भारतीय साम्यवाद का इतिहास: संघर्ष, विभाजन और वर्तमान चुनौतियाँ

एम. एन. रॉय, लेनिन और मैक्सिम गोर्की
“1920: एम. एन. रॉय (केंद्र में, काले टाई में) व्लादिमीर लेनिन (बाएं) और मैक्सिम गोर्की (लेनिन के पीछे) के साथ। रॉय के मार्गदर्शन में अक्टूबर 1920 में सोवियत ताशकंद में एक प्रवासी कम्युनिस्ट पार्टी का उदय हुआ।”

भारत में साम्यवाद का इतिहास 

साम्यवाद की उत्पत्ति 19वीं सदी में हुई, जब औद्योगिक क्रांति के दौरान समाज में अमीर और गरीब के बीच गहरी खाई उत्पन्न हो गई। इस समय, कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने देखा कि पूंजीपति वर्ग, जो उत्पादन के साधनों के मालिक थे, और श्रमिक वर्ग, जो अपनी श्रम शक्ति बेचते थे, के बीच असमानता बढ़ रही थी। Mm

मार्क्स और एंगेल्स ने अपने विचारों को “कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र” (1848) में व्यक्त किया, जिसमें उन्होंने बताया कि समाज को वर्गहीन और समानता आधारित बनाने के लिए पूंजीवाद का अंत करना होगा। उनका तर्क था कि एक दिन श्रमिक वर्ग क्रांति करके पूंजीपतियों के खिलाफ उठ खड़ा होगा और सभी संपत्तियों और संसाधनों को साझा करेगा, जिससे समाज में समानता स्थापित होगी। इस प्रकार, साम्यवाद का उदय औद्योगिक क्रांति और सामाजिक असमानता के खिलाफ प्रतिक्रिया के रूप में हुआ।

क्या है साम्यवाद ?

साम्यवाद एक राजनीतिक और सामाजिक विचारधारा है जो मानती है कि समाज में सभी संपत्ति और संसाधन साझा किए जाने चाहिए, और सभी लोग समान अधिकार और अवसर प्राप्त करें। इसके अनुसार, सभी के लिए समान जीवन स्तर सुनिश्चित करने के लिए उत्पादन के सभी साधनों पर सामूहिक स्वामित्व होना चाहिए। साम्यवाद का उद्देश्य समाज में वर्ग भेद और आर्थिक असमानता को समाप्त करना है, ताकि हर व्यक्ति को समान रूप से अवसर और संसाधन मिल सकें। इस विचारधारा का प्रमुख विचारक कार्ल मार्क्स था, जिसने इसे विस्तार से समझाया और इसके सिद्धांतों को विकसित किया।

भारत में साम्यवाद का विकास, विभाजन और समकालीन चुनौतियाँ

भारत में साम्यवाद का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम से लेकर वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य तक एक गहन और जटिल यात्रा है। इस विचारधारा ने भारतीय समाज में गहरे बदलाव लाने के उद्देश्य से मजदूरों, किसानों और सामाजिक न्याय के समर्थकों को संगठित किया। साम्यवाद की मूल अवधारणा एक वर्गहीन समाज की स्थापना पर केंद्रित है, जहाँ उत्पादन के साधनों का सामूहिक स्वामित्व हो और समाज में सभी को समान अवसर मिले।

साम्यवाद का वैश्विक पृष्ठभूमि और भारत में प्रवेश

साम्यवाद का उद्भव 19वीं सदी में यूरोप में हुआ, जब औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप सामाजिक असमानताएँ बढ़ीं। 1848 में कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने सर्वहारा वर्ग (श्रमिक वर्ग) द्वारा बुर्जुआ वर्ग (पूंजीपति वर्ग) के शोषण को समाप्त करने और एक वर्गविहीन समाज की स्थापना की बात कही। मार्क्स की दृष्टि में, समाज का विकास ऐतिहासिक भौतिकवाद पर आधारित था, जिसमें वर्ग संघर्ष अनिवार्य था। उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि पूंजीवाद अंततः साम्यवाद में परिवर्तित होगा।उनका मानना था कि इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है, और यह संघर्ष अंततः एक वर्गहीन समाज की स्थापना करेगा।

1917 की रूसी क्रांति ने साम्यवादी विचारधारा को एक नई दिशा दी। व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी ने ज़ार की सत्ता को उखाड़ फेंका और सोवियत संघ की स्थापना की। सोवियत संघ में पहली बार राज्य के स्तर पर साम्यवादी व्यवस्था लागू की गई, जिसने दुनिया भर के वामपंथी आंदोलनों को प्रेरित किया। लेनिन की मृत्यु के बाद, जोसेफ स्टालिन ने साम्यवादी शासन को और अधिक सख्त रूप में स्थापित किया, जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैल गया।

रूसी क्रांति (1917) साम्यवादी विचारधारा के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई, जिसने दुनिया भर में मजदूर आंदोलनों और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों को प्रेरित किया। इस क्रांति ने भारत के कई स्वतंत्रता सेनानियों और विचारकों को प्रभावित किया, जिन्होंने साम्यवाद को औपनिवेशिक उत्पीड़न से मुक्ति के साधन के रूप में देखा। 

1920 के दशक में, एम.एन. रॉय ने ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) की स्थापना की और साम्यवादी विचारधारा का बीजारोपण किया।1925 में कानपुर में CPI का औपचारिक गठन हुआ, जिसका उद्देश्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ श्रमिक और किसान आंदोलनों को संगठित करना था।

औपनिवेशिक भारत में औद्योगिकीकरण के साथ-साथ श्रमिक आंदोलन भी बढ़ने लगा। 1920 में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) की स्थापना भारतीय श्रमिक आंदोलन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। AITUC भारत का पहला राष्ट्रीय श्रमिक संगठन था, जो श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा और उनके शोषण के खिलाफ संगठित संघर्ष के लिए स्थापित किया गया था। AITUC की स्थापना में मुख्य भूमिका लाला लाजपत राय, जॉर्ज जोसेफ, एन.एम. जोशी, जोसेफ बपतिस्ता और बाल गंगाधर तिलक जैसे नेताओं ने निभाई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के गठन के साथ, AITUC ने साम्यवादी विचारधारा को अपनाया और श्रमिक वर्ग को संगठित किया। 1920 के दशक में भारतीय श्रमिक आंदोलन ने विभिन्न उद्योगों में बड़े पैमाने पर हड़तालों का आयोजन किया। इनमें सबसे महत्वपूर्ण 1928 की बॉम्बे टेक्सटाइल हड़ताल थी, जिसमें लगभग 1,50,000 मजदूरों ने काम बंद कर दिया था। यह हड़ताल टेक्सटाइल मिल मालिकों द्वारा मजदूरों के शोषण और खराब कामकाजी परिस्थितियों के खिलाफ थी। हालांकि, हड़ताल का अंत श्रमिकों के लिए अनुकूल नहीं रहा, लेकिन इसने भारतीय श्रमिक आंदोलन को एक नई दिशा दी और मजदूर वर्ग की एकजुटता को मजबूत किया।1930 का दशक भारतीय श्रमिक आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण समय था। 1930 के दशक में दांगे की गिरफ्तारी और मेरठ षड्यंत्र केस जैसी घटनाओं ने साम्यवादी नेताओं और श्रमिक आंदोलन को प्रभावित किया। ब्रिटिश सरकार ने साम्यवादी नेताओं और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं पर कड़ी कार्रवाई की, लेकिन इसके बावजूद श्रमिक आंदोलन की ताकत बढ़ती गई।इस दशक में, साम्यवादी नेता एस.ए. डांगे, मुज़फ्फर अहमद, पी.सी. जोशी, और बेंजामिन फ्रांसिस ब्रैडली ने श्रमिक आंदोलन को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1936 में, इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (INTUC) का गठन हुआ, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में एक श्रमिक संगठन था। यह संगठन श्रमिक वर्ग के अधिकारों के लिए काम करता रहा और स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

द्वितीय विश्व युद्ध ( 1939-45 ) के दौरान, भारतीय श्रमिक आंदोलन ने नई चुनौतियों और अवसरों का सामना किया। युद्धकालीन उत्पादन में वृद्धि के कारण श्रमिकों की मांग बढ़ी, जिससे उनकी स्थिति में कुछ सुधार हुआ। हालांकि, युद्ध के अंत तक, आर्थिक संकट, बेरोजगारी और जीवन यापन की बढ़ती लागत के कारण श्रमिकों की स्थिति फिर से खराब हो गई।इस दौरान, भारतीय श्रमिकों ने कई हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी श्रमिक वर्ग ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विरोध किया। हालांकि, ब्रिटिश सरकार ने युद्धकालीन आपातकाल के तहत श्रमिक आंदोलनों को कुचलने की कोशिश की, लेकिन श्रमिकों का असंतोष और संगठित संघर्ष जारी रहा। 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत के बाद, भारतीय श्रमिक आंदोलन ने फिर से जोर पकड़ा। 1946 का नौसेना विद्रोह, जिसमें भारतीय नौसेना के 20,000 से अधिक सैनिकों ने हिस्सा लिया, ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक प्रमुख संघर्ष था। यह विद्रोह ब्रिटिश सरकार के प्रति असंतोष और भारतीय श्रमिक वर्ग की समस्याओं को उजागर करता है। नौसेना विद्रोह के साथ-साथ रेलवे और अन्य उद्योगों के श्रमिकों ने भी हड़तालें कीं, जिससे ब्रिटिश शासन की नींव हिल गई।

कम्युनिस्टों की आजादी की लड़ाई में भूमिका

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में साम्यवादी योगदान

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका बहुआयामी थी। कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) ने भारतीय समाज में समाजवादी और साम्यवादी विचारधाराओं को फैलाने के साथ-साथ औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष किया। पार्टी ने 1920 और 1930 के दशकों में किसान और श्रमिक आंदोलनों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आंध्र प्रदेश में 1930 के दशक में आंध्र किसान सभा की स्थापना की गई, जिसने ज़मींदारी प्रथा और भूमि शोषण के खिलाफ संघर्ष किया। किसान सभा ने ज़मींदारों के खिलाफ हड़तालें और विरोध प्रदर्शन किए, जिनका उद्देश्य किसानों को ज़मींदारों के शोषण से मुक्त कराना और भूमि के न्यायपूर्ण वितरण को सुनिश्चित करना था।

इसके अलावा, कम्युनिस्ट पार्टी ने श्रमिक संघों का गठन कर श्रमिक आंदोलनों को संगठित किया। 1928 में बंबई (अब मुंबई) में श्रमिक हड़ताल इसका एक प्रमुख उदाहरण है, जिसमें पार्टी ने श्रमिकों के वेतन और कामकाजी परिस्थितियों में सुधार के लिए संघर्ष किया। इस हड़ताल के दौरान, कम्युनिस्ट नेताओं ने श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए उन्हें संगठित किया और ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ एकजुट किया।

कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वतंत्रता संग्राम को क्रांतिकारी दिशा में भी प्रभावित किया। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष को समर्थन दिया और कई क्रांतिकारी संगठनों के साथ मिलकर कार्य किया। भारतीय क्रांतिकारी गतिविधियों में “गदर पार्टी” और “अजाद हिंद फौज” जैसी संगठनों का उल्लेख किया जा सकता है, जो कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित थे और जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1942 में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी कम्युनिस्ट पार्टी ने सक्रिय भागीदारी की। इस आंदोलन के दौरान कम्युनिस्ट नेताओं ने बड़े पैमाने पर जनसभाओं और विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया, जिसमें पार्टी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक निर्णायक संघर्ष की दिशा में कार्य किया।

कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वतंत्रता संग्राम को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी प्रमुखता दिलाई। सोवियत संघ की अक्टूबर क्रांति से प्रेरित होकर, कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को वैश्विक दृष्टिकोण से देखा और इसे अंतरराष्ट्रीय समर्थन दिलाने की कोशिश की। सोवियत संघ ने भारतीय कम्युनिस्टों को वित्तीय सहायता प्रदान की और अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को प्रमुखता दी, जिससे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को वैश्विक समर्थन प्राप्त हुआ।

इसके अलावा, कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय समाज में सामाजिक सुधारों की दिशा में भी महत्वपूर्ण कार्य किए। पार्टी ने शिक्षा, स्वास्थ्य, और समाज के गरीब वर्गों के लिए सुधार की दिशा में काम किया। उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों और अस्पतालों की स्थापना की, जिससे समाज के पिछड़े वर्गों की स्थिति में सुधार हुआ और स्वतंत्रता संग्राम को समाज के विभिन्न वर्गों में लोकप्रिय बनाने में मदद मिली। 

कम्युनिस्ट पार्टी का संघर्ष स्वतंत्रता संग्राम को सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण से भी मजबूत करता रहा। उन्होंने किसानों और श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा की और ज़मींदारों और उद्योगपतियों के खिलाफ संघर्ष किया, जिससे स्वतंत्रता संग्राम को समाज के गरीब और शोषित वर्गों के समर्थन में मजबूती मिली। 

कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी दृष्टिकोण को स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके क्रांतिकारी दृष्टिकोण ने स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति में नए बदलाव किए और आंदोलन को अधिक निर्णायक और प्रभावी बनाया। इस प्रकार, कम्युनिस्ट पार्टी का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान बहुआयामी रहा, जिसने आंदोलन को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से मजबूत किया और स्वतंत्रता संग्राम को एक व्यापक सामाजिक सुधार आंदोलन में बदल दिया।

साम्यवाद के विचारों का भारतीय संविधान सभा और संविधान पर प्रभाव

1. संविधान सभा की पृष्ठभूमि

भारतीय संविधान सभा की स्थापना 1946 में हुई, जिसका मुख्य उद्देश्य भारत के लिए एक संविधान तैयार करना था। इसमें विभिन्न राजनीतिक दलों और विचारधाराओं के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। साम्यवादी विचारधारा के प्रतिनिधियों ने भी सभा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता, श्रमिक अधिकारों, और भूमि सुधार जैसे मुद्दों पर जोर दिया।

साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव संविधान सभा के कई प्रमुख सदस्यों के विचारों में देखा जा सकता है, जैसे कि जवाहरलाल नेहरू और डॉ. बी.आर. आंबेडकर। इन नेताओं ने साम्यवाद की सामाजिक न्याय की अवधारणा को अपनाया और उसे संविधान के प्रावधानों में शामिल करने की कोशिश की। उदाहरण के लिए, आंबेडकर ने अस्पृश्यता के उन्मूलन और दलितों के अधिकारों के लिए जोर दिया, जो साम्यवादी सिद्धांतों के समान है।

2. समानता और न्याय की अवधारणा

समानता के अधिकार:

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में समानता के अधिकार का प्रावधान किया गया है, जो सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। यह प्रावधान साम्यवादी विचारधारा से प्रेरित है, जो समाज में सभी लोगों को समान अधिकार देने पर जोर देती है। साम्यवाद का मूल उद्देश्य समाज में आर्थिक और सामाजिक असमानता को समाप्त करना है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए संविधान में समानता के अधिकार को शामिल किया गया।

सामाजिक और आर्थिक न्याय:

अनुच्छेद 15 और 16 में जाति, धर्म, लिंग, और स्थान के आधार पर भेदभाव को समाप्त करने की बात की गई है। यह प्रावधान समाज में व्याप्त असमानता और शोषण को समाप्त करने के लिए साम्यवादी विचारधारा के अनुरूप है। इसके अलावा, संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में सामाजिक और आर्थिक न्याय की बात की गई है, जो साम्यवादी सिद्धांतों से मेल खाता है। 

3. धर्मनिरपेक्षता की स्थापना

धर्मनिरपेक्षता:

साम्यवादी विचारधारा एक धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना पर जोर देती है, जहाँ राज्य और धर्म के बीच स्पष्ट विभाजन हो। भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता को एक प्रमुख सिद्धांत के रूप में शामिल किया गया है। अनुच्छेद 25 से 28 तक के प्रावधान धार्मिक स्वतंत्रता की बात करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य किसी विशेष धर्म को समर्थन न दे। 

साम्यवाद का यह दृष्टिकोण कि राज्य को धार्मिक मामलों से अलग रहना चाहिए, भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह प्रावधान समाज में धार्मिक सहिष्णुता और समरसता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से किया गया है। 

4. नीति निर्देशक सिद्धांत

नीति निर्देशक सिद्धांतों का समावेश:

भारतीय संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy) में साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। नीति निर्देशक सिद्धांतों का मुख्य उद्देश्य राज्य को समाज में सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए दिशा-निर्देश देना है।

अनुच्छेद 39 (बी) और (सी) के तहत राज्य को निर्देशित किया गया है कि वह संपत्ति का वितरण इस प्रकार से करे कि समाज के सबसे कमजोर वर्गों को लाभ हो। यह साम्यवादी सिद्धांतों के अनुरूप है, जिसमें संसाधनों का समान वितरण और सामाजिक न्याय पर जोर दिया गया है। नीति निर्देशक सिद्धांतों में श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा और सामाजिक सुरक्षा की बातें भी शामिल हैं, जो साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित हैं। 

नीति निर्देशक सिद्धांतों में यह सुनिश्चित किया गया है कि श्रमिकों को उचित मजदूरी, काम की सुरक्षित और स्वास्थ्यप्रद स्थिति, और सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार मिले। ये सिद्धांत भारतीय संविधान को समाजवादी दृष्टिकोण की ओर उन्मुख करते हैं, जिसमें श्रमिकों की स्थिति में सुधार और सामाजिक सुरक्षा की पहल की जाती है।

भारतीय संविधान पर साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव एक महत्वपूर्ण पहलू है, जो संविधान के समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष ढांचे में परिलक्षित होता है। यह प्रभाव न केवल संविधान के प्रावधानों में, बल्कि संविधान सभा के विचार-विमर्श और निर्णयों में भी देखा जा सकता है। भारतीय संविधान ने सामाजिक न्याय, समानता, और धर्मनिरपेक्षता जैसे साम्यवादी विचारों को आत्मसात करके एक ऐसा ढांचा तैयार किया है, जो भारतीय समाज को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुआ है।

स्वतंत्रता के बाद का दौर: विभाजन, वैचारिक संघर्ष और हिंसक धारा

कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन का कारण और परिस्थितियाँ

भारत की स्वतंत्रता के बाद, CPI को नए राजनीतिक और वैचारिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। स्वतंत्रता के तुरंत बाद पार्टी के भीतर विचारधारा और रणनीति को लेकर मतभेद उभरने लगे। मुख्य विवाद सोवियत संघ और चीन के साम्यवादी मॉडल के बीच था। सोवियत संघ का नेतृत्व शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और संसदीय लोकतंत्र के माध्यम से समाजवादी निर्माण पर जोर देता था, जबकि चीन का दृष्टिकोण क्रांतिकारी संघर्ष और सशस्त्र क्रांति पर आधारित था।

1962 के भारत-चीन युद्ध ने इन मतभेदों को और गहरा कर दिया। CPI का एक धड़ा सोवियत संघ का समर्थन करता रहा, जबकि दूसरा धड़ा चीन के पक्ष में खड़ा हुआ। युद्ध के बाद, पार्टी के भीतर असंतोष बढ़ा और इन वैचारिक मतभेदों के परिणामस्वरूप 1964 में CPI का विभाजन हुआ और *कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी)* [CPI (M)] का गठन हुआ। CPI (M) ने चीन के क्रांतिकारी मॉडल और वर्ग संघर्ष पर अधिक जोर दिया, जबकि CPI ने सोवियत संघ के मॉडल को अपनाया जो शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और संसदीय लोकतंत्र के माध्यम से समाजवादी निर्माण पर आधारित था।

CPI (M) के संस्थापक सदस्य
9 CPI(M) के पोलित ब्यूरो के संस्थापक सदस्य।ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद,बी.टी. रणदिवे,प्रमोद दासगुप्ता,एम. बसवपुन्नैया,पी. सुंदरैय्या,हरकिशन सिंह सुरजीत,ज्योति बसु,ए.के. गोपालन,जी. रामचंद्रन

कम्युनिस्ट गुटों के वैचारिक भेद

1. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI):

   – CPI सोवियत संघ के प्रभाव में रही और संसदीय लोकतंत्र के माध्यम से समाजवादी परिवर्तन का समर्थन करती रही। यह पार्टी शुरू में मजदूर और किसान आंदोलनों का नेतृत्व करती थी, लेकिन समय के साथ यह भारतीय राजनीति के मुख्यधारा में शामिल हो गई। CPI का दृष्टिकोण शांतिपूर्ण समाजवादी निर्माण पर केंद्रित रहा, और इसने संसदीय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई।

2. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) [CPI (M)]:

   – CPI (M) का गठन 1964 में हुआ और इसने चीन के क्रांतिकारी मॉडल को अपनाया। पार्टी ने भूमि सुधार, वर्ग संघर्ष, और क्रांतिकारी परिवर्तनों पर जोर दिया। CPI (M) ने पश्चिम बंगाल, केरल, और त्रिपुरा जैसे राज्यों में अपनी पकड़ बनाई और लंबे समय तक सत्ता में रही। इसका दृष्टिकोण अधिक उग्रवादी और क्रांतिकारी रहा, जिसमें वर्ग संघर्ष और सशस्त्र संघर्ष पर बल दिया गया।

3. मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारा (ML धारा):

   – 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में एक उग्रवादी किसान आंदोलन के दौरान CPI (M) से एक और विभाजन हुआ, जिसमें एक धड़े ने अधिक उग्रवादी और सशस्त्र संघर्ष का मार्ग अपनाया। इसे मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारा (ML धारा) के रूप में जाना गया, और इसने भारतीय समाज में नक्सलवाद के रूप में अपना स्थान बनाया। इस धारा ने वर्ग संघर्ष के माध्यम से क्रांतिकारी परिवर्तन की बात की और हिंसक साधनों का सहारा लिया।

हिंसा का समर्थन और नक्सलवाद

भारत में साम्यवाद और हिंसा के बीच का संबंध जटिल और विवादास्पद रहा है। साम्यवादी विचारधारा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक न्याय के संघर्षों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन हिंसा के साथ इसके संबंध ने समय-समय पर आलोचनाओं को भी जन्म दिया है। साम्यवाद की मूल विचारधारा में क्रांति और वर्ग संघर्ष का महत्व है। मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुसार, एक शोषित वर्ग को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए, और इस संघर्ष में हिंसा एक संभावित उपकरण हो सकता है। भारत में भी, कुछ साम्यवादी समूहों ने इस विचारधारा को अपनाते हुए सशस्त्र संघर्ष का रास्ता चुना।
भारतीय साम्यवाद का हिंसक पक्ष सबसे पहले तेलंगाना विद्रोह (1945-51) के दौरान देखा गया। आंध्र प्रदेश के किसानों ने साम्यवादी दल के नेतृत्व में जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया। यह आंदोलन सशस्त्र संघर्ष का प्रतीक बन गया और भारतीय राजनीति में साम्यवाद की भूमिका को आकार दिया। 
नक्सलवाद भारतीय साम्यवाद का सबसे उग्र और हिंसक रूप माना जाता है, जिसका आरंभ 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से हुआ। इस आंदोलन का नेतृत्व चारू मजूमदार और कानू सान्याल जैसे साम्यवादी नेताओं ने किया। नक्सलवाद की जड़ें भारतीय समाज की गहरी असमानताओं और भूमि सुधार के सवालों में थीं। यह आंदोलन शोषित किसानों, आदिवासियों और मजदूरों के अधिकारों की रक्षा के लिए हिंसक संघर्ष का रास्ता अपनाता है। नक्सलवादी विचारधारा का मानना है कि राज्य और उसके संस्थान पूंजीपति और जमींदार वर्ग के हितों की रक्षा करते हैं, और इसलिए उनके खिलाफ सशस्त्र संघर्ष आवश्यक है।
सभी साम्यवादी दल और विचारधाराएं हिंसा का समर्थन नहीं करतीं। भारत में कई साम्यवादी दल चुनावी राजनीति में विश्वास रखते हैं और उन्होंने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन का प्रयास किया है। इनमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (CPI(M)) प्रमुख हैं। भारतीय राज्य ने साम्यवादी हिंसा को गंभीरता से लिया और कई बार इन आंदोलनों को दबाने के लिए बल प्रयोग किया। नक्सलवाद के खिलाफ भारतीय सरकार की नीति में सैन्य और पुलिस कार्रवाई शामिल रही है। इसने हिंसा के चक्र को और गहरा किया और इस संघर्ष को जटिल बना दिया।
आज भी, भारत के कुछ हिस्सों में नक्सलवादी आंदोलन सक्रिय है। ये आंदोलन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों से जुड़े हुए हैं और इनका संबंध अक्सर हिंसा से होता है। साम्यवादी दलों को अब यह तय करना होगा कि वे हिंसा को किस हद तक अपनी रणनीति का हिस्सा बनाना चाहते हैं और इसके साथ ही उन्हें जनता का समर्थन भी बनाए रखना है। साम्यवादी विचारधारा में हिंसा को एक आवश्यक बुराई के रूप में देखा गया है, जिसे पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। हालांकि, समय के साथ, कई साम्यवादी दलों ने इस विचारधारा को नकारते हुए शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीकों को अपनाया है।
हिंसा और साम्यवाद के बीच के इस संबंध ने भारतीय समाज और राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला है। हिंसक आंदोलनों ने जहां एक ओर समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों की आवाज को उठाया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने समाज में अस्थिरता और असुरक्षा का माहौल भी पैदा किया। भारत में साम्यवाद और हिंसा का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि साम्यवादी दल किस प्रकार की रणनीति अपनाते हैं। अगर वे लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण तरीकों को प्राथमिकता देते हैं, तो हिंसा का संबंध कमजोर हो सकता है। इसके विपरीत, अगर संघर्ष के पुराने तरीकों को अपनाया जाता है, तो हिंसा का सिलसिला जारी रह सकता है। भारत में साम्यवाद और हिंसा का संबंध एक जटिल मुद्दा है, जिसे समझने के लिए सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक संदर्भों का गहराई से अध्ययन आवश्यक है। साम्यवादी आंदोलन की सफलता और विफलता दोनों ही इस बात पर निर्भर करती है कि वे हिंसा और अहिंसा के बीच संतुलन कैसे बनाते हैं।

साम्यवाद की वर्तमान स्थिति और चुनौतियाँ

वर्तमान समय में भारत में साम्यवाद की स्थिति पहले जैसी मजबूत नहीं है। पिछले कुछ दशकों में साम्यवादी पार्टियाँ अपने पारंपरिक समर्थकों से कट गई हैं और चुनावी राजनीति में उनकी प्रासंगिकता घटती जा रही है। इसके कई कारण हैं:

1. आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण:

   – 1991 में भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के बाद से, वैश्वीकरण ने भारतीय समाज और राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला। साम्यवादी पार्टियाँ, जो राज्य द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था और सार्वजनिक क्षेत्र की वकालत करती थीं, इस बदलाव के साथ तालमेल नहीं बिठा पाईं। उदारीकरण की नीतियों ने निजीकरण, विदेशी निवेश, और उद्यमिता को बढ़ावा दिया, जिसने साम्यवादी पार्टियों को अप्रासंगिक बना दिया।

2. आधुनिक मुद्दों के साथ असंगति:

   – साम्यवादी पार्टियाँ, जो पारंपरिक रूप से मजदूरों और किसानों के मुद्दों पर केंद्रित थीं, आधुनिक मुद्दों जैसे कि तकनीकी परिवर्तन, शहरीकरण, और नई पीढ़ी की आकांक्षाओं के साथ तालमेल नहीं बिठा सकीं। इससे युवाओं और शहरी मध्यम वर्ग के बीच पार्टी का आधार कमजोर हुआ।

3. संगठनात्मक कमजोरियाँ और आंतरिक कलह:

   – साम्यवादी पार्टियाँ आंतरिक कलह और नेतृत्व की कमी से भी जूझ रही हैं। CPI और CPI (M) के बीच वैचारिक और रणनीतिक मतभेदों ने पार्टी की संगठनात्मक शक्ति को कमजोर कर दिया। इसके अलावा, पार्टी के भीतर गुटबाजी और सत्ता संघर्ष ने पार्टी की एकता को प्रभावित किया।

4. प्रभावशाली चुनावी रणनीतियों की कमी:

   – साम्यवादी पार्टियाँ चुनावी रणनीतियों में भी कमजोर साबित हुई हैं। उन्होंने व्यापक जनसमर्थन जुटाने के लिए प्रभावशाली रणनीतियों का विकास नहीं किया, जबकि अन्य पार्टियाँ जाति, धर्म, और क्षेत्रीय मुद्दों पर आधारित समर्थन जुटाने में सफल रहीं। चुनावों में बार-बार हार और जन समर्थन में कमी ने साम्यवादी पार्टियों की राजनीतिक शक्ति को कमजोर कर दिया।

5. जनसंपर्क और सामाजिक मुद्दों पर फोकस की कमी:

   – साम्यवादी पार्टियाँ जनता के साथ स्थायी संवाद स्थापित करने में विफल रहीं। उनकी नीतियाँ और विचारधारा औद्योगिक युग के मुद्दों पर केंद्रित रहीं, जबकि समाज तेजी से बदलता गया। इसके अलावा, उन्होंने सामाजिक मुद्दों जैसे कि जाति, लिंग, और पर्यावरण पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया, जो आज के राजनीतिक परिदृश्य में अधिक प्रासंगिक हैं।

6. वामपंथी पंथी गुटों का आंतरिक संघर्ष और संगठनात्मक समस्याएँ

साम्यवादी पार्टियों के भीतर आंतरिक संघर्ष और गुटबाजी एक बड़ी समस्या रही है, जिसने इनकी एकता और संगठनात्मक शक्ति को कमजोर किया है। CPI और CPI (M) के बीच वैचारिक और रणनीतिक मतभेद ने इनकी शक्ति को विभाजित कर दिया। इसके अलावा, दोनों पार्टियों के भीतर भी कई गुट उभरे, जिनका अपना-अपना एजेंडा और नेतृत्व था। यह गुटबाजी केवल विचारधारा तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि पार्टी के संसाधनों और नेतृत्व के नियंत्रण को लेकर भी संघर्ष होते रहे।

7. नेतृत्व की कमी और संगठनात्मक ढाँचा

वामपंथी पार्टियों की नेतृत्व की कमी और उनके संगठनात्मक ढाँचे में जड़ता भी इनकी गिरावट का एक कारण है। अधिकतर नेतृत्व पुरानी पीढ़ी के नेताओं के हाथ में रहा, जो नए विचारों और रणनीतियों को अपनाने में धीमे थे। इसके अलावा, पार्टी का संगठनात्मक ढाँचा भी कठोर और केंद्रीकृत रहा, जिसमें निचले स्तर पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता कम थी। इससे जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं के साथ संवाद में कमी आई और पार्टी के भीतर असंतोष बढ़ा।

समकालीन राजनीतिक परिदृश्य और साम्यवाद

भारतीय राजनीति में पिछले कुछ दशकों में महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं। वामपंथी पार्टियाँ, जो कभी देश की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं, अब हाशिये पर पहुँच गई हैं। इस बदलाव का एक मुख्य कारण भारतीय समाज के राजनीतिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक ढाँचे में हुए परिवर्तन हैं।

1. राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों का उदय:

   – राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी (BJP) और कांग्रेस ने मुख्यधारा की राजनीति पर अपना प्रभुत्व बनाए रखा है, जबकि क्षेत्रीय दलों ने भी अपने-अपने राज्यों में मजबूत पकड़ बनाई है। इन दलों ने वामपंथी पार्टियों के परंपरागत मतदाता आधार को अपने पक्ष में करने में सफलता हासिल की है। खासकर उत्तर भारत के राज्यों में, जहाँ कभी वामपंथी पार्टियाँ मजबूत हुआ करती थीं, वहाँ अब क्षेत्रीय दलों का प्रभुत्व है।

2. धार्मिक और जातिगत राजनीति का उदय:

   – भारतीय राजनीति में धार्मिक और जातिगत पहचान पर आधारित राजनीति का उदय भी वामपंथी पार्टियों के लिए चुनौती बना है। इन पार्टियों ने अक्सर वर्ग संघर्ष पर जोर दिया और धार्मिक और जातिगत मुद्दों को दरकिनार किया। इसका परिणाम यह हुआ कि धार्मिक और जातिगत मुद्दों पर आधारित पार्टियों ने इनकी जगह ले ली और वामपंथी पार्टियाँ अप्रासंगिक होती चली गईं।

साम्यवाद का भविष्य: संभावनाएँ और चुनौतियाँ

भारतीय साम्यवाद का भविष्य अनिश्चितता से भरा हुआ है, लेकिन इसकी विचारधारा की प्रासंगिकता पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। सामाजिक असमानता, गरीबी, और श्रमिक अधिकारों जैसे मुद्दे आज भी प्रासंगिक हैं, और साम्यवादी विचारधारा इन मुद्दों का समाधान पेश करती है।वामपंथी पार्टियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता उनकी विचारधारा का पुनर्मूल्यांकन है। 21वीं सदी के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में पारंपरिक साम्यवादी दृष्टिकोणों की सीमाओं को पहचानते हुए, पार्टी को अपनी विचारधारा को आधुनिक समय की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालना होगा। इसके लिए कुछ प्रमुख क्षेत्रों में सुधार आवश्यक है:

1. समाजवादी विचारधारा का विस्तार:

   – साम्यवाद की मूल अवधारणा, जो वर्ग संघर्ष और समानता पर आधारित है, को आधुनिक सामाजिक मुद्दों के साथ जोड़ना होगा। जातिगत असमानता, लिंग भेदभाव, पर्यावरणीय संकट, और तकनीकी विकास के सामाजिक प्रभाव जैसे मुद्दों को ध्यान में रखते हुए साम्यवादी विचारधारा का विस्तार करना होगा। इससे पार्टी को व्यापक जनसमर्थन मिल सकता है।

2. आधुनिक तकनीक और संचार साधनों का उपयोग:

   – साम्यवादी पार्टियों को डिजिटल युग की जरूरतों के अनुसार खुद को ढालना होगा। सोशल मीडिया, डिजिटल प्लेटफॉर्म, और ऑनलाइन कैंपेनिंग के माध्यम से युवाओं और शहरी वर्गों तक अपनी पहुंच बढ़ानी होगी। यह केवल पार्टी के विचारों का प्रचार करने का माध्यम नहीं होगा, बल्कि जनता से संवाद करने का भी एक प्रभावी साधन साबित होगा।

3. स्थानीय और वैश्विक मुद्दों का समायोजन:

   – पार्टी को स्थानीय स्तर पर चल रहे मुद्दों और आंदोलनों को समर्थन देना होगा, जिससे वे जमीनी स्तर पर अपने प्रभाव को फिर से स्थापित कर सकें। साथ ही, उन्हें वैश्विक मुद्दों जैसे कि जलवायु परिवर्तन, प्रवासन, और वैश्वीकरण के प्रभावों पर भी ध्यान देना होगा। यह उनकी विचारधारा को अधिक व्यापक और प्रासंगिक बनाएगा।

4. सामाजिक आंदोलनों के साथ साझेदारी:

   – विभिन्न सामाजिक आंदोलनों जैसे कि महिला अधिकार, दलित अधिकार, आदिवासी अधिकार, और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े संगठनों के साथ साझेदारी करके वामपंथी पार्टियाँ अपनी पहुंच और प्रभाव को बढ़ा सकती हैं। इससे पार्टी के विचारों को नए समर्थकों के बीच प्रसारित करने का अवसर मिलेगा।

5. संघर्ष की रणनीति का पुनः विचार:

   – पारंपरिक वर्ग संघर्ष की रणनीति को पुनः विचार करने की जरूरत है। हिंसक संघर्षों की बजाय, पार्टी को लोकतांत्रिक साधनों के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन की दिशा में काम करना होगा। शांतिपूर्ण विरोध, संवाद, और जनजागरूकता अभियानों के माध्यम से पार्टी को अपनी बात जनता तक पहुँचानी होगी। इसके अलावा, पार्टी के इतिहास, संघर्ष, और उपलब्धियों को भी जनता के बीच पहुँचाने का प्रयास करना होगा।

6. आत्म-चिंतन और आलोचनात्मक विश्लेषण:

   – वामपंथी पार्टियों को अपनी असफलताओं और कमजोरियों का आत्म-चिंतन करना होगा। इसके तहत उन्हें यह समझना होगा कि पिछले कुछ दशकों में वे कहाँ चूकीं और कैसे वे अपने पुराने आधार से कट गईं। इसके साथ ही, उन्हें आलोचनात्मक विश्लेषण के माध्यम से अपनी विचारधारा और रणनीतियों में आवश्यक सुधार करने होंगे।

7. विकासशील विचारधारा:

   – साम्यवादी विचारधारा को समय के साथ बदलते सामाजिक और आर्थिक परिदृश्यों के अनुसार विकसित होना होगा। उन्हें न केवल श्रमिक और किसान आंदोलनों पर ध्यान केंद्रित करना होगा, बल्कि नई पीढ़ी की आकांक्षाओं और आधुनिक मुद्दों को भी ध्यान में रखना होगा। इससे उनकी विचारधारा न केवल प्रासंगिक रहेगी, बल्कि वे नए समर्थकों को भी आकर्षित कर पाएंगी।

8. समान विचारधारा वाले दलों के साथ गठबंधन:

   – वामपंथी पार्टियाँ अगर समान विचारधारा वाले दलों के साथ गठबंधन करें और एक संयुक्त मोर्चा बनाएं, तो वे भारतीय राजनीति में फिर से महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। ऐसा करके वे अपनी संगठनात्मक शक्ति को बढ़ा सकती हैं और चुनावी राजनीति में प्रभावी हो सकती हैं।

निष्कर्ष:

भारत में साम्यवाद का इतिहास संघर्ष, विभाजन, और चुनौतियों से भरा रहा है। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर वर्तमान समय तक साम्यवादी पार्टियों ने भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन समय के साथ उन्हें नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। आज, साम्यवादी पार्टियाँ अपने पारंपरिक समर्थकों से कट चुकी हैं और राजनीतिक परिदृश्य में अपेक्षाकृत अप्रासंगिक हो चुकी हैं। 

हालांकि, सामाजिक असमानता, श्रमिक अधिकार, और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दे आज भी प्रासंगिक हैं, और अगर वामपंथी पार्टियाँ अपनी विचारधारा और संगठनात्मक ढाँचे में सुधार करें, तो वे फिर से अपनी प्रासंगिकता हासिल कर सकती हैं। साम्यवाद का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि ये पार्टियाँ बदलते समय के साथ कैसे तालमेल बैठाती हैं और नए समर्थकों को कैसे आकर्षित करती हैं। उनके लिए यह समय आत्म-चिंतन, सुधार, और पुनर्निर्माण का है, ताकि वे फिर से भारतीय राजनीति में एक मजबूत शक्ति के रूप में उभर सकें।

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