो चुकी थी। मार्क्स का सिद्धांत धरातल पर उतारा जा चुका था। इससे पहले मार्क्सवाद अन्य देशों में अपने पैर फैलाए, पूंजीवादी ताकतें पूरे विश्व में अपनी अपनी किलेबंदी में लग गईं थी। जैसे अमेरिका विश्व युद्ध के खत्म होते ही एक बार फिर “मुनरो सिद्धांत” की शरण में चला गया।
ये मुनरो सिद्धांत क्या है ?
“मुनरो सिद्धांत” (Monroe Doctrine) संयुक्त राज्य अमेरिका की लैटिन अमेरिका के प्रति दीर्घकालिक विदेश नीति की रूपरेखा को परिभाषित करता है। यह सिद्धांत 2 दिसंबर 1823 को अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स मुनरो द्वारा अमेरिकी कांग्रेस के समक्ष दिए गए भाषण से उत्पन्न हुआ।
इस सिद्धांत के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका यूरोप के देशों की आपसी राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करेगा, लेकिन बदले में महाअमेरिका (लैटिन अमेरिका और उत्तरी अमेरिका) में किसी भी यूरोपीय साम्राज्य विस्तार का विरोध करेगा। इस नीति ने “अमेरिका अमरीकियों के लिए” का नारा जन्म दिया, जो पश्चिमी गोलार्ध में यूरोपीय हस्तक्षेप को रोकने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
ब्रिटेन का कब्जा
वापस फिलीस्तीन पर आते है।
आर्थर बालफ़ोर के चिट्ठी लिखने के एक महीने बाद ही ब्रिटेन ने फिलीस्तीन में Ottoman साम्राज्य के 400 सालो के शासन का अंत कर के उसे अपने कब्जे में ले लिया।
फिलिस्तीन में उस वक्त बहुसंख्यक अरबों के साथ कुछ ईसाई और यहूदी रहते थे। हालांकि एक नगण्य संख्या यूरोपीय यहूदियों की भी थी जो साल 1800 के करीब वहां आ कर बस गए थे।
वे उस वक्त यूरोप में इसाई समुदाय द्वारा उन पर किए जा रहे उत्पीड़न से तंग आ कर फिलीस्तीन में आ कर बस गए थे।
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थियोडोर हर्ज़्ल (Theodar Herzl) |
जियोनिज्म (Zionism) का उदय
यहूदियों के लिए अलग राष्ट्र निर्माण की विचारधारा को जियोनिज्म (Zionism) कहते हैं। उन्नीसवीं सदी के अंत तक इस विचारधारा का अस्तित्व यूरोप में न के बराबर था। बहुत से यूरोपीय यहूदी यह सोचते थे कि पीढ़ियों से उनके पूर्वज यूरोप में ही रहते रहे हैं, इसलिए उन्हें अपने पुरखों की जमीन छोड़कर फिलीस्तीन जाने की जरूरत नहीं है।
लेकिन जियोनिस्म (Zionism) एक राजनैतिक आंदोलन के तौर पर तब उभरा जब एक ऑस्ट्रियाई आदमी थियोडोर हर्ज़्ल (Theodar Herzl) ने साल 1896 में एक किताब डेर जूडेनस्टैट (Der Judenstaat) निकला। इस किताब में उसने कहा अगर यहूदियों को यूरोप के ईसाइयों से बचाना है तो उन्हें न केवल यूरोप छोड़ना होगा बल्कि उन्हें अपने लिए एक नए राज्य का निर्माण करना होगा।
पहला जियोनिस्ट सम्मेलन
अगले साल 1897 में उसने स्विट्जरलैंड के बेसिल शहर में एक कांफ्रेंस का आयोजन किया First Zionist Conference. इस कांफ्रेंस में फिलिस्तीन में यहूदियों को बसाना और वहां Jewish Homeland की स्थापना करने का प्रस्ताव पारित हुआ।
इस जियोनिस्ट आन्दोलन (Zionist Movement) ब्रिटिश सरकार में कुछ दोस्त मिल गए। ब्रिटिश सरकार कुछ उच्च अधिकारी इस Zionist Movement को सपोर्ट करने लगे। जैसे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज, जो एक ईसाई थे और वो ये सोचते थे की यहूदियों को फिलिस्तीन में बसाने से ईसा मसीह वापस धरती पर आ जायेंगे।
दूसरा बलफोर जैसे लोग जो ये सोचते थे की यहूदियों को यूरोप से बाहर भेजना और उनके लिए उनके सपनों के देश का निर्माण करवाना अच्छी बात होगी।
ब्रिटिश मैन्डेट और फिलीस्तीन का भविष्य
ये तो विचारधारा का बैकग्राउंड हुआ, अब वापस 1917 में आते हैं।
प्रथम विश्व युद्ध खत्म होने के बाद विजेता देश ने लीग ऑफ नेशन की स्थापना की ताकि युद्ध में हारे हुए देशों की कालोनियों को आपस में ठीक तरह से बांट सकें इसको मैंडेट सिस्टम (Mandate System) कहा गया।
इस मैंडेट सिस्टम के अंतर्गत जर्मनी और ऑटोमन साम्राज्य के अधिपति वाले इलाकों को ब्रिटेन और फ्रांस के अधीन कर दिया गया। मैंडेट सिस्टम में ये बात कही गई की ये इलाके ब्रिटेन और फ्रांस के अधीन तब तक रहेंगे जब तक ये आज़ाद नहीं कर दिए जाते। इसी के अंतर्गत फिलिस्तीन भी ब्रिटेन के हिस्से में आया। बिना फिलिस्तीन के लोगो से पूछे, बिना उनकी राय जाने।
फिलिस्तीन का ब्रिटेन के अधीन आते ही उसे बालफोर घोषणा (Balfour Decleration) का जामा पहलाना आसान हो गया। अब यूरोपिय यहूदी समुदाय का फिलिस्तीन की तरफ आप्रवास (immigration) बढ़ गया।
फिलीस्तीनियों की प्रतिक्रिया
एक बात तो साफ हो गई थी की मैंडेट प्रणाली के अंतर्गत ब्रिटेन, फिलिस्तीन को आज़ादी नहीं देने वाला था। बल्कि वो फिलिस्तीनियों के देश को ही किसी और को देने की फिराक में था।
1936 में फिलिस्तीनी जनता ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हड़ताल पर चली गई। ब्रिटिश सरकार ने हड़ताल को तुड़वाने के लिए गिरफ्तारी, यातना और सामूहिक सज़ा का सहारा लिया।
फिलिस्तीन भी उग्र हो गए हुए ब्रिटिश और यहूदियों ठिकानों पर हमला करना शुरू कर दिया। दूसरी तरफ यहूदी मिलिशिया, जिन्हें हगनाह (Haganah) कहा जाता था, अंग्रेजो के साथ मिल कर फिलिस्तीनी गांवों पर हमले शुरू कर दिए। माहौल खराब होता जा रहा था।
लॉर्ड पील का कमीशन
अंग्रेज सरकार ने इस बिगड़ती स्थिति के समाधान के लिए लॉर्ड पील के नेतृत्व में फिलिस्तीन रॉयल कमीशन का गठन किया।
इस कमीशन ने फिलीस्तीन को दो भागों में विभाजित करने का सुझाव दिया। एक भाग यहूदियों के लिए और दूसरा भाग फिलिस्तीनियों के लिए। अब चुकीं फिलिस्तीनी अभी भी अपने देश में बहुसंख्यक थे तो ढाई लाख फिलिस्तीनियों को विस्थापित करके ही यहूदी राज्य का निर्माण संभव था।
समस्याएं और श्वेत पत्र
साल 1939, तक देश की 10% व्यस्क पुरुष जनसंख्या या तो मार दी गई थी, या घायल या जेलों में बंद।
ब्रिटिश सरकार को जल्दी ही इस समस्या का समाधान चाहिए था। इसलिए वो एक नई रिपोर्ट के साथ आते है।
इस नए कमीशन ने ब्रिटिश अधिकार वाले फिलिस्तीनी क्षेत्रों में 20 साल पुराने यहूदी बस्तियों पर शोध कर के अपनी रिपोर्ट दी।
1939 में नए कमीशन के सिफारिश के आधार पर ब्रिटिश सरकार एक श्वेत पत्र लाती है। श्वेत पत्र के आते ही पहली बार यहूदियों और अंग्रेजों के बीच तल्खी नज़र आने लगती है। क्योंकि इस श्वेत पत्र में फिलिस्तीन के बंटवारे को नकार दिया गया था, और अगले 10 सालो में फिलिस्तीन को आज़ादी देने की बात कही गई थी। यहूदी प्रवास और यहूदियों द्वारा जमीनें खरीदने के संबंध में सीमा तय कर दी गई थी।
यहूदियों को लगा की उनके साथ धोखा हुआ है। उन्होंने पूरे फिलिस्तीन में बम धमाके किए जिससे दर्जनों फिलिस्तीनियों की मृत्यु हुई।
द्वितीय विश्व युद्ध का प्रभाव
तभी समय ने करवट ली और यूरोप में कुछ बड़ा हुआ, जिससे पूरी दुनिया का ध्यान us तरफ चला गया। यूरोप में जर्मनी के चांसलर हिटलर ने दूसरे विश्व युद्ध का आगाज़ कर दिया था। इस युद्ध में 6 करोड़ लोग मारे गए थे, जिसमे 60 लाख लोग हिटलर की यातनाओं के द्वारा मारे गए यहूदी थे।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजियों द्वारा की गई यहूदी नरसंहार (होलोकॉस्ट) ने यहूदी समुदाय में अलग राष्ट्र की आवश्यकता को और बल दिया। यूरोप में हुए उत्पीड़न के बाद इज़राइल की ओर यहूदी प्रवास तेजी से बढ़ा। युद्ध के बाद कई पश्चिमी देशों ने भी इज़राइल के निर्माण का समर्थन किया, खासकर संयुक्त राज्य अमेरिका ने।
यहूदियों को दो बातें पता थी। पहली, उनके पास फिलिस्तीनियों के मुकाबले बेहतर सैनिक और हथियार थे और वह संगठित थे। दूसरा, ब्रिटिश द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कमजोर हो चुके थे उनके पास इतने संसाधन अब नहीं बचे थे कि वह अपनी कभी भी सूरज ना डूबने वाले साम्राज्य को संभाल सके।
साल 1947 में मैंडेट प्रणाली (Mandate System) के अंतर्गत फिलिस्तीन पर कब्जा करने के 30 साल बाद ब्रिटेन ने वहां से निकलने की घोषणा कर दी, और नवगठित संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nation) से फिलिस्तीन में खुद के फैलाए हुए रहते को समेटने के लिए कहा।
ब्रिटिश कब्जे के दौरान इन 30 वर्षों में फिलिस्तीन में यहूदियों की आबादी 10% से बढ़कर 30% हो गई थी और वह देश के 6% हिस्से के मालिक बन चुके थे।
इस दौरान, डेविड बेन गुरियन (David Ben Gurion) के नेतृत्व में एक यहूदी एजेंसी का गठन किया गया, जो यहूदी बस्तियों में समानांतर सरकार के रूप में कार्य करने लगी। इस एजेंसी ने द्वितीय विश्व युद्ध में भाग लेने वाले हजारों सैनिकों और अधिकारियों की एक यहूदी मिलिशिया का गठन किया।
पिछले 30 सालो में अंग्रेजो ने फिलिस्तीनियों को सैनिक संगठन के गठन की बात तो दूर रही, उन्हें तो सिविल प्रशासन में आने की छूट नही दी थी।
संयुक्त राष्ट्र और फिलिस्तीन का विभाजन
नवंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्र, जो उस वक्त दुनिया के मुट्ठी भर देशों का संगठन था, उसने फिलिस्तीन के बंटवारे पर मोहर लगा दी।
इस बंटवारे में 55% देश को यहूदी देश मान लिया गया जबकि वहां रह रही आदि से ज्यादा आबादी फिलिस्तीनी मुसलमान की थी।
फिलिस्तीनियों और अरब राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्र के इस प्लान को नकार दिया।
लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका और कई पश्चिमी देशों ने फौरन इज़राइल को आधिकारिक मान्यता दी। इज़राइल के निर्माण के समय, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इज़राइल को आर्थिक और सैन्य सहायता भी मिली, विशेष रूप से अमेरिका से।
डेविड बेन गुरियन ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को एक अवसर की तरह देखा और अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वह फौरन उन इलाकों पर कब्जा कर ले जिसे संयुक्त राष्ट्र ने उनको देने की पेशकश की है और वहां मौजूद फिलिस्तीन आबादी को बाहर निकाले।
फिलिस्तीनी संघर्ष और यहूदी मिलिशिया
यहूदियों द्वारा गठित मिलिशिया संगठनों, जैसे हगनाह और इरगुन, ने न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष किया बल्कि फिलिस्तीनियों के खिलाफ भी सशस्त्र संघर्ष किया। हगनाह की गतिविधियों ने डेर यासीन जैसे नरसंहारों को अंजाम दिया, जिसने फिलिस्तीनी समुदाय में भय पैदा किया और बड़े पैमाने पर पलायन को प्रेरित किया।
डेर यासीन नरसंहार
9 अप्रैल 1948 को फिलिस्तीन के गांव डेर यासीन में यहूदियों ने सभी बुजुर्ग, महिलाओं और बच्चों को लाइन में नंगा खड़ा करके गोलियों से भून दिया।
यह वही यहूदी थे जो 4 साल पहले यूरोप में हिटलर की बर्बरता का शिकार हुए थे,और अब यह खुद फिलिस्तीन महिलाओं और मासूम बच्चों पर रहम नहीं कर रहे थे।
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डेविड बेन गुरियन इजरायल के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते हुए। |
इजराइल राज्य की स्थापना
15 नवंबर 1948 जब तक ब्रिटिश मैंडेट प्रणाली फिलिस्तीन में खत्म हुआ, तब तक ढाई लाख फिलिस्तीनी अपने ही देश में शरणार्थी बन गए थे।
जिस समय डेविड बेन गुरियन (David Ben Gurion) ने इजराइल राज्य के गठन और खुद को उसके पहले प्रधानमंत्री बनने की घोषणा की वो थियोडोर हर्ज़्ल (Theodar Herzl) की बड़ी सी तस्वीर के नीचे खड़े थे। ठीक 51 साल पहले जिस राज्य के गठन का सपना थियोडोर हर्ज़्ल ने देखा था वो साकार हो चुका था।
इज़राइल के स्वतंत्रता युद्ध और अरब-इज़राइल संघर्ष
1948 में इज़राइल के गठन की घोषणा के तुरंत बाद, अरब देशों ने इज़राइल पर हमला किया। इस संघर्ष को प्रथम अरब-इज़राइल युद्ध कहा जाता है। युद्ध में इज़राइल ने न केवल अपने घोषित क्षेत्र को सुरक्षित किया, बल्कि अतिरिक्त क्षेत्रों पर भी कब्जा कर लिया। इस युद्ध के दौरान लगभग 7 लाख फिलिस्तीनी अपने घरों से विस्थापित हो गए, जिसे “नकबा” (विनाश) कहा जाता है। इस संघर्ष ने इज़राइल और अरब राष्ट्रों के बीच लंबे समय तक चले शत्रुता का बीज बोया, जो आज भी जारी है।