भारत में लोहे की प्राचीनता
भारत में लोहे का इतिहास बहुत पुराना है, जो विभिन्न साहित्यिक और पुरातात्विक प्रमाणों से सिद्ध होता है। भारत में लोहे के प्रयोग का प्रमाण हमें प्राचीन भारतीय ग्रंथों और खुदाईयों से मिलता है।
साहित्यिक प्रमाण
जैसा की हम जानते है कि, सिंधु घाटी सभ्यता एक कांस्यकालीन सभ्यता थी। कांस्यकालीन सभ्यता (Bronze Age Civilization) वह काल है जब मानव ने कांस्य (तांबा और टिन का मिश्रण) का उपयोग औजारों और हथियारों के निर्माण के लिए किया। हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद, भारत में लौह युग का आगमन हुआ। आम तौर पर माना जाता है कि दुनिया में सबसे पहले एशिया माइनर (आज का तुर्की) में हित्ती सभ्यता ने लोहे का उपयोग किया था। यह सभ्यता ईसा पूर्व 1800 से 1200 तक अस्तित्व में रही थी। इसके बाद अन्य देशों में लोहे का उपयोग शुरू हुआ। इसलिए, ईसा पूर्व 1200 से पहले भारत में लोहे के अस्तित्व की कल्पना करना कठिन है।
हालांकि, सुप्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ ह्वीलर का मानना था कि भारत में लोहे का प्रयोग ईरान के हखामनी शासकों द्वारा हुआ था। कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि यूनानियों ने भारत में लोहे के उपयोग की शुरुआत की थी, जबकि यूनानी साहित्य में इस बात का उल्लेख मिलता है कि भारतीय लोग पहले से ही लोहे से उपकरण बनाने में माहिर थे।
ऋग्वेद में ‘अयस्’ शब्द का उल्लेख मिलता है, जो शायद सामान्य धातु के लिए उपयोग किया गया था। हालांकि, ऋग्वेद में यह स्पष्ट नहीं है कि भारतीयों को लोहे का ज्ञान था या नहीं। लेकिन उत्तर वैदिक काल (ईसा पूर्व 1000-600) में हमें इस धातु के संकेत मिलते हैं। अथर्ववेद में ‘लोहायस’ और ‘श्याम अयस्’ शब्द मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि भारतीयों ने उस समय लोहे का उपयोग शुरू कर दिया था।
काठक संहिता में भी लोहे से बने हल का उल्लेख है, जिसे चौबीस बैल खींचते थे। इस प्रकार, साहित्यिक प्रमाणों से यह साबित होता है कि भारतीयों को आठवीं शताब्दी ईसा पूर्व में लोहे का ज्ञान था।
पुरातात्विक प्रमाण
साहित्यिक प्रमाणों के साथ-साथ पुरातात्विक प्रमाण भी यह सिद्ध करते हैं कि भारत में लोहे का प्रचलन बहुत पुराना था। कई स्थानों जैसे अहिच्छत्र, अतरंजीखेड़ा, मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती आदि की खुदाई में लौह युग के अवशेष मिले हैं। इन स्थलों से चित्रित धूसर भाण्ड (Painted Grey Ware) और लोहे के औजार जैसे भाला, तीर, चाकू, कटार, खुरपी आदि मिले हैं।
अतरंजीखेड़ा की खुदाई में धातु-शोधन भट्ठियों के अवशेष मिले हैं, जो यह प्रमाणित करते हैं कि उस समय लोग लोहे का शोधन कर रहे थे। इसके अलावा, पूर्वी भारत में सोनपुर और चिरांद जैसे स्थानों से लोहे की बर्खियां, छेनी और कीलें प्राप्त हुई हैं। इनका समय ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी के आस-पास माना जाता है।
मध्य भारत के एरण, नागदा, उज्जैन और कायथा से भी लौह उपकरण मिले हैं। इनका समय ईसा पूर्व सातवीं-छठी शताब्दी के आस-पास निर्धारित किया जाता है। दक्षिण भारत में भी विभिन्न स्थानों से बृहत्पाषाणिक कब्रें (Megaliths) मिली हैं, जिनसे लोहे के औजार और हथियार प्राप्त हुए हैं। इनकी खुदाई का समय ईसा पूर्व एक हजार से लेकर पहली शताब्दी ईस्वी तक माना जाता है।
इस प्रकार, विभिन्न क्षेत्रों में लोहे के अवशेष यह प्रमाणित करते हैं कि भारत में लोहे का ज्ञान ईसा पूर्व एक हजार तक हो चुका था।
लोहे के उपयोग से भारत में हुए परिवर्तन
लोहे का ज्ञान प्राप्त करने से भारतीय समाज में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया। बुद्ध काल तक आते-आते, भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में लोहे का व्यापक रूप से प्रयोग होने लगा था। लौह तकनीक के कारण कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई। इससे नगरीय क्रांति भी हुई और बड़े-बड़े नगरों की स्थापना हुई। कालांतर उत्तर भारत में 16 महाजनपदो का निर्माण हुआ।
लोहे का उपयोग खेती, निर्माण कार्य, और युद्धों में अधिक प्रभावी हो गया था। मगध साम्राज्य के उत्कर्ष में भी लौह तकनीक का महत्वपूर्ण योगदान था। इससे न केवल कृषि में सुधार हुआ, बल्कि नगरों का विकास और व्यापार भी बढ़ा।
इस प्रकार, भारत में लोहे का ज्ञान बहुत पुराना है और इसका प्रयोग ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी से ही शुरू हो गया था। साहित्यिक और पुरातात्विक प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि भारत के विभिन्न भागों में लोहे का प्रचलन बहुत पहले से था। इसके प्रभाव से भारतीय समाज में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए, जिससे कृषि, नगरीय जीवन और सामाजिक संरचना में क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिले।
तमिलनाडु में लौह युग की नई खोज ने इतिहास को बदल दिया
हाल में ही तमिलनाडु में एक नई और क्रांतिकारी खोज की गई है। यह खोज यह साबित करती है कि यहाँ लौह युग की शुरुआत 3,345 ईसा पूर्व हुई थी। यह समयरेखा पहले मानी गई लौह युग से बहुत पीछे है। इस खोज ने इतिहास को नया रूप दिया है और पुरानी मान्यताओं को चुनौती दी है।
अध्यान से मिली नई जानकारी
यह अध्ययन ‘लौह की प्राचीनता: तमिलनाडु से प्राप्त हालिया रेडियोमेट्रिक तिथियाँ’ नामक रिपोर्ट पर आधारित है। इस रिपोर्ट को क. राजन (पॉंडिचेरी विश्वविद्यालय) और आर. शिवानंथम (तमिलनाडु राज्य पुरातत्व विभाग) ने लिखा है।
अध्यान के दौरान, तमिलनाडु के कई प्रमुख पुरातात्विक स्थलों से लौह के नमूनों की जांच की गई। इनमें शिवगलाई, अदीचनल्लूर, मायलादुमपरई और किलनामंडी जैसे प्रमुख स्थान शामिल थे। इन स्थलों से मिले साक्ष्य बताते हैं कि यहाँ लौह का इस्तेमाल 3,345 ईसा पूर्व तक किया जाता था।
इसमें एक खास उदाहरण शिवगलाई से मिला था। वहां से एक दफन urn में धान का नमूना मिला था, जिसे रेडियोमेट्रिक तरीके से तिथि किया गया था। यह नमूना 3,345 ईसा पूर्व का था, और यह लौह प्रौद्योगिकी का सबसे पुराना प्रमाण माना गया।
भारत में लौह युग की समयरेखा में बदलाव
पहले यह माना जाता था कि भारत में लौह युग 1500 से 2000 ईसा पूर्व के बीच शुरू हुआ था। लेकिन अब यह नई खोज इस समयरेखा को पीछे धकेल देती है। तमिलनाडु के नए साक्ष्य से यह साबित हुआ है कि यहाँ लौह युग की शुरुआत 3,345 ईसा पूर्व हुई थी। इस बदलाव ने भारत के इतिहास को नया मोड़ दिया है।
वैश्विक स्तर पर इसका प्रभाव
वैश्विक स्तर पर लौह युग को सबसे पहले हित्ताइट साम्राज्य (1300 ईसा पूर्व) से जोड़ा जाता था। पहले यह माना जाता था कि हित्ताइट्स ही लौह का सबसे पहले उपयोग करने वाले थे। लेकिन अब तमिलनाडु के नए साक्ष्य ने यह साबित कर दिया है कि लौह का उपयोग हित्ताइट्स से बहुत पहले, 3,345 ईसा पूर्व में भारत में किया जाता था। इस खोज ने पुरानी मान्यताओं को पूरी तरह बदल दिया है।
तमिलनाडु का महत्व
तमिलनाडु का पुरातात्विक इतिहास बहुत महत्वपूर्ण है। इस राज्य ने लौह के उपयोग में जो भूमिका निभाई, वह पहले कभी नहीं समझी गई थी। अब यह साबित हो चुका है कि तमिलनाडु प्राचीन धातुकला और लौह विज्ञान में बहुत आगे था। इस खोज ने तमिलनाडु को लौह युग के वैश्विक इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया है।
भारतीय पुरातत्व में नया मोड़
यह खोज भारतीय पुरातत्व में एक नया मोड़ लेकर आई है। पहले, भारतीय इतिहास में लौह युग की शुरुआत का समय 1500 से 2000 ईसा पूर्व के बीच माना जाता था। लेकिन अब यह समयरेखा पूरी तरह बदल गई है। तमिलनाडु की इस खोज ने भारतीय इतिहास को फिर से लिखा है।
निष्कर्ष
तमिलनाडु की यह नई खोज लौह युग के इतिहास को पूरी तरह से बदल देती है। अब यह साबित हो चुका है कि भारत में लौह का उपयोग 3,345 ईसा पूर्व में शुरू हो चुका था। यह समयरेखा पहले मानी गई लौह युग से बहुत पीछे है। इस खोज ने न केवल भारत के इतिहास को बदल दिया है, बल्कि पूरी दुनिया में लौह युग की शुरुआत की जो धारणा थी, उसे भी चुनौती दी है।
अब यह स्पष्ट हो चुका है कि तमिलनाडु में प्राचीन धातुकला और लौह विज्ञान का इतिहास बहुत पुराना था। इस खोज के बाद, तमिलनाडु को एक महत्वपूर्ण स्थान मिला है, और यह इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ता है।
Anil