देसी रजवाड़ों के चोचले

सिर पर पगड़ी

राजा हो या रंक सिर पर पगड़ी हर किसी के लिए प्रतिष्ठा का सूचक होती है। उस दिन सिर पर पगड़ी बंधे एक नौकर, अपने हाथों में चांदी का ट्रे लिए हुए, कमरे में दाखिल होता है। यह ट्रे साल 1921 में ब्रिटिश सिंहासन के उत्तराधिकारी प्रिंस ऑफ वेल्स एडवर्ड के भारत आगमन के अवसर पर विशेष तौर पर ऑर्डर देकर लन्दन से मंगाई गई थी।

नौकर अपने स्वामी के शयनकक्ष दाखिर होता है। शयनकक्ष की दीवारों पर धुंधली धुंधली रोशनी में जानवरों के कटे सिर और न जाने कितने पुरस्कार टंगे हुए थे। यह सब कुछ वहां के स्वामी ने अपनी शिकारी बंदूक, पोलो की स्टिक या क्रिकेट के बल्ले से कमाल दिखाकर जीते थे।

नौकर ने पलंग के बगल में ट्रे रखी और धीरे से बोल “बेड टी” ।

पटियाला के महाराजा यादवेंद्र सिंह का शाही जीवन

पलंग पर लेटा आदमी था भारतीय देशी रियासत पटियाला के आठवें महाराज His Most Graces Highness यादवेंद्र सिंह।   

ये महाशय यानी यादवेंद्र सिंह, विश्व के सबसे अद्भुत संगठन के अध्यक्ष थे। वह ऐसा संगठन था जिस पर अभी तक ना तो किसी आदमी का प्रभुत्व था और ना ही आगे चलकर रहने की आशा थी। वह भारत के नरेंद्र मंडल यानी देसी रियासतों के संगठन के अध्यक्ष थे – चांसलर ऑफ द चैंबर आफ इंडियन प्रिंसेस।

भारत के 565 रजवाड़ों का संघ

इस नरेंद्र मंडल में शामिल थे 565 महाराज, नवाब, राजा और दूसरे राजवाड़े। जो साल 1947 में भी भारत के एक तिहाई भू-भाग जिसमें भारत की एक चौथाई आबादी रहती थी उसके सार्वभौम शासक बने हुए थे। 

भारतीय राजवाड़े इस बात का जीता जगता प्रमाण थे कि भारत पर अंग्रेजो के शासन में दो हिंदुस्तान थे। एक प्रांतों का हिंदुस्तान, जिसका शासन दिल्ली की केंद्रीय सरकार चलती थी मतलब उस वक्त की ब्रिटिश सरकार और दूसरी भारतीय रियासतों का एक अलग भारत।

रियासतों की उत्पत्ति

इन देसी रियासतों का सिलसिला, जिसका आधुनिक युग से कोई संबंध नहीं था। यह उस वक्त से चला आ रहा था जब अंग्रेजों ने भारत के विभिन्न टुकड़ों को अलग-अलग समय पर जीता था। जिन शासको ने अंग्रेजों का खुली बाहों से स्वागत किया उन रजवाड़ों को उनकी गद्दियो पर इस शर्त पर बने रहने दिया गया कि वे अंग्रेजों की सर्वोपरि सत्ता मान लें।

इस बिरादरी में दुनिया का सबसे अमीर आदमी भी था जैसे हैदराबाद का निजाम और इतने गरीब राजवाड़े हुए थे जिनका पूरा राज्य किसी चारागाह से बड़ा नही था।
400 से अधिक रियासतें ऐसी थी जिनका क्षेत्रफल 20 वर्ग मील से अधिक नहीं था।

विलासिता और शाही जीवन


इन रियासतों की राजनीतिक प्रवृत्तियां कुछ भी रही हो, पर भारत के रजवाड़ों में से हर एक के पास औसतन 11 उपाधियां,5.3 बीवियां, 12.6 बच्चे, 1.6 हाथी, 2.8 निजी रेल के डिब्बे, 3.4 रोल्स-रॉयस कार और शिकार में मारे हुए 22.9 शेर थे।

भारत के छोटे बड़े सभी रजवाड़ों के बारे में जो भी किस्से कहानी प्रसिद्ध थी, वह उनकी बिरादरी के उन बहुत ही थोड़े से लोगों की देन थी। जिनके पास इतना पैसा इतना फालतू समय था और जिन्हें इतना गहरा शौक था कि वह अपनी कल्पना की हर उड़ान को साकार कर सके।

बड़ौदा के महाराज तो एक तरह से सोने और हीरे जवाहरात की पूजा करते थे। दरबार में वह जो पोशाक पहन कर आते थे वह सोने की तार की बनी हुई होती थी। उनके पास हीरे जवाहरात की जो ऐतिहासिक संग्रह था, उसमें दुनिया का सातवां सबसे बड़ा हीरा सितार-ए-दक्कन भी था और वह हीरा भी था जिसे फ्रांस के सम्राट नेपोलियन तृतीय ने अपनी प्रेमिका यूजीन को दिया था। उनके रत्न भंडार में बहुमूल्य मोतियों के बने हुए कई पर्दे थे जिन पर माणिक और पन्ने से खूबसूरत बेल बूटे बनाए गए थे।

भरतपुर के महाराज के पास इससे भी अनोखा संग्रह था उनके पास शानदार कारीगरी के नमूने हाथी दांत के बने हुए थे।

कपूरथला के सिख महाराज की पगड़ी पर दुनिया का सबसे बड़ा पुखराज, इतना बड़ा की जैसे किसी दानवी जंतु की आंख की तरह चमकता रहता था।
पटियाला के सिख महाराज के रत्न भंडार का सबसे अनमोल रत्न मोतियों का वह हार था जिसका बीमा इंग्लैंड की मशहूर लॉयड  बैंक ने 10 लाख US dollar में किया था। लेकिन उससे भी अनोखी चीज जो उनके पास थी वो हल्के आसमानी रंग के 1001 हीरो से जड़ा हुआ सीने पर पहना जाने वाला उनका कवच।
महाराजा बड़ौदा जिस हाथी पर बैठकर निकलते थे उसका हौदा ठोस चांदी का होता था। और उनके उसे हाथी के दोनों कानों में 10-10 सोने की जंजीर लटकती रहती थी। हर जंजीर की कीमत उसे जमाने में 25,000 पाउंड थी।

उसे दौर में प्रत्येक राजा के हैसियत इस बात से आंकी जाती थी कि उसके पीलखाने में कितनी संख्या में, कितने पुराने और कितने बड़े हाथी हैं।

जब हैनिबाल ने अपने हाथियों की सेना लेकर आल्प्स पर्वत के पार चढ़ाई की थी, तब से विश्व में किसी ने भी एक जगह पर इकट्ठा होकर इतनी हाथी नहीं देखे थे जितने हाथी मैसूर में दशहरे के त्योहार पर इक्ट्ठा होते थे।

हालांकि, मोटर कारों के चलन के बाद शाही हाथियों का प्रयोग मात्रा उत्सवों और समारोह तक सीमित रह गया था।

भारत में पहली मोटर कार साल 1892 में महराज पटियाला द्वारा मंगवाई गई थी।
हिंदुस्तान के राजा महाराजाओं की पहली पसंद रोल्स-रॉयस हुआ करती थी वह भी तरह-तरह की शक्ल और साइज में।
इसमें सबसे अद्भुत थी महाराज अलवर की लंकास्टर मोटर कार। ठोस चांदी की, अंदर और बाहर पूरी बॉडी पर सोने की परत चढ़ी हुई, नक्काशीदार हाथी दांत की स्टेरिंग वाली।

हिंदुस्तान के रजवाड़ों को मालगुजारी, करो से जितनी आय होती थी वह सब उनके हाथ में रहती थी। इसलिए वह जिस तरह से भी चाहते थे अपनी हर संभव इच्छा को पूरी कर सकते थे।

जूनागढ़ के नवाब को कुत्तों का अजीब शौक था। उनके कुत्ते जिन घरों में रखे जाते थे उनमें टेलीफोन और बिजली की सुविधा होती थी साथ ही हर कुत्ते पर एक नौकर हुआ करता था।
उन्होंने अपनी एक कुतिया की शादी एक लेब्राडोर कुत्ते के साथ धूमधाम से करवाई। भारत के राजा महाराजा, बड़े-बड़े प्रतिष्ठित लोग इस अनोखी शादी के लिए आमंत्रित किए गए। जूनागढ़ के नवाब ने भारत के वायसराय को भी आमंत्रित किया था हालांकि वह नहीं आए, पर बारात में डेढ़ लाख अतिथि आए थे। इस शादी में कुल 9 लाख रुपए खर्च हुए थे। उस वक्त जूनागढ़ की आबादी 6 लाख 20 हजार थी।

कपूरथला के महाराजा जब पेरिस में वर्साय का महल देखने गए तो उन्हें यह विश्वास हो गया कि फ्रांस के महान सम्राट लुईस XIV ने उनके रूप में नया जन्म लिया है। उन्होंने फ्रांस से कारीगरों को बुलाकर हिमालय की तलहटी में हुबहू वर्साय के महल जैसा एक महल बनवाया।

धर्म और शक्ति का प्रभाव

धर्म और संस्कृति का पालन करने वाले भारतीय लोग, अपने राजा महाराजाओं की प्रति ईश्वर की तरह ही भक्ति रखते थे। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि कुछ राजा महाराजाओं के बारे में जनमानस में इस प्रकार की मान्यता बन जाए कि उनकी उत्पत्ति किसी दैवीय स्रोत से हुई है।

मैसूर के महाराजा अपने को चंद्रमा का वंशज बताते थे। साल में एक बार शरद पूर्णिमा के दिन महाराज अपनी प्रजा के लिए ईश्वर का साकार रूप हो जाते थे।

उदयपुर के महाराजा इससे भी उच्च दैवीय शक्ति सूर्य को अपना आदि पूर्वज मानते थे। उनका राजवंश भारत में सबसे पुराना था और कम से कम 2000 सालों से लगातार शासन करता आया था। देश में मात्र यही एक ऐसा शासक था जिसे किसी भी विदेशी हमलावर ने अपना गुलाम नहीं बनाया था।

ब्रिटिश शासन में राजवाड़ों का स्थान

भारत के राजा महाराजा आस्तिक हो या नास्तिक, हिंदू हो या मुसलमान, अमीर हो या गरीब, विलासप्रिय हो या सामान्य स्वभाव के, लगभग दो शताब्दी से भारत में ब्रिटिश शासन के सबसे मजबूत आधार स्तंभ थे। अंग्रेजों पर आरोप लगाया जाता था कि उन्होंने फूट डालो और राज करो कि नीति से भारत पर शासन किया। बल्कि अंग्रेजों ने इन देसी राजा महाराजाओं से मैत्रीपूर्ण संबंध रख कर अपनी साम्राज्यवादी नीतियों को पूरे भारत में लागू किया। यही राजवाड़े भारत में अंग्रेजो के लिए स्टील फ्रेम थे।

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