फ़िरोज़शाह तुग़लक़ का शासन: परोपकार, प्रशासनिक सुधार और कृषि विकास

 

फ़िरोज़शाह तुग़लक़ (1351-1388) का शासन दिल्ली सल्तनत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। फ़िरोज़शाह तुग़लक़ ने एक मानवतावादी और परोपकारी शासन की नींव रखी, जिससे न केवल समाज में सुधार हुआ बल्कि कृषि और नगरीय विकास में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई। इस लेख में हम फ़िरोज़शाह तुग़लक़ के शासनकाल के महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा करेंगे, जिनमें उनके प्रशासनिक सुधार, जनता के कल्याण के लिए किए गए कार्य, और कृषि क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए विकासात्मक प्रयास शामिल हैं। उनका शासन समय के साथ अधिक स्थिर और समृद्ध हुआ, और इसने दिल्ली सल्तनत के सामाजिक और आर्थिक ढांचे को नया आकार दिया। जानिए कैसे इस शासक ने “उदार राज्य” का सपना देखा, पर मध्यकालीन राजनीति की चुनौतियों में वह सपना अधूरा रह गया।

 

Portrait of Firoz Shah Tughlaq, the Sultan of Delhi, in royal attire with traditional headgear.
फिरोज़शाह तुगलक

 

फ़िरोज़शाह तुग़लक़: एक नए तरह का शासक

 

1351 से 1388 तक दिल्ली सल्तनत पर राज करने वाले फ़िरोज़शाह तुग़लक़ को इतिहास में एक अलग ही नज़रिए से देखा जाता है। मुहम्मद बिन तुग़लक़ के चचेरे भाई और उत्तराधिकारी के रूप में, उन्होंने ऐसे सुधार किए जो आज भी चर्चा का विषय हैं। चलिए, समझते हैं कैसे इस शासक ने युद्ध की जगह विकास को चुना, पर धर्म के मामले में बन गया कट्टर।

 

सुलह की नीति: विरोधियों को जीतने का तरीका 

 

फ़िरोज़शाह तुगलक ने सबसे पहले “सुलह” यानी शांति की नीति अपनाई। उनका मकसद था—रईसों, सैनिकों, किसानों और धर्मगुरुओं को अपने साथ जोड़ना। मुहम्मद बिन तुग़लक़ के समय में नाराज़ हुए लोगों को मनाने के लिए कई अनोखे कदम उठाए गए।

कागज़ात जलाए गए: मुहम्मद बिन तुग़लक़ के समय के दोआब में खेती के विस्तार और सुधार के लिए दिए गए कर्ज़ के दस्तावेज़ सार्वजनिक रूप से जलाए गए।

माफीनामे का बक्सा: जिन लोगों के कठोर सजाओं के अंतर्गत अंग काटे गए थे, उनसे माफी के पत्र लिखवाकर मकबरे पर रख दिए गए।

सजा में नरमी: विद्रोह करने वालों को बिना सख्त सजा दिए छोड़ दिया गया।

कर-मुक्त भूमि की बहाली: अतीत में धर्मशास्त्रियों, विद्वानों और समाज के कमजोर वर्गों को खास इनाम के रूप में कर-मुक्त भूमि दी गई थी। लेकिन पहले के शासकों ने यह भूमि वापस लेकर अपने शाही खजाने में जोड़ ली थी। अब, इस भूमि को फिर से उन लोगों को वापस दिया जाना था, ताकि उनके अधिकार और सम्मान की रक्षा हो सके।

इन कोशिशों का असर हुआ। इतिहासकार बरनी के मुताबिक, “प्रशासन स्थिर हो गया, सरकार के सभी कार्य दृढ़ हो गए, और सभी लोग, ऊँच-नीच, संतुष्ट हो गए, और प्रजा, मुस्लिम और हिंदू, संतुष्ट हो गई, और हर कोई अपने-अपने कार्यों में लग गया।”

 

“उदार राज्य” की अवधारणा: खून बहाने से इनकार 

 

फ़िरोज़शाह तुगलक ने अपनी किताब फ़तुहात-ए-फ़िरोज़शाही में लिखा—”बिना वजह किसी मुसलमान का खून नहीं बहाया जाएगा।” हालाँकि, यह नियम सभी पर लागू था, चाहे वे मुस्लिम हों या गैर-मुस्लिम। परोपकार की मूल अवधारणा, कि राज्य को हिंसा के भय या धमकियों के बजाय लोगों की स्वैच्छिक स्वीकृति पर आधारित होना चाहिए, का एक समाज में व्यापक प्रभाव था, जहाँ बड़ी बहुमत गैर-मुस्लिमों की थी।

यातनाएँ बंद हुईं: हाथ-पैर काटने, आँखें निकालने जैसी सजाएँ रोक दी गईं।

लोगों का भरोसा जीता: डर के बजाय प्यार से शासन करने की कोशिश की गई।

लेकिन एक सवाल बना रहा: क्या चोरी या हत्या जैसे अपराधों में भी यह नियम लागू था? इतिहासकारों का मानना है कि यह सिर्फ़ राजनीतिक मामलों तक सीमित रहा होगा।

 

फ़िरोजशाह तुगलक का समृद्धि काल

 

फ़िरोजशाह तुगलक के शासनकाल को लेकर सभी लेखकों ने एक बात कही है। उन्होंने बताया कि उनके 40 साल के शासन में लोग बहुत खुशहाल थे। चीज़ें सस्ती हो गईं और हर किसी को फायदा मिला।

फ़िरोजशाह तुगलक के जीवनीकार शम्स सिराज अफीफ़ ने कहा कि अलाउद्दीन के समय में अनाज सस्ता था, लेकिन फ़िरोजशाह के समय में चीज़ें बिना किसी मेहनत के सस्ती हो गईं। समृद्धि केवल व्यापारियों और कारीगरों तक ही नहीं, बल्कि हर किसी तक पहुंची। उत्पादन और मजदूरी साल दर साल बढ़ने लगी।

पूर्व प्रथाओं के अनुसार, शाही सामान रेशम को बाजार में तय मूल्य पर खरीदा जाता था और पैसे चुकाए जाते थे। अफीफ़ बताते हैं कि उस समय हर घर में अनाज, संपत्ति, घोड़े और फर्नीचर थे। कोई महिला बिना गहनों के नहीं रहती थी।

इस समय गरीब लोग भी अपनी बेटियों की शादी जल्दी कर सकते थे। इसका मतलब था कि अब लड़कियों को परिवार की कमाई में मदद करने की जरूरत नहीं थी।

 

शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक: समाज कल्याण के प्रयोग

 

मदरसों का जीर्णोद्धार और छात्रवृत्तियाँ

फ़िरोज़शाह ने शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए मदरसों की मरम्मत करवाई। शिक्षकों की तनख्वाह 100 से 1000 टंका तक बढ़ाई गई। छात्रों को भी 300 टंका तक की छात्रवृत्ति मिलने लगी—यह उस ज़माने के हिसाब से बड़ी रकम थी!  

 

दिल्ली का पहला ‘मुफ्त अस्पताल’ और बेरोजगारी ब्यूरो

दिल्ली में दार-उस-शफा नामक अस्पताल बनवाया गया, जहाँ सभी को मुफ्त इलाज मिलता था। इसके अलावा, बेरोजगारों के लिए रोज़गार कार्यालय और गरीब लड़कियों की शादी के लिए आर्थिक मदद जैसे अनोखे प्रयोग किए गए।  

मध्यकालीन संदर्भ में, जहाँ युद्ध और हिंसा लगभग आदर्श थे, परोपकार के सिद्धांत पर जोर देना, यद्यपि सीमाओं के साथ, एक मूल्यवान योगदान था, जिसके लिए फ़िरोज़शाह तुगलक को श्रेय दिया जाना चाहिए। फ़िरोज़शाह तुगलक को “मध्यकाल का विकास पुरुष” कहा जाए तो गलत नहीं होगा। 

 

Gold tanka and bronze jital coins from the era of Firoz Shah Tughlaq.

 

फ़िरोजशाह तुगलक और कृषि विकास

 

फ़िरोजशाह तुगलक ने कृषि के क्षेत्र में मुहम्मद बिन तुग़लक़ की नीतियों को आगे बढ़ाया। शुरुआत में, उसने ख़्वाजा हिसामुद्दीन जुनैद को राजस्व का नया बंदोबस्त करने के लिए नियुक्त किया। ख़्वाजा ने अधिकारियों की टीम के साथ छह साल तक पूरे देश का दौरा किया और नया मूल्यांकन तैयार किया।

इस मूल्यांकन के अनुसार, छह करोड़ पचहत्तर लाख टंके की राशि निर्धारित की गई, जो कि मोटे अनुमान पर आधारित थी। फ़िरोजशाह के शासनकाल में इसे बदला नहीं गया। हालांकि, यह नहीं बताया गया कि किसानों को कितनी हिस्सेदारी देनी थी, लेकिन यह निश्चित था कि मूल्यांकन का आधार हिस्सेदारी थी, माप नहीं। इसका मतलब था कि किसी भी वृद्धि या गिरावट का लाभ किसान और राज्य दोनों को मिलना था।

चूँकि भूमि-राजस्व का अधिकांश हिस्सा अमीरों को इक्ता के रूप में दिया गया था, वे किसी भी विकास के मुख्य लाभार्थी बन गए। जैसा कि हम देखेंगे, यही हुआ।

 

कृषि क्रांति के चार स्तंभ

 

1. नहरें खोदी गईं:  फ़िरोजशाह तुगलक ने हिसार शहर की स्थापना के बाद, इस शहर को पानी देने के लिए दो बड़ी नहरें खोदने का निर्णय लिया। जिस वजह से अब किसान वसंत (ख़रीफ़) और सर्दी (रबी) की दो फसलें उगा सकते थे। इन नहरों की लंबाई लगभग 100 मील थी। ये नहरें सतलज और यमुना नदियों से पानी लाती थीं और करनाल के पास मिलती थीं। इससे हिसार शहर को भरपूर पानी मिलता था।

हालाँकि, बाद में यह नहर बंद कर दी गई थी, लेकिन अकबर ने इसे मरम्मत करवा कर फिर से चालू किया। फिर शाहजहाँ के समय में इसे दिल्ली तक बढ़ाया गया।

19वीं सदी में, अंग्रेज़ों ने भी इस नहर को मरम्मत करवा कर विस्तार किया। अंत में, यह नहर पश्चिमी यमुना नहर का हिस्सा बन ई।

फ़िरोजशाह तुगलक ने नहरें खोदकर पानी लाने के बदले, 10% अतिरिक्त शुल्क (हक़-ए-शर्ब) लेने का निर्णय लिया। यह शुल्क उन पुराने गाँवों से लिया जाता था, जहाँ खेती में बढ़ोतरी हुई थी। यह राशि सुलतान की व्यक्तिगत आय का हिस्सा बनती थी।

 

2. कर व्यवस्था सरल की गई: अपने शासन के आखिरी वर्षों में, फ़िरोजशाह तुगलक ने कृषि कर प्रणाली को शरिया के अनुसार बनाने की कोशिश की। इसके तहत, उसने शरिया द्वारा स्वीकृत नहीं किए गए सभी करों को खत्म कर दिया। समकालीनों ने 21 ऐसे करों की सूची बनाई है, जिनका उन्मूलन किया गया। इनमें से एक था घरी (घर कर), जिसका जिक्र अलाउद्दीन के समय में मिलता है।

इसके अलावा, कई बाजारों में उत्पादों पर लगने वाले उपकर भी हटाए गए। हालांकि, यह कहना मुश्किल है कि इन करों के खत्म होने से किसानों को कितना फायदा हुआ। साथ ही, यह भी स्पष्ट नहीं है कि यह बदलाव कितना प्रभावी था, क्योंकि अकबर और फिर औरंगज़ेब को भी कई ऐसे करों को हटाना पड़ा था।

 

3. बाग़ों का जाल: नहरों के अलावा, फ़िरोजशाह तुगलक ने सिंचाई के लिए कई बाँध भी बनवाए। वह बाग़ लगाने के बहुत शौक़ीन थे। कहा जाता है कि उसने दिल्ली के आसपास 1200 बाग़ लगाए। इन बाग़ों के लिए उन लोगों को भुगतान किया गया, जिनकी संपत्ति या कर-मुक्त भूमि पर ये बाग़ थे। इनमें से 30 बाग़ पहले अलाउद्दीन द्वारा शुरू किए गए थे।

इन बाग़ों में काले और सफेद अंगूर, साथ ही मेवे उगाए जाते थे। सुलतान को इन बाग़ों से हर साल 1,80,000 टंके की आय होती थी।

 

4. जजिया कर का बदलाव: फ़िरोजशाह तुगलक ने अपनी नीति के तहत शरिया द्वारा स्वीकृत कर ही लगाने पर ध्यान दिया। इसके चलते, उसने गैर-मुस्लिमों से जजिया कर की वसूली शुरू की। पहले के शासकों द्वारा भी जजिया लगाया जाता था, लेकिन इसे भू-कर (ख़राज) का हिस्सा माना जाता था।

फ़िरोजशाह तुगलक पहला शासक था जिसने जजिया को भू-राजस्व से अलग, एक स्वतंत्र कर के रूप में वसूला। कुछ हद तक, इसने घरी (घर कर) को बदल दिया, जो एक व्यक्तिगत कर था।

 

शहरों का निर्माण  

 

फ़िरोजशाह तुगलक ने दिल्ली के आसपास कई क़स्बे बसाए। इनमें से दो प्रमुख क़स्बे थे, हिसार-फ़िरोज़ा और फ़िरोज़पुर। इसके अलावा, उसने पूर्वी उत्तर प्रदेश में जौनपुर का निर्माण किया और यमुना के किनारे नई राजधानी फ़िरोज़ाबाद बनाई। इस शहर में केवल किला (अब कोटला फ़िरोजशाह कहलाता है) ही बचा है।

इस शहर का पूर्वी भाग रिज तक फैला हुआ था और शहर खुद पाँच कोस या दस मील का था। इसमें शाहजहानाबाद (वर्तमान पुरानी दिल्ली) के कुछ हिस्से भी शामिल थे। फ़िरोज द्वारा बसाए गए शहरों का निर्माण एक ज़रूरत को पूरा करने के लिए किया गया था। ये नए क़स्बे कृषि विकास को दर्शाते थे, क्योंकि इनकी ज़रूरत अनाज बाज़ारों की थी।

इसके अलावा, ये नए शहर व्यापार और हस्तशिल्प के केंद्र भी बने। यहाँ 12,000 दासों को प्रशिक्षित कारीगरों के रूप में तैनात किया गया था।

 

Firoz Shah Kotla Palace with Ashoka-era Delhi-Topra Pillar (left) and Jamia Masjid (right).
फ़िरोज़ शाह कोटला का महल, जिसमें बाएं ओर अशोककालीन दिल्ली-टोपरा स्तंभ और दाएं ओर जामिया मस्जिद स्थित हैं।

फ़िरोजशाह तुगलक और उनके निर्माण कार्य

 

फ़िरोजशाह तुगलक एक महान निर्माणकर्ता थे। उन्होंने सार्वजनिक कार्य विभाग की स्थापना की, जिसने कई पुराने भवनों और मकबरों की मरम्मत की। उदाहरण के लिए, उन्होंने कुतुब मीनार की मरम्मत की, जिसका एक मंज़िल बिजली गिरने से नष्ट हो गया था। इसके अलावा, उन्होंने इल्तुतमिश और अलाउद्दीन की मस्जिद और मकबरों की भी पुनःस्थापना की।

फ़िरोजशाह ने शम्सी टैंक (कुतुब मीनार के दक्षिण में) और हौज-ए-अलई (जो अब हौज खास के नाम से जाना जाता है) की भी मरम्मत की, जिनका जल-मार्ग अवरुद्ध हो गया था।

इसके अलावा, फ़िरोजशाह ने मेरठ और आस-पास से दो अशोक स्तंभ मंगवाए। इनमें से एक स्तंभ को फिरोजाबाद के कुतला में और दूसरा स्तंभ रिज पर स्थित शिकार महल में स्थापित किया गया। उन्होंने यात्रियों के लिए कई सराय भी बनवायीं।

 

फ़िरोजशाह तुगलक का धार्मिक दृष्टिकोण

 

फ़िरोजशाह तुगलक का शासन धार्मिक दृष्टिकोण से कड़ा था। उन्होंने फ़तूहात-ए-फ़िरोज़शाही में अपने धार्मिक उपायों का ज़िक्र किया है। हालांकि, उन्होंने शराब पीने पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया, लेकिन अफ़ीफ़ ने राज्य के विभागों में शराब विभाग को शामिल किया था। इसके अलावा, फ़िरोजशाह तुगलक को संगीत और गीतों का भी शौक़ था, जिन्हें वह दोनों ईद के त्योहारों और शुक्रवार की नमाज के बाद सुनते थे। यह प्रथा उन्होंने अपनी हुकूमत के अंत तक जारी रखी।

उनकी धार्मिक प्रथाओं में शब-ए-बरात को बड़े धूमधाम से मनाना भी शामिल था। हालांकि, बाद में औरंगज़ेब ने इन्हें इस्लाम के खिलाफ मानते हुए प्रतिबंधित कर दिया।

 

फ़िरोजशाह तुगलक की धार्मिक कठोरता और बदलाव 

 

हालाँकि, फ़िरोजशाह तुगलक शिया संत फरिदुद्दीन गंज शकर के शिष्य थे, फिर भी जैसे-जैसे वे बड़े हुए, वे धार्मिक दृष्टिकोण में और कठोर होते गए। 1374-75 में, जब वह बहराइच में संत मसूद ग़ाज़ी के मकबरे पर गए, तो उनके स्वप्न में मसूद ग़ाज़ी प्रकट हुए। इससे प्रभावित होकर, फ़िरोजशाह तुगलक ने श्रद्धा दिखाने के लिए अपना सिर मुंडवा लिया। इसके बाद, उन्होंने उन सभी प्रथाओं को प्रतिबंधित कर दिया जो शरीयत के खिलाफ थीं। इसके तहत, सभी गैर-शरीयत करों को खत्म कर दिया गया और अधिकारियों को ऐसी कर वसूलने से मना किया गया।

फ़िरोजशाह तुगलक ने अपने महल से सभी चित्रों को हटवाने का आदेश दिया, जिनमें मानव रूप थे। इसके साथ ही, उन्होंने स्वर्ण और चांदी के बर्तनों में भोजन परोसने पर भी प्रतिबंध लगा दिया। इस धार्मिक कट्टरता के तहत, उन्होंने शुद्ध रेशम या शुद्ध जरी के कपड़े पहनने पर भी रोक लगाई।

 

ब्राह्मणों और मंदिरों पर फ़िरोजशाह तुगलक का निर्णय 

 

फ़िरोजशाह तुगलक ने एक ब्राह्मण को सार्वजनिक रूप से जलाकर मार डाला, क्योंकि उस पर आरोप था कि वह अपने घर में मूर्तिपूजा करता था और उसने एक मुस्लिम महिला का धर्म परिवर्तन किया था। इसके साथ ही, उन्होंने उन ब्राह्मणों से जज़िया कर भी लिया, जिन्हें पहले इस कर से छूट दी गई थी। इस निर्णय के खिलाफ दिल्ली के चार शहरों के ब्राह्मणों ने अनशन किया, लेकिन फ़िरोजशाह तुगलक ने उनकी मांगों को नकार दिया। अंततः, दिल्ली के हिंदुओं ने ब्राह्मणों का हिस्सा खुद भरने पर सहमति व्यक्त की।

फ़िरोजशाह तुगलक ने फ़तूहात-ए-फ़िरोज़शाही में लिखा है कि जबकि जजिया देने वाले हिंदू, जिन्हें वह “धिम्मी” मानते थे, उनकी संपत्ति की सुरक्षा की जाती थी और उनकी पूजा की स्वतंत्रता की भी रक्षा की जाती थी, लेकिन वह नए मंदिरों का निर्माण करने पर रोक लगाते थे। 

 

धार्मिक कट्टरता और उसके परिणाम 

 

फ़िरोज़शाह तुगलक ने अपनी धार्मिक कट्टरता के चलते इस्माइली शिया समूह के नेताओं को फांसी की सजा दी। इसके साथ ही, उन्होंने उन मुसलमानों को भी सजा दी, जिन्होंने सूफी तरीके से धर्म के खिलाफ आचरण किया था। उन्होंने इस्लामी महिलाओं को दिल्ली के बाहर संतों की मजारों पर जाने से भी मना किया, क्योंकि इससे उन्हें लंपट व्यक्तियों से मिलने का खतरा हो सकता था।

हालांकि, फ़िरोजशाह तुगलक के व्यक्तिगत कट्टरता के कार्यों के बावजूद, यह कोई प्रमाण नहीं है कि उन्होंने धिम्मी या हिंदू प्रजाओं को धार्मिक स्वतंत्रता देने की अवधारणा के खिलाफ काम किया। दरअसल, यह वह समय था जब संस्कृत के सबसे अधिक कार्यों का फारसी में अनुवाद हुआ था। फ़िरोज़शाह तुगलक ने हिंदू सरदारों को सम्मान दिया और तीन को अपनी अदालत में फर्श पर बैठने का दुर्लभ सम्मान दिया।

 

धार्मिक कठोरता और राज्य में असहिष्णुता 

 

फ़िरोज़शाह तुगलक का धार्मिक दृष्टिकोण कभी-कभी असहिष्णु था, और इसने उलेमाओं की स्थिति को मजबूत किया। इससे जनता की भलाई और धार्मिक स्वतंत्रता पर आधारित उदार नीति को कमजोर किया। हालांकि, फिरोज़शाह तुगलक का काल असहिष्णुता का काल नहीं था। इसके विपरीत, यह वह समय था जब फ़ारसी में संस्कृत कार्यों का अनुवाद किया गया था और हिंदू शासकों को सम्मान दिया गया था।

फ़िरोज़शाह तुगलक ने मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा शुरू की गई हिंदू और मुसलमानों से मिलकर बनी शासक वर्ग की प्रवृत्ति को पलट दिया। यह प्रवृत्ति लोधी शासकों के समय में सावधानी से फिर से शुरू हुई, लेकिन यह असल में अकबर के शासन में पूरी तरह से बहाल हुई।

विरासत: समृद्धि के साथ कमजोर होता केंद्र 

 

फ़िरोज़शाह के 37 साल के शासन को “सुनहरा दौर” कहा जाता है। समकालीन इतिहासकार अफ़ीफ़ लिखते हैं—”हर घर में अनाज, गहने और फर्नीचर भरा था।” पर इसकी एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी:  

जागीरदार बने ताकतवर: इक्ता प्रणाली से अमीरों की शक्ति बढ़ गई, जो बाद में सल्तनत के पतन का कारण बनी।  

सेना कमजोर हुई: युद्ध नीति छोड़ने के कारण सैन्य शक्ति घटी।  

 

निष्कर्ष: इतिहास में एक जटिल व्यक्तित्व  

 

फ़िरोज़शाह तुग़लक़ को एक ओर जहाँ नहरें बनवाने और अस्पताल खुलवाने के लिए याद किया जाता है, वहीं धार्मिक असहिष्णुता के लिए आलोचना भी झेलनी पड़ी। उनका शासन साबित करता है कि मध्यकालीन भारत में भी “जनकल्याण” और “धार्मिक कट्टरता” एक साथ चल सकते थे।  

फ़िरोज़शाह तुग़लक़ की कहानी सिखाती है कि इतिहास के शासकों को सफेद-काला नहीं, बल्कि धूसर रंगों में देखना चाहिए। उनके कृषि सुधार और नहरें आज भी प्रेरणा देती हैं, वहीं धार्मिक कट्टरता के फैसले चेतावनी भी। दिल्ली सल्तनत के इस शासक की विरासत आज भी हमें विकास और सहिष्णुता के बीच तालमेल बिठाने का संदेश देती है।

 

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