हैदराबाद रियासत: निज़ाम, रजाकार और भारत में विलय की पूरी कहानी (1947-1948)

map of hydrabad riyasat in 1947
हैदराबाद रियासत

1947 में हैदराबाद रियासत : भारत के दिल में एक अलग साम्राज्य की कहानी

 

भारत की आज़ादी के साथ ही उपमहाद्वीप का नक्शा बदल रहा था। अंग्रेज़ों के लंबे शासन के बाद जब भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 लागू हुआ, तब देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी  – रियासतों का विलय। लगभग 562 रियासतें थीं, जिन्हें यह विकल्प दिया गया था कि वे चाहें तो भारत में शामिल हो सकती हैं, पाकिस्तान में जा सकती हैं या फिर स्वतंत्र रह सकती हैं। अधिकतर रियासतों ने सहज रूप से भारत या पाकिस्तान का रास्ता चुना, लेकिन कुछ रियासतें अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखना चाहती थीं। इन तीन रियासतों में सबसे बड़ी और सबसे चर्चित थी हैदराबाद रियासत

 

हैदराबाद रियासत के निज़ाम उस्मान अली खान
निज़ाम उस्मान अली खान

हैदराबाद रियासत का ऐतिहासिक स्वरूप

 

हैदराबाद रियासत 82,000 वर्ग मील में फैली थी और इसकी जनसंख्या लगभग 1 करोड़ 60 लाख थी। यह क्षेत्रफल और जनसंख्या में कई यूरोपीय देशों से भी बड़ा था। हैदराबाद रियासत की स्थापना 18वीं शताब्दी में आसफ़ जाही वंश ने की थी, जिनका संबंध मुग़ल साम्राज्य से था। निज़ाम उस्मान अली खान इस वंश के आख़िरी और सबसे चर्चित शासक बने।

उस्मान अली खान का नाम उस समय दुनिया के सबसे अमीर इंसानों में लिया जाता था। उनकी संपत्ति का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि मशहूर जैकब डायमंड (185 कैरेट का हीरा) वे अपनी मेज़ पर पेपरवेट के रूप में इस्तेमाल करते थे। उनकी दौलत में सोने-चाँदी के भंडार, कीमती जवाहरात और असीमित ज़मीन-जायदाद शामिल थी।

हैदराबाद केवल संपत्ति के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक विविधता और भाषाई समृद्धि के लिए भी जाना जाता था। यहाँ उर्दू, तेलुगु, मराठी और कन्नड़ बोली जाती थीं। फ़ारसी प्रभाव से प्रेरित कला, स्थापत्य और संगीत ने हैदराबाद को एक विशिष्ट पहचान दी थी।

 

आज़ादी और रियासतों के विकल्प

 

जब 1947 में भारत आज़ाद हुआ, तो सरदार वल्लभभाई पटेल के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि इतने विशाल भूभाग को एकजुट कैसे किया जाए। पटेल मानते थे कि यदि भारत के केंद्र में स्थित इतनी बड़ी रियासत स्वतंत्र रही या पाकिस्तान से जुड़ी, तो यह देश की सुरक्षा और एकता के लिए गंभीर ख़तरा होगा।

हैदराबाद के सामने तीन विकल्प थे:

  1. भारत में विलय
  2. पाकिस्तान में विलय
  3. स्वतंत्र रहना

कश्मीर और जूनागढ़ की तरह हैदराबाद ने भी स्वतंत्र रहने की इच्छा जताई। इसके पीछे निज़ाम की महत्वाकांक्षाएँ और उनके सलाहकारों की राजनीति थी।

 

हैदराबाद के भारत में विलय की आवश्यकता

 

सरदार वल्लभभाई पटेल का हैदराबाद को लेकर शुरू से ही ये माना था कि भारत के दिल में एक ऐसा क्षेत्र का होना जिसकी निष्ठा भारत की सीमाओं के बाहर हो भारत की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा था।

सरदार पटेल चाहते थे कि हैदराबाद जल्द से जल्द भारत में विलय कर दे। लेकिन नवाब उस्मान अली खान को यह मंजूर नहीं था। पाकिस्तान तब तक कश्मीर में घुस चुका था और भारत उस मोर्चे पर एक बड़ी लड़ाई लड़ रहा था। इसलिए भारत फौरन हैदराबाद पर ध्यान नहीं दे सका।

हैदराबाद से मामले को सुलझाने के लिए भारत ने उसके साथ एक स्टैंड स्टिल एग्रीमेंट साइन किया।

 

स्टैंड स्टिल एग्रीमेंट और निज़ाम के गुप्त इरादे

 

भारत सरकार और हैदराबाद के बीच 29 नवंबर 1947 को स्टैंड स्टिल एग्रीमेंट हुआ। इसके अनुसार भारत हैदराबाद की विदेश नीति देखेगा, जबकि आंतरिक मामलों में निज़ाम की सत्ता बनी रहेगी। शर्त यह थी कि निज़ाम किसी विदेशी ताक़त से सीधे संबंध नहीं रखेंगे।

लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत थी। निज़ाम पाकिस्तान से गुप्त रूप से हथियार मंगा रहे थे। अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के दो दिन बाद यानी 17 अगस्त 1947 को लंदन में भारतीय उच्चायुक्त कृष्ण मिलन को पता लगा कि  उन्होंने चेकोस्लोवाकिया से 30 लाख पाउंड के सैन्य उपकरण खरीदने की कोशिश की।

यहां तक निजाम ने पाकिस्तान की मध्यस्थता के माध्यम से पुर्तगाल से गोवा को खरीदने की बात शुरू कर दी थी, ताकि वह वहां एक बंदरगाह का विकास कर सके और जरूरत पड़ने पर उसका इस्तेमाल कर सके।

निजाम ने तो ब्रिटिश सरकार से राष्ट्रमंडल के सदस्य बनने की भी इच्छा प्रकट की थी जिसे एटली सरकार ने ठुकरा दी।

कुल मिलाकर निजाम आजाद हैदराबाद को ख्वाब देख रहे थे। यह सब भारत की संप्रभुता के लिए सीधी चुनौती थी।

 

हैदराबाद रियासत का कासिम रिज़वी
कासिम रिज़वी

रजाकार आंदोलन और कासिम रिज़वी

 

निजाम के इस ख्वाब की वजह थी उनके कानों में पढ़ रही एक आवाज। वह आवाज जो कह रही थी कि खुदा की फ़ज़ल से एक दिन दिल्ली के लाल किले पर निजामशाही का झंडा होगा। और इस आवाज का भोपू बजाने वाला इंसान था कासिम रिजवी। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद उसने लातूर और उस्मानाबाद से अपनी वकालत शुरू की। उसका पिता एक पुलिस अधिकारी था और अपने पिता के रौब में उसने गैरकानूनी तरीके से बहुत संपत्ति इकट्ठा की थी ।  रजाकार जिसका मतलब होता है स्वयंसेवक।

हैदराबाद की राजनीति में एक बड़ा मोड़ आया जब कासिम रिज़वी ने निज़ाम के समर्थन में एक मिलिशिया संगठन बनाया जिसे रजाकार कहा गया। रजाकार जिसका मतलब होता है स्वयंसेवक। रजाकारों का दावा था कि वे निज़ामशाही की रक्षा कर रहे हैं, लेकिन वास्तविकता यह थी कि उन्होंने आतंक का माहौल बना दिया।

हिंदुओं पर अत्याचार, लूटपाट, कत्लेआम और बलात्कार जैसी घटनाएँ आम हो गईं। यह आतंक न केवल हैदराबाद के भीतर बल्कि पूरे भारत में गुस्से और चिंता का कारण बना। रिज़वी के भाषणों में अक्सर यह नारा सुनाई देता था – एक दिन निज़ाम का झंडा लाल क़िले पर लहराएगा।”

 

तेलंगाना में कम्युनिस्ट क्रांति

 

बाकी रियासतों की तरह शुरुआत में हैदराबाद में भी सामंती राजशाही चल रही थी। जमीन पर सामंतो का कब्जा था। मजदूर और छोटे किसानों की हालत खराब थी। साल 1940 तक पूरे हैदराबाद में मार्क्स का नारा गूंजने लगा था। दुनिया के मजदूर एक हो जाओ तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है पर पाने को सारा जहां।

जमीदारों के उत्पीड़न से तंग आकर मजदूरों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया था। नतीजतन हैदराबाद रियासत के तेलंगाना क्षेत्र में कम्युनिस्ट क्रांति शुरू हो गई थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत में अन्न की भारी कमी हो गई थी। जिससे किसान आंदोलन को और हवा मिली।

जमीदारों ने निजाम का दरवाजा खटखटाया और निजाम ने कासिम रिजवी को इस बात के लिए खुली छूट दे दी थी कि वह किसी तरह कम्युनिस्ट क्रांति को खत्म करें।

कासिम रिजवी ने रियासत में कम्युनिस्ट पार्टी पर बैन लगवा दिया। और रजाकारों को निर्देश दिया कि वह वामपंथी विचारधारा से सहानुभूति रखने वालों को चुन चुन के मारे। इस दौरान गांव के गांव तबाह हो गए।लेकिन इस दमन से हैदराबाद में कम्युनिस्ट आंदोलन को और बल मिला।  साल 1948 तक कम्युनिस्टों ने तेलंगाना के बड़े भूभाग को अपने कब्जे में ले लिया।

22 मई 1948 में रजाकारों ने जब गंगापुर स्टेशन पर ट्रेन में सफर कर रहे हिंदुओं पर हमला बोला तो पूरे देश में भारत सरकार की आलोचना होने लगी कि भारत सरकार निजाम के प्रति नरम रख रख रही है।

कम्युनिस्ट आंदोलन ने निज़ाम और उनके समर्थकों के खिलाफ़ एक और मोर्चा खोल दिया। लेकिन निज़ाम ने इसके दमन के लिए फिर रजाकारों को खुली छूट दे दी। इसका नतीजा यह हुआ कि हैदराबाद के गाँव-गाँव में रजाकारों और किसानों के बीच हिंसक टकराव होने लगे।

 

Indian Army During Operation Polo in Hyderabad riyasat
भारतीय सेना काऑपरेशन पोलो अभियान

भारतीय सेना का अभियान : ऑपरेशन पोलो

 

स्थिति जब नियंत्रण से बाहर होने लगी, तो भारत सरकार ने सख़्त कदम उठाने का फ़ैसला किया। 13 सितंबर 1948 को ऑपरेशन पोलो के नाम से भारतीय सेना ने हैदराबाद की ओर कूच किया। 11 सितंबर को जिन्ना का इंतकाल हो चुका था, इसलिए पाकिस्तान चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया।

मेजर जनरल जे.एन. चौधरी के नेतृत्व में चारों दिशाओं से सेना ने हमला किया। केवल चार दिन के भीतर, 17 सितंबर तक रजाकारों और निज़ाम की सेना का प्रतिरोध टूट गया। 18 सितंबर को निज़ाम ने औपचारिक रूप से आत्मसमर्पण कर दिया।

इस अभियान को ऑपरेशन पोलो” इसलिए कहा गया क्योंकि हैदराबाद में उस समय 17 पोलो ग्राउंड थे, जो विश्व में किसी भी शहर से ज़्यादा थे।

 

निज़ाम और रियासत का भविष्य

 

सरदार पटेल और हैदराबाद रियासत के निज़ाम उस्मान अली खान

आत्मसमर्पण के बाद निज़ाम उस्मान अली खान को हैदराबाद का राजप्रमुख (राज्यपाल) नियुक्त किया गया। कासिम रिज़वी को गिरफ्तार कर 10 साल जेल में रखा गया और रिहाई के बाद पाकिस्तान भेज दिया गया, जहाँ 1970 में उसकी मौत हुई।

1956 में राज्य पुनर्गठन के दौरान हैदराबाद रियासत को तीन हिस्सों में बाँटा गया – आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक। निज़ाम ने 1966 तक जीवित रहते हुए भारतीय संविधान और व्यवस्था के अंतर्गत अपनी भूमिका निभाई।

 

हैदराबाद रियासत का विलय : प्रभाव और महत्व

 

हैदराबाद का भारत में विलय कई दृष्टियों से ऐतिहासिक था।

  • इससे भारत की भौगोलिक एकता सुनिश्चित हुई।
  • देश के केंद्र में स्थित एक विशाल स्वतंत्र रियासत के खतरे से छुटकारा मिला।
  • रजाकारों द्वारा किए गए अत्याचारों का अंत हुआ।
  • कम्युनिस्ट आंदोलन को नया मोड़ मिला, जिसने आगे चलकर तेलंगाना की राजनीति को प्रभावित किया।

आज 17 सितंबर को हैदराबाद मुक्ति दिवस के रूप में याद किया जाता है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और कर्नाटक के कई हिस्सों में इस दिन समारोह आयोजित किए जाते हैं।

 

इतिहासकारों की दृष्टि

 

इतिहासकार आर.सी. मजूमदार ने लिखा है – हैदराबाद का विलय केवल सैन्य सफलता नहीं थी, बल्कि यह भारत की राजनीतिक दूरदर्शिता और दृढ़ संकल्प का परिणाम था।”
वहीं डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने इसे भारत के लिए “जीवित रहने की अनिवार्यता” बताया था।

 

निष्कर्ष

 

1947 में हैदराबाद रियासत केवल एक भूगोल का हिस्सा नहीं थी, बल्कि यह भारत की एकता की परीक्षा थी। निज़ाम की महत्वाकांक्षाएँ, रजाकारों का आतंक, किसानों का विद्रोह और अंतरराष्ट्रीय राजनीति, ये सब उस दौर की जटिलता को दर्शाते हैं। लेकिन सरदार पटेल और भारतीय नेतृत्व की दृढ़ इच्छाशक्ति ने इस चुनौती को अवसर में बदला और हैदराबाद को भारत का अभिन्न हिस्सा बना दिया।

आज जब हम भारत की आज़ादी और उसके बाद के संघर्षों को याद करते हैं, तो हैदराबाद रियासत का विलय हमें यह सिखाता है कि राष्ट्रीय एकता के लिए साहस, दृढ़ता और दूरदर्शिता कितनी ज़रूरी होती है।

 

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