दिल्ली सल्तनत का शासन और प्रशासन (13वीं-14वीं शताब्दी): एक विस्तृत विश्लेषण

 

दिल्ली सल्तनत (Delhi Sultanate) का शासन और प्रशासन 13वीं और 14वीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण चरण था। इस काल में गुलाम वंश, खिलजी वंश और तुगलक वंश ने अपनी प्रशासनिक नीतियों से सल्तनत को संगठित करने का प्रयास किया। दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था (Delhi Sultanate Administrative System) में सुल्तान सर्वोच्च शासक था, लेकिन शासन संचालन के लिए वज़ीर, दीवान-ए-वजारत, दीवान-ए-अर्ज़, दीवान-ए-रिसालत जैसे महत्वपूर्ण विभाग थे।

मध्यकालीन भारत में शासन प्रणाली (Medieval India Governance System) के अंतर्गत इक्तादारी प्रणाली (Iqtadari System) प्रशासन की नींव थी, जिसमें इक्तेदारों को राजस्व वसूलने और सेना के संचालन का कार्य सौंपा जाता था। इसके अलावा, दिल्ली सल्तनत की न्याय प्रणाली (Judicial System of Delhi Sultanate) इस्लामी कानून यानी शरीयत पर आधारित थी, जिसमें काजी मुख्य न्यायाधीश होते थे।

खिलजी और तुगलक वंश के दौरान राजस्व प्रणाली, सेना संगठन, व्यापार नीतियाँ और सामाजिक नियंत्रण में बड़े सुधार किए गए। इस काल में प्रशासनिक व्यवस्था ने सल्तनत को सशक्त बनाया, जिससे दिल्ली सल्तनत भारत के मध्यकालीन इतिहास (Medieval Indian History) का एक प्रभावशाली शासन तंत्र साबित हुई।

दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक नीतियाँ (Administrative Policies of Delhi Sultanate), शासन प्रणाली, न्याय व्यवस्था, राजस्व सुधार और सैन्य संगठन जैसे विषयों पर यह लेख विस्तार से प्रकाश डालता है।

 

दिल्ली सल्तनत का शासन-तंत्र : ईरानी चाशनी में पकी भारतीय व्यवस्था 

 

13वीं-14वीं सदी के दिल्ली सल्तनत का प्रशासन एक अनोखा मिश्रण था। इसमें अब्बासिद खिलाफत, गजनवी और सेल्जूक साम्राज्य की नीतियों की छाप साफ दिखती थी। हैरानी की बात यह है कि भारतीय परंपराओं और स्थानीय जरूरतों को भी इसमें ढाला गया था। चलिए जानते हैं कैसे काम करता था ये ताना-बाना।

 

प्रशासन की जड़ें : फारस से फैली नई परंपराएँ 

 

पश्चिम एशिया और भारत दोनों को राजतंत्र का लंबा अनुभव था। इसी वजह से पुराने विभागों को नए नाम देकर चलाया गया। मसलन, मंत्री परिषद जैसी संस्थाएँ पहले से मौजूद थीं, लेकिन तुर्क शासकों ने इन्हें और मजबूत बनाया। सबसे बड़ा बदलाव था सत्ता का केंद्रीकरण – भारत में पहली बार इतनी केन्द्रित ताकत देखी गई।

 

सुल्तान : इंसान या भगवान की छाया?

 

शुरुआती इस्लामी सोच में ‘इमाम’ चुने हुए नेता होते थे, लेकिन दिल्ली के सुल्तानों ने खुद को ‘ज़िल्ल-ए-इलाही’ यानी ईश्वर की छाया बताया। बलबन जैसे शासकों ने सिजदा (झुककर सलाम) और पैबोस (पैर चूमने) की प्रथाएँ शुरू कीं, जो सिर्फ अल्लाह के लिए थीं। यहाँ दिलचस्प बात यह है कि हिंदू विचारों में राजा को ‘मनुष्य रूपी भगवान‘ माना जाता था – दोनों सोच एक ही दिशा में मिल गईं!

 

निरंकुश शासक का मिथक vs हकीकत 

 

क्या सुल्तान सच में अनियंत्रित तानाशाह थे? जवाब है नहीं। उनकी ताकत पर तीन चीजों की बंदिशें थीं :

1. धर्म (शरिया कानून) के नियम

2. अमीरों और सैनिकों का दबाव

3. जनता का निष्क्रिय समर्थन

उदाहरण के लिए, अलाउद्दीन खिलजी जैसे शक्तिशाली शासक को भी बाजार नियंत्रण के लिए धार्मिक नेताओं से सलाह लेनी पड़ी। दिलचस्प बात यह है कि कुरान में राजा के अधिकारों की सीमा तय नहीं थी, इसलिए व्यावहारिक फैसले सुल्तान की मर्जी पर निर्भर करते थे।

 

इक्ता प्रणाली : सल्तनत की रीढ़ 

 

शक्ति के केन्द्रीकरण का असली राज था ‘इक्ता’ व्यवस्था। सेल्जूक साम्राज्य से उधार ली गई यह प्रणाली सैनिकों को भूमि आवंटन करती थी। पर यहाँ चालाकी थी – इक्ता धारकों को सिर्फ राजस्व इकट्ठा करने का अधिकार मिलता था, जमीन पर मालिकाना हक नहीं। सुल्तान कभी भी उन्हें ट्रांसफर या हटा सकता था। जब नया राजवंश आता, तो पुराने इक्तादारो को बेदखल कर दिया जाता – बलबन के समर्थकों को खिलजी ने सड़क पर फेंक दिया था!

 

गुलामों का खेल : सत्ता का अस्थायी सहारा 

 

प्रारंभिक दौर में सुल्तानों ने गुलामों (बंदगान) को प्रशासन में ऊँचे पद दिए। यह विश्वासघात के डर से बचने की चाल थी। इल्तुतमिश के 40 गुलामों (चहलगानी) ने तो राजनीति में भूचाल ला दिया। लेकिन यह प्रथा ज्यादा दिन न चल सकी – गुलाम अधिकारी अपनी ताकत बढ़ाने लगे थे। फिरोजशाह तुगलक ने इसे फिर से शुरू करने की कोशिश की, पर यह व्यवस्था अराजकता का कारण बन गई।

 

सिंहासन का जुआ : उत्तराधिकार की अराजकता 

 

तुर्क शासकों के सामने सबसे बड़ी मुसीबत थी उत्तराधिकार का कोई स्पष्ट नियम न होना। बड़े बेटे को गद्दी देने की प्रथा नहीं थी। नतीजा? हर बार सुल्तान की मौत के बाद खूनी संघर्ष शुरू हो जाता। मजे की बात यह है कि यही अराजकता सल्तनत को मजबूत भी करती थी – कमजोर उत्तराधिकारी जल्दी हटाए जाते और योग्य नेता सत्ता संभाल लेते। मुहम्मद बिन तुगलक के समय अमीरों के विद्रोह ने साबित कर दिया कि सैन्य ताकत के बिना सिंहासन टिक नहीं सकता।

 

क्या था सल्तनत की स्थायी विरासत? 

 

इतने उथल-पुथल के बावजूद दिल्ली सल्तनत ने दो बड़े योगदान दिए :

– पहली बार भारत में केन्द्रीकृत सैन्य प्रशासन की नींव पड़ी

– राजस्व व्यवस्था और स्थानीय प्रशासन का ढाँचा विकसित हुआ

– धार्मिक सहिष्णुता और संस्कृति का फ्यूजन शुरू हुआ

अंत में कहा जा सकता है कि सल्तनत का शासन तंत्र न तो पूरी तरह विदेशी था, न देसी। यह उस जमाने की ग्लोबलाइजेशन थी – जहाँ फारसी नीतियों को भारतीय समाज की चाशनी में डुबोकर परोसा गया। आज की IAS व्यवस्था में भी आपको इसका असर दिखेगा – केन्द्र की ताकत और स्थानीय जरूरतों का नाजुक संतुलन!

 

मंत्रालय और शासक का प्रशासन 

 

शासन में सुल्तान को कई मंत्रियों की मदद मिलती थी। इन मंत्रियों की संख्या और उनके विभागों का नेतृत्व किसके द्वारा किया जाता था, यह निश्चित नहीं था। एक उदाहरण में, बरनी बताता है कि बलबन ने अपने पुत्र बुग़रा ख़ान को दिल्ली में शासन करते हुए यह सलाह दी थी कि वह केवल एक ही सलाहकार पर निर्भर न रहे। हालांकि, इसमें वज़ीर को सबसे प्रमुख माना जाता था।

 

मंत्रियों के प्रमुख विभाग 

 

वज़ीर के नेतृत्व में कई विभाग होते थे। बारानी के अनुसार, चार मुख्य सलाहकारों का उल्लेख किया गया था। इनमें चार विभागों का भी उल्लेख था, लेकिन यह संख्या केवल प्रतीकात्मक थी। समय के साथ विभागों की संख्या बदलती रहती थी। शासक को किसी भी व्यक्ति से सलाह लेने का अधिकार था, जिसे वह भरोसेमंद मानता था।

 

मंत्री का चयन और कार्य 

 

मंत्री शासक द्वारा चुने जाते थे और शासक की इच्छा के अनुसार ही उनका कार्यकाल चलता था। मंत्रियों का उद्देश्य शासक की मदद करना था, लेकिन यह एक परिषद का रूप नहीं था। प्रत्येक मंत्री की जिम्मेदारी अलग-अलग होती थी, और वे स्वतंत्र रूप से कार्य करते थे।

 

वज़ीर की भूमिका 

 

वज़ीर को शासक का मुख्य सलाहकार माना जाता था। उसकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती थी। वह सरकार के प्रशासन पर निगरानी रखता था, खासकर वित्तीय मामलों पर। वज़ीर को वित्तीय प्रबंधन का जिम्मा सौंपा जाता था, जिससे सरकार की अर्थव्यवस्था अच्छी तरह से चल सके।

 

विभागों में बदलाव 

 

हालांकि, विभागों की संख्या और उनके प्रमुखों में बदलाव आता रहता था। यह स्थिति शासक की जरूरतों के हिसाब से बदलती थी। कभी-कभी एक ही विभाग के लिए कई मंत्री जिम्मेदार होते थे। फिर भी, सम्राट को किसी भी मंत्री से सलाह लेने का पूरा अधिकार होता था, जिससे वह प्रशासन को बेहतर तरीके से चला सके।

 

विश्वसनीय मंत्री का महत्व 

 

शासक के लिए मंत्री का चयन महत्वपूर्ण था। मंत्री वह व्यक्ति होते थे, जिन पर शासक को पूरा विश्वास होता था। उदाहरण के तौर पर, फखरुद्दीन, जो केवल दिल्ली का कोतवाल था, बलबन और फिर अलाउद्दीन ख़िलजी के लिए एक विश्वासपात्र मंत्री बन गया था। ऐसे मंत्री शासक के प्रशासन को मजबूत बनाते थे और शासन में सफलता प्राप्त करने में मदद करते थे।

 

दिल्ली सल्तनत का वज़ीर: सुल्तान की छाया या असली ताकत? 

 

दिल्ली सल्तनत के प्रशासन में वज़ीर (प्रधानमंत्री) की भूमिका बेहद रोचक थी। यह पद कभी सुल्तान का दाहिना हाथ बनता, तो कभी महज कागज़ी खिलौना। चलिए समझते हैं कैसे चलता था ये सियासी खेल!

 

वज़ीर बनने की पात्रता : कलम की ताकत वाले योद्धा 

 

वज़ीर के लिए दोहरी योग्यता जरूरी थी – कलम और तलवार दोनों पर मास्टरी। निज़ामुल मुल्क तुसी की मशहूर किताब ‘सियासतनामा‘ के मुताबिक, वज़ीर को होना चाहिए था:

– शिक्षित और बुद्धिमान (अहल-ए-कलम)

– सैन्य रणनीति में निपुण

– अमीर वर्ग को नियंत्रित करने की कूटनीति

दिलचस्प बात यह है कि सल्तनत काल में अक्सर योद्धाओं को ही यह पद दिया जाता था। पर ये योद्धा किताबी कीड़े भी होते थे!

 

दो चेहरे वाला पद : ‘तफ़वीज़’ vs ‘तनफ़ीज़’ 

 

मुस्लिम विचारकों ने वज़ीरों को दो श्रेणियों में बाँटा:

1. वज़ीर-ए-तफ़वीज़ : असीमित शक्तियाँ, सिवाय उत्तराधिकारी चुनने के अधिकार के

2. वज़ीर-ए-तनफ़ीज़ : सुल्तान का ‘हाँ-में-हाँ’ मिलाने वाला क्लर्क

सुल्तान इस दुविधा में फँसे रहते थे – वज़ीर को इतना ताकतवर बनाएँ कि काम चले, पर इतना नहीं कि सिंहासन ही हथिया ले! इसीलिए कभी पद खाली रखा जाता, तो कभी शक्तियाँ बाँट दी जाती थीं।

 

ऐतिहासिक पटकथा : वज़ीरों का उत्थान-पतन 

 

सल्तनत के 320 साल के इतिहास में वज़ीरों की कहानी एक रोलरकोस्टर रही। चलिए कुछ मुख्य किरदारों पर नज़र डालें:

 

गुलाम वंश : बलबन की ‘वज़ीर नीति’

 

इल्तुतमिश के वज़ीर फखरुद्दीन इसामी (बगदाद का अनुभवी) से शुरुआत हुई। लेकिन असली मोड़ आया बलबन के समय:

– नायब-उस-सल्तनत (उप-सुल्तान) का नया पद बनाया। बलबन को यह पद सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद ने दिया था।

– वज़ीर ख्वाजा हसन को महज ‘रबर स्टैम्प’ बना दिया

– राजस्व विभाग अलग करके वज़ीर की शक्ति काटी

इस तरह बलबन ने वज़ीर को ‘नाम का मुखिया’ बना दिया। पर ये चाल सिर्फ 50 साल चली!

 

खिलजी-तुगलक युग : वज़ीरों का स्वर्णकाल 

 

अलाउद्दीन खिलजी ने इस पद को नया जीवन दिया:

– मलिक काफूर जैसे सैन्य जीनियस को वज़ीर बनाया

– वज़ीर को नायब-उल-मुल्क का अतिरिक्त पद दिया

– राजस्व विभाग (दीवान-ए-मुस्तखराज) का गठन किया

लेकिन तुगलकों ने इसे चरम पर पहुँचाया:

– मुहम्मद बिन तुगलक के वज़ीर खान-ए-जहान को मिलता था ‘इराक के बराबर वेतन’

– फिरोज तुगलक ने एक तेलंगी ब्राह्मण (खान-ए-जहान मकबूल) को वज़ीर नियुक्त किया

– वज़ीरों का वेतन 13 लाख टंका तक पहुँचा (आज के 130 करोड़ रुपये के बराबर!)

 

वज़ीर का दफ्तर : दीवान-ए-विजारत का इतिहास 

 

प्रशासनिक व्यवस्था को चलाने के लिए वज़ीर के पास था अपना विशाल तंत्र।

 

चार स्तंभों वाली मशीनरी 

 

1. मुशरिफ : आय विभाग का मुखिया (कर संग्रह)

2. मुस्तौफी : व्यय विभाग का प्रमुख (खर्चों का हिसाब)

3. खजांची : राजकोष का रक्षक

4. उप-वज़ीर : वज़ीर का डिप्टी

अलाउद्दीन खिलजी ने जोड़े दो नए विभाग:

दीवान-ए-मुस्तखराज : बकाया वसूलने वाली ‘कर एक्सटेंशन टीम’

दीवान-ए-कोही : कृषि विकास विभाग (जो बाद में फेल हो गया)

 

फिरोज तुगलक की इनोवेशन 

 

– दास प्रबंधन के लिए अलग विभाग

– सुल्तान की निजी आय का प्रबंधन करने वाली टीम

– मुशरिफ-ए-मुमालिक (मुख्य लेखा नियंत्रक) की नियुक्ति

 

वेतन का गणित : सल्तनत का ‘पे स्केल’ 

 

तुगलक काल में वज़ीरों को मिलता था शाही वेतन:

– मुहम्मद बिन तुगलक के समय : इराक की सालाना आय के बराबर

– फिरोज तुगलक के दौरान : 13 लाख टंका सालाना + सैन्य भत्ता

– वज़ीर के बेटे को 11,000 और दामाद को 15,000 टंका वेतन

इतना धन था कि वज़ीर सालाना 4 लाख टंका सुल्तान को ‘गिफ्ट‘ में दे सकते थे! पर ये पैसा कहाँ से आता था? जवाब छिपा है दीवान-ए-मुस्तखराज की ‘कर वसूली टीम‘ में।

 

(H3) ऐतिहासिक सबक : सत्ता का नाजुक संतुलन 

 

दिल्ली सल्तनत के वज़ीरों का इतिहास हमें तीन बड़े सबक सिखाता है:

1. शक्ति भ्रामक है : मलिक काफूर जैसे ताकतवर वज़ीर भी रातोंरात गायब हो गए।

2. विश्वास महंगा पड़ता है : फिरोज तुगलक के वज़ीर के बेटे को मौत के घाट उतार दिया गया।

3. कागजी शक्ति vs असली ताकत :बलबन ने साबित किया कि पद नहीं, व्यक्तित्व मायने रखता है

आज के प्रशासनिक अधिकारियों के लिए यह इतिहास एक आईना है – सत्ता के गलियारों में सफलता का राज केन्द्रीयकरण नहीं, संतुलन में है!

 

दिल्ली सल्तनत की न्याय प्रणाली 

 

दिल्ली सल्तनत की न्याय प्रणाली ने 13वीं और 14वीं शताब्दी में मध्यकालीन भारत में न्याय एवं प्रशासन की दिशा निर्धारित की। इस व्यवस्था में इस्लामी कानून (शरीयत) के सिद्धांतों के साथ-साथ स्थानीय सामाजिक व आर्थिक तत्वों का भी समावेश था।

 

न्याय प्रणाली का ढांचा : सुल्तान और काजियों की भूमिका 

 

दिल्ली सल्तनत में सुल्तान सर्वोच्च न्यायाधीश होते थे, जबकि न्यायिक कार्यों के लिए काजी नियुक्त किए जाते थे। काजियों का मुख्य कर्तव्य शरीयत के अनुसार न्यायिक निर्णय सुनाना था। इस व्यवस्था में सुल्तान के आदेश के तहत काजियों द्वारा न्याय सुनिश्चित किया जाता था, जिससे एक सुव्यवस्थित न्यायिक ढांचा निर्मित हुआ।

 

न्याय प्रक्रिया और कार्यप्रणाली

 

न्याय प्रणाली में विवादों का समाधान, अपराधियों को दंडित करना तथा सामाजिक व आर्थिक विवादों का निपटारा शामिल था। इस प्रणाली में:

• विवाद समाधान: सामाजिक, पारिवारिक, और व्यापारिक विवादों का त्वरित निपटारा

• अपराधों का दंड: अपराधों के अनुसार दंड निर्धारित करना

• शरीयत के सिद्धांत: इस्लामी कानून के आधार पर न्यायिक फैसले लेना

 

इस्लामी कानून (शरीयत) का प्रभाव : शरीयत कानून के सिद्धांत 

 

दिल्ली सल्तनत में न्याय व्यवस्था के मूल आधार के रूप में शरीयत कानून का प्रयोग किया गया। इस कानून ने न केवल अपराधों के दंड निर्धारित किए, बल्कि सामाजिक और आर्थिक विवादों का भी समाधान प्रदान किया। शरीयत के सिद्धांतों पर आधारित फैसलों से न्याय प्रक्रिया में पारदर्शिता और समानता सुनिश्चित हुई।

 

काजियों की जिम्मेदारियाँ 

 

काजियों को न्यायिक मामलों में न्याय देने की जिम्मेदारी दी जाती थी। उनके द्वारा सुनाए गए फैसले शरीयत के सिद्धांतों पर आधारित होते थे, जिससे न्यायिक निर्णयों में एकरूपता बनी रहती थी। इस व्यवस्था ने समाज में न्याय की स्थिर भावना को मजबूत किया।

 

न्यायिक सुधार और प्रशासनिक नीतियाँ 

सुधार के प्रयास 

 

समय-समय पर न्याय प्रणाली में सुधार के प्रयास किए गए, जिनका उद्देश्य काजियों की कार्यक्षमता बढ़ाना और न्यायालयों के संचालन को अधिक प्रभावी बनाना था। इन सुधारों से न्याय प्रक्रिया को आधुनिक आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला गया।

 

प्रशासनिक नीतियाँ 

 

प्रशासनिक नीतियों ने न्यायालयों के संचालन में पारदर्शिता लाई और विवादों का त्वरित निपटारा सुनिश्चित किया। इन नीतियों के माध्यम से समाज में विश्वास और स्थायित्व बनी रही, जिससे न्याय व्यवस्था को समाज के सभी वर्गों द्वारा स्वीकार्यता मिली।

 

सामाजिक और आर्थिक न्याय 

 

सामाजिक न्याय की व्यवस्था 

 

न्याय प्रणाली का उद्देश्य केवल अपराधियों को दंडित करना नहीं था, बल्कि समाज में सामाजिक न्याय को भी सुनिश्चित करना था। सामाजिक, पारिवारिक और क्षेत्रीय विवादों का समाधान करके, यह व्यवस्था समाज में संतुलन और सामंजस्य बनाए रखती थी।

 

आर्थिक विवादों का समाधान 

 

आर्थिक विवाद, जैसे कि संपत्ति विवाद और व्यापारिक झगड़े, भी इसी न्याय प्रणाली के अंतर्गत आते थे। न्याय व्यवस्था ने आर्थिक स्थिरता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और समाज के सभी वर्गों के हितों का संरक्षण किया।

 

न्याय प्रणाली का प्रभाव और विरासत

 

तत्कालीन शासन पर प्रभाव 

 

दिल्ली सल्तनत की न्याय प्रणाली ने तत्कालीन शासन में न्यायिक सुधारों का मार्ग प्रशस्त किया। इस प्रणाली ने तत्कालीन विवादों का समाधान करके शासन में स्थिरता लाई और बाद के शासनकाल पर गहरा प्रभाव डाला।

 

विरासत और अध्ययन 

 

आज भी इतिहासकार और शोधकर्ता दिल्ली सल्तनत की न्याय प्रणाली का अध्ययन करते हैं। इसके सिद्धांत और सुधारों ने आधुनिक न्याय व्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यह प्रणाली हमें न्याय में पारदर्शिता, समानता और सामूहिक संतुलन की महत्वपूर्ण सीख देती है।

 

दीवान-ए-अर्ज : दिल्ली सल्तनत की सैन्य मशीनरी का दिल 

 

दिल्ली सल्तनत की सेना को चलाने वाला यह विभाग आज के रक्षा मंत्रालय जितना अहम था। पर इसकी कहानी है बेहद रोचक – जहाँ घोड़ों की नकली ब्रांडिंग से लेकर सैनिकों के ‘नकली वेतन’ तक सब कुछ शामिल है!

 

अर्ज-ए-ममालिक : सेना का बाप-समान अधिकारी 

 

इस पद की जिम्मेदारियाँ थीं बड़ी अनोखी:

– सैनिकों की भर्ती करना

– हथियारों और घोड़ों की सप्लाई चेक करना

– वेतन बाँटना (नकदी का बंडल लेकर चलता था ये अधिकारी!)

दिलचस्प बात यह है कि अर्ज खुद एक तगड़ा योद्धा होता था। बलबन के समय के अहमद आयाज़ ने तो घोषणा कर दी थी – “मैं हूँ शासन का असली सपोर्ट सिस्टम!

 

घोड़ों का गेम : अलाउद्दीन की ‘क्वालिटी कंट्रोल’ ट्रिक 

 

अलाउद्दीन खिलजी ने शुरू की थी ‘दाग प्रथा’:

– हर घोड़े पर लगता था सरकारी ब्रांड (जैसे आज के ISI मार्क)

– नकली/कमजोर घोड़े पकड़े जाते थे

– बाजार नियंत्रण से सुनिश्चित होता था उचित दाम

पर फिरोज तुगलक के समय एक सैनिक ने ढूंढ ली खामी :

– रिश्वत देकर घटिया घोड़ा पास करवाया

– पकड़े जाने पर हुआ बड़ा स्कैंडल!

 

सैनिक भर्ती : मध्यकालीन ‘एसएससी परीक्षा’ 

 

इब्नबतूता ने बताया है मुहम्मद बिन तुगलक के समय का प्रक्रिया:

धनुर्धर : अलग-अलग वजन के धनुष खींचने का टेस्ट।

घुड़सवार : दौड़ते घोड़े से भाला फेंककर निशाना लगाना।

अंगूठी उठाना : घोड़े पर सवार होकर भाला से जमीन पर पड़ी अंगूठी चुभोना।

ट्रेनिंग खत्म होने के बाद भी जारी रहती थी प्रैक्टिस। पर क्या ये सिस्टम पूरी तरह ईमानदार था? जवाब है नहीं – धोखाधड़ी के किस्से भी मिलते हैं इतिहास में।

 

सेना का गठन : तुर्क, अफगान और देसी मुस्लिमों का मिक्स 

 

दिल्ली सल्तनत की सेना थी विविधताओं का मेल:

1. मूल तुर्क सैनिकों के वंशज

2. अफगान योद्धा (पठान)

3. भारतीय मुसलमान

4. हिंदू राजाओं की सेनाएँ (जरूरत पड़ने पर बुलाई जाती थीं)

उदाहरण के लिए, बलबन ने बंगाल अभियान में 2 लाख स्थानीय सैनिक भर्ती किए थे। यही इस सेना की ताकत थी – लोकल और विदेशी का फ्यूजन!

 

वेतन व्यवस्था : सैनिकों की जेब और सल्तनत की तिजोरी 

 

अलाउद्दीन खिलजी ने शुरू की थी ‘कैश सैलरी’ :

– एक घुड़सवार को मिलते थे 238 टंके महीना (आज के ≈24,000 रुपये)

– वेतन कम था, पर बाजार नियंत्रण से महँगाई रहती थी काबू मे

लेकिन समस्या थी टिकाऊ नहीं ये सिस्टम:

– बड़ी सेना (3 लाख+ सैनिक) पर भारी खर्च

– लूटमार (जिहाद के नाम पर) पर निर्भरता

– फिरोज तुगलक के समय हालात और बिगड़े

 

ऐतिहासिक विरासत : सैन्य प्रबंधन के सबक 

 

दीवान-ए-अर्ज की कहानी सिखाती है तीन बड़े सबक:

1. कागजी योजनाएँ vs जमीनी हकीकत : घोड़ों की ब्रांडिंग भी न रोक सकी भ्रष्टाचार

2. विविधता में ताकत : तुर्क-अफगान-देसी मिलकर बनाए रखते थे साम्राज्य

3. आर्थिक स्थिरता जरूरी : वेतन व्यवस्था के ढहने से टूटी सल्तनत

1388 में फिरोज तुगलक की मौत के बाद जब यह सिस्टम ध्वस्त हुआ, तैमूर लंग ने कर दिया सल्तनत को चूर-चूर। सबक साफ है – सेना मजबूत होनी चाहिए, पर उसकी नींव हो अर्थव्यवस्था की मजबूती पर।

 

दीवान-ए-इंशा का महत्व और कार्य 

 

दीवान-ए-इंशा एक प्रकार का विदेश मंत्रालय नहीं था। उस समय देशों के बीच संबंध इतने सामान्य और नियमित नहीं थे कि इसके लिए एक अलग मंत्रालय या विदेश मामलों का मंत्री नियुक्त किया जाए। फिर भी, वज़ीर से यह उम्मीद की जाती थी कि वह पड़ोसी देशों की गतिविधियों पर ध्यान रखें और शासक को महत्वपूर्ण घटनाओं से अवगत कराएं।

 

पत्राचार और संचार का कार्य 

 

कभी-कभी, शासकों द्वारा औपचारिक पत्र या पत्राचार पड़ोसी राज्यों और शासकों को भेजे जाते थे। इन पत्रों के माध्यम से शासक नई राजगद्दी पर चढ़ाई करने या किसी बड़ी विजय की घोषणा करते थे। ये पत्र बहुत रचनात्मक और साहित्यिक रूप में होते थे। ऐसे पत्रों का मसौदा तैयार किया जाता था, उनकी कॉपी बनती थी, और फिर उनका वितरण दीवान-ए-इंशा द्वारा किया जाता था।

 

दीवान-ए-इंशा के प्रमुख दाबीर 

 

दीवान-ए-इंशा का प्रमुख दबीर (या दबीर-ए-खास) होता था। दबीर का काम बहुत महत्वपूर्ण होता था। उसे पड़ोसी शासकों और नगरों को आदेश और संवाद पत्र तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती थी। यह पद शासक के लिए बहुत जिम्मेदार था क्योंकि दबीर को शासक का विश्वास प्राप्त होता था और यह उसके प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था।

 

दबीर और वज़ीर का संबंध 

 

चूंकि दबीर शासक का विश्वासपात्र होता था, वह कभी-कभी वज़ीर के लिए प्रतिद्वंद्वी या नियंत्रण का भी कारण बन सकता था। इस प्रकार, दबीर का पद एक शक्तिशाली स्थिति मानी जाती थी। यह पद, वज़ीर के पद तक पहुंचने का एक कदम भी हो सकता था।

 

दीवान-ए-रिसालत: मध्यकालीन भारत का महत्वपूर्ण प्रशासनिक विभाग 

 

मध्यकालीन भारत में प्रशासनिक विभागों की एक अहम भूमिका थी। इन्हीं में से एक था दीवान-ए-रिसालत। यह उन चार प्रमुख मंत्रालयों में से एक था, जिनका उल्लेख इतिहासकार बरनी ने किया है। हालांकि, इसके कार्यों के बारे में उन्होंने विस्तार से नहीं बताया। इतिहासकारों के बीच इस विभाग की भूमिका को लेकर मतभेद हैं। कुछ इसे विदेश मंत्रालय, तो कुछ जनता की शिकायतों को सुनने वाला विभाग मानते हैं। वहीं, कुछ इसे कीमतों और नैतिकता पर नियंत्रण रखने वाला विभाग भी मानते हैं।

 

दीवान-ए-रिसालत की पवित्रता और नामकरण 

 

इस विभाग के नाम में “रिसालत” शब्द आता है, जिसका संबंध “रसूल” (पैगंबर) से है। इससे यह स्पष्ट होता है कि यह विभाग धार्मिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था। मुस्लिम राज्यों का एक दायित्व होता था कि वे विद्वानों, धार्मिक नेताओं, शिक्षकों और संन्यासियों को बिना कर वाली जमीनें (इमलाक) दें। इस कार्य की देखरेख सद्र-ए-जहाँ या वक़ील-ए-दार नामक अधिकारी करता था, जिसे रासूल-ए-दार भी कहा जाता था।

 

न्यायिक और धार्मिक प्रशासन में भूमिका

 

सदार-ए-जहान के अलावा, एक अन्य महत्वपूर्ण पद था क़ाज़ी-उल-क़ज़ात या मुख्य क़ाज़ी का। यह व्यक्ति न्यायिक मामलों का प्रमुख होता था। कभी-कभी सदार-ए-जहान और मुख्य क़ाज़ी के पदों को एक साथ मिला दिया जाता था।

इसके अलावा, दीवान-ए-रिसालत का एक कार्य मुह्तसिब (सार्वजनिक नैतिकता नियंत्रक) की नियुक्ति भी था। मुह्तसिबों का काम था:

• जुआ, वेश्यावृत्ति और अन्य दुराचारों को रोकना।

• यह सुनिश्चित करना कि मुसलमान शरिया के अनुसार जीवन जिएं।

• शराब पीने और अन्य निषिद्ध कार्यों पर निगरानी रखना।

• बाजारों में तौल और माप की सही जांच करना।

• कीमतों की निगरानी रखना।

 

अलाउद्दीन खिलजी के काल में दीवान-ए-रिसालत 

 

अलाउद्दीन खिलजी बाजार नियंत्रण को लेकर गंभीर थे। उन्होंने विभिन्न बाजारों पर नजर रखने के लिए शाहना नामक अधिकारी नियुक्त किए। इनके कार्यों की निगरानी एक बड़े अधिकारी द्वारा की जाती थी। इस व्यवस्था को दीवान-ए-रिसालत कहा गया। हालांकि, अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद यह विभाग कमजोर हो गया और बाजार नियंत्रण समाप्त हो गया।

 

फिरोज तुगलक के शासन में बदलाव 

 

फिरोज तुगलक ने धार्मिक नेताओं, छात्रों और विद्वानों को दिए जाने वाले भत्तों और इमलाक में वृद्धि की। उन्होंने शरिया कानूनों में बदलाव लाकर शारीरिक दंडों (हाथ, कान, नाक काटने) को खत्म किया। इसके अलावा, उन्होंने सदार-ए-जहान और मुख्य क़ाज़ी के कार्यालयों को अलग कर दिया

फिरोजशाह तुगलक ने जनता की शिकायतों को सुनने के लिए एक अलग विभाग बनाया, जिसे दीवान-ए-रिसालत कहा गया। इस विभाग का प्रमुख एक उच्च अधिकारी था। यहां तक कि वज़ीर और राजकुमार भी अपनी शिकायतें दर्ज करा सकते थे

 

दीवान-ए-रिसालत का निरंतर महत्व

 

हालांकि, समय के साथ इस विभाग के कार्यों में बदलाव होते रहे, लेकिन इसका मुख्य कार्य विद्वानों और जरूरतमंदों को भत्ते और राजस्व-मुक्त जमीनें देना बना रहा। यह विभाग कभी नैतिकता नियंत्रण, कभी न्यायिक कार्यों और कभी बाजार व्यवस्था से जुड़ा रहा। अलाउद्दीन खिलजी के समय यह बाजार नियंत्रण से जुड़ा था, जबकि फिरोज तुगलक के शासनकाल में इसे जनता की शिकायतें सुनने के लिए पुनर्गठित किया गया। इसकी भूमिका कभी न्याय, कभी प्रशासन और कभी सामाजिक नैतिकता से जुड़ी रही। इसके बावजूद, इसका मूल कार्य विद्वानों, धार्मिक नेताओं और जरूरतमंदों को सहायता देना हमेशा जारी रहा।

 

सल्तनत काल में दरबार और शाही परिवार का महत्व

 

सल्तनत काल में सुलतान सबसे ताकतवर व्यक्ति होता था। इसलिए, दरबार और शाही परिवार का प्रबंधन बेहद अहम माना जाता था। मुगलों से अलग, इस दौरान दरबार और शाही परिवार की जिम्मेदारी किसी एक अधिकारी के हाथ में नहीं होती थी।

 

वकील-ए-दार: शाही परिवार का मुख्य संचालक

 

शाही परिवार से जुड़ा सबसे प्रमुख अधिकारी वकील-ए-दार होता था। उसे शाही रसोई, अस्तबल, शराब विभाग और कर्मचारियों के वेतन की देखरेख करनी होती थी। राजकुमारों की शिक्षा की जिम्मेदारी भी उसी पर होती थी। दरबारी, रानियाँ, यहाँ तक कि सुल्तान के निजी सेवक भी उससे सुविधाएँ माँगते थे। यह पद इतना संवेदनशील था कि इसे केवल उच्च रैंक वाले सामंतों को दिया जाता था।

 

अमीर-ए-हाजिब : दरबार के नियमों का रखवाला

 

दरबार के कामकाज में अमीर-ए-हाजिब (बारबेक) की भूमिका बेहद खास थी। उसका काम दरबार के समारोहों को व्यवस्थित करना, सामंतों को उनकी रैंक के हिसाब से बैठाना और सुल्तान तक याचिकाएँ पहुँचाना था। यह पद इतना महत्वपूर्ण था कि कभी-कभी इसे राजपरिवार के सदस्यों को सौंपा जाता था।

 

बरिद-ए-खास: सुल्तान की ‘गुप्त आँखें’

 

साम्राज्य की सुरक्षा के लिए बरिद-ए-खास यानी खुफिया विभाग का प्रमुख अहम था। इस नेटवर्क में जासूस (बरिद) साम्राज्य के कोने-कोने से जानकारी जुटाते थे। बलबन और अलाउद्दीन खिलजी जैसे सुल्तानों ने इसका इस्तेमाल सामंतों पर नजर रखने के लिए किया।

 

शाही विभाग: सुविधाओं से लेकर निर्माण तक

 

शाही जरूरतों को पूरा करने के लिए कई विभाग बनाए गए थे। इनमें दो विभाग विशेष रूप से उल्लेखनीय थे।

 

क़ारख़ाना: शाही जरूरतों का केंद्र

 

क़ारख़ाना विभाग शाही गोदाम और कारखानों का प्रबंधन करता था। इसमें भोजन, कपड़े, फर्नीचर और तंबू जैसी चीजें बनाई और स्टोर की जाती थीं। मोहम्मद बिन तुगलक के समय सामंतों को दिए जाने वाले रेशमी कपड़े इन्हीं कारखानों में तैयार किए जाते थे। फिरोज तुगलक ने इन विभागों को बढ़ावा दिया और दासों को कारीगर बनने के लिए प्रशिक्षित किया।

 

दीवान-ए-अमीरात: सार्वजनिक निर्माण की जिम्मेदारी

 

सार्वजनिक कार्य विभाग (दीवान-ए-अमीरात) को अलाउद्दीन खिलजी के समय महत्व मिला, लेकिन फिरोज तुगलक ने इसे नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। उसने नहरें खुदवाईं, शहर बसाए और पुराने मकबरों व सरायों की मरम्मत करवाई। इस विभाग का नेतृत्व मीर-ए-इमारत (मलिक ग़ाज़ी) करता था।

 

छोटे विभाग, बड़ी भूमिका

 

इनके अलावा, शिकार के प्रभारी, शाही पार्टियों को व्यवस्थित करने वाले अधिकारी जैसे छोटे पद भी थे। हालांकि, इन्हें कम महत्व दिया जाता था। फिर भी, ये विभाग शाही जीवन को सुचारू रखने में मदद करते थे।

 

सल्तनत प्रशासन की खासियत

 

दिलचस्प बात यह है कि सल्तनत प्रशासन में हर काम बाँटा गया था। वकील-ए-दार से लेकर बरिद-ए-खास तक, हर अधिकारी की भूमिका साफ थी। इससे शाही परिवार का नियंत्रण और साम्राज्य की सुरक्षा दोनों सुनिश्चित होती थी। यही कारण है कि इस व्यवस्था को मध्यकालीन भारत की शक्तिशाली प्रणालियों में गिना जाता है।

 

दिल्ली सल्तनत का प्रांतीय शासन: एक रोचक सफर

 

क्या आप जानते हैं दिल्ली सल्तनत के प्रांतीय शासन की कहानी कितनी दिलचस्प है? शुरुआत में, यह व्यवस्था बिल्कुल ढीली-ढाली थी। सुल्तानों का ध्यान सिर्फ़ सैन्य विजय और धन इकट्ठा करने पर था। लेकिन धीरे-धीरे, एक संगठित प्रशासनिक ढाँचा बनने लगा। 

 

शुरुआती दौर: अराजकता और सैन्य शासन

 

सल्तनत के पहले चरण में, प्रांतीय शासन की कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं थी। सुलतानों के लिए सबसे ज़रूरी था – हिंदू राजाओं को हराकर उनकी सेना और संसाधनों पर कब्ज़ा करना। इस वजह से, अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग नियम चलते थे। कमांडरों को अपने हिस्से का प्रबंधन करने की पूरी आज़ादी थी। हालाँकि, यह स्थिति जल्द ही बदलनी शुरू हो गई।

 

खिलजी काल: इक्ता प्रणाली और गवर्नरों का उदय

 

इस बदलाव की शुरुआत खिलजी शासन में हुई। इस दौरान ‘इक्ता‘ या ‘विलायत‘ नामक प्रांतीय इकाइयाँ बनीं। इनके प्रमुख मुक्ति या वली कहलाते थे, जिन्हें आज के गवर्नर की तरह समझा जा सकता है। मगर याद रखिए – इनकी ताकत हमेशा एक जैसी नहीं थी!

उदाहरण के लिए, लखनौती के गवर्नर अक्सर खुद को सुल्तान घोषित कर देते थे। ऐसे मामलों में, उन्हें काबू करने के लिए सैन्य कार्रवाई की जाती थी। दिलचस्प बात यह है कि इन गवर्नरों के पास शुरुआत में पूरी शक्ति थी। वे सेना रखते, राजस्व इकट्ठा करते और सुल्तान को एक हिस्सा भेजते थे।

 

केंद्रीय नियंत्रण बढ़ने का दौर

 

जैसे-जैसे सल्तनत मजबूत हुई, गवर्नरों की मनमानी कम होने लगी। बलबन के समय से, ‘फवाज़िल‘ (अतिरिक्त आय) को सुलतान के पास भेजना अनिवार्य कर दिया गया। इसके बाद, अलाउद्दीन खिलजी ने और सख्त नियम लागू किए। अब गवर्नरों को ख़ालिसा (सीधे शाही नियंत्रण वाले इलाके) की तर्ज़ पर राजस्व व्यवस्था अपनानी पड़ी।

इस प्रक्रिया में दो महत्वपूर्ण कदम उठाए गए:

1. नायब दीवान की नियुक्ति – यह अधिकारी राजस्व प्रबंधन पर नज़र रखता था।

2. बरिद (खुफ़िया अधिकारी) – यह सुलतान को गवर्नरों की गतिविधियों की रिपोर्ट देता था।

 

गाँव से लेकर दरबार तक: स्थानीय प्रशासन

 

प्रांतीय शासन के नीचे की व्यवस्था कैसी थी? दिलचस्प है कि गाँवों में पुरानी हिंदू व्यवस्था जारी रही। पटवारी (लेखपाल), खुत (ज़मींदार), और मुकद्दम (गाँव प्रमुख) जैसे पद मौजूद थे। अलाउद्दीन खिलजी ने तो पटवारियों के रिकॉर्ड की जाँच करके भ्रष्ट अधिकारियों को पकड़ा था!

इसके अलावा, परगना, सादी (100 गाँवों का समूह), और चौरासी (84 गाँवों का समूह) जैसे शब्द प्रशासनिक इकाइयों को दिखाते हैं। हालाँकि, यह स्पष्ट नहीं है कि ये इकाइयाँ मुग़ल काल की तरह स्थायी थीं या नहीं।

 

मुहम्मद बिन तुगलक का प्रयोग और असफलता

 

इतिहास में मुहम्मद बिन तुगलक को उनके विचित्र प्रयोगों के लिए जाना जाता है। उन्होंने गवर्नरों को राजस्व-फ़ार्मिंग के आधार पर नियुक्त किया। मतलब, गवर्नर एक निश्चित रकम केंद्र को देते और बाकी अपने पास रखते। यह फैसला पूरी तरह विफल रहा, क्योंकि इससे केंद्रीय नियंत्रण खत्म हो गया। बाद में, फिरोज तुगलक ने इस व्यवस्था को हटा दिया।

 

सल्तनत के अंत तक क्या बदला?

 

बरनी के अनुसार, सल्तनत के 20 प्रांत थे। ये आकार में मुग़लों के सूबों से छोटे थे। उदाहरण के लिए, आधुनिक उत्तर प्रदेश का इलाका तीन अलग-अलग इक्ताओं में बँटा था। मुहम्मद बिन तुगलक ने प्रांतों की संख्या बढ़ाकर 24 कर दी, जो मालाबार (केरल) तक फैले थे।

 

प्रांतीय शासन: एक अधूरी कोशिश

 

दिल्ली सल्तनत ने प्रांतीय शासन को केंद्र से जोड़ने की कोशिश की, लेकिन यह प्रक्रिया अधूरी रही। गाँवों पर स्थानीय ज़मींदारों का नियंत्रण बना रहा। सल्तनत के टूटने तक कोई स्थायी व्यवस्था नहीं बन पाई। यह काम अंततः मुग़लों ने पूरा किया। इस तरह, सल्तनत का प्रशासनिक ढाँचा एक पुल की तरह था, जिसने मध्यकालीन भारत को नई दिशा दी।

 

निष्कर्ष

 

दिल्ली सल्तनत (13वीं-14वीं शताब्दी) की शासन और प्रशासन व्यवस्था ने भारत में संगठित प्रशासन, सुदृढ़ न्याय प्रणाली और मजबूत सैन्य संगठन की नींव रखी। सुल्तान की सर्वोच्चता, दीवानों की प्रशासनिक भूमिका, भूमि कर प्रणाली, गुप्तचर व्यवस्था और शरीयत आधारित न्याय प्रणाली ने शासन को प्रभावी बनाया। इस प्रशासनिक ढांचे ने बाद के मुगल शासन और भारतीय प्रशासनिक प्रणाली को भी प्रभावित किया, जिससे यह मध्यकालीन भारत के सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक संरचनाओं में से एक बन गया।

 

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