बाजी राव प्रथम का नाम भारतीय इतिहास में एक महान सैनिक और कूटनीतिज्ञ के रूप में दर्ज है, जिन्होंने मराठा साम्राज्य का विस्तार और भारत में मराठों का प्रभुत्व स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1720 में पेशवा के रूप में नियुक्त होने के बाद, उन्होंने ना केवल युद्ध के मैदान में अपनी वीरता का प्रदर्शन किया, बल्कि कूटनीतिक रणनीतियों के जरिए भारत में मराठा साम्राज्य की राजनीतिक स्थिति को मजबूत किया। बाजी राव का मुख्य उद्देश्य था भारत में मुग़ल साम्राज्य का प्रभाव समाप्त करना और स्वराज्य की रक्षा करना। उनकी युद्ध रणनीतियाँ, जैसे कि पालखेड़ और भोपाल की लड़ाई ने निजाम और मुग़ल गवर्नरों को हराया, और मराठों को महत्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे मालवा, गुजरात और बुंदेलखंड में विजय दिलाई। उनके दृष्टिकोण ने सिर्फ सैन्य विजय की सीमाओं को पार किया, बल्कि उनके कूटनीतिक फैसलों ने भारत की राजनीतिक स्थिति को नया मोड़ दिया। इस लेख में हम बाजी राव के नेतृत्व और कूटनीतिक रणनीतियों का विश्लेषण करेंगे, जो न केवल मराठा साम्राज्य के विस्तार का कारण बने, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप में नए साम्राज्य की शुरुआत का संकेत भी बने।

बाजी राव प्रथम का प्रभाव और मराठा साम्राज्य का विस्तार
1720 में छत्रपति शाहू ने बाजी राव प्रथम, बालाजी विश्वनाथ के बड़े पुत्र को पेशवा नियुक्त किया। उस समय बाजी राव केवल 19 वर्ष के युवा थे। लेकिन उन्होंने अपनी युवा ऊर्जा को एक अनुभवी दृष्टिकोण के साथ जोड़ा। उन्हें अपने पिता से प्रशासन और कूटनीति में अच्छे प्रशिक्षण प्राप्त हुए थे।
बाजी राव के सामने कार्य अत्यधिक कठिन था। निजाम ने दक्षिण में मराठा की स्थिति को चुनौती दी और उनके द्वारा छः मुग़ल प्रांतों से चौंथ और सरदेशमुखी वसूलने के अधिकार को भी चुनौती दी। स्वराज्य की सीमा में सिद्धियों का कब्जा था, और शिवाजी के परिवार की कोल्हापुर शाखा के शंभूजी द्वितीय ने शाहू की उच्चतर स्थिति को मान्यता देने से मना कर दिया था। इसके अलावा, कई मराठा प्रमुखों के विभाजन की प्रवृत्तियाँ छत्रपति की सत्ता के लिए गंभीर खतरा थीं। बाजी राव ने साहसिक कल्पना और महान कौशल के साथ इस चुनौती का सामना किया और अंततः सभी कठिनाइयों को पार किया।

बाजी राव का उत्तर की ओर विस्तार
बाजी राव ने दक्कन में मराठा प्रभुत्व स्थापित किया और उत्तर की विजय की नीति बनाई। उन्होंने भविष्यवाणी की कि मुग़ल साम्राज्य का पतन होने वाला है और इस स्थिति का लाभ उठाने की योजना बनाई। उन्होंने शाहू से मराठों के उत्तर की ओर विस्तार की नीति की पेशकश की। इस शब्दों में: “अब हमारा समय है हिंदूओं की भूमि से विदेशियों को निकालने का और अमर कीर्ति प्राप्त करने का। हम सूखती हुई वृक्ष की जड़ पर प्रहार करें, और शाखाएँ खुद गिर जाएँगी। हमारे प्रयासों को हिंदुस्तान की ओर मोड़कर मराठा ध्वज कृष्णा से अटक तक लहराएगा।” शाहू इस युवा पेशवा की बुद्धिमत्ता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सभी रूढ़िवादी सलाहों को नकारते हुए कहा: “तुम इसे हिमालय के पार स्थापित करोगे। तुम सचमुच एक योग्य पिता के योग्य पुत्र हो।” बाजी राव ने हिंदू पदपदशाही अर्थात हिंदू साम्राज्य का आदर्श प्रचारित किया, ताकि हिंदू प्रमुखों का समर्थन प्राप्त किया जा सके, जो सामान्य शत्रु, यानी मुग़ल साम्राज्य के खिलाफ थे।
पालखेड़ की लड़ाई और निजाम की हार
आसफ जाह, जिनको निजाम-उल-मुल्क के नाम से जाना जाता था , 1713-15 और 1720-21 में दक्कन के सूबेदार रहे। 1724 में वह फिर से दक्कन लौटे क्योंकि उनका इरादा था कि वह दक्कन में अपना स्वतंत्र राज्य बनाएं। निजाम को मराठों का बढ़ता हुआ प्रभाव बहुत चिढ़ता था।
निजाम ने इस समस्या को कूटनीतिक तरीके से सुलझाने की कोशिश की। उन्हें यह समझ था कि मराठे अपने घर में बहुत ताकतवर हैं, इसलिए उन्होंने मराठा नेताओं के बीच मतभेद पैदा करने की कोशिश की और कोल्हापुर की पार्टी के दावे को समर्थन दिया। जब पेशवा 1725-26 के दौरान कर्नाटिक में थे, तो निजाम की सेनाओं ने शंभाजी की सेना के साथ मिलकर शाहू की ज़मीन पर हमला किया और शाहू को हार मानने के कगार तक पहुँचा दिया।
स्थिति को पेशवा ने अपने लौटने पर पलट लिया जब उन्होंने निजाम को पालखेड़ के पास (6 मार्च 1728) घेर लिया और उनकी सेना को हराया। निजाम को मुंशी शिवगाँव की अपमानजनक संधि स्वीकार करनी पड़ी, जिसमें वह छह मुग़ल प्रांतों से शाहू के चौंथ और सरदेशमुखी के निर्विवाद अधिकार को स्वीकार करने पर राजी हो गए। उन्होंने शंभाजी के पक्ष को छोड़ने, मराठा बंदियों को मुक्त करने और उनके द्वारा कब्जा किए गए सभी क्षेत्रों को बहाल करने का वचन दिया।
निजाम की पराजय ने दक्कन में मराठा प्रभुत्व स्थापित किया, और दक्षिण और पूर्व में मराठा विस्तार केवल समय की बात बन गई।
शंभाजी की सारी साजिशों को एक-एक करके नाकाम कर दिया गया, जब तक उसने वार्ना की संधि (अप्रैल 1731) के तहत एक सामंत राज्य के रूप में अपनी स्थिति स्वीकार नहीं की। इसके बाद, बाजी राव को एक महान कूटनीतिज्ञ और रणनीतिकार के रूप में पहचाना गया, और यह उन्हें उत्तरी भारत की विजय के अपने बड़े लक्ष्यों को पूरा करने के लिए प्रेरित किया।
गुजरात और मालवा में मराठा विस्तार
अकबर ने 1573 में गुजरात पर कब्जा किया और तब से यह इलाका उत्तर भारत, अफ्रीका और मध्य-पूर्व के देशों के बीच व्यापार का अहम केंद्र बन गया। 1705 में, मराठों ने गुजरात पर हमले शुरू किए, जिनकी अगुवाई खंडेराव दाभड़े ने की थी। 1718-19 में, मराठों और मुग़लों के बीच बातचीत हुई, जिसमें मराठों ने गुजरात से चौंथ (कर) वसूलने का अधिकार मांगा, लेकिन मुग़ल सम्राट ने इसे मंजूर नहीं किया। फिर भी, बार-बार हुए मराठा हमलों ने मुग़ल शासन को कमजोर कर दिया, और मराठा नेताओं ने कुछ क्षेत्रों से चौंथ वसूलना शुरू कर दिया।
1730 में, मुग़ल गवर्नर सरबुलंद खान ने बाजी राव प्रथम के भाई चिमनाजी के साथ एक समझौता किया, जिसमें गुजरात से चौंथ और सरदेशमुखी के मराठों के अधिकार को मंजूरी दी गई। हालांकि, मुग़ल शासन का पूरी तरह से अंत 1753 तक नहीं हुआ।
मालवा में मराठा विजय
मालवा एक ऐसा इलाका था जो दक्कन और उत्तर भारत के बीच एक अहम कड़ी की तरह काम करता था। यहां से व्यापार और सेना दोनों के रास्ते गुजरते थे, और मालवा से सेनाएँ राजपूताना, गुजरात, बुंदेलखंड या दक्कन पर हमला कर सकती थीं। 18वीं सदी में, मराठों ने मालवा पर हमले शुरू किए क्योंकि उनका मकसद मुग़ल हमलों से महाराष्ट्र की रक्षा करना था।
1719 में, बालाजी विश्वनाथ ने मालवा से चौंथ और सरदेशमुखी वसूल करने की कोशिश की, लेकिन वह सफल नहीं हो पाए। जो काम उनके पिता बातचीत से नहीं कर पाए, वह उनके बेटे बाजी राव 1 ने ताकत से करने का सोचा। उडाजी पवार और मल्हार राव होलकर की अगुवाई में मराठा सेनाओं ने मुग़ल शासन को मालवा से बाहर कर दिया। मुग़ल गवर्नर सवाई जय सिंह, मोहम्मद खान बंगश और जय सिख मराठों को रोकने में नाकाम रहे। अंततः 1735 में, बाजी राव ने मालवा का पूरा इलाका अपने नियंत्रण में ले लिया।
बुंदेलखंड की विजय
एक राजपूत जाति, बुंदेले, मालवा के पूर्व में स्थित पहाड़ी इलाके पर शासन करते थे, जो यमुना और नर्मदा के बीच स्थित था। जब इलाहाबाद के मुगल सूबेदार मोहम्मद खान बंगश ने बुंदेलों के सबसे मजबूत किलों में से एक, जैतपुर को कब्जा कर लिया, तो वहां के राजा छत्रसाल ने पेशवा से सहायता मांगी।
छत्रसाल का समर्थन और मराठा सेना का हस्तक्षेप
अक्टूबर 1728 में मराठा सेना छत्रसाल की मदद के लिए बुंदेलखंड पहुँची। मराठों ने एक-एक करके सभी खोए हुए क्षेत्र मुगलों से पुनः प्राप्त किए। छत्रसाल ने आभार व्यक्त करते हुए पेशवा को जगीर के रूप में अपना एक बड़ा हिस्सा सौंप दिया। जिसमें कालपी, सागर, झांसी और हिरडेनगर शामिल थे।
दिल्ली पर बाजी राव का आक्रमण और सम्राट से समझौता
उत्तर बुंदेलखंड में मराठा अभियानों के दौरान, मल्हार राव होलकर के नेतृत्व में एक मराठा सैन्य दल यमुना पार कर अवध तक जा पहुंचा। लेकिन सआदत खान की श्रेष्ठ सेनाओं द्वारा वे घेर लिए गए और उन्हें पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा। सआदत खान ने अपनी सफलताओं की अतिशयोक्ति रिपोर्ट मुग़ल दरबार में भेजी।
दिल्ली पर आक्रमण और बाजी राव की रणनीति
बाजी राव ने दिल्ली पर हमला करने का निर्णय लिया। जाटों और मेवातियों की पहाड़ी इलाकों के माध्यम से त्वरित मार्च करते हुए, बाजी राव ने दिल्ली में प्रवेश किया (29 मार्च 1737) और मुगल सम्राट को भयभीत कर दिया। हालांकि पेशवा राजधानी में केवल तीन दिन रहे, लेकिन उन्होंने किसी वक्त के महान मुग़ल साम्राज्य की कमजोरी और तैयारियों की कमी को उजागर कर दिया।
भोपाल की लड़ाई और निजाम की हार
जब मुग़ल सम्राट मराठों के साथ एक बड़ा समझौता करने पर विचार कर रहे थे, तब निजाम मुग़ल साम्राज्य के रक्षक के रूप में सामने आए। बाजी राव की सफलता से निजाम काफी चिंतित हो गए थे। मराठों द्वारा दक्कन में चौंथ और सरदेशमुखी वसूलने से निजाम की स्वतंत्रता को चोट पहुँची और उसे मराठों का सहायक बनना पड़ा था। इसलिए, निजाम ने मुग़ल साम्राज्य की रक्षा करने की कोशिश की और अपना अस्तित्व बचाने की योजना बनाई।
दिसंबर 1737 में भोपाल की लड़ाई में निजाम को हार मिली और उसे शांति की मांग करनी पड़ी।
दुरई-सराय की संधि की संधि और मराठा प्रभुत्व
जनवरी 1738 में मराठों और निजाम के मध्य हुई दुरई-सराय की संधि के अनुसार, निजाम ने पेशवा से यह वादा किया:
1. मालवा का पूरा क्षेत्र मराठों को देना।
2. नर्मदा और चंबल के बीच का क्षेत्र पूरी तरह से मराठों को सौंपना।
3. इन क्षेत्रों की स्वीकृति मुग़ल सम्राट से प्राप्त करना।
4. 50 लाख रुपए का युद्ध मुआवजा चुकाना।
इस समझौते के बाद, मालवा मराठों के कब्जे में आ गया, निजाम और मुग़ल सम्राट अपमानित हुए, और भारत में मराठा सेनाओं का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इसने उत्तर भारत की राजनीति में एक नए साम्राज्य के बनने की ओर इशारा किया।
बाजी राव का मूल्यांकन: एक महान सैनिक और कूटनीतिज्ञ
बाजी राव प्रथम एक महान सैनिक, कुशल कूटनीतिज्ञ, और साम्राज्य-निर्माता थे। उनके व्यक्तित्व में कई विशेषताएँ थी, जो उन्हें अद्वितीय बनाती थीं। मूल रूप से वह एक कार्यकर्ता व्यक्ति थे, परंतु उनके युद्ध कौशल और राजनीतिक निर्णयों ने मराठा साम्राज्य को एक नई दिशा दी। पेशवाई के दौरान, उन्होंने लगभग दो दशकों तक युद्धों में भाग लिया और हर बार विजय प्राप्त की। उन्हें महाराष्ट्र में “लड़ाकू पेशवा” और “हिंदू ऊर्जा का अवतार” के रूप में याद किया जाता है।
बाजी राव का युद्ध कौशल
बाजी राव ने मराठा सेना की कमजोरी को अच्छी तरह समझा, विशेष रूप से भारी तोपखाने के मामले में। वह कभी भी सीधे मैदान में दुश्मन से मुकाबला नहीं करते थे, बल्कि उन्होंने हमेशा चतुराई से दुश्मन के आपूर्ति मार्गों को काटकर उन्हें पराजित किया। यह उनकी अद्वितीय रणनीतिक समझ को दिखाता है। उदाहरण के तौर पर, पालखेड और भोपाल की लड़ाई में उन्होंने निजाम को फंसा कर हराया। उनका एक और गुण था उनकी गति और सैन्य मोबाइलिटी, जो उनके अभियानों को सफल बनाती थी। 1737 में दिल्ली पर उनका आक्रमण और तेज़ मार्च एक चमत्कार के समान था।
एक महान जनरल और रणनीतिकार
बाजी राव केवल एक महान सैनिक नहीं थे, बल्कि एक कुशल जनरल और रणनीतिकार भी थे। उन्होंने अपनी सैन्य रणनीतियों को बारीकी से योजना बनाई और उन्हें सही समय पर लागू किया। उनके अभियानों में कभी भी किसी प्रकार की जल्दबाजी नहीं थी। उनकी दूरदर्शिता और समझ ने उन्हें एक सक्षम और प्रभावी नेता बना दिया। बाजी राव ने निजाम के खिलाफ अपनी दो महत्वपूर्ण जीत में अपनी असाधारण क्षमताओं का प्रमाण दिया।
बाजी राव का नेतृत्व
बाजी राव को नेतृत्व में एक विशेष दक्षता प्राप्त थी। वे एक जन्मजात नेता थे और उन्हें अपनी सेना में उपयुक्त नेताओं की पहचान करने की गहरी समझ थी। उन्होंने सिंधिया, होल्कर, पवार, रेट्रेकर, और फडके जैसे प्रमुख युद्ध नायकों को चुना, जिन्होंने मराठा साम्राज्य को मजबूत किया। जब वह किसी को चुनते थे, तो उन्हें पूरी तरह विश्वास होता था और वह अपने अधीनस्थों को प्रेरित करते थे।
राजपूतों और अन्य हिंदू समुदायों से गठबंधन
बाजी राव की दूरदर्शिता ने उन्हें यह समझने में मदद की कि राजपूत, बुंदेला, जाट और अन्य हिंदू समुदाय मराठों के स्वाभाविक सहयोगी थे, विशेषकर मुगलों के खिलाफ संघर्ष में। उन्होंने इन समुदायों के साथ गठबंधन किया और इस तरह मराठा शक्ति को और सशक्त किया। सवाई जय सिंह और छत्रसाल की मित्रता ने मराठा साम्राज्य को और भी मजबूत बना दिया और बाजी राव के लिए यह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक लाभ साबित हुआ।
बाजी राव के साम्राज्य निर्माण का दृष्टिकोण
बाजी राव का दृष्टिकोण केवल एक सैन्य विजय तक सीमित नहीं था। वह एक साम्राज्य-निर्माता थे और उन्होंने “ग्रेटर महाराष्ट्र” की स्थापना की। राव बहादुर जी.एस. सरदेसाई लिखते हैं: “शाहू अब केवल एक छोटे राजा नहीं थे, बल्कि एक विस्तृत और विविधतापूर्ण साम्राज्य के सम्राट बन गए थे।” बाजी राव के प्रयासों के कारण मराठों ने भारतीय उपमहाद्वीप में अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक अपना विस्तार किया। भारत के राजनीतिक केंद्र भी दिल्ली से पुणे की ओर स्थानांतरित हो गए थे।
बाजी राव की दूरदर्शिता
बाजी राव ने भारतीय राजनीतिक स्थिति को एक दुर्लभ दृष्टिकोण से पढ़ा। वह हिंदू साम्राज्य के आदर्श को अपनाते हुए भारत में एक नया साम्राज्य स्थापित करने की दिशा में काम कर रहे थे। हालांकि, डॉ. वी.जी. दिगे ने बाजी राव के कार्यों में दूरदर्शिता की कमी का उल्लेख किया। उनके अनुसार, बाजी राव ने अपने राज्य की राजनीतिक संस्थाओं को स्थायी रूप से सुधारने की कोशिश नहीं की। वे मराठा साम्राज्य को सशक्त बनाने में सफल रहे, लेकिन उनके उत्तराधिकारियों के लिए राजनीतिक संतुलन बनाए रखना मुश्किल हो गया।
बाजी राव की कूटनीति और सैन्य नीति
बाजी राव की कूटनीति भी उनकी सैन्य नीति से गहरे जुड़ी हुई थी। उन्होंने अपनी सैन्य योजनाओं में हमेशा कूटनीतिक दृष्टिकोण को शामिल किया, ताकि उनके हमले अधिक प्रभावी और तेज़ हों। उन्होंने कभी भी बेकार युद्धों में समय और संसाधन खर्च नहीं किए, बल्कि रणनीतिक रूप से अपने दुश्मनों को हराया। जब उन्होंने दिल्ली पर हमला किया, तो उनका उद्देश्य सिर्फ सैन्य विजय नहीं था, बल्कि राजनीतिक दृष्टिकोण से भी मुग़ल साम्राज्य को कमजोर करना था। यह उनकी कूटनीतिक सूझबूझ को दर्शाता है।
बाजी राव का समग्र मूल्यांकन
बाजी राव एक महान नेता, सैनिक और रणनीतिकार थे। उनके नेतृत्व ने मराठा साम्राज्य को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया और भारतीय उपमहाद्वीप में एक नया साम्राज्य स्थापित किया। उनकी सैन्य योजनाओं में कूटनीति और युद्ध कौशल का अद्वितीय मिश्रण था। हालांकि, उनकी दूरदर्शिता और राज्य के राजनीतिक संस्थानों में सुधार की कमी ने बाद में समस्याएँ उत्पन्न कीं। फिर भी, बाजी राव का योगदान भारतीय इतिहास में अमूल्य रहेगा।
Selected References
1. R.B. Sardesai: A New History of the Marathas
2. V.O. Dighe: Peshwa Baji Rao I and Maratha Expansion
3. Jaswant Lal Mehta : Advanced Study in the History of Modern India 1707–1813
4. S. N. Sen : History Modern India