चंद्रगुप्त मौर्य का इतिहास: भारत के पहले सम्राट की गाथा

प्रारम्भिक जीवन 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रारम्भिक जीवन भी उनकी उत्पत्ति के समान ही अंधकारपूर्ण था। उनके बचपन के बारे में हमें अधिकांश जानकारी बौद्ध ग्रंथों से मिलती है। यद्यपि वह साधारण कुल में उत्पन्न हुए थे, लेकिन उनमें बचपन से ही महान बनने के सभी लक्षण थे।

 

चन्द्रगुप्त का जन्म 

 

चन्द्रगुप्त का जन्म 340 ईसा पूर्व, मोरिया नगर में हुआ था। उनके पिता मोरिया नगर के प्रमुख थे, लेकिन युद्ध में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी माता उन्हें बचपन में ही अपने भाइयों के पास पाटलिपुत्र भेज दी। यहीं पर चन्द्रगुप्त का जन्म हुआ था। जन्म के बाद, चन्द्रगुप्त को एक गोपालक के पास भेजा गया। गोपालक ने उसे अपने बेटे की तरह पाला और उसका लालन-पालन किया।

 

बाल्यकाल और संघर्ष 

 

चन्द्रगुप्त का पालन-पोषण गोपालक के घर हुआ, और जब वह थोड़ा बड़ा हुआ तो उसे एक शिकारी के हाथों बेच दिया गया। शिकारी के गांव में रहते हुए, वह पशुओं की देखभाल करने लगा। अपनी प्रतिभा के कारण, वह जल्द ही गांव के अन्य बच्चों में प्रमुख बन गया। वह बच्चों के झगड़ों का मध्यस्थ बनकर उनका समाधान किया करता था और बच्चों के बीच राजा की तरह फैसले करता था।

 

Chandragupta Maurya as a child playing Rajkaleem - early days of the great Indian ruler
बालक चन्द्रगुप्त मौर्य “राजकीलम्” नामक खेल में व्यस्त।

चाणक्य से मुलाकात 

 

एक दिन, जब चन्द्रगुप्त “राजकीलम्” नामक खेल में व्यस्त था, तब चाणक्य उधर से गुजर रहे थे। चाणक्य, जो तक्षशिला के प्रसिद्ध आचार्य थे, ने चन्द्रगुप्त के गुणों को अपनी सूक्ष्मदृष्टि से पहचाना। चाणक्य ने समझ लिया कि यह बालक भविष्य में महान बनेगा। चाणक्य ने उसे शिकारी से 1,000 कार्षापण देकर खरीद लिया और उसे अपने साथ तक्षशिला ले गए।

 

तक्षशिला में शिक्षा

 

तक्षशिला उस समय विद्या का प्रमुख केंद्र था, और यहाँ चाणक्य खुद आचार्य थे। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को विभिन्न कलाओं और विद्याओं की शिक्षा दी। जल्द ही, चन्द्रगुप्त सभी विद्याओं में पारंगत हो गया और युद्ध विद्या में भी निपुण हो गया।

 

सिकंदर से मुलाकात 

 

तक्षशिला में शिक्षा ग्रहण करते हुए, चन्द्रगुप्त का सामना उस समय के महान विजेता सिकंदर से हुआ। यह घटना बहुत दिलचस्प है। प्लूटार्क और जस्टिन जैसे लेखकों ने इसका वर्णन किया है। जस्टिन के अनुसार, सिकंदर चन्द्रगुप्त की स्पष्टवादिता से रुष्ट हो गया था और उसे मार डालने का आदेश दिया। लेकिन चन्द्रगुप्त ने शीघ्रता से भागकर अपनी जान बचाई।

 

चन्द्रगुप्त की उपलब्धियाँ 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य की उपलब्धियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। चाणक्य ने उन्हें दो मुख्य उद्देश्य के लिए तैयार किया था। पहले उद्देश्य में, चन्द्रगुप्त को यूनानियों के विदेशी शासन से भारत को मुक्त करना था। दूसरे उद्देश्य में, नन्दों के अत्याचारपूर्ण शासन को समाप्त करना था। इन दोनों उद्देश्यों को पूरा करने में चन्द्रगुप्त ने महत्वपूर्ण कदम उठाए।

 

यूनानियों के खिलाफ युद्ध 

 

इतिहासकारों में इस बात को लेकर मतभेद है कि चन्द्रगुप्त ने पहले किसके खिलाफ युद्ध किया था – क्या उसने सबसे पहले यूनानियों से युद्ध किया या नन्दों का शासन समाप्त किया। लेकिन बौद्ध, रोमन और पूनानी स्रोतों से जो संकेत मिलते हैं, उनके अनुसार, चन्द्रगुप्त ने सबसे पहले पंजाब और सिन्ध के इलाकों को यूनानियों से मुक्त किया।

चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में विदेशी शासन की आलोचना की है और उसे देश और धर्म के लिए अभिशाप बताया है। चन्द्रगुप्त ने इस सिद्धांत का पालन किया और एक बड़ी सेना का गठन किया। इस सेना में सैनिकों के विभिन्न वर्ग थे, जिनमें चोर, म्लेच्छ, आटविक, शस्त्रधारी और अन्य वर्ग शामिल थे। जस्टिन ने चन्द्रगुप्त की सेना को ‘डाकुओं का गिरोह’ कहा है। लेकिन इसका तात्पर्य था उन लोगों से, जिन्होंने सिकन्दर के आक्रमण का जमकर विरोध किया।

 

पर्वतक से सहायता 

 

चन्द्रगुप्त को हिमालय क्षेत्र के शासक पर्वतक से भी सहायता मिली थी। हालांकि, कुछ विद्वानों का कहना है कि पर्वतक को पोरस से जोड़ने की कोशिश की गई है, लेकिन इसके लिए कोई ठोस प्रमाण नहीं है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डॉ. ओम प्रकाश ने पर्वतक को अभिसार के शासक से जोड़ने का सुझाव दिया है।

 

Map of India highlighting the empire of Chandragupta Maurya, showcasing its territorial expanse.
सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य

 

सिकंदर के बाद की परिस्थितियाँ 

 

चन्द्रगुप्त के लिए यह सौभाग्य की बात थी कि सिकन्दर के प्रस्थान के बाद पंजाब और सिन्ध की राजनीतिक परिस्थितियाँ पूरी तरह से उसके पक्ष में थीं। सिकन्दर की मृत्यु के बाद, इन क्षेत्रों में विद्रोह शुरू हो गए और कई यूनानी क्षत्रपों को मार दिया गया। 325 ईसा पूर्व में, फिलिप द्वितीय की हत्या के बाद, सिकन्दर का प्रशासन ढहने लगा। 323 ईसा पूर्व में सिकन्दर की मृत्यु के बाद, इन प्रदेशों में अराजकता फैल गई। इस अराजकता ने चन्द्रगुप्त के कार्य को आसान बना दिया।

जस्टिन के अनुसार, “सिकन्दर की मृत्यु के बाद भारत ने अपनी गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंका और अपने गवर्नरों को मार डाला। इस स्वतन्त्रता का जन्मदाता सान्ड्रोकोटस (चन्द्रगुप्त) था।” इस विवरण से स्पष्ट होता है कि चन्द्रगुप्त ने सिकन्दर के क्षत्रपों का पूरी तरह से विनाश किया था।

 

चन्द्रगुप्त की सुनियोजित योजना 

 

ऐसा प्रतीत होता है कि सिकन्दर और फिलिप द्वितीय की मृत्यु के बीच के दो वर्षों (325-323 ईसा पूर्व) के दौरान, चन्द्रगुप्त ने अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए व्यापक योजनाएँ तैयार की थीं। अब वह पूरी तरह से तैयार था। उसने एक मजबूत सेना तैयार की, खुद को राजा घोषित किया और सिकन्दर के क्षत्रपों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। 317 ईसा पूर्व में, पश्चिमी पंजाब का अंतिम यूनानी सेनानायक यूडेमस भारत छोड़ने के लिए मजबूर हुआ। इस प्रकार, चन्द्रगुप्त ने पंजाब और सिन्ध के क्षेत्रों पर अपना पूरा अधिकार जमा लिया।

 

चन्द्रगुप्त की सफलता 

 

चन्द्रगुप्त ने अपनी सुनियोजित योजना के तहत सिकन्दर द्वारा स्थापित प्रशासन को पूरी तरह से नष्ट कर दिया। यूडेमस ने चन्द्रगुप्त की ताकत को देखकर 317 ईसा पूर्व में बिना किसी संघर्ष के भारत छोड़ने का निर्णय लिया। इसके बाद, चन्द्रगुप्त मौर्य पंजाब और सिन्ध का एकछत्र शासक बन गया।

 

नन्दों का उन्मूलन 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य और चाणक्य ने अपनी सफलता की ओर एक और कदम बढ़ाया। पंजाब और सिन्ध में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद, वे मगध साम्राज्य की ओर बढ़े। उस समय मगध पर धननन्द का शासन था। धननन्द के पास बहुत बड़ी सेना और संपत्ति थी, लेकिन वह जनता में लोकप्रिय नहीं हो सका। यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी थी।

 

चाणक्य का अपमान

 

एक बार, नन्द सम्राट धननन्द ने चाणक्य को अपमानित किया था। इस अपमान से कुपित होकर, चाणक्य ने निश्चय किया कि वह नन्दों को पूरी तरह से नष्ट कर देंगे। प्लूटार्क के विवरण के अनुसार, चन्द्रगुप्त ने नन्दों के खिलाफ सहायता प्राप्त करने के लिए सिकंदर से भी मुलाकात की थी। हालांकि, वह इस प्रयास में सफल नहीं हो सका।

 

चन्द्रगुप्त की तैयारियाँ 

 

हम पहले देख चुके हैं कि सिकन्दर की मृत्यु के बाद, चन्द्रगुप्त ने यूनानी अधिकारियों को मारकर पंजाब और सिन्ध पर नियंत्रण स्थापित किया। अब उसके पास एक विशाल और संगठित सेना थी, जिसका उपयोग उसने नन्द साम्राज्य के खिलाफ किया।

 

नन्द-मौर्य युद्ध 

 

दुर्भाग्य से, हमें इस युद्ध का विस्तृत विवरण नहीं मिलता। बौद्ध और जैन स्रोतों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने पहले नन्द साम्राज्य के केन्द्रीय हिस्से पर आक्रमण किया, लेकिन वह सफल नहीं हो सका। उसकी सेना नष्ट हो गई। फिर, उसने अपनी रणनीति बदली और सोमान्त क्षेत्रों को जीतते हुए नन्द साम्राज्य की राजधानी पर धावा बोला।

 

युद्ध की भीषणता 

 

ऐसा प्रतीत होता है कि नन्द-मौर्य युद्ध बहुत रक्तरंजित और भीषण था। बौद्ध ग्रंथ ‘मिलिन्दपण्हों‘ में इस युद्ध का एक अतिरंजित विवरण मिलता है। इस ग्रंथ में भद्दशाल नामक नन्दों के मंत्री का उल्लेख है। युद्ध में हताहतों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई है, जो केवल अलंकारिक प्रतीत होती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि युद्ध बहुत कठिन और भयंकर था।

 

धननन्द की मृत्यु 

 

अंततः, धननन्द मारा गया और चन्द्रगुप्त ने मगध पर पूर्ण अधिकार कर लिया। यह उसकी दूसरी बड़ी सफलता थी। अब चन्द्रगुप्त मौर्य भारत के एक विशाल साम्राज्य का शासक बन गया।

 

सेल्युकस के विरुद्ध युद्ध 

 

सिकन्दर की मृत्यु के बाद, उसके पूर्वी क्षेत्रों का उत्तराधिकारी सेल्युकस बना। वह एन्टीओकस का पुत्र था और उसने बेबीलोन तथा बैक्ट्रिया जैसे बड़े क्षेत्रों को जीतकर अपनी शक्ति को मजबूत किया। अब, सेल्युकस ने भारत के उन क्षेत्रों को पुनः अपने नियंत्रण में लेने का मन बनाया, जिन्हें सिकन्दर ने जीते थे। इस उद्देश्य के साथ, 305 ईसा पूर्व में उसने भारत पर आक्रमण किया और सिन्ध तक पहुँच गया।

 

भारत में बदलाव 

 

हालांकि, इस बार भारत में एक नया सम्राट था – चन्द्रगुप्त मौर्य। वह एक संगठित और शक्तिशाली साम्राज्य का शासक था, जो पहले की तरह छोटे-छोटे सरदारों से भरा हुआ नहीं था। इसलिए, सेल्युकस को चन्द्रगुप्त से युद्ध करना पड़ा। यूनानी लेखक केवल युद्ध के परिणाम का ही उल्लेख करते हैं। अप्पिआन ने लिखा कि सेल्युकस ने सिन्धु नदी पार करके चन्द्रगुप्त से युद्ध किया।

 

संधि और वैवाहिक सम्बन्ध 

 

कुछ समय बाद, दोनों के बीच एक संधि हुई और एक वैवाहिक संबंध भी स्थापित किया गया। स्ट्रेबो के अनुसार, भारतीय सिन्धु नदी के पास रहने वाले लोग पहले पारसीकों के अधीन थे। सिकन्दर ने इस क्षेत्र को जीतकर अपना प्रान्त स्थापित किया था, लेकिन सेल्युकस ने यह क्षेत्र चन्द्रगुप्त को दे दिया। बदले में, उसे पाँच सौ हाथी मिल गए। यह संकेत करता है कि सेल्युकस युद्ध में पराजित हुआ था।

 

संधि के प्रमुख बिंदु 

 

चन्द्रगुप्त और सेल्युकस के बीच संधि के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु थे:

1. सेल्युकस ने चन्द्रगुप्त को कान्धार, काबुल, हेरात और बलूचिस्तान के कुछ हिस्से दिये।

2. चन्द्रगुप्त ने सेल्युकस को 500 भारतीय हाथी उपहार में दिए।

3. दोनों के बीच एक वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हुआ। कुछ विद्वान मानते हैं कि सेल्युकस ने अपनी एक पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया, हालांकि इसके प्रमाण नहीं मिलते हैं।

4. सेल्युकस ने मेगस्थनीज को अपना राजदूत चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा। मेगस्थनीज ने भारत के बारे में ‘इण्डिका‘ नामक एक पुस्तक लिखी, जो भारतीय समाज और राजनीति पर महत्वपूर्ण जानकारी देती है।

 

चन्द्रगुप्त की महत्वपूर्ण सफलता 

 

यह संधि चन्द्रगुप्त के लिए एक बड़ी सफलता थी। इससे उसका साम्राज्य अब भारतीय सीमा से बाहर, पारसीक साम्राज्य के पास तक फैल गया। अफगानिस्तान का एक बड़ा हिस्सा भी उसकी शक्ति में आ गया। इस संबंध की पुष्टि हम अशोक के लेखों से भी करते हैं, क्योंकि अशोक या बिन्दुसार ने इस क्षेत्र को नहीं जीता था।

 

भारत और यूनान का संबंध 

 

इस संधि के साथ ही भारत और यूनान के बीच राजनीतिक संबंध शुरू हुए। यह संबंध बिन्दुसार और अशोक के समय तक जारी रहे। भारत ने सिकन्दर के समय हुई अपनी पराजय का बदला ले लिया था। इस तरह, चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारत को एक नई दिशा में आगे बढ़ाया और एक महान साम्राज्य की नींव रखी।

 

पश्चिमी भारत की विजय 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत में भी अपनी शक्ति का विस्तार किया। शकमहाक्षत्रप रुद्रदामन् के गिरनार अभिलेख (150 ईस्वी) से यह जानकारी मिलती है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने सुराष्ट्र तक के क्षेत्रों को जीतकर अपने शासन में शामिल कर लिया था। इस अभिलेख के अनुसार, चन्द्रगुप्त के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य थे, जिन्होंने वहाँ सुदर्शन झील का निर्माण कराया था। यह झील आज भी भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्मारक है।

सुराष्ट्र प्रान्त के दक्षिण में स्थित सोपारा (जो आज के महाराष्ट्र के थाना जिले में है) से चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक का अभिलेख भी प्राप्त हुआ। हालांकि, अशोक ने अपने अभिलेखों में इस क्षेत्र को जीतने का दावा नहीं किया। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सोपारा तक का क्षेत्र भी चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा जीता गया था।

 

दक्षिण भारत की विजय 

 

दक्षिण भारत में चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य के विस्तार के बारे में अशोक के अभिलेखों और जैन तथा तमिल स्रोतों से जानकारी मिलती है। अशोक के कई अभिलेख कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश के विभिन्न स्थानों से मिले हैं, जैसे कि सिद्धपुर, ब्रह्मगिरि, मास्की, गूटी, आदि। इन अभिलेखों में अशोक ने दक्षिणी सीमा पर स्थित चोल, पाण्ड्य, सत्तियपुत्र, और केरलपुत्र जातियों का उल्लेख किया है।

अशोक के तेरहवें शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि उसने दक्षिण में केवल कलिंग की विजय की थी, जिसके बाद उसने युद्धों को समाप्त कर दिया था। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण भारत के अन्य क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की थी।

 

जैन और तमिल परम्परा से संकेत 

 

जैन और तमिल परम्पराओं से भी चन्द्रगुप्त मौर्य की दक्षिण भारतीय विजय के बारे में कुछ संकेत मिलते हैं। जैन परम्परा के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपनी वृद्धावस्था में जैन साधु भद्रबाहु की शिष्यता ली और श्रवणबेलगोला (जो कर्नाटक राज्य में स्थित है) में निवास करने लगे। यहीं चन्द्रगुप्त ने तपस्या की थी। यदि हम इस परम्परा पर विश्वास करें, तो यह कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त ने श्रवणबेलगोला तक के क्षेत्र पर विजय प्राप्त की थी।

तमिल परम्परा के अनुसार, मौर्यों ने एक विशाल सेना के साथ दक्षिण भारत में “मोहर” के राजा पर आक्रमण किया था। इस अभियान में कोशर और बड्डगर नामक दो मित्र जातियों ने मौर्य सेना की मदद की थी। इस परम्परा में नन्दों की अपार सम्पत्ति का भी उल्लेख है, जो यह संकेत करता है कि तमिल लेखक मौर्य साम्राज्य की बात कर रहे थे, जो नन्दों के उत्तराधिकारी थे।

 

विश्वास के विषय में शंका 

 

हालाँकि, जैन और तमिल परम्पराओं को लेकर कई विद्वान ऐतिहासिक दृष्टि से संदेह व्यक्त करते हैं। इसलिये, इन परम्पराओं को पूरी तरह से सत्य मानने में सतर्क रहना चाहिए। फिर भी, इन परम्पराओं में दिए गए विवरणों से यह संभावना जताई जा सकती है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की थी।

 

चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य विस्तार 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य पूरे भारत में फैला हुआ था। प्लूटार्क ने लिखा है कि उसने 6 लाख सैनिकों की सेना से पूरे भारत को रौंद डाला और उस पर अपना अधिकार कर लिया। जस्टिन के विवरण से भी यह पता चलता है कि पूरा भारत उसके अधिकार में था।

मगध साम्राज्य की जो परंपरा बिम्बिसार के समय से शुरू हुई थी, वह चन्द्रगुप्त के समय तक अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई। चन्द्रगुप्त का साम्राज्य उत्तर पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में वर्तमान उत्तरी कर्नाटक तक फैला हुआ था। इसके अलावा, यह साम्राज्य पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में सुराष्ट्र और सोपारा तक विस्तृत था।

इतिहासकार स्मिथ के अनुसार, हिन्दुकुश पर्वत भारत की वैज्ञानिक सीमा थी। यूनानी लेखक इसे ‘पैरोपेनिसस‘ या ‘इण्डियन काकेशस’ कहते थे। यही सीमा चन्द्रगुप्त और सेल्युकस के साम्राज्यों की थी। चन्द्रगुप्त ने सेल्युकस को हराकर इस क्षेत्र पर अपना अधिकार किया था, जो बाद में मुगलों और अंग्रेजों के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन गई।

चन्द्रगुप्त मौर्य ने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया और यहाँ से विशाल साम्राज्य का संचालन किया।

 

चन्द्रगुप्त मौर्य का अन्त 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य एक महान विजेता और साम्राज्य निर्माता थे। उन्होंने देश में एक सुसंगठित प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए आदर्श बनी। वह एक धर्म-प्राण व्यक्ति भी थे।

जैन परंपरा के अनुसार, अपने जीवन के अंतिम दिनों में चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म अपनाया और भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण की। इस समय मगध में बारह वर्षों का भीषण अकाल पड़ा। चन्द्रगुप्त ने स्थिति से निपटने की पूरी कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिल पाई। इस कारण, उन्होंने अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन छोड़ दिया और भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला (मैसूर) में तपस्या करने चले गए।

298 ईसा पूर्व के लगभग, उन्होंने जैन विधि से उपवास द्वारा प्राण त्याग किए। इसे जैन धर्म में ‘सल्लेखना‘ कहा जाता है। श्रवणबेलगोला में एक छोटी पहाड़ी है, जिसे ‘चन्द्रगिरि’ कहा जाता है और यहाँ ‘चन्द्रगुप्त बस्ती’ नामक एक मंदिर भी है।

हालाँकि, जैन लेखकों द्वारा दिए गए बारह वर्षों के अकाल का विवरण सही नहीं लगता। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज, जो चन्द्रगुप्त के दरबार में निवास करता था, ने कहीं भी अकाल की स्थिति का उल्लेख नहीं किया। इसके अलावा, अन्य साक्ष्य से भी इस कथन की पुष्टि नहीं होती।

 

चन्द्रगुप्त मौर्य का मूल्यांकन 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य की उपलब्धियों से यह साफ है कि वह केवल एक महान विजेता ही नहीं, बल्कि एक कुशल प्रशासक और साम्राज्य निर्माता भी था। एक सामान्य परिवार में जन्म लेकर, उसने अपनी योग्यता और नेतृत्व क्षमता के बल पर स्वयं को एक सार्वभौम सम्राट बना लिया। चन्द्रगुप्त मौर्य भारत का पहला महान ऐतिहासिक सम्राट था, जिसने चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श को वास्तविक रूप में स्थापित किया।

 

चन्द्रगुप्त की महानता 

 

यदि हम यूनानी स्रोतों पर विश्वास करें, तो चन्द्रगुप्त की सफलता का मुख्य कारण उसकी वीरता, साहस और उत्साह था। चन्द्रगुप्त के पास कोई राजकीय परंपरा नहीं थी, फिर भी उसने इतनी बड़ी उपलब्धियाँ हासिल की। उसने यूनानी दासता से भारत को मुक्त किया और शक्तिशाली नन्द वंश का उन्मूलन किया। इसके बाद, उसने सेल्युकस जैसे शक्तिशाली सेनानायक को भी नतमस्तक किया। यह सब उसकी असाधारण सैनिक क्षमता का प्रमाण है।

चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारत की वह सीमाएँ नियंत्रित की, जिनकी ओर बाद में मुग़ल और ब्रिटिश शासक भी व्यर्थ प्रयास करते रहे। यह उसकी रणनीतिक क्षमता और दूरदर्शिता को दर्शाता है।

 

चन्द्रगुप्त का प्रशासनिक कौशल 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य सिर्फ एक महान सैनिक नहीं, बल्कि एक निपुण प्रशासक भी था। मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था भारतीय प्रशासन का आधार बनी। यह व्यवस्था चन्द्रगुप्त की रचनात्मक क्षमता और उनके प्रधानमंत्री कौटिल्य की राजनीतिक सूझबूझ का परिणाम थी। मौर्य प्रशासन के कई सिद्धांतों को बाद के हिन्दू शासकों ने भी अपनाया, और मुस्लिम तथा ब्रिटिश शासकों ने भी मौर्य शासन की प्रणाली का अनुसरण किया।

चन्द्रगुप्त ने एक प्रभावशाली प्रशासनिक ढाँचा तैयार किया, जिसमें राजस्व व्यवस्था, पुलिस और नौकरशाही शामिल थी। मौर्य प्रशासन की ये व्यवस्थाएँ आज भी भारतीय शासन में देखी जाती हैं।

 

चन्द्रगुप्त की सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि 

 

चन्द्रगुप्त ने विदेशी कन्या से विवाह किया, जो उस समय के भारतीय समाज में एक क्रांतिकारी परिवर्तन था। इस विवाह ने उसकी उदारता और दूरदर्शिता को दिखाया। इससे यह संकेत मिलता है कि वह केवल एक साम्राज्य निर्माता नहीं, बल्कि एक ऐसे सम्राट थे, जो अपने समय से आगे सोचते थे।

 

चन्द्रगुप्त का उत्तरकालीन जीवन 

 

यदि हम जैन परंपरा पर विश्वास करें, तो चन्द्रगुप्त का जीवन और भी प्रेरणादायक लगता है। कहा जाता है कि उसने अपने उत्तरकाल में राज्य के सुख-वैभव का परित्याग किया और जैन साधु भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण की। वह श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में तपस्या करते हुए स्वेच्छा से मृत्यु को प्राप्त हुआ। इस प्रकार, चन्द्रगुप्त का जीवन एक महान परिवर्तन की ओर इशारा करता है, जिसमें उसने संसारिक सुखों का त्याग कर आत्मा की शांति की ओर कदम बढ़ाया।

 

निष्कर्ष 

 

चन्द्रगुप्त मौर्य एक महान सम्राट, विजेता और प्रशासक थे। उन्होंने भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण बदलाव किए और अपनी नीतियों, विजय और प्रशासनिक कौशल के लिए हमेशा याद किए जाएंगे। उनका साम्राज्य न केवल भौगोलिक रूप से विस्तृत था, बल्कि उनके शासन ने भारतीय राजनीति और प्रशासन के नए मानक भी स्थापित किए। चन्द्रगुप्त की सफलताएँ न केवल उनके समय, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनीं।

 

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