भारत में नगरीकरण का इतिहास: प्राचीन काल से आधुनिक युग तक

 

आधुनिक नगर का दृश्य
आधुनिक नगर

नगरीकरण क्या है ?

नगरीकरण (Urbanization) से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसमें किसी देश या क्षेत्र की जनसंख्या तेजी से ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर प्रवास करती है और इसके परिणामस्वरूप शहरों का विकास और विस्तार होता है। यह एक सामाजिक, आर्थिक, और भौगोलिक परिवर्तन है, जिसमें शहरों का आकार, जनसंख्या, और बुनियादी ढांचा तेजी से बढ़ता है। 
नगरीकरण के प्रमुख कारणों में औद्योगिकीकरण, बेहतर रोजगार के अवसर, स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा, परिवहन, और जीवनस्तर में सुधार शामिल हैं। इसके साथ ही, यह कई चुनौतियों को भी जन्म देता है, जैसे कि बुनियादी ढांचे का अभाव, आवास की कमी, पर्यावरणीय समस्याएं, और शहरी गरीबी। 

नगरीकरण के मुख्य पहलू: 

 अ. आर्थिक बदलाव: 

औद्योगिक क्षेत्रों और सेवा क्षेत्रों में विकास के कारण शहरी क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ते हैं, जिससे ग्रामीण जनसंख्या शहरों की ओर आकर्षित होती है।   

 ब. सामाजिक बदलाव: 

शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामाजिक सेवाओं में सुधार के कारण लोग शहरी जीवन की ओर बढ़ते हैं। इससे जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है। 

 स. भौगोलिक विस्तार: 

शहरों का विस्तार होता है और नए शहरी क्षेत्र बनते हैं। इसमें सड़कें, आवास, उद्योग, और अन्य बुनियादी ढांचा शामिल होता है। 

 ड. चुनौतियां: 

नगरीकरण से होने वाली समस्याएं जैसे प्रदूषण, ट्रैफिक जाम, जल संकट, कचरा प्रबंधन, और सामाजिक असमानता शहरी जीवन को जटिल बनाती हैं। 

कुल मिलाकर, नगरीकरण उस प्रक्रिया को दर्शाता है जिसमें शहरी क्षेत्र विकसित होते हैं और लोगों का जीवन स्तर, रोजगार, और सांस्कृतिक वातावरण प्रभावित होता है।

नगरी क्रांति (Urban Revolution) का उल्लेख पहली बार ब्रिटिश पुरातत्त्ववेत्ता वी. गॉर्डन चाइल्ड (V. Gordon Childe) ने किया था। उन्होंने अपनी पुस्तक “Man Makes Himself” (1936) में इस शब्द का उपयोग किया। चाइल्ड ने नगरी क्रांति को उस प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया, जिसमें मानव समाज ग्रामीण और आदिम जीवन से शहरी और सभ्य जीवन की ओर विकसित हुआ। 

चाइल्ड के अनुसार, नगरी क्रांति प्राचीन सभ्यताओं में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसमें कृषि के विकास के बाद शहरों का निर्माण हुआ, जिससे सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक संरचनाओं में गहरा बदलाव आया। उन्होंने इसे सभ्यता के विकास में एक प्रमुख कदम माना, जिसमें श्रमिक विभाजन, लेखन, कला, और व्यापार का उदय हुआ। 

इस अवधारणा के माध्यम से चाइल्ड ने उन परिवर्तनों का विश्लेषण किया, जो प्राचीन मेसोपोटामिया, मिस्र, और सिंधु घाटी जैसी सभ्यताओं में देखे गए थे, जहां नगरीय जीवन का उदय हुआ था।

वी. गॉर्डन चाइल्ड ने अपनी नगरी क्रांति (Urban Revolution) की अवधारणा के तहत नगरीकरण के कई महत्वपूर्ण तत्वों का उल्लेख किया, जो शहरी समाजों के विकास और संरचना को परिभाषित करते हैं। उन्होंने 10 प्रमुख तत्वों की पहचान की जो नगरीकरण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण माने गए। ये तत्व प्राचीन सभ्यताओं के उदय के समय देखे गए थे। ये हैं: 

1. बड़ी और घनी आबादी: नगरीकरण की एक महत्वपूर्ण विशेषता बड़े शहरों का निर्माण और इन शहरों में घनी जनसंख्या का निवास है, जो ग्रामीण इलाकों की तुलना में अधिक जटिल सामाजिक संरचना का निर्माण करती है। 
2. श्रम विभाजन: नगरीय समाजों में श्रम का स्पष्ट विभाजन देखा गया, जहां विभिन्न वर्गों के लोग अलग-अलग कार्यों में लगे होते थे। कृषि से परे, लोगों ने कारीगरी, व्यापार, प्रशासन, और अन्य विशेष कार्य करने शुरू किए। 
3. अधिशेष कृषि उत्पादन: शहरीकरण का आधार अधिशेष कृषि उत्पादन था, जो न केवल शहरी आबादी को समर्थन देता था, बल्कि व्यापार और आर्थिक गतिविधियों को भी बढ़ावा देता था। 
4. सामाजिक वर्गों का निर्माण: नगरीय समाजों में सामाजिक स्तरीकरण देखा गया, जिसमें राजा, पुरोहित, योद्धा, व्यापारी, और कारीगर जैसे विभिन्न सामाजिक वर्ग उभर कर आए। 
5. प्रथम नगरीय संरचना: नगरों में संगठित प्रशासन और सरकार का उदय हुआ, जिसने नियम-कानून बनाए और शहरी समाज को संगठित रखा। 
6. वाणिज्य और व्यापार: शहरीकरण ने व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा दिया, जिसमें लोग दूर-दूर से वस्त्र, धातु, और अन्य आवश्यक वस्तुओं का आयात-निर्यात करने लगे। 
7. लेखन प्रणाली का विकास: नगरी समाजों में लेखन की शुरुआत हुई, जो प्रशासन, व्यापार, और इतिहास को दर्ज करने के लिए महत्वपूर्ण था। इसने सांस्कृतिक और बौद्धिक विकास को बढ़ावा दिया। 
8. विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास: नगरी समाजों में विज्ञान, गणित, और प्रौद्योगिकी में प्रगति हुई। इन नवाचारों ने समाज के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे निर्माण, कृषि, और चिकित्सा में सुधार किया।
9. धर्म और धार्मिक संस्थान: नगरी समाजों में बड़े धार्मिक केंद्रों और संस्थानों का विकास हुआ, जो समाज की धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का नेतृत्व करते थे। 
10. स्थापत्य कला और स्मारक: नगरीकरण के साथ भव्य स्थापत्य कला और स्मारकों का निर्माण हुआ, जैसे मंदिर, महल, और अन्य संरचनाएं, जो सामाजिक शक्ति और संस्कृति के प्रतीक बने। 
इन तत्वों के आधार पर, वी. गॉर्डन चाइल्ड ने प्राचीन नगरीय समाजों के विकास को समझने का प्रयास किया, और इन्हें नगरी क्रांति के आवश्यक घटक माना।
धोलावीरा
धोलावीरा का नगर नियोजन

भारत की पहली नगरीकरण क्रांति: सिंधु घाटी सभ्यता 

भारत में पहली नगरीकरण क्रांति का उदय लगभग 2600 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व तक फली-फूली सिंधु घाटी सभ्यता (हड़प्पा सभ्यता) के रूप में हुआ। यह सभ्यता भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में विस्तारित थी और इसे भारतीय उपमहाद्वीप की पहली प्रमुख नगरीकरण प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। सिंधु घाटी सभ्यता न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में शुरुआती शहरी सभ्यताओं में से एक थी। इसके नगरों की संरचना, जल निकासी व्यवस्था, और व्यापारिक तंत्र ने उन्नत नगरीकरण की शुरुआत की, जिसने भारत में शहरी जीवन के बीज बोए। 

 महानगरों का विकास

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख शहरों में हड़प्पा (पंजाब, पाकिस्तान), मोहनजोदड़ो (सिंध, पाकिस्तान), धोलावीरा (गुजरात, भारत), लोथल (गुजरात, भारत), और राखीगढ़ी (हरियाणा, भारत) शामिल हैं। ये शहर उस समय के सबसे उन्नत शहरी केंद्रों में गिने जाते थे, जिनकी जनसंख्या 30,000 से 40,000 के बीच थी। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे शहरों ने नगरीकरण के सभी पहलुओं को दिखाया, जिसमें सड़कों का नियमित ग्रिड सिस्टम, व्यापक जल निकासी व्यवस्था और ठोस भवन निर्माण शामिल था। 

 संगठित नगर योजना

सिंधु घाटी सभ्यता की सबसे अद्वितीय विशेषताओं में से एक इसका संगठित नगर योजना थी। इन नगरों की सड़कों को ग्रिड पैटर्न में विभाजित किया गया था, जिससे यह स्पष्ट होता है कि नगर योजनाकारों ने बहुत ही उन्नत सोच और तकनीकी दक्षता का उपयोग किया। सड़कों का नेटवर्क सीधा और सुव्यवस्थित था, जिससे परिवहन और यातायात सुगम था। 

जल निकासी और स्वास्थ्य व्यवस्था

इस सभ्यता में विकसित जल निकासी प्रणाली आज भी अद्वितीय मानी जाती है। हर घर में शौचालय और स्नानघर होते थे, और इनसे जुड़ी हुई जल निकासी नालियां घरों के बाहर से होकर जाती थीं। यह प्रणाली दिखाती है कि सिंधु घाटी के लोग स्वच्छता और स्वास्थ्य के प्रति जागरूक थे। घरों में कुएं भी थे, जो जल आपूर्ति का एक प्रमुख स्रोत थे। 

गृह निर्माण और वास्तुकला

सिंधु घाटी सभ्यता के लोग पक्की ईंटों से मकान बनाते थे, जो उस समय की सबसे उन्नत निर्माण तकनीक थी। मकान साधारण लेकिन संगठित होते थे, और उनमें कई कमरे होते थे, जिनमें शौचालय और पानी के निकास की व्यवस्था होती थी। इससे पता चलता है कि लोग स्वच्छता और जल प्रबंधन के प्रति विशेष ध्यान देते थे। 

कृषि और पशुपालन

सिंधु सभ्यता के लोग मुख्यतः कृषि और पशुपालन पर निर्भर थे। वे गेहूं, जौ, तिल, खजूर, और सरसों जैसी फसलों की खेती करते थे। सिंचाई के लिए प्राकृतिक जल संसाधनों का उपयोग किया जाता था। इसके साथ ही, पशुपालन भी आम था, और बैल, भेड़, बकरी, और भैंस का पालन किया जाता था। कृषि अधिशेष के कारण ही यह सभ्यता शहरीकरण की ओर बढ़ पाई, क्योंकि इसने व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा दिया। 

व्यापार और वाणिज्य

व्यापार और वाणिज्य सिंधु घाटी सभ्यता की महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक था। सिंधु सभ्यता के लोग व्यापारिक गतिविधियों में संलग्न थे, और इस बात के प्रमाण मिले हैं कि उन्होंने मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक), फारस की खाड़ी, और मध्य एशिया जैसे दूरस्थ क्षेत्रों के साथ व्यापार किया। लोथल जैसे शहर इसके प्रमुख बंदरगाह थे, जहां से समुद्री व्यापार होता था। इन व्यापारिक गतिविधियों के प्रमाण शहरों में मिली मुद्राएं (seals) हैं, जिन पर व्यापार से जुड़े प्रतीक उकेरे गए हैं। 

श्रम विभाजन और सामाजिक वर्गीकरण

सिंधु घाटी सभ्यता में श्रम विभाजन स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। समाज विभिन्न कार्यों में विभाजित था, जैसे कृषि, कारीगरी, व्यापार, और प्रशासन। इसके अलावा, सामाजिक वर्गीकरण का भी उदय हुआ, जिसमें उच्च वर्ग के लोग संभवतः शासक, पुरोहित, और व्यापारी थे, जबकि निम्न वर्ग कारीगर और श्रमिक थे।

धातुकर्म और शिल्पकला

सिंधु घाटी के लोग धातुकर्म और शिल्पकला में भी अत्यधिक कुशल थे। उन्होंने तांबा, कांसा, और सीसा जैसी धातुओं का उपयोग करके औजार, हथियार, और आभूषण बनाए। मोहनजोदड़ो और लोथल में मिली मोतियों की कारीगरी, इस सभ्यता की उच्च स्तर की शिल्पकला का एक प्रमाण है। 

धार्मिक प्रतीक और मूर्तियां

सिंधु घाटी सभ्यता के लोग धार्मिक गतिविधियों में भी संलग्न थे। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त पाशुपति (शिव) जैसी आकृतियां और मातृ देवी की मूर्तियां इस सभ्यता की धार्मिक मान्यताओं की ओर इशारा करती हैं। यह सभ्यता धार्मिक स्थलों और संगठित धार्मिक गतिविधियों के प्रमाण भी देती है, हालांकि स्पष्ट मंदिरों के प्रमाण अभी तक नहीं मिले हैं। 

पतन के संभावित कारण

सिंधु घाटी सभ्यता का पतन लगभग 1900 ईसा पूर्व में हुआ। इसके पतन के कारण अभी तक पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन कुछ प्रमुख सिद्धांत यह बताते हैं:
    – जलवायु परिवर्तन: सरस्वती नदी के सूखने और कृषि संकट के कारण संभवतः यह सभ्यता कमजोर हो गई।
    – बाढ़ और पर्यावरणीय आपदाएं: मोहनजोदड़ो के कुछ हिस्सों में बाढ़ के प्रमाण मिले हैं, जिसने इस सभ्यता को कमजोर किया।
    – आर्यों का आगमन: कुछ इतिहासकार मानते हैं कि आर्यों के आक्रमण के कारण इस सभ्यता का पतन हुआ, हालांकि इस पर स्पष्ट साक्ष्य नहीं मिले हैं। 
सिंधु घाटी सभ्यता भारत की पहली नगरीकरण क्रांति का प्रतीक है। यह सभ्यता नगरीय जीवन, विज्ञान, शिल्पकला, और व्यापारिक गतिविधियों में अत्यधिक उन्नत थी। यह नगरीकरण का पहला संगठित और उन्नत प्रयास था, जिसने भारत में शहरी जीवन का आधार तैयार किया।
महाजनपद
6 थीं शताब्दी ईसा पूर्व महाजनपद

भारत में द्वितीय नगरीकरण (Second Urbanization) 

भारत में द्वितीय नगरीकरण का तात्पर्य उस समय से है जब सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद लगभग 1000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व के बीच गंगा घाटी के क्षेत्र में नए नगरों और शहरी केंद्रों का विकास हुआ। यह काल भारतीय इतिहास में महाजनपद युग के रूप में जाना जाता है, जिसमें 16 प्रमुख महाजनपदों का उदय हुआ। इस युग में शहरीकरण और सामाजिक-राजनीतिक संरचना ने नए आयाम हासिल किए। 
सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद लगभग 1000 साल तक भारत में कोई प्रमुख नगरीय केंद्र नहीं उभरा। यह काल वैदिक सभ्यता का था, जिसमें लोग अधिकतर ग्राम्य जीवन जीते थे और कृषि पर निर्भर थे। लेकिन बाद में गंगा और उसकी सहायक नदियों के आसपास उपजाऊ भूमि और लोहे के औजारों के इस्तेमाल से कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई। इससे अधिशेष उत्पादन संभव हुआ और नए व्यापारिक केंद्रों तथा शहरीकरण का उदय हुआ। 

द्वितीय नगरीकरण के प्रमुख तत्व 

गंगा घाटी में शहरी केंद्रों का उदय  

द्वितीय नगरीकरण के दौरान गंगा के मैदानी इलाकों में कई महत्वपूर्ण नगर विकसित हुए, जिनमें कौशांबी, श्रावस्ती, कुशीनगर, राजगृह, और पाटलिपुत्र प्रमुख थे। ये नगर महाजनपदों के प्रमुख राजनीतिक, आर्थिक, और धार्मिक केंद्र बन गए। 

महाजनपदों का विकास  

द्वितीय नगरीकरण के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक था महाजनपदों का उदय। 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक, भारत में 16 प्रमुख महाजनपद थे, जैसे मगध, कोशल, अंग, वत्स, अवन्ती, और गांधार। इन महाजनपदों में प्रमुख नगर शहरी जीवन के केंद्र थे, जहाँ व्यापार, वाणिज्य, और प्रशासन का संचालन होता था।  
महाजनपद युग में राजनीतिक केंद्रीकरण और प्रशासनिक ढांचा अधिक संगठित हो गया था। मगध सबसे शक्तिशाली महाजनपद के रूप में उभरा और इसका केंद्र पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) बना, जो बाद में मौर्य साम्राज्य की राजधानी भी बना। 

लोहे का प्रयोग और कृषि विकास  

द्वितीय नगरीकरण का एक प्रमुख कारक लोहे के औजारों का व्यापक प्रयोग था। गंगा घाटी में उपजाऊ भूमि और सिंचाई के साथ लोहे के हलों और अन्य उपकरणों के प्रयोग से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई। इस अधिशेष कृषि उत्पादन ने शहरीकरण को बढ़ावा दिया और लोगों को व्यापार और अन्य व्यवसायों में शामिल होने का अवसर दिया। 

व्यापार और वाणिज्य का विकास  

महाजनपद काल के दौरान व्यापारिक गतिविधियों में तेज़ी आई। प्रमुख व्यापारिक मार्गों का विकास हुआ, जो नदियों के किनारे बसे नगरों को जोड़ते थे। इस समय भारत का व्यापार न केवल आंतरिक रूप से बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी विकसित हुआ। 
इस युग में सिक्कों का प्रचलन शुरू हुआ, जिसे पंच-चिह्नित सिक्के (Punch-marked coins) कहा जाता है। ये सिक्के व्यापार और लेन-देन के लिए उपयोग किए जाते थे, जिससे अर्थव्यवस्था में स्थिरता और विस्तार हुआ। 

धर्म और दर्शन का उदय  

द्वितीय नगरीकरण के दौरान शहरी केंद्र धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र भी बन गए। इसी काल में जैन धर्म और बौद्ध धर्म का उदय हुआ, जो शहरी जीवन और समाज पर गहरा प्रभाव डालने वाले प्रमुख धार्मिक आंदोलन थे। गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी, दोनों ने अपने उपदेश गंगा घाटी के शहरी क्षेत्रों में दिए और उनके अनुयायियों की संख्या शहरी व्यापारियों और कारीगरों के बीच बढ़ी। 

नई सामाजिक संरचना  

इस समय समाज में वैदिक काल के मुकाबले अधिक जटिलता आई। वैदिक काल की सरल सामाजिक संरचना अब एक जटिल जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गई थी। समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसी सामाजिक श्रेणियों का स्पष्ट विभाजन था। व्यापारियों और कारीगरों का वर्ग भी महत्वपूर्ण हो गया था, जो शहरी जीवन में प्रमुख भूमिका निभाने लगे थे। 

नगरों की संरचना  

इस समय के नगरों की संरचना सिंधु घाटी सभ्यता से भिन्न थी, लेकिन फिर भी इनमें संगठित शहरी सुविधाएं थीं। पाटलिपुत्र और राजगृह जैसे नगरों में किलेबंदी की गई थी। नगरों में व्यवस्थित सड़कों का जाल, बाजार, आवासीय क्षेत्र, और जल प्रबंधन की व्यवस्था थी। नगरों में व्यापारिक गिल्ड (guilds) का प्रचलन भी हुआ, जो व्यापारियों और कारीगरों को संगठित करते थे। 

राजनीतिक और सैन्य शक्ति  

महाजनपद युग में कुछ नगर न केवल आर्थिक और धार्मिक केंद्र थे, बल्कि राजनीतिक और सैन्य दृष्टि से भी महत्वपूर्ण थे। विशेष रूप से मगध महाजनपद ने अपने सैन्य बल के माध्यम से पड़ोसी महाजनपदों पर विजय प्राप्त की और पाटलिपुत्र को एक प्रमुख शक्ति केंद्र बना दिया। 

द्वितीय नगरीकरण के महत्व

राजनीतिक एकीकरण की दिशा: 

महाजनपद युग में शहरीकरण ने भारतीय उपमहाद्वीप में राजनीतिक एकीकरण की दिशा को बल दिया। यह युग बाद में मौर्य साम्राज्य की स्थापना का आधार बना, जिसने पूरे भारत को एक छत्र के नीचे लाने का प्रयास किया।

धार्मिक और सांस्कृतिक परिवर्तन: 

जैन और बौद्ध धर्म ने शहरी जीवन को नई दिशा दी, जिससे भारत में धर्म, दर्शन, और समाज के बीच एक नया संतुलन बना। 

आर्थिक विकास: 

पंच-चिह्नित सिक्कों और व्यापारिक नेटवर्क ने भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए मार्ग प्रशस्त किया। 

शहरी संस्कृति का विकास: 

इस काल में नगरों के विकास ने एक शहरी संस्कृति को जन्म दिया, जहाँ कला, साहित्य, व्यापार, और राजनीति का समन्वय हुआ। 

धर्म और बौद्धिक आंदोलन  

द्वितीय नगरीकरण के काल में गंगा घाटी में धर्म और बौद्धिक आंदोलनों का अद्वितीय योगदान था। इस समय ने वैदिक धर्म के जटिल कर्मकांडों के खिलाफ एक प्रतिक्रिया को जन्म दिया, जिसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म और जैन धर्म जैसे धार्मिक और दार्शनिक विचारधाराओं का उदय हुआ। ये नए धार्मिक आंदोलन प्रमुख शहरी केंद्रों में पनपे और बहुत तेजी से लोकप्रिय हुए। 
गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी दोनों ने अपनी शिक्षाओं को गंगा के किनारे बसे शहरी केंद्रों में फैलाया, और उनके अनुयायी मुख्य रूप से व्यापारी और कारीगर वर्ग से थे। बौद्ध धर्म और जैन धर्म के सरल और तर्कसंगत उपदेशों ने शहरी जीवन के जटिल और अस्थिर सामाजिक और राजनीतिक ढांचे को एक नई दिशा दी।  

नालंदा और तक्षशिला जैसे शिक्षा केंद्रों का उदय  

द्वितीय नगरीकरण के काल में शिक्षा और बौद्धिक विकास का भी अद्वितीय योगदान रहा। इस समय भारत के दो सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालय, नालंदा और तक्षशिला, शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र बने। ये संस्थान धार्मिक, दार्शनिक, और वैज्ञानिक शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र थे और यहाँ न केवल भारत बल्कि अन्य देशों से भी विद्यार्थी आते थे। 

श्रमिक और कारीगर वर्ग का उदय  

द्वितीय नगरीकरण के साथ शहरी केंद्रों में श्रमिक और कारीगर वर्ग का भी विकास हुआ। इस समय शहरीकरण के साथ-साथ व्यापार और उत्पादन का स्तर भी बढ़ा। कारीगरों और शिल्पकारों ने विभिन्न वस्त्र, धातु के उपकरण, मिट्टी के बर्तन, और आभूषण बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 

राजनीतिक स्थिरता और सैन्य संगठन

द्वितीय नगरीकरण के दौरान महाजनपदों के बीच राजनीतिक संघर्ष और सैन्य शक्ति का भी महत्व बढ़ा। इस समय कई महाजनपदों के बीच युद्ध और संघर्ष हुए, जिनका मुख्य उद्देश्य शक्ति का केंद्रीकरण था। इस काल में मगध सबसे शक्तिशाली महाजनपद के रूप में उभरा। मगध के राजाओं ने अपने क्षेत्र का विस्तार करते हुए अन्य महाजनपदों पर विजय प्राप्त की और एक मजबूत सेना का गठन किया। 

साहित्य और कला का विकास

द्वितीय नगरीकरण के दौरान साहित्य और कला का भी अद्भुत विकास हुआ। इस समय के दौरान महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्यों का संकलन हुआ, जो भारतीय साहित्य और संस्कृति का आधार बने।महाजनपद काल के दौरान अनेक धर्मग्रंथों, जैसे उपनिषद और स्मृतियों, का भी संकलन हुआ। इन ग्रंथों में तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, और धार्मिक व्यवस्था का वर्णन मिलता है।मौर्यकाल में कला और स्थापत्य का भी अभूतपूर्व विकास हुआ। इस काल की स्थापत्य कला में स्तूप, मठ, और समाधि स्थल का निर्माण हुआ। सांची का स्तूप और अशोक के शिलालेख इस काल की स्थापत्य कला के प्रमुख उदाहरण हैं।

गणराज्य और लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास

द्वितीय नगरीकरण के दौरान कुछ महाजनपदों में गणराज्य प्रणाली का विकास हुआ, जिसमें शासन का स्वरूप लोकतांत्रिक था। इन गणराज्यों में प्रमुख निर्णय सामूहिक रूप से लिए जाते थे और शासक का चुनाव गणों द्वारा होता था। उदाहरण के लिए, वज्जि महासंघ एक महत्वपूर्ण गणराज्य था, जो लगभग 8 छोटे गणराज्यों का एक संघ था।इस गणराज्य प्रणाली को भारतीय लोकतांत्रिक परंपरा का प्रारंभिक स्वरूप माना जा सकता है, जिसमें शासन के निर्णय जनमत और सामूहिक रूप से लिए जाते थे। 

नगरीकरण के प्रभाव 

द्वितीय नगरीकरण का भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसने न केवल शहरीकरण को पुनर्जीवित किया, बल्कि भारतीय समाज की संरचना, धर्म, और राजनीति को भी नए सिरे से परिभाषित किया। इस समय शहरीकरण ने:अर्थव्यवस्था को व्यापार, उद्योग, और उत्पादन के नए आयाम दिए।धार्मिक सुधार और दार्शनिक आंदोलनों को बढ़ावा दिया।नए राजनीतिक ढांचों का निर्माण किया, जिसने बाद में मौर्य साम्राज्य जैसी विशाल साम्राज्यों की स्थापना की आधारशिला रखी।सामाजिक और सांस्कृतिक धारा को एक नई दिशा दी, जिसमें नए धार्मिक और दार्शनिक सिद्धांतों का विकास हुआ
दौलताबाद किला
दौलताबाद के किले का एक दृश्य

मध्यकाल में नगरीकरण 

मध्यकालीन भारतीय इतिहास में शहरीकरण और नगरों के विकास की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण युग था। यह काल राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद नगरों की संरचना, प्रशासनिक व्यवस्था, व्यापारिक नेटवर्क, और सांस्कृतिक समन्वय का साक्षी रहा। भारत के प्रमुख नगर जैसे दिल्ली, लाहौर, खंभात, और अजमेर न केवल प्रशासनिक केंद्र बने बल्कि व्यापारिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक गतिविधियों का भी केंद्र बने। शिल्प और उद्योगों का विकास, विदेशी व्यापार के लिए बंदरगाह नगरों का विस्तार, और नगरों में सामाजिक संरचना का परिवर्तन इस युग के शहरीकरण के प्रमुख पहलू थे।
सल्तनत काल (1206-1526) का नगर विकास कई महत्वपूर्ण बदलावों से गुज़रा, जिसमें नगरों का राजनीतिक, सांस्कृतिक, और आर्थिक केंद्र के रूप में विकास प्रमुख था। 

दिल्ली सल्तनत की राजधानी का विकास  

दिल्ली सल्तनत की स्थापना कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा 1206 में की गई थी, जो ग़ोरी साम्राज्य के पतन के बाद भारत में स्थापित हुआ था। सल्तनत के दौरान दिल्ली का विकास प्रशासनिक और राजनीतिक केंद्र के रूप में हुआ। कुतुबुद्दीन ऐबक ने कुतुब मीनार का निर्माण शुरू किया, जो बाद में इल्तुतमिश के समय पूरा हुआ। यह मीनार 72.5 मीटर ऊँची है और इसे विश्व धरोहर स्थल का दर्जा प्राप्त है।  
दिल्ली की सात नगरियों का विकास सल्तनत काल में हुआ:
– किला राय पिथौरा: पृथ्वीराज चौहान द्वारा निर्मित।  
– सिरी: अलाउद्दीन खिलजी द्वारा बनाया गया।  
– तुगलकाबाद: ग्यासुद्दीन तुगलक द्वारा निर्मित।  
– जाहानपनाह: मोहम्मद बिन तुगलक द्वारा।  
– फिरोजाबाद: फिरोज शाह तुगलक द्वारा।  
– शेरगढ़: शेरशाह सूरी द्वारा।  
– पुराना किला: हुमायूं द्वारा।  
इन नगरियों का विकास एक शक्तिशाली राजधानी बनाने के लिए हुआ, जहां सुरक्षा और व्यापारिक गतिविधियों का केंद्र था।

व्यापारिक नगरों का उदय  

सल्तनत काल में व्यापारिक नगरों का विशेष महत्व था। ख़ास तौर पर गुजरात के खंभात और सूरत, जो समुद्री व्यापार का केंद्र थे, और जहाँ से मसाले, कपास, रेशम, और धातुएं अरब, फारस, और चीन के बाजारों में निर्यात होती थीं।  
फ़ारसी इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज ने अपनी किताब तबकात-ए-नासिरी में भारत के पश्चिमी हिस्से के व्यापारिक नगरों की समृद्धि का उल्लेख किया है। खंभात बंदरगाह को ‘अरब सागर का प्रवेश द्वार’ कहा जाता था। यहां पर चीनी वस्त्र, इरानी शराब, अरब के घोड़े,
और अफ्रीकी हाथी दांत का व्यापार होता था।  
लाहौर और मुल्तान,ये नगर सल्तनत के प्रारंभिक काल में व्यापार और शिल्प के प्रमुख केंद्र बने। मुल्तान अपने सूती वस्त्रों और धार्मिक तीर्थयात्रा के लिए जाना जाता था।
बंगाल का सोनारगांव, यहाँ से कपास, चावल, और चीनी की व्यापक पैमाने पर निर्यात होता था। बंगाल का वस्त्र उद्योग समृद्ध था, विशेषकर मलमल के लिए यह नगर प्रसिद्ध था।

शिल्प और उद्योग का विकास  

मध्यकाल के नगरों में शिल्पकारों और कारीगरों का एक बड़ा वर्ग निवास करता था, जो नगरों में विभिन्न शिल्प और उद्योगों को विकसित कर रहा था। इस समय के शहरी क्षेत्रों में धातुशिल्प, कपड़ा उद्योग, और कालीन बुनाई जैसे उद्योग उन्नति पर थे।  
फिरोज शाह तुगलक के शासनकाल में, शिल्पकारों को प्रोत्साहित करने के लिए नई परियोजनाओं का आरंभ किया गया। फिरोज शाह ने लगभग 1200 बाग-बगीचों और नहरों का निर्माण करवाया, जिनमें काम करने के लिए बड़े पैमाने पर मजदूरों और शिल्पकारों की आवश्यकता पड़ी। इस प्रकार, शहरी शिल्पकारों के लिए रोजगार के अवसर बढ़े।  
– लाहौर और दिल्ली में शिल्पकार सोने, चांदी, और तांबे से आभूषण और सजावटी वस्तुएं बनाते थे।  
– कालीन बुनाई और रेशम का उत्पादन इस्लामिक शासकों द्वारा लाए गए थे और ये उद्योग पश्चिमी भारत के नगरों में फल-फूल रहे थे। कश्मीर का रेशमी कालीन आज भी विश्व प्रसिद्ध है।  

नगरीय जीवन और जनसंख्या का विस्तार  

मध्यकाल में नगरों की जनसंख्या में वृद्धि देखी गई। सुमित्रा मुखर्जी की पुस्तक Urbanization in Medieval India के अनुसार, सल्तनत काल के नगरों में लगभग 5% से 10% आबादी निवास करती थी, जो उस समय के लिए काफी उच्च दर थी। यह जनसंख्या मुख्य रूप से प्रशासनिक केंद्रों, व्यापारिक नगरों, और धार्मिक तीर्थस्थलों में केंद्रित थी।  
नगरों में व्यापारिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ फल-फूल रही थीं, और शहरों में बाजारों, हाटों, और सार्वजनिक स्थलों का निर्माण हुआ, जो नगर जीवन का अभिन्न हिस्सा थे।  

धार्मिक और सांस्कृतिक नगरों का विकास  

मध्यकाल में धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी नगरों के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थीं। अजमेर, जहां ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का सूफी दरगाह स्थित है, इस काल में प्रमुख धार्मिक केंद्र बना।  
– बंगाल का पांडुआ और जौनपुर: धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध थे। जौनपुर के शर्की शासकों ने मदरसे और मस्जिदों का निर्माण किया।
सूफी और भक्ति आंदोलन ने शहरी समाज पर गहरा प्रभाव डाला। सूफी संतों की दरगाहों के आसपास नगर विकसित हुए। दिल्ली में निज़ामुद्दीन औलिया का दरगाह और अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का दरगाह, दोनों ही इस्लामी समाज के सांस्कृतिक केंद्र बने। सूफी संतों के उपदेशों ने समाज के सभी वर्गों को प्रभावित किया और शहरी समाज को नई दिशा दी।  

नगर प्रशासन और कर व्यवस्था  

सल्तनत काल में नगरों की प्रशासनिक व्यवस्था को सशक्त बनाया गया। मुजफ्फर अहमद की पुस्तक Medieval Indian Governance में उल्लेख है कि शहरी क्षेत्रों में कोतवाल, अमीर, और दीवान जैसे अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी, जो नगरों में कानून व्यवस्था बनाए रखने और करों की वसूली के लिए जिम्मेदार होते थे।  
इक्ता प्रणाली: शासकों ने इक्ता प्रणाली के तहत अधिकारियों को भूमि का अनुदान दिया, जिससे उन्हें कर वसूलने का अधिकार प्राप्त होता था। इस कर व्यवस्था से नगरों के विकास के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध होते थे।  
– जजिया कर (गैर-मुस्लिमों पर लगाया जाने वाला कर) और खराज (कृषि भूमि पर कर) मुख्य कर थे, जिनसे सल्तनत की अर्थव्यवस्था को चलाया जाता था।  
दिल्ली में फिरोज शाह तुगलक ने कर संग्रह प्रणाली को और अधिक व्यवस्थित किया और नई मुद्राओं का प्रचलन किया, जिसमें सोने, चांदी, और तांबे के सिक्के शामिल थे।

सिंचाई और जल आपूर्ति  

नगरों के विकास में जल आपूर्ति और सिंचाई व्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान रहा। मोहम्मद बिन तुगलक और फिरोज शाह तुगलक ने बड़े पैमाने पर नहरों का निर्माण करवाया, जिनसे नगरों में जल की आपूर्ति होती थी। फिरोज शाह तुगलक ने जम्मू-कश्मीर से लेकर दिल्ली तक नहरों का एक जाल बिछाया, जिससे कृषि और शहरी जीवन को लाभ हुआ।  
उन्होंने यमुना नदी से नहर निकालकर हिसार और उसके आसपास के क्षेत्रों को उपजाऊ बनाया। नहरों की इस व्यवस्था ने न केवल कृषि क्षेत्र का विस्तार किया, बल्कि नगरों के विकास को भी बढ़ावा दिया।  
मध्य काल के नगर केवल प्रशासनिक और व्यापारिक केंद्र नहीं थे, बल्कि ये सांस्कृतिक, धार्मिक, और सामाजिक गतिविधियों का भी प्रमुख हिस्सा थे। दिल्ली, लाहौर, खंभात, अजमेर, और अन्य नगरों में व्यापारिक गतिविधियों, धार्मिक स्थलों, और शिल्पकारों के कार्यों ने शहरीकरण की प्रक्रिया को तेज किया। मध्यकाल की नगर संरचना और प्रशासनिक प्रणाली ने भारतीय उपमहाद्वीप के शहरीकरण पर गहरा प्रभाव डाला, जिसकी छाप आज भी कई ऐतिहासिक स्थलों और नगरों में देखी जा सकती है।
Bombay, 1760
 Plan of Bombay, 1760 (साभार:The British Library)

ब्रिटिश काल में नगरीकरण

यूरोपीय कंपनियों के भारत में आगमन के बाद से लेकर भारत की आज़ादी तक का नगरीकरण एक बहुआयामी प्रक्रिया रही है। इस दौरान भारत में नए नगरों का विकास, व्यापारिक गतिविधियों का विस्तार, औद्योगिकीकरण, और सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों के कारण शहरी क्षेत्रों में भारी परिवर्तन हुआ। यूरोपीय व्यापारिक केंद्रों के रूप में शुरू हुए नगर धीरे-धीरे प्रशासनिक, सैन्य, और औद्योगिक केंद्रों में बदल गए। अंग्रेज़ों के अधीन नगरीकरण की प्रक्रिया विशेष रूप से तेज़ी से बढ़ी, और भारत के विभिन्न हिस्सों में नए प्रकार के शहरी केंद्र स्थापित हुए।

प्रारंभिक दौर: 15वीं से 18वीं शताब्दी तक

यूरोपीय कंपनियों के आगमन के शुरुआती चरण में नगरीकरण मुख्य रूप से तटीय क्षेत्रों में हुआ। यह दौर व्यापारिक बंदरगाहों और व्यापारिक केंद्रों के विकास का था, जो भारत और यूरोप के बीच व्यापार का केंद्र बने।
कालीकट, सूरत, गोवा, बॉम्बे, मद्रास, और कलकत्ता जैसे नगर यूरोपीय शक्तियों के व्यापारिक केंद्र बने। इन नगरों में मसालों, वस्त्रों, अफीम, और रेशम जैसे उत्पादों का व्यापार होता था।
सूरत 17वीं शताब्दी में एक प्रमुख बंदरगाह नगर बन गया, जहाँ अंग्रेज़, डच, और पुर्तगाली व्यापारियों के व्यापारिक केंद्र थे। यहाँ कपास, रेशम, और मसालों का व्यापार होता था, जिससे नगर का शहरीकरण बढ़ा।

अंग्रेज़ों के अधीन नगरीकरण का विस्तार: 18वीं से 19वीं शताब्दी

18वीं शताब्दी के मध्य से अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के बड़े हिस्सों पर नियंत्रण स्थापित किया। इससे नगरों का महत्व केवल व्यापार तक सीमित नहीं रहा, बल्कि प्रशासनिक और सैन्य केंद्रों के रूप में भी उनका विकास हुआ।
कलकत्ता, बॉम्बे, और मद्रास जैसे नगर अंग्रेज़ी शासन के प्रमुख प्रशासनिक और औद्योगिक केंद्र बने। कलकत्ता 1772 में अंग्रेज़ी भारत की राजधानी बना और यहाँ से पूरे बंगाल पर शासन किया गया।
मुंबई 19वीं शताब्दी में पश्चिमी भारत का प्रमुख औद्योगिक नगर बना। 1854 में यहाँ पहली कपड़ा मिल की स्थापना हुई, जिसने नगर की अर्थव्यवस्था को औद्योगिकीकरण की दिशा में मोड़ दिया।
मद्रास दक्षिण भारत का मुख्य व्यापारिक और प्रशासनिक केंद्र बन गया। यहाँ से दक्षिण भारत में अंग्रेज़ों का प्रभाव बढ़ा।

औद्योगिकीकरण का दौर: 19वीं शताब्दी के मध्य से

19वीं शताब्दी के मध्य से औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया भारत के नगरों में तेज़ी से बढ़ी। रेलवे, तार संचार, और बड़े पैमाने पर उद्योगों की स्थापना ने भारतीय नगरों की आर्थिक और सामाजिक संरचना को बदल दिया।

रेलवे का विकास

1853 में मुंबई और ठाणे के बीच पहली रेलवे लाइन बिछाई गई। 1900 तक लगभग 40,000 किलोमीटर लंबी रेलवे लाइनें पूरे भारत में बिछाई जा चुकी थीं। रेलवे ने व्यापारिक और औद्योगिक नगरों को आपस में जोड़ा और नगरों के विकास को बढ़ावा दिया।

औद्योगिक नगरों का विकास

कलकत्ता में जूट मिलों और मुंबई में कपड़ा मिलों की स्थापना के साथ ही औद्योगिकीकरण ने नगरों में रोज़गार के नए अवसर उत्पन्न किए। 1870 के दशक तक कलकत्ता जूट उत्पादन का वैश्विक केंद्र बन चुका था, और यहाँ 40 से अधिक जूट मिलें कार्यरत थीं।

श्रमिक वर्ग और जनसंख्या वृद्धि

औद्योगिकीकरण के कारण ग्रामीण क्षेत्रों से श्रमिक वर्ग का नगरों की ओर प्रवास बढ़ा। मुंबई, कलकत्ता, और मद्रास जैसे नगरों में बड़ी संख्या में श्रमिक आकर बसे।

नगरीकरण में सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन

यूरोपीय कंपनियों और अंग्रेज़ों के अधीन नगरों का विकास केवल आर्थिक और औद्योगिक परिवर्तन तक सीमित नहीं था, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन भी हो रहे थे।
शहरी समाज: नगरों में अलग-अलग सामाजिक वर्गों का विकास हुआ। उच्च वर्ग, जिसमें व्यापारी, औद्योगिक मालिक, और अंग्रेज़ी अधिकारियों का वर्चस्व था, और श्रमिक वर्ग, जिसमें बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिक शामिल थे।
पश्चिमी शिक्षा और संस्कृति: अंग्रेज़ों के साथ भारत में पश्चिमी शिक्षा, साहित्य, और सांस्कृतिक मूल्यों का प्रभाव बढ़ा। कलकत्ता, मुंबई, और मद्रास में स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई।
अखबार और संचार माध्यम: नगरों में अखबारों का उदय हुआ, जो सूचना का प्रमुख साधन बन गया। मुंबई, कलकत्ता, और मद्रास जैसे नगरों में प्रमुख अखबार प्रकाशित होते थे, जो नगरों के राजनीतिक और सांस्कृतिक जागरूकता में सहायक थे।

आधुनिक नगरीकरण की शुरुआत: 20वीं शताब्दी

20वीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया तेज़ हो गई, विशेष रूप से स्वतंत्रता संग्राम के दौरान।
महानगरों का विकास: 20वीं शताब्दी तक मुंबई, कलकत्ता, और मद्रास जैसे नगर महानगरों में बदल गए। यहाँ की आबादी लाखों तक पहुँच गई, और औद्योगिक और व्यापारिक गतिविधियाँ अत्यधिक बढ़ गईं।
स्वतंत्रता संग्राम और नगरीकरण: नगरों में स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियाँ बढ़ने लगीं। नगरों में राजनीतिक संगठनों, अखबारों, और शिक्षा संस्थानों के माध्यम से स्वतंत्रता की चेतना का प्रसार हुआ। नगरों के मध्यम वर्ग ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
बंबई का कपड़ा उद्योग: 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में मुंबई का कपड़ा उद्योग पूरी तरह से विकसित हो चुका था। यहाँ 1910 तक 150 से अधिक कपड़ा मिलें कार्यरत थीं और मुंबई भारत का प्रमुख औद्योगिक नगर बन गया था।

यूरोपीय कंपनियों के आगमन से लेकर भारत की आज़ादी तक का नगरीकरण एक जटिल प्रक्रिया थी, जिसमें व्यापारिक, औद्योगिक, प्रशासनिक, और सांस्कृतिक बदलाव शामिल थे। इस प्रक्रिया में नए नगरों का विकास हुआ, औद्योगिकीकरण के कारण जनसंख्या में वृद्धि हुई, और भारत का शहरी ढाँचा पूरी तरह से बदल गया।

भारत में नगरीय जनसंख्या 1951-2011
नगरीय जनसंख्या में वृद्धि 1951-2011

आज़ादी के बाद भारत में नगरीकरण की तीव्रता 

भारत की आज़ादी (1947) के बाद, नगरीकरण की प्रक्रिया ने तीव्र गति से विकास किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, देश ने कई सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक परिवर्तनों का अनुभव किया, जिसने भारतीय नगरों की संरचना को महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया। इस लेख में आज़ादी के बाद नगरीकरण की तीव्रता और इसके प्रभावों को विस्तृत रूप से विश्लेषित किया गया है, जिसमें आंकड़े और तथ्यों के माध्यम से इस प्रक्रिया की गहराई और विस्तार को समझा जा सकता है। 

औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का प्रारंभ 

स्वतंत्रता के बाद, भारतीय सरकार ने औद्योगिकीकरण और शहरीकरण को प्रोत्साहित करने के लिए कई नीतियाँ और योजनाएँ लागू कीं:

– औद्योगिक नीति (1956): 

औद्योगिकीकरण के लिए एक सुविचारित योजना तैयार की गई। इसका उद्देश्य भारी उद्योगों की स्थापना, तकनीकी प्रगति, और राष्ट्रीय आय में वृद्धि था। इसके तहत भिलाई स्टील प्लांट (1959), बोधगया के औद्योगिक क्षेत्र (1965), और पद्मभूषण योजना जैसी योजनाएँ शुरू की गईं।

– प्रारंभिक शहरीकरण: 

सरकार ने औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों और कामकाजी वर्ग के लिए आवासीय क्षेत्र विकसित किए। कलकत्ता और मुंबई जैसे प्रमुख व्यापारिक केंद्रों में औद्योगिक बुनियादी ढांचे को मजबूत किया गया। 

जनसंख्या वृद्धि और शहरी विस्तार 

स्वतंत्रता के बाद की जनसंख्या वृद्धि ने नगरों की शहरीकरण प्रक्रिया को प्रभावित किया:

– जनसंख्या वृद्धि: 

1951 की जनगणना के अनुसार, भारत की जनसंख्या 36 करोड़ थी, जो 2011 तक 121 करोड़ हो गई। शहरी जनसंख्या का प्रतिशत 17.9% से बढ़कर 31.2% हो गया।
– नगरों की जनसंख्या वृद्धि:
  – दिल्ली: 1951 में जनसंख्या 15 लाख थी, जो 2011 में 167 लाख हो गई।
  – मुंबई: 1951 में जनसंख्या 32 लाख थी, जो 2011 में 184 लाख हो गई। 

आर्थिक सुधार और वैश्वीकरण 

1991 का आर्थिक सुधार भारतीय अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ, जिसने नगरीकरण की प्रक्रिया को नई दिशा दी:

– लिबरलाइजेशन और वैश्वीकरण: 

1991 में आर्थिक सुधारों के तहत, भारत ने विदेशी निवेश को आकर्षित करने और व्यापार की बाधाओं को हटाने की दिशा में कदम बढ़ाए। इसने नगरों में मल्टीनेशनल कंपनियों की संख्या में वृद्धि की और शहरी विकास को प्रोत्साहित किया।

– आईटी उद्योग: 

बंगलुरु, हैदराबाद, और पुणे जैसे नगरों में आईटी उद्योग के विकास ने उच्च गुणवत्ता वाले रोजगार और शहरी विस्तार को बढ़ावा दिया। बंगलुरु में आईटी कंपनियों की संख्या 1991 से 2011 के बीच 600% तक बढ़ी। 

आवास और आधारभूत ढांचे का विकास 

नगरीकरण के साथ आवास और आधारभूत ढांचे में उल्लेखनीय सुधार हुए:

– आवासीय परियोजनाएँ:

  – प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY): इस योजना के तहत 2015 से 2022 तक 1.12 करोड़ मकानों का निर्माण किया गया। इसके अलावा, हाउसिंग फॉर ऑल (2015) और डेवलपमेंट फॉर इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसी योजनाओं ने शहरी आवास संकट को हल करने में मदद की।

– आधारभूत ढांचा:

  – सड़क और परिवहन: नगरों में सड़क नेटवर्क और सार्वजनिक परिवहन में सुधार हुआ। दिल्ली मेट्रो (2002) और मुंबई लोकल ट्रेन्स में सुधार इसके प्रमुख उदाहरण हैं। दिल्ली में मेट्रो नेटवर्क का विस्तार 2002 से 2011 के बीच 65 किलोमीटर से 190 किलोमीटर तक हुआ।
  – जल आपूर्ति और सीवरेज: नगरों में जल आपूर्ति और सीवरेज नेटवर्क को विस्तारित किया गया। मुंबई में 2011 तक 15 जल पुनर्चक्रण संयंत्र स्थापित किए गए। दिल्ली में जल आपूर्ति नेटवर्क का विस्तार 2000 किलोमीटर से बढ़ाकर 3000 किलोमीटर किया गया। 

शहरी विकास योजनाएँ और स्मार्ट सिटी मिशन 

शहरी विकास योजनाओं और स्मार्ट सिटी मिशन ने नगरों के विकास को नई दिशा दी:

– स्मार्ट सिटी मिशन (2015):

 इस मिशन के तहत 100 स्मार्ट सिटी बनाने की योजना बनाई गई। इसमें स्मार्ट इंफ्रास्ट्रक्चर, डिजिटल सेवाएँ, और सतत विकास को प्रोत्साहित किया गया। इंदौर, चंडीगढ़, और कोच्चि स्मार्ट सिटी मिशन के प्रमुख उदाहरण हैं।

– प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY): 

इस योजना के तहत, 2022 तक हर गरीब के लिए आवास प्रदान करने का लक्ष्य रखा गया। इसके तहत लगभग 1.12 करोड़ मकानों का निर्माण किया गया, जिससे शहरी आवास संकट को कुछ हद तक हल किया गया। 

पर्यावरणीय चुनौतियाँ और शहरी समस्याएँ

नगरीकरण के साथ-साथ कई पर्यावरणीय और शहरी समस्याएँ उभरकर सामने आईं:

– वायु प्रदूषण: 

बड़े शहरों में वायु प्रदूषण एक गंभीर समस्या बन गई। दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) कई बार “गंभीर” श्रेणी में पहुँच गया है। 2020 में, दिल्ली ने सबसे खराब वायु गुणवत्ता का रिकॉर्ड बनाया।

– जल संकट: 

जल आपूर्ति की कमी और प्रदूषण ने जल संकट को जन्म दिया। मुंबई और दिल्ली जैसे नगरों में जल पुनर्चक्रण और संरक्षण की आवश्यकता बढ़ गई है। दिल्ली में केवल 50% जल पुनर्चक्रण की सुविधा उपलब्ध है। 

सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन 

नगरीकरण ने सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में भी बदलाव किया:

– सामाजिक विविधता:

नगरों में विभिन्न सांस्कृतिक और सामाजिक समूहों का समागम हुआ। मुंबई और दिल्ली जैसे नगरों में विभिन्न जातियों, धर्मों, और भाषाओं के लोग रहते हैं, जिससे सामाजिक विविधता बढ़ी है।

– सांस्कृतिक गतिविधियाँ: 

20वीं शताब्दी के अंत और 21वीं शताब्दी की शुरुआत में, नगरों में थिएटर, सिनेमा, और कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान हुआ। मुंबई में फिल्म उद्योग (बॉलीवुड) ने वैश्विक पहचान बनाई, जबकि दिल्ली में साहित्य और कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई। 

आज़ादी के बाद भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया ने तेज़ी से गति पकड़ी है। औद्योगिकीकरण, वैश्वीकरण, और शहरी विकास योजनाओं ने नगरों के विकास को प्रोत्साहित किया है, जबकि पर्यावरणीय चुनौतियाँ और शहरी समस्याएँ भी उभरकर सामने आई हैं। आंकड़े और तथ्यों के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि कैसे नगरीकरण ने भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया और इसके भविष्य की दिशा निर्धारित की। शहरीकरण के इस विकास को ध्यान में रखते हुए, भविष्य की योजनाओं में सतत विकास और पर्यावरणीय संरक्षण को प्राथमिकता देना आवश्यक है।

निष्कर्ष: भारत में नगरीकरण का इतिहास

भारत में नगरीकरण का इतिहास एक जटिल और दीर्घकालिक प्रक्रिया रही है, जो समय के साथ विकसित होती गई। प्राचीन सभ्यताओं, जैसे कि सिंधु घाटी सभ्यता के नगरों से लेकर द्वितीय नगरीकरण के महाजनपदों और उसके बाद मौर्य और गुप्त साम्राज्यों के समय में नगरों के विस्तार तक, नगरीकरण भारतीय समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। हर दौर ने नगरीकरण की दिशा और स्वरूप को प्रभावित किया, चाहे वह व्यापारिक केंद्रों के रूप में नगरों का उदय हो, धार्मिक और सांस्कृतिक हब का विकास हो, या फिर राजनीतिक और प्रशासनिक गतिविधियों का केंद्र बनना हो।

सिंधु घाटी सभ्यता में उन्नत नगर योजनाओं और जल निकासी प्रणालियों के विकास से लेकर द्वितीय नगरीकरण के दौरान महाजनपदों के व्यापारिक और सांस्कृतिक केंद्रों का उदय तक, भारतीय नगर हमेशा सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र रहे हैं। इन नगरों ने न केवल व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा दिया, बल्कि धार्मिक और बौद्धिक गतिविधियों को भी पोषित किया, जिसने भारत की सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध किया।

आधुनिक युग में, नगरीकरण की प्रक्रिया ने एक नया रूप ले लिया है। स्वतंत्रता के बाद से, शहरीकरण की गति तेज हुई है, और भारत में नए औद्योगिक और तकनीकी केंद्र उभर रहे हैं। यह नगरीकरण की प्रक्रिया भारत की आर्थिक प्रगति और वैश्विक मंच पर उसकी भूमिका को भी आकार दे रही है।

इस प्रकार, भारत में नगरीकरण का इतिहास विभिन्न दौरों और घटनाओं से जुड़ा है, जिसने भारत को सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से समृद्ध और विविध बनाया है।

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