सैंधव सभ्यता: भारतीय सभ्यता की नींव और धार्मिक प्रभाव

 

सैंधव सभ्यता (Indus Valley Civilization) प्राचीन भारतीय इतिहास की एक प्रमुख और सबसे प्रभावशाली सभ्यता रही है, जिसका अनुसंधान आज भी जारी है। इस सभ्यता ने न केवल भारतीय संस्कृति को आकार दिया, बल्कि वैश्विक स्तर पर सभ्यता के विकास के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। सैंधव सभ्यता की खोज से यह सिद्ध हुआ कि भारतीय सभ्यता की जड़ें हजारों साल पुरानी हैं, और इसकी पहचान भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्वों से जुड़ी हुई है।

 

Harappan pottery featuring a pipal tree leaf motif, showcasing ancient design influences on Hindu traditions.
पिपल के पत्ते से सुसज्जित प्राचीन हड़प्पा काल की मिट्टी का बर्तन, जो हिंदू परंपराओं पर हड़प्पन संस्कृति के प्रभाव को दर्शाती है।

 

सैंधव सभ्यता की देन 

 

सैंधव सभ्यता, जिसे हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है, भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे पुरानी और प्रमुख सभ्यताओं में से एक थी। यह सभ्यता लगभग 3000-2500 ई.पू. के बीच अस्तित्व में रही और भारतीय इतिहास और संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। सैंधव सभ्यता की खोज ने भारतीय इतिहास को निरंतरता प्रदान की और यह सिद्ध किया कि आर्यों के आगमन से पहले ही भारतीय समाज में उन्नत जीवनशैली और संगठित संस्कृति मौजूद थी। इस लेख में हम सैंधव सभ्यता के धर्म, सामाजिक व्यवस्था, कला, और शासन के बारे में चर्चा करेंगे, और देखेंगे कि कैसे इस सभ्यता ने भारतीय संस्कृति और धर्म पर स्थायी प्रभाव छोड़ा।

 

सैंधव सभ्यता और भारतीय इतिहास: संस्कृति, धर्म, और समाज पर प्रभाव

 

सैंधव सभ्यता ने भारतीय इतिहास को एक नई दिशा दी। पहले यह माना जाता था कि आर्य सभ्यता के आगमन के समय तक भारतीय संस्कृति में कोई संगठित इतिहास नहीं था, लेकिन सैंधव सभ्यता की खोज ने इस धारणा को पूरी तरह से बदल दिया। इस सभ्यता की पुरानी सभ्यता का प्रमाण हमें 3000-2500 ई.पू. तक मिलता है, जबकि आर्यों का आगमन लगभग 1500 ई.पू. माना जाता है।

पुराणों में भारत का इतिहास प्रलय के बाद से शुरू होने का उल्लेख है, लेकिन सैंधव सभ्यता प्रलय के बाद की है, इसलिए यह स्पष्ट होता है कि सैंधव सभ्यता से लेकर महाभारत युद्ध (लगभग 1400 ई.पू.) तक भारतीय इतिहास में निरंतरता थी। इसका मतलब यह हुआ कि भारतीय सभ्यता में कोई व्यवधान नहीं था, और सैंधव सभ्यता का प्रभाव भारतीय समाज और संस्कृति पर गहरा था।

 

सैंधव सभ्यता का सामाजिक जीवन: चातुर्वर्ण व्यवस्था और सामाजिक संरचना

 

सैंधव सभ्यता के सामाजिक जीवन को एक संगठित ढांचे में देखा जा सकता है। मोहनजोदड़ों की खुदाई से मिले अवशेषों के अनुसार, सैंधव समाज में चार प्रमुख वर्ग थे: विद्वान, योद्धा, व्यापारी और शिल्पकार-श्रमिक। इन वर्गों को बाद में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में पहचान लिया गया।

इस प्रकार, सैंधव सभ्यता ने भारतीय समाज की चातुर्वर्ण व्यवस्था की नींव रखी। यह व्यवस्था बाद में हिंदू धर्म के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके अलावा, सैंधव सभ्यता में लिंग आधारित भेदभाव और श्रम विभाजन की संभावना भी जताई जाती है, जो कि बाद के भारतीय समाज का एक अहम हिस्सा बन गया।

 

सैंधव सभ्यता का आर्थिक जीवन: व्यापार, उद्योग और कृषि 

 

सैंधव सभ्यता का आर्थिक जीवन अत्यधिक संगठित था। यहां कृषि, पशुपालन, उद्योग, व्यापार और वाणिज्य की अच्छी व्यवस्था थी। सैंधव लोग बाहरी दुनिया से भी जुड़े हुए थे और व्यापार करते थे। उनकी मुद्राओं पर अंकित चिह्न और प्रतीक, जो सैंधव लिपि से मिलते हैं, यह दर्शाते हैं कि उनके पास व्यापार के लिए मानक माप और मुद्राएँ थीं।

यह सभ्यता व्यापार के लिए एक विस्तृत नेटवर्क स्थापित करने में सक्षम थी, जो भारतीय सभ्यता के लिए बाद में एक महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग बन गया। साथ ही, सैंधव लोगों ने औजारों और धातु के वस्त्रों का निर्माण भी किया, जो उनकी उद्योग और शिल्प कला का प्रमाण है।

 

सैंधव धर्म और हिंदू धर्म का आदिक रूप: देवी-देवताओं की पूजा और धार्मिक परंपराएँ 

 

सैंधव सभ्यता के धार्मिक विश्वासों का हिंदू धर्म पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस सभ्यता में मातृदेवी की पूजा का विशेष स्थान था, जिसे बाद में शक्ति देवी के रूप में विकसित किया गया। मातृ पूजा की परंपरा आज भी हिंदू धर्म में शक्ति देवी के रूप में जिंदा है। “सैंधव सभ्यता में मातृदेवी की पूजा और हिंदू धर्म में शक्ति देवी का विकास” पर विचार करते हुए, यह देखा जा सकता है कि सैंधव सभ्यता ने भारतीय धार्मिक परंपराओं की नींव रखी थी।

सैंधव सभ्यता में शिव के आदिम रूप के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं, जो बाद में हिंदू धर्म में “शिव के रूप में लिंग पूजा” के रूप में विकसित हुआ। यहाँ की मुद्राओं में योगासन में बैठे देवता के चित्र मिलते हैं, जो कालांतर में “योगी रूप में भगवान शिव और बुद्ध” की मूर्तियों के रूप में देखने को मिलते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि सैधव धर्म का प्रभाव भारतीय धार्मिक विश्वासों में एक निरंतरता (continuity) के रूप में दिखाई देता है।

 

सैंधव धर्म और मूर्तिपूजा की परंपरा: हिंदू धर्म पर प्रभाव 

 

सैंधव सभ्यता के लोग मूर्तिपूजा में विश्वास रखते थे, और उनके द्वारा निर्मित “मूर्तियों और देवताओं के प्रतीक” आज भी हिंदू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। मोहनजोदड़ों में जो नर्तकी की मूर्ति मिली है, वह बाद में “हिंदू कला में यक्षी और यक्ष की मूर्तियों” के रूप में विकसित हुई। यह दर्शाता है कि सैंधव कला का प्रभाव हिंदू कला पर गहरा था। साथ ही, यहाँ के लोग “पीपल के वृक्ष की पूजा” करते थे, जो बाद में हिंदू धर्म में अश्वत्थ वृक्ष (पीपल का पेड़) के रूप में समाहित हो गया। गीता में भगवान कृष्ण ने अपने को वृक्षों में अश्वत्थ (पीपल) बताया है। पुराणों में लिखा है कि जो लोग अश्वत्थ (पीपल) पर जल चढ़ाते है उन्हें स्वर्ग प्राप्त होता है। आज भी हिन्दू धर्म में पीपल के वृक्ष पर देवताओं का निवास माना जाता है तथा उसे काटना या जलाना महापाप कहा जाता है। यह विचार हिन्दू धर्म ने सैंधव सभ्यता से ही ग्रहण किया। “सैंधव सभ्यता में वृक्ष पूजा और हिंदू धर्म में उसकी धार्मिक महत्ता” को देखकर यह कहा जा सकता है कि भारतीय धार्मिक परंपराओं का मूल यहां से लिया गया था। इसके साथ ही स्वस्तिक, स्तंभ और ताबीज जैसी वस्तुएं पवित्र मानी जाती थीं। हिन्दू धर्म में आज भी ‘स्वस्तिक’ को पवित्र मांगलिक चिह्न माना जाता है। इसे चतुर्भुज ब्रह्मा का रूप स्वीकार किया जाता है। स्तम्भ की बौद्ध धर्म में प्रतिष्ठा थी। यह परंपराएँ बाद में हिंदू धर्म में समाहित हो गईं।

सैंधव सभ्यता में वृषभ और भैसा की पूजा के प्रमाण मिलते हैं, जो हिंदू धर्म में शिव के वाहन के रूप में पूजे जाते हैं। इसके अलावा, नाग पूजा के प्रमाण भी सैंधव सभ्यता में मिलते हैं, जो आज भी हिंदू धर्म में प्रचलित है।

 

सैंधव सभ्यता की कला और वास्तुकला: मूर्तिकला, स्थापत्य और शिल्प 

 

भारतीय कला के विभिन्न तत्वों का आधार हमें सैंधव (हड़प्पा) सभ्यता में मिलता है। इस सभ्यता के कलाकारों ने भारतीयों को दुर्ग और प्राचीर निर्माण की प्रेरणा दी थी। दुर्ग (किला) और प्राचीर (दीवार) बनाने की तकनीक सैंधव सभ्यता से ही आई। हड़प्पा में नगरों का सुनियोजित रूप से बसना भी एक महत्वपूर्ण पहलू था, जो मौर्य काल में भी देखा गया। मौर्य काल के स्तम्भयुक्त भवनों का निर्माण भी सैंधव सभ्यता से प्रेरित था। मोहनजोदड़ो की खुदाई में स्तम्भयुक्त भवनों के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो इस बात का प्रमाण हैं कि यह कला पहले ही अस्तित्व में थी।

ऋग्वेद से भी इस तरह की स्थापत्य कला का संकेत मिलता है। उसमें अनार्यो के पुर (नगर) का उल्लेख है, जिसमें शतभुजी अर्थात् सौ खंभे थे, जिन्हें इन्द्र ने भेदन किया था। यह उसी प्रकार के सैंधव दुर्गों की ओर संकेत करता है। मौर्य काल में चंद्रगुप्त मौर्य के समय स्तम्भयुक्त भवनों का निर्माण इसी प्रेरणा से हुआ था।

मूर्तिकला की शुरुआत भी सिन्धु घाटी से हुई थी। वहाँ के कलाकारों ने पाषाण, ताम्र, कांसा जैसे विभिन्न धातुओं से मूर्तियाँ बनाई, जो बाद की हिन्दू कला पर गहरा प्रभाव डालने वाली थीं। कुछ मुद्राओं में वृषभ (बैल) की आकृति विशेष रूप से जीवंत और प्रभावशाली तरीके से चित्रित की गई थी। कुछ विद्वान मानते हैं कि अशोक के समय की रमपुरवा वृष की आकृति सैंधव कला से प्रभावित थी।

इसके अलावा, मोहनजोदड़ों से एक नर्तकी की मूर्ति मिली थी, जो बाद में मथुरा की पाषाण वेष्टिनी (यक्षी) मूर्तियों के निर्माण का आधार बनी। इस प्रकार, सैंधव मूर्तिकला ने भारतीय कला के प्रारंभिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और इसे बाद की मूर्तिकला में भी देखा जा सकता है।

सैंधव सभ्यता के लोग जल को पवित्र मानते थे तथा धार्मिक समारोहो के अवसर पर सामूहिक स्नान आदि का महत्व था, जैसा कि मोहनजोदड़ो के बृहत्स्नानागार (Great Bath) से पता लगता है। यह भावना भी हमें बाद के हिन्दू धर्म में देखने को मिलती है।

 

सैंधव सभ्यता का नगर जीवन और शासन व्यवस्था: नगर योजना और प्रशासन

 

सैंधव सभ्यता ने नगर जीवन के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह सभ्यता उच्च स्तर की नगर योजना, सुरक्षा, स्वास्थ्य और सफाई व्यवस्था में विश्वास करती थी। सैंधव नगरों में जल निकासी, स्नानागार और सफाई व्यवस्था के अवशेष मिले हैं, जो यह दर्शाते हैं कि नगर शासन और स्वास्थ्य व्यवस्था अत्यंत सुदृढ़ थी।

सैंधव सभ्यता में नगर महापालिकाओं के अस्तित्व के संकेत मिलते हैं, जो दर्शाते हैं कि उनका शासन एकात्मक और सुदृढ़ था। यह भारतीय शासन व्यवस्था के लिए एक आदर्श बना।

 

सैंधव सभ्यता का विनाश और उसके प्रभाव: आर्य और बाद के भारतीय समाज पर प्रभाव 

 

वैदिक आर्यों ने सैधव सभ्यता के नगरों का विनाश किया, लेकिन वे इसके समृद्ध और संगठित जीवन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। आर्य और आर्येतर तत्वों के मिश्रण से भारतीय संस्कृति का सम्यक विकास हुआ। सैंधव सभ्यता के तत्व, जैसे कि नगर योजना, धर्म, कला, और सामाजिक व्यवस्था, बाद में हिंदू धर्म और भारतीय कला के रूप में पुनः जीवित हुए।

यह कहा जा सकता है कि सैंधव सभ्यता ने भारतीय संस्कृति की नींव रखी और इसके बिना भारतीय सभ्यता की समग्र तस्वीर अधूरी होती।

 

निष्कर्ष: सैंधव सभ्यता का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव

 

सैंधव सभ्यता ने भारतीय समाज और संस्कृति को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। इसने धर्म, कला, विज्ञान, और समाज के प्रत्येक पहलू को आकार दिया। सैंधव सभ्यता का योगदान न केवल भारतीय संस्कृति के विकास में था, बल्कि यह दुनिया की प्राचीनतम और सबसे विकसित सभ्यताओं में से एक थी। आज भी हम सैंधव सभ्यता की परंपराओं और रीति-रिवाजों का अनुसरण करते हैं, जो भारतीय जीवन के अभिन्न अंग बन चुके हैं।

इस प्रकार, सैंधव सभ्यता भारतीय सभ्यता का मूल स्तंभ बनकर उभरी, और यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न हिस्सा बन गई।

 

Further References

 

1. Irfan Habib : The Indus Civilization.

2. A.L. Basham : The Wonder that was India.

3. B.B. Lal : India 1947–1997: New Light on the Indus Civilization.

4. S.P. Gupta : The lost Sarasvati and the Indus Civilisation.

5. Shereen Ratnagar : Understanding Harappa: Civilization in the Greater Indus Valley.

 

 

 

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