सिंधु घाटी की सभ्यता: एक प्राचीन समृद्धि का अवलोकन
बीसवीं सदी के प्रारंभ में, जब दुनिया को अपनी सभ्यताओं के प्राचीनतम स्वरूप के बारे में जानकारी कम थी, तब तक यह विश्वास था कि वैदिक सभ्यता भारत की सबसे पुरानी थी। परंतु, 1920 के दशक में, जब पुरातत्त्वशास्त्रियों ने सिंधु घाटी में खुदाई शुरू की, तो भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ा, और “सिंधु घाटी सभ्यता” या “हड़प्पा सभ्यता” ने हमें अपनी उपस्थिति का एहसास कराया। यह सभ्यता न केवल भारतीय इतिहास में एक नया मोड़ थी, बल्कि यह समृद्धि, व्यापार, विज्ञान और कला में भी एक अविस्मरणीय कीर्तिमान स्थापित करती है

हड़प्पा और मोहनजोदड़ो का रहस्य: दो खोई हुई दुनिया
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो, दो नाम जो अब इतिहास के पन्नों में अमर हो चुके हैं, कभी हज़ारों वर्षों पहले जिन शहरों ने समृद्धि और सभ्यता के नए मानक स्थापित किए थे। हड़प्पा की खोज सबसे पहले 1826 में चार्ल्स मेसन ने की थी, लेकिन इसका पुरातात्विक महत्व 1920 के दशक में समझ में आया। 1853 और 1873 में जनरल कनिंघम ने हड़प्पा का सर्वेक्षण किया, लेकिन पुरातत्त्ववेत्तो को इसका सही ऐतिहासिक महत्व समझने के लिए कई दशकों का समय लगा। जब 1921 में रायबहादुर दयाराम साहनी ने इस स्थल पर पुनः खुदाई की, तो कई अद्भुत वस्तुएं सामने आईं, जैसे ताम्र-मुद्राएँ, पक्की ईंटों से निर्मित भवन और अद्वितीय नगर-योजना, जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि यह सभ्यता कितनी उन्नत थी।
इसी तरह मोहनजोदड़ो की खोज 1922 में राखालदास बनर्जी ने की, और बाद में सर जान मार्शल के नेतृत्व में वहां खुदाई के दौरान प्राप्त वस्तुएं, जैसे मूर्तियाँ और मुद्राएँ, हमें उस काल की कलात्मकता और व्यापारिक कौशल का प्रमाण देती हैं। उन्होंने इसे “मृतकों का टीला” (Mound of the Dead) कहा। इसके बाद, 1922 से 1930 तक, सर जान मार्शल के नेतृत्व में यहाँ खुदाई की गई। इन दोनों स्थलों से प्राप्त अवशेषों ने यह सिद्ध किया कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो एक ही सभ्यता के दो प्रमुख केन्द्र थे। यह सभ्यता न केवल स्थापत्य और कला में प्रवीण थी, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी अत्यधिक समृद्ध थी।
सिंधु घाटी की सभ्यता: फैलाव और विविधता
सिंधु घाटी सभ्यता का विस्तार केवल सिंधु नदी तक सीमित नहीं था, बल्कि यह पाकिस्तान के बलूचिस्तान, पंजाब और सिन्ध क्षेत्रों में फैला था, और भारत के विभिन्न हिस्सों में भी इसके अवशेष पाए गए। कालीबंगन और लोथल जैसे स्थल, जो आज भारत के विभिन्न हिस्सों में स्थित हैं, इस बात का प्रमाण हैं कि सिंधु सभ्यता की पहुंच समुद्र तट से लेकर घाटी और रेगिस्तानों तक थी। इन स्थलों की खोज से पता चलता है कि सिंधु घाटी सभ्यता का विस्तार लगभग 12 लाख 15 हजार वर्ग किलोमीटर था।
राहों और संस्कृतियों का संगम:
लोथल, एक प्राचीन बंदरगाह नगर, सिंधु घाटी सभ्यता के समुद्री व्यापार का प्रमाण प्रस्तुत करता है। इस स्थल पर खुदाई से मिलने वाले कांच और स्फटिक के बने आभूषण, यह दर्शाते हैं कि यहां के लोग व्यापार में न केवल दक्ष थे, बल्कि उन्होंने विदेशी सामग्री का आयात भी किया। यहाँ की कांच की वस्तुएं, जो अब एक दुर्लभ खजाना बन चुकी हैं, उस समय के व्यापारिक संबंधों की गहरी कहानियाँ बताती हैं। क्या यह दृश्य कल्पना से बाहर नहीं लगता, जब हम सोचते हैं कि हड़प्पा और मेसोपोटामिया के बीच व्यापारिक नेटवर्क एक समय अस्तित्व में था, और इस नेटवर्क ने मानवता को एक दूसरे से जोड़ने का कार्य किया?
सिंधु घाटी की वास्तुकला: उत्कृष्टता की मिसाल
यह सभ्यता जितनी उन्नत थी, उतनी ही उसकी वास्तुकला और नगर योजना भी थी। सिंधु सभ्यता के नगरों में पानी की निकासी के उत्तम उपाय, नियमित गलियाँ, पक्की ईंटों से बने घर, और स्नानागारों के अवशेष यह सिद्ध करते हैं कि वे शहरी जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में निपुण थे। मोहनजोदड़ो के बड़े स्नानागार का उदाहरण लें, जिसे ‘ग्रेट बाथ’ कहा जाता है, यह जल निकासी और स्वच्छता के प्रति उनकी समझ को दर्शाता है। क्या यह नहीं लगता कि हमारी वर्तमान सभ्यता का जो स्वच्छता और जल प्रबंधन के लिए आदर्श है, वह कहीं न कहीं सिंधु घाटी के समर्पण का ही परिणाम है?
संस्कृति और व्यापार: मानवता की साझी धरोहर
सिंधु घाटी सभ्यता का सांस्कृतिक महत्व अत्यधिक गहरा है। यहां के लोग न केवल व्यापार में कुशल थे, बल्कि कला, विज्ञान, और लेखन के क्षेत्र में भी अग्रणी थे। सिंधु सभ्यता का लेखन प्राचीनतम ज्ञात लिपि में से एक था, जिसे आज भी पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है। फिर भी, हम जितना जान पाते हैं, उतना यह समझ आता है कि वे लोग अपनी भावनाओं, कार्यों और सांस्कृतिक परंपराओं को अत्यधिक संरचित तरीके से व्यक्त करते थे।
सिंधु सभ्यता के लोग व्यापार और समाज में विविधता को महत्व देते थे, जो उनके कला रूपों, जैसे मूर्तिकला और आभूषणों में साफ़ झलकता है। एक उदाहरण के रूप में, मोहनजोदड़ो से मिली नृत्य करती हुई महिला की मूर्ति यह प्रमाणित करती है कि कला न केवल उनके जीवन का हिस्सा थी, बल्कि यह उनके सामाजिक रीति-रिवाजों का भी अभिन्न हिस्सा थी।
सैन्धव सभ्यता की उत्पत्ति
सैन्धव सभ्यता के उद्भव और विकास को लेकर विद्वानों में भारी मतभेद हैं। आश्चर्यजनक रूप से, इस सभ्यता के जो अवशेष पाए गए हैं, वे अपनी पूरी विकसित अवस्था में हैं, जिससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि इस सभ्यता की शुरुआत कैसे और कहाँ हुई। अब तक की खोजों ने इस प्रश्न पर कोई स्पष्ट प्रकाश नहीं डाला है।
सुमेरियन सभ्यता से उत्पत्ति का सिद्धांत
कुछ पुरातत्वविदों, जैसे सर जॉन मार्शल, गार्डन चाइल्ड, और सर मार्टीमर हीलर का मानना है कि सैन्धव सभ्यता की उत्पत्ति मेसोपोटामिया की सुमेरियन सभ्यता से हुई। उनके अनुसार, सुमेरियन सभ्यता सैन्धव सभ्यता से प्राचीन थी। इन दोनों सभ्यताओं में कुछ समानताएँ पाई जाती हैं, जैसे:
1. दोनों नगरीय (Urban) सभ्यताएँ थीं।
2. दोनों सभ्यताएँ कांसे और तांबे के साथ-साथ पाषाण के लघु उपकरणों का उपयोग करती थीं।
3. दोनों सभ्यताओं में कच्ची और पक्की ईंटों से निर्मित भवन पाए गए थे।
4. दोनों सभ्यताओं के लोग चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाते थे।
5. दोनों सभ्यताओं को लिपि का ज्ञान था।
इन समानताओं के आधार पर, हीलर ने सैन्धव सभ्यता को सुमेरियन सभ्यता का एक उपनिवेश (Colony) बताया था। हालांकि, जब गहराई से विचार किया जाता है, तो यह मत पूरी तरह से तर्कसंगत नहीं लगता। क्योंकि सैन्धव और सुमेरियन सभ्यताओं में बहुत सी मौलिक विषमताएँ भी हैं, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
सैन्धव और सुमेरियन सभ्यताओं में भिन्नताएँ
सैन्धव सभ्यता की नगर-योजना सुमेरियन सभ्यता से कहीं अधिक सुव्यवस्थित थी। दोनों के बर्तनों, उपकरणों, मूर्तियों और मुहरों में भी आकार और प्रकार में भिन्नताएँ थीं। यही नहीं, दोनों की लिपियाँ भी परस्पर अलग थीं। सुमेरियन लिपि में 900 अक्षर होते थे, जबकि सैन्धव लिपि में सिर्फ 400 अक्षर मिलते हैं। इसलिए, इन दोनों सभ्यताओं को समान मानना सही नहीं होगा।
आर्य और सैन्धव सभ्यता
कुछ अन्य विद्वान, जैसे प्रो. टी. एन. रामचन्द्रन, के. एन. शास्त्री, पुसाल्कर और एस. आर. राव का मानना है कि सैन्धव सभ्यता के निर्माता वैदिक आर्य थे। लेकिन कई विद्वान इस विचार से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि सैन्धव और वैदिक सभ्यताओं के रीति-रिवाजों, धार्मिक मान्यताओं और आर्थिक परंपराओं में काफी अंतर था।
सैन्धव और वैदिक सभ्यताओं के बीच अंतर
1. वैदिक सभ्यता ग्रामीण और कृषि प्रधान थी, जबकि सैन्धव सभ्यता नगरीय और व्यापारिक थी। वैदिक आर्य कच्चे मकान बनाते थे, जबकि सैन्धव लोग पक्की ईंटों से मकान बनाते थे।
2. सैन्धव सभ्यता में पाषाण और कांसे के उपकरणों का उपयोग होता था, लेकिन वे लोहे से अपरिचित थे। वहीं, वैदिक आर्य लोहे का इस्तेमाल करते थे।
3. सैन्धव लोग मातादेवी और शिव की पूजा करते थे, जबकि वैदिक आर्य इंद्र, वरुण आदि देवताओं की पूजा करते थे। सैन्धव लोग लिंग पूजा करते थे, जबकि वैदिक आर्य मूर्ति पूजा के विरोधी थे।
4. सैन्धव लोग अश्व से अपरिचित थे, जबकि वैदिक आर्य अश्व के साथ युद्धों में विजय प्राप्त करते थे।
5. सैन्धव लोग वृषभ को पवित्र मानते थे, जबकि वैदिक आर्य गाय को ‘अघ्न्या’ मानते थे।
6. सैन्धव सभ्यता में अपनी लिपि थी, जबकि वैदिक सभ्यता मौखिक थी और लिपि से अपरिचित थी।
सैन्धव सभ्यता में यज्ञ और घोड़े
कुछ सैन्धव स्थलों, जैसे लोथल और कालीबंगन से यज्ञीय वेदियाँ प्राप्त हुई हैं। इसी तरह, मोहनजोदड़ो से मिट्टी की घोड़े की आकृति, लोथल से घोड़े की तीन मूर्तियाँ, और सुरकोटड़ा से घोड़े की हड्डियाँ मिली हैं। ऋग्वेद में भी ‘पुर’ शब्द का उल्लेख हुआ है, जो दुर्गीकृत नगर को दर्शाता है। इन सभी तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि सैन्धव सभ्यता में नगरीय तत्व और यज्ञीय अनुष्ठान भी प्रचलित थे।
सैन्धव सभ्यता के निर्माता कौन थे?
कुछ विद्वान मानते हैं कि सैन्धव सभ्यता के निर्माता द्रविड़ भाषी लोग थे। सुनीति कुमार चटर्जी ने भाषाविज्ञान के आधार पर यह सिद्ध किया कि ऋग्वेद में जिन दास-दस्युओं का उल्लेख हुआ है, वे द्रविड़ भाषी थे। इसलिए, उन्होंने सैन्धव सभ्यता का श्रेय द्रविड़ों को दिया। हालांकि, यह निष्कर्ष भी पूरी तरह से सिद्ध नहीं है, क्योंकि यदि द्रविड़ लोग सैन्धव सभ्यता के निर्माता होते, तो हमें द्रविड़ क्षेत्र से इस सभ्यता के अवशेष मिलने चाहिए थे, जो कि नहीं मिले।
द्रविड़, आर्य, और मिश्रित उत्पत्ति
स्टुअर्ट पिग्गट, अल्चिन, फेयरसर्विस, और जे. एफ. देल्स जैसे कुछ विद्वानों का मानना है कि सैन्धव सभ्यता की उत्पत्ति दक्षिणी अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, सिन्ध, पंजाब और उत्तरी राजस्थान के क्षेत्रों से हुई। इन क्षेत्रों में पाषाण- और कांस्य-युगीन संस्कृतियों का अस्तित्व था, जैसे मुंडीगा, मोरासो घुडई, जाब, क्वेटा, कुल्ली, नाल, आमरी, कोटडोजो, हड़प्पा और कालीबंगन। इन संस्कृतियों के लोग कृषि और पशुपालन करते थे और मिट्टी के बर्तनों का निर्माण करते थे। इन संस्कृतियों में पशु और नारी मूर्तियाँ भी मिलती हैं। बलूचिस्तान में मातादेवी और लिंग पूजा के प्रमाण भी मिलते हैं।
इन संस्कृतियों में चित्रकला, जैसे पीपल की पत्ती, हिरण, और त्रिभुज के प्रतीक, सैन्धव सभ्यता के बर्तनों पर भी पाए गए हैं। इससे यह संभावना जताई जाती है कि सैन्धव सभ्यता का विकास इन पूर्ववर्ती संस्कृतियों से हुआ। हालांकि, इन संस्कृतियों में पक्की ईंटों का प्रयोग और लिपि का उपयोग नहीं था, जो सैन्धव सभ्यता की विशेषता है।
निष्कर्ष: प्राचीन सभ्यता की महिमा
वर्तमान में, यह प्रश्न कि सैन्धव सभ्यता के निर्माता कौन थे, पूरी तरह से हल नहीं हुआ है। यह संभावना हो सकती है कि सैन्धव सभ्यता के निर्माता विभिन्न जातियों का मिश्रण रहे हों, जिन्होंने अपने सांस्कृतिक तत्वों को एकत्रित कर लिया। इस प्रश्न का अंतिम निर्णय भविष्य में होने वाली खुदाइयों से ही संभव हो सकता है।
यह सभ्यता सिर्फ अपनी समृद्धि के लिए नहीं, बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने प्राचीन भारत के इतिहास को नया मोड़ दिया। सिंधु घाटी सभ्यता का क्षेत्रफल मेसोपोटामिया और मिस्र की सभ्यताओं से कहीं अधिक था। यह अत्यधिक व्यवस्थित और विकसित थी। इसके साक्ष्य यह साबित करते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीन समय में ही एक समृद्ध और संगठित सभ्यता का विकास हुआ था।
इस सभ्यता के उत्खनन से भारतीय इतिहास को एक नई दिशा मिली है, और यह साबित हुआ कि भारत भी प्राचीन विश्व की महान सभ्यताओं के समान एक समृद्ध संस्कृति का हिस्सा था। सिंधु घाटी सभ्यता, एक इतिहास की धरोहर, जो आज भी अनगिनत सवालों और अवशेषों के रूप में हमारे सामने खड़ी है, हमें यह याद दिलाती है कि मानवता की शुरुआत और विकास में हमारी कड़ी मेहनत, सहकारिता और सोच की शक्ति का अहम योगदान था।
Further Reference
1. A.L. Basham : The Wonder that was India.
2. S.P. Gupta : The lost Sarasvati and the Indus Civilisation.
3. B.B. Lal : India 1947–1997: New Light on the Indus Civilization.
4. Irfan Habib : The Indus Civilization.
5. Shereen Ratnagar : Understanding Harappa: Civilization in the Greater Indus Valley.