डुप्ले का भारत में योगदान: नेतृत्व, वापसी के कारण और कूटनीति

भारत के फ्रांसीसी गवर्नर जोसेफ फ्रांसिस डुप्ले
जोसेफ फ्रांसिस डुप्ले

जोसेफ फ्रांसिस डुप्ले: भारतीय उपमहाद्वीप में फ्रांसीसी साम्राज्यवाद का नायक

डुप्ले का नाम भारतीय इतिहास में उन यूरोपीय अधिकारियों में शुमार है, जिन्होंने अपने साहस, नेतृत्व कौशल और कूटनीतिक दूरदर्शिता से भारत में फ्रांसीसी उपनिवेशवाद के लिए मजबूत नींव रखी। 18वीं शताब्दी में जब भारत में अंग्रेजी और फ्रांसीसी कंपनियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई चल रही थी, डुप्ले ने न केवल अपने साहसिक निर्णयों से फ्रांसीसी हितों का विस्तार किया, बल्कि स्थानीय राजाओं और भारतीय साम्राज्यों के साथ जटिल राजनीतिक समीकरण भी बनाए। डुप्ले का योगदान इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि उन्होंने भारत में यूरोपीय साम्राज्यवादी सोच के प्रारंभिक चरणों को आकार देने में अहम भूमिका निभाई। डुप्ले ने भारत में यूरोपीय शक्तियों के संघर्ष को एक नई दिशा दी। उनके प्रयासों ने फ्रांसीसी उपनिवेश को स्थापित करने के लिए न केवल सैन्य और आर्थिक नीतियों का सहारा लिया बल्कि भारतीय शासकों के साथ गठजोड़ बनाकर ब्रिटिशों के सामने एक मजबूत चुनौती पेश की।

जोसेफ फ्रांसिस डुप्ले का करियर और उपलब्धियाँ

जोसेफ फ्रांसिस डुप्ले का जन्म 1697 में हुआ था। वह एक धनी कर-वसूली अधिकारी (फ़ार्मर-जनरल) और भारत में स्थापित फ्रेंच कंपनी के निदेशक के बेटे थे। जिसमें उन्हें उत्कृष्ट शिक्षा प्राप्त हुई। बचपन से ही डुप्ले ने व्यापार और नौसेना में रुचि दिखाई।

फ्रांसिसी ईस्ट इंडिया कंपनी में कार्यकाल

अपने पिता के प्रभाव की वजह से, 1720 में उन्हें पांडिचेरी में एक उच्च पद मिला। यहां, डुप्ले ने निजी व्यापार में हाथ आजमाया, जो उस समय फ्रेंच कंपनी के सेवकों के लिए अनुमति-प्राप्त था, और इस तरह उन्होंने अच्छा खासा धन कमाया। हालांकि, फ्रांस में कंपनी के प्रशासन में बदलाव और फ्रेंच कंपनी के प्रबंधन में मतभेद के कारण पांडिचेरी में डुप्ले के कामकाज को लेकर कई समस्याएं उत्पन्न हुईं। इसका नतीज ये रहा की, उन्हें दिसंबर 1726 में सेवा से निलंबित कर दिया गया। लेकिन डुप्ले ने हार नहीं मानी और भारत में ही रहकर फ्रांस की सरकार से अपनी अपील की। आखिरकार, उनके मामले पर कंपनी द्वारा पुनर्विचार हुआ और उनके साथ हुए अन्याय की भरपाई के लिए 1730 में उन्हें चंदननगर का गवर्नर नियुक्त किया गया। 1741 में, डुप्ले को फ्रांस के भारतीय उपनिवेशों का डायरेक्टर जनरल बनाया गया, जो उन्होंने 1754 तक संभाला। इसी वर्ष मुग़ल बादशाह ने डुप्ले को नवाब की उपाधि दी, जिससे भारतीय राजाओं के बीच उनका सम्मान और बढ़ गया। 1750 में, मुजफ्फर जंग, जो दक्कन के सूबेदार थे, ने डुप्ले को कृष्णा नदी से केप कोमोरिन तक के क्षेत्र का नवाब घोषित किया, जिसमें कर्नाटक का क्षेत्र भी शामिल था।

डुप्ले न केवल एक कुशल प्रशासक थे बल्कि एक दूरदर्शी नेता और कूटनीति के माहिर खिलाड़ी भी थे। उनका प्रशासनिक कौशल और राजनीतिक दूरदृष्टि अद्वितीय थी।

चंदननगर: डुप्ले की पहली सफलता का केंद्र

चंदननगर के गवर्नर के रूप में, डुप्ले ने एक सक्षम प्रशासक के रूप में अपनी योग्यता साबित की। उन्हें व्यापार की ताकत का बखूबी अंदाजा था। उन्होंने निजी संपत्ति को व्यापार में निवेश किया, अपने देशवासियों को उधार दिए, और भारतीय व्यापारियों को चंदननगर में बसने के लिए प्रोत्साहित किया। डुप्ले ने भारत के भीतरी प्रांतों के व्यापार की संभावनाओं को पहचानते हुए बंगाल और मराठा क्षेत्रों के व्यापारियों को चंदननगर में बसने के लिए प्रेरित किया, जिससे चंदननगर जल्द ही एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र बन गया। यह न केवल फ्रेंच आर्थिक हितों को मजबूत करता था, बल्कि भारत में ब्रिटिश प्रभाव को भी चुनौती देता था। इसके साथ ही, उन्होंने फारस की खाड़ी, चीन और तिब्बत के साथ भी व्यापारिक संबंध बनाए। धीरे-धीरे चंदननगर की पुरानी और कमजोर फ्रांसीसी कॉलोनी जीवंत हो उठी। वहां की जनसंख्या बढ़ी और आर्थिक उन्नति देखी गई। चंदननगर बंगाल का सबसे समृद्ध यूरोपीय बस्ती बन गया।

पांडिचेरी का पुनर्निर्माण

डुप्ले की इस सफलता ने फ्रांस की सरकार का ध्यान उनकी ओर खींचा, और उन्हें 1741 में पांडिचेरी का गवर्नर जनरल बनाया गया। अब डुप्ले को अपनी कुशलता दिखाने का पूरा मौका मिला। पांडिचेरी, मराठों के आक्रमण के बाद काफी बुरी स्थिति में था; वहां की जमीन बंजर हो चुकी थी और अकाल ने जनसंख्या को काफी कम कर दिया था। कर्नाटक में नवाब की गद्दी के लिए चल रहे संघर्ष ने वहां की स्थिति को और बिगाड़ दिया था। इस बीच, फ्रांस और ब्रिटेन के बीच संघर्ष की अफवाहें भी थीं और पांडिचेरी की सुरक्षा बेहद कमजोर थी। वहीं फ्रांसीसी सरकार ने खर्चों में कटौती के आदेश दिए थे और नए निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी थी।

डुप्ले ने इन चुनौतियों का डटकर सामना किया। उन्होंने अपने अधिकारियों के विरोध के बावजूद सार्वजनिक खर्चों में कटौती की और आय-व्यय में संतुलन बनाया। उन्होंने अधिकारियों और कर्मचारियों के वेतन में कटौती की और अधीनस्थ अधिकारियों में फैले भ्रष्टाचार पर लगाम कसी। लेकिन उन्होंने किलेबंदी पर खर्च रोकने के आदेश की अवहेलना की, क्योंकि उन्हें पता था कि अगर किलेबंदी नहीं की गई, तो पांडिचेरी खतरे में पड़ सकता है। उन्होंने पांडिचेरी की सुरक्षा को मजबूत किया और इसमें अपने निजी धन का भी उपयोग किया। इसके साथ ही, उन्होंने व्यापार को भी बढ़ावा दिया और पांडिचेरी को दक्षिण भारत का प्रमुख व्यापारिक केंद्र बना दिया।

डुप्ले के इस आत्मविश्वासपूर्ण कदम की फ्रांसीसी अधिकारियों ने सराहना की। उन्होंने 3 नवंबर 1746 के अपने पत्र में लिखा, “पांडिचेरी के समुद्र की ओर से किलेबंदी के आपके प्रयासों से हमें बेहद खुशी हुई है। इसके लिए हम आपके आभारी हैं… और हमने देखा है कि आपने हमारे जहाजों के लिए माल की व्यवस्था की, यह हमारे लिए बेहद संतोषजनक है।” डुप्ले का प्रभाव उनके पूरे प्रशासन पर स्पष्ट था।

डुप्ले की कूटनीतिक कुशलता

पहले दो कर्नाटक युद्धों की घटनाओं में डुप्ले की कूटनीति का कौशल स्पष्ट रूप से नजर आता है। राजनीति के खेल में डुप्ले अपने समकालीनों से बहुत आगे थे। उन्होंने दक्कन की राजनीतिक स्थिति को अच्छी तरह समझा और इसके माध्यम से फ्रांस के लिए भारत में स्थाई उपस्थिति का रास्ता तलाशा। पहले कर्नाटक युद्ध के दौरान, जब डुप्ले को ब्रिटिश नौसेना द्वारा पांडिचेरी पर हमले की आशंका हुई, तो उन्होंने तुरंत कर्नाटक के नवाब से अंग्रेजों को उसके क्षेत्र में युद्ध न करने देने की अपील की। नवाब ने डुप्ले की बात मानकर अंग्रेजों को फ्रेंच बस्तियों पर हमला करने से रोका, जिससे डुप्ले को पहली कूटनीतिक जीत मिली।

डुप्ले ने जब एडमिरल ला बोर्डनैस (La Bourdonnais) की नौसेना के समर्थन से मद्रास पर हमला किया, तो उन्होंने नवाब को कहा कि जीतने के बाद वह मद्रास को उसे सौंप देंगे। लेकिन, मद्रास जीतने के बाद डुप्ले ने किला नष्ट करने की बात कहते हुए इसे सौंपने में देरी की, जिससे नाराज होकर नवाब ने कार्रवाई की धमकी दी, लेकिन सेंट थॉमे की लड़ाई (1746) में उसे हार का सामना करना पड़ा। 1746 की सेंट थॉमे की लड़ाई में डुप्ले ने अंग्रेजों के विरुद्ध पहली बड़ी जीत हासिल की, जिससे फ्रेंच साम्राज्य को दक्षिण भारत में विस्तार करने का अवसर मिला। इस जीत ने डुप्ले को भारतीय सेनाओं पर यूरोपीय सेना की श्रेष्ठता का अहसास कराया, जिसे उन्होंने अपने आगे के प्रयासों में भुनाया।

जब डुप्ले को पता चला कि एडमिरल ला बोर्डनैस ने मद्रास को अंग्रेजों के साथ समझौते में देने का विचार किया है, तो डुप्ले ने उन्हें समझौता न करने के लिए भावनात्मक अपील की। उन्होंने लिखा, “ईश्वर के नाम पर, अपने बच्चों और पत्नी के नाम पर, मैं आपसे विनती करता हूं कि मेरी बात मानिए। जैसे आपने शुरुआत की है, वैसे ही अंत करें, और एक ऐसे दुश्मन से समझौता न करें, जिसका उद्देश्य हमें पूरी तरह तबाह करना है…।” फ्रांस के अधिकारियों ने भी डुप्ले के रुख का समर्थन किया और उन्हें एडमिरल से ऊपर माना।

जोसेफ फ्रांसिस डुप्ले डेक्कन के सूबेदार मुजफ्फर जंग से मिलते हुए
 डुप्ले, डक्कन के सूबेदार मुजफ्फर जंग से मिलते हुए

पहले कर्नाटक युद्ध की घटनाओं ने डुप्ले की प्रतिष्ठा को और बढ़ाया। उन्होंने दिखाया कि कैसे यूरोपीय भारत में प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों के दावे का समर्थन कर सकते हैं। 1748 में हैदराबाद और कर्नाटक दोनों जगहों पर उत्तराधिकार के विवाद का लाभ उठाते हुए, डुप्ले ने मुजफ्फर जंग और चांदा साहिब का समर्थन किया और उनसे कई महत्वपूर्ण रियायतें प्राप्त कीं। उनके उम्मीदवार सफल हुए। 1751 में, डुप्ले की शक्ति अपने चरम पर थी। मुजफ्फर जंग की मृत्यु के बाद नए सूबेदार सलाबत जंग की नियुक्ति में फ्रेंच का बड़ा हाथ था, और वे लगभग फ्रांसीसी नियंत्रण में थे। वास्तव में, विंध्य और कृष्णा के बीच का पूरा क्षेत्र फ्रेंच जनरल बुस्सी के अधीन था। हैदराबाद में फ्रेंच सेना को सूबेदार की ओर से बनाए रखा गया। कृष्णा नदी के दक्षिण में, डुप्ले को खुद को नवाब घोषित किया गया, जो सूबेदार और मुग़ल बादशाह द्वारा भी मान्यता प्राप्त था।

डुप्ले की विफलता के कारण

हालांकि डुप्ले एक कूटनीतिक माहिर थे, लेकिन उनकी योजनाएं अंततः विफल रहीं। इसका मुख्य कारण यह था कि डुप्ले स्वयं युद्ध में नेतृत्व करने में सक्षम नहीं थे। वे एक सेनापति नहीं थे। वे युद्ध की रणनीति बना सकते थे, अपने अधीनस्थों को निर्देश दे सकते थे, लेकिन खुद युद्ध के मैदान में नेतृत्व नहीं कर सकते थे। इस मामले में, वे लॉरेंस, क्लाइव या डॉल्टन से पीछे थे। त्रिचनापल्ली को जीतने के उनके प्रयास (1752-1753) असफल रहे क्योंकि उनके सेनापतियों जैसे मोंसियर लॉ (Monsieur Law) और मानविल (Maniville) ने उनकी योजनाओं को अमल में लाने में असफल रहे।

डुप्ले ने कूटनीति के माध्यम से भारतीय राजाओं और नवाबों के साथ संबंध स्थापित किए, परंतु उनके लिए चुनौतियाँ कम नहीं थीं। उनका मुख्य विरोधी, अंग्रेज रॉबर्ट क्लाइव, न केवल सैन्य बल में परिपक्व था, बल्कि उसके पास ब्रिटिश सरकार का भी समर्थन था, जो डुप्ले को नहीं मिल पाया। इसके अतिरिक्त, फ्रांस के भीतर भी डुप्ले की योजनाओं को समर्थन नहीं मिला, जिससे उनकी असफलताओं का मार्ग प्रशस्त हुआ।

नेतृत्व कौशल

डुप्ले एक जन्मजात नेता थे। अपनी मजबूत व्यक्तित्व के बल पर उन्होंने अपने अधीनस्थों का विश्वास जीत लिया, जो उनके निर्णयों पर पूरी तरह भरोसा करते थे। जब डुप्ले को वापस बुलाने का आदेश आया, तो कई वरिष्ठ अधिकारियों ने विरोध स्वरूप अपने पदों से इस्तीफा देने का निर्णय लिया। जब बुस्सी ने भी फ्रांस लौटने का विचार किया, तो डुप्ले ने उन्हें अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए प्रेरित किया। बुस्सी ने जवाब में लिखा, “आपका यूरोप जाना मेरे लिए एक आघात है, जिसने मुझे चौंका दिया है। आप, जो खुद जा रहे हैं, मुझे देश की सेवा जारी रखने और एक संकटग्रस्त स्थिति को संभालने के लिए कह रहे हैं। क्या आप सच में मानते हैं कि मैं आपके जैसा अपमान नहीं झेलूंगा? हो सकता है, यह आघात कुछ समय के लिए टल गया हो, लेकिन इसे टाला नहीं जा सकता। फिर भी, मैंने हमेशा आपके सलाहों को मानने और आपके तर्कों का पालन करने को अपना कर्तव्य समझा है।”

डुप्ले की वापसी

आधुनिक ब्रिटिश इतिहासकार यह मानते हैं कि डुप्ले को 1754 में वापस बुलाने में अंग्रेजों का कोई हाथ नहीं था। लेकिन इतिहासकार डॉडवेल और कर्नल मैलसन के इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं कि पेरिस में अंग्रेजी राजदूत को फ्रांस के विदेश मंत्री को यह सूचित करने के निर्देश थे कि डुप्ले की नीतियाँ दोनों कंपनियों के व्यापारिक हितों के लिए हानिकारक हैं। त्रिचिनोपोली पर कब्जा करने की डुप्ले की योजना की असफलता ने फ्रांसीसी निदेशकों को भी यही सोचने पर मजबूर कर दिया। डुप्ले को फ्रांस की असफलताओं के लिए जिम्मेदार ठहराया गया और भारत में दोनों देशों के बीच लंबे युद्ध का मुख्य कारण माना गया। हालांकि, यह कहना कठिन है कि अंग्रेज गवर्नर सॉन्डर्स कैसे कम जिम्मेदार थे। अंग्रेजों के इस विचार का प्रचार कि डुप्ले का पद पर बने रहना दोनों कंपनियों के संबंधों में बाधा था, अंततः फ्रांसीसी निदेशकों को विश्वास में ले आया और उन्होंने डुप्ले को वापस बुला लिया।

डुप्ले की वापसी के कारण चाहे जो भी रहे हों, इससे फ्रांसीसी हितों को भारत में भारी नुकसान हुआ। मैलसन लिखते हैं, “हम फ्रांस के इस अंधत्व, मूर्खता और पागलपन पर हैरान हो सकते हैं, जिसने डुप्ले को वापस बुलाया।” उनके उत्तराधिकारी गोडेहू ने डुप्ले की नीति को पूरी तरह बदलने का प्रयास नहीं किया, लेकिन वे फ्रांस के हितों की रक्षा में उतने सक्षम साबित नहीं हुए। जब डुप्ले ने अंग्रेजों के सभी सहयोगियों को उनकी तरफ से हटा दिया था, तब उन्हें वापस बुलाने का आदेश आ गया। क्या डुप्ले अपने कूटनीतिक कौशल का पूरा फायदा उठा पाते, यह इतिहास का एक बड़ा सवाल है। मैलसन जरूर यह बात बढ़ा-चढ़ाकर कहते हैं कि “यदि डुप्ले को भारत में दो साल और रहना मिलता, तो बंगाल की समृद्ध विरासत फ्रांस के हाथों में जाती।”

डुप्ले के राजनीतिक विचार

डुप्ले के राजनीतिक विचारों के बारे में इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ विद्वानों, जैसे मेजर मैलसन और हेनरी मार्टिन, का मानना है कि डुप्ले साम्राज्य बनाने की सोच रखने वाले पहले व्यक्ति थे। वे मानते हैं कि डुप्ले का भारत विजय का एक स्पष्ट और सोच-समझा योजना थी, जो फ्रांसीसी सरकार की पर्याप्त सहायता न मिलने के कारण असफल रही। मैलसन के अनुसार, डुप्ले पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदुस्तान में यूरोपीय प्रभुत्व की आवश्यकता को समझा और दिखाया कि यह कैसे संभव है। मार्टिन अपनी पुस्तक “हिस्टॉयर डे फ्रांस” में लिखते हैं, “डुप्ले ने देखा कि एशिया, अमेरिका की तरह, यूरोपीय जातियों के अधीन होने के लिए तैयार है। डुप्ले भारत को फ्रांस को देने के लिए दृढ़ थे। उनकी योजना उतनी ही सतर्क थी जितनी उनके उद्देश्य में साहसिक।”

दूसरी ओर, डुप्ले के एक और जीवनीकार, अल्फ्रेड मार्टिनो, मानते हैं कि 1749 से पहले डुप्ले की साम्राज्य बनाने की कोई योजना नहीं थी। यह 1750 की अप्रत्याशित सफलताओं ने उन्हें एक नए राजनीतिक लक्ष्य की ओर प्रेरित किया। मार्टिनो के अनुसार, डुप्ले के साम्राज्य की योजना का मुख्य कारण आर्थिक आवश्यकता थी। वे लिखते हैं, “फ्रांस से आने वाले धन की देरी और कमी के कारण व्यापार में हमेशा समस्या होती थी। डुप्ले धीरे-धीरे इस विचार पर पहुंचे कि केवल एक निश्चित क्षेत्रीय आय से ही इन समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है, और इसके लिए राजनीतिक शक्ति की आवश्यकता थी। यही विचार उनके मन में फ्रांसीसी औपनिवेशिक साम्राज्य की नींव रखी।”

प्रोफेसर डॉडवेल और पी. ई. रॉबर्ट्स इस दृष्टिकोण को उचित मानते हैं। मार्टिनो का मानना है कि डुप्ले की गलत सोच और अंधविश्वास उनके पतन के मुख्य कारण बने। डॉडवेल का मानना है कि डुप्ले ने अपने संसाधनों को बहुत तेजी से खर्च किया और उनकी योजना में स्थायित्व की कमी थी। उन्होंने अपने राजनीतिक विचारों की पूरी जानकारी फ्रांसीसी सरकार को नहीं दी, जबकि भारत में फ्रांसीसी कंपनी के पास पर्याप्त संसाधन नहीं थे। डॉडवेल लिखते हैं, “जैसे दक्कन में, कर्नाटिक भी गरीब था। दूसरे यूरोपीय शक्ति के खिलाफ इसे हथियाने की कोशिश करना विनाशकारी था।”

पांडिचेरी में फ्रांसिसी गवर्नर डुप्ले की प्रतिमा
पांडिचेरी में डुप्ले की प्रतिमा

इतिहास में स्थान

डुप्ले भारतीय इतिहास में एक प्रमुख व्यक्तित्व के रूप में खड़े हैं। उनके योगदान और सम्मान को नकारा नहीं जा सकता। पी. ई. रॉबर्ट्स लिखते हैं, “डुप्ले ने कुछ वर्षों के लिए पूर्व में फ्रांस की प्रतिष्ठा को ऊंचाई पर पहुंचा दिया था। उन्होंने भारतीय राजाओं और नेताओं के बीच ऐसी प्रतिष्ठा हासिल की, जो कभी पार नहीं की गई। उन्होंने अपने अंग्रेज समकालीनों के बीच भी भय पैदा किया, जो उनकी व्यक्तिगत शक्ति और दूरदर्शिता का सबूत है।” इसके अलावा, एंग्लो-इंडियन इतिहास में डुप्ले का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि उन्होंने पहले वह तरीका अपनाया, जो बाद में अंग्रेजों के भारत विजय में मददगार साबित हुआ। डुप्ले ने पहली बार अनुशासित सैनिकों का व्यापक रूप से उपयोग किया, मुगल सेना की शक्तियों की गलतफहमियों का भंडाफोड़ किया, और भारतीय दरबारों में यूरोपीय सैनिकों को स्थायी रूप से तैनात करने की योजना बनाई। जी. बी. मैलसन लिखते हैं, “उनकी योजनाओं का असर उनके बाद भी रहा। जिस जमीन को उन्होंने सींचा और उर्वर किया, उसका फायदा उनके प्रतिद्वंद्वियों ने उठाया।”

अगर डुप्ले को अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी जैसी समृद्ध कंपनी और एक प्रगतिशील राष्ट्र का समर्थन मिला होता, तो वे अपने समय के किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना में भारत में बेहतर प्रदर्शन कर सकते थे। डुप्ले का साहस, संसाधनशीलता और राजनीतिक दूरदर्शिता पश्चिमी उपनिवेशवाद के इतिहास में शायद ही किसी ने पार किया हो।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top