हखामनी साम्राज्य के बाद भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में एक और यूरोपीय आक्रमण हुआ। यह हमला मैसेडोनिया के राजा सिकंदर के नेतृत्व में हुआ, जो पिछले आक्रमणों की तुलना में अधिक शक्तिशाली साबित हुआ। सिकंदर, फिलिप द्वितीय का पुत्र था, जो मैसेडोनिया का राजा था। पिता की मृत्यु के बाद, 20 साल की उम्र में ही सिकंदर राजा बना। उसकी महत्वाकांक्षा विश्वविजेता बनने की थी, और माना जाता है कि इस सपने की प्रेरणा उसे अपने पिता से ही मिली थी। उसमें असीम उत्साह और साहस था।
सिकंदर की प्रारंभिक विजय यात्रा
सिकंदर ने सबसे पहले अपनी स्थिति मैसेडोनिया और ग्रीस में मजबूत की, और इसके बाद एशिया के अलग-अलग क्षेत्रों को जीतने के लिए अभियान शुरू किया। इस यात्रा में उसने एशिया माइनर, सीरिया, मिस्र, बेबीलोन, बैक्ट्रिया, और सोन्डियाना को जीत लिया। 331 ईसा पूर्व में आरबेला के युद्ध में, उसने फारस के राजा दारा तृतीय को पराजित किया। इस जीत से पूरा हखामनी साम्राज्य उसके नियंत्रण में आ गया।
भारतीय क्षेत्र की स्थिति और आक्रमण का कारण
जब सिकंदर ने भारत की ओर रुख किया, तब भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में कई छोटे-बड़े राज्य और गणराज्य थे। इन राज्यों में परस्पर संघर्ष और दुश्मनी थी, जो उन्हें एकजुट होने से रोक रही थी। इतिहासकार डॉ. हेमचंद्र रायचौधरी के अनुसार, उस समय पंजाब और सिंध में 28 स्वतंत्र शक्तियाँ थीं। ये राज्य परस्पर शत्रुता के कारण एक आक्रमणकारी के खिलाफ संगठित होकर सामना करने में असमर्थ थे। ऐसे हालात में सिकंदर ने भारतीय विजय की योजना बनाई और 326 ईसा पूर्व में वसंत के अंत में अपनी विशाल सेना के साथ भारत की ओर बढ़ा।
पश्चिमोत्तर भारत के प्रमुख राज्य
इस समय भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में कई राज्य और गणराज्य थे। इनमें से कुछ प्रमुख थे:
1. आस्येशियन गणराज्य – यह काबुल नदी के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्रों में स्थित था।
2. गुरेअन्स प्रदेश – यह आस्पेशियन और अश्वकों के बीच स्थित एक गणराज्य था।
3. अस्सकेनोस गणराज्य – स्वात नदी के तट पर स्थित था।
4. नीसा गणराज्य – काबुल और सिंधु नदियों के बीच स्थित था।
5. पुष्कलावती – संस्कृत में इसे पुष्कलावती कहते हैं, और यह गंधार क्षेत्र का हिस्सा था।
6. तक्षशिला – यह सिंधु और झेलम नदियों के बीच स्थित एक प्राचीन राज्य था।
7. पुरु राज्य – झेलम और चिनाब नदियों के बीच स्थित एक शक्तिशाली राज्य था।
8. मालव और क्षुद्रक गणराज्य – ये रावी नदी के दोनों किनारों पर स्थित थे।
सिकन्दर के समकालीन यूनानी लेखको ने इन पश्चिमोत्तर भारत राज्यों के बीच पारस्परिक शत्रुता का उल्लेख किया है। कर्टियस हमे बताता है कि तक्षशिला के राजा आम्भी तथा कैकयनरेश पोरस में शत्रुता थी। एरियन के अनुसार पोरस और अबीसेयर्स ने मिलकर मालवा तथा शुद्रको पर आक्रमण किया था। पोरस तथा उसके भतीजे के संबंध खराब थे । दो अन्य राज्य संबोस और मोसिकनोस एक दूसरे के शत्रु थे। इस आपसी दुश्मनी और संघर्ष के वातावरण ने सिकन्दर का कार्य सरल बना दिया।
सिकंदर का भारत की ओर प्रस्थान
सिकंदर का भारत पर आक्रमण
सिकंदर ने हखामनी साम्राज्य का नाश करने के बाद बल्ख (बैक्ट्रिया) में एक उपनिवेश स्थापित किया। यहाँ से उसने भारतीय विजय के लिए यात्रा शुरू की। उसने हिन्दूकुश पर्वत पार करके काबुल के रास्ते भारत में प्रवेश किया। तक्षशिला के राजा आम्भी ने सिकंदर से मित्रता की और उसे सहायता का वचन दिया। तक्षशिला के राजा आम्भी ने सिकंदर को बहुमूल्य हाथी भेंट किए, जो भारतीय राजा द्वारा अपने देश के प्रति विश्वासघात का पहला उदाहरण माना जाता है। हिन्दूकुश पर्वत के उत्तर में शशिगुप्त नामक एक अन्य भारतीय राजा ने सिकन्दर की अधीनता स्वीकार की तथा उसकी सहायताका वचन दिया।
सिकंदर की रणनीति और भारत विजय अभियान
इन भारतीय देशद्रोहियों द्वारा आश्वस्त हो जाने के पश्चात् सिकन्दर ने आगे प्रस्थान किया। सिकंदर ने अपनी सेना को दो भागों में बांटा। एक भाग को उसने अपने सेनापतियों हेफेस्टियन और पेर्डियस के नेतृत्व में खैबर दर्रे से होकर सिंधु नदी तक पहुँचने का आदेश दिया। दूसरे भाग का नेतृत्व उसने खुद किया और कठिन पहाड़ी क्षेत्रों में युद्ध लड़ा। इस यात्रा में उसे स्वात और काबुल घाटियों में रहने वाली स्वतंत्र जनजातियों से संघर्ष करना पड़ा।
प्रमुख संघर्ष और विजय
सिकंदर ने स्वात घाटी में बसे अश्वकों के राज्य पर हमला किया, जहाँ भयंकर युद्ध हुआ। यहाँ की महिलाओं ने भी पुरुषों की मृत्यु के बाद युद्ध में भाग लिया। सिकंदर ने इस राज्य की सभी महिलाओं को मार दिया। इसके बाद उसने वाजिरा (बिर-कोट) और ओरा (उदग्राम) के क्षेत्रों को भी जीत लिया। सिन्धु नदी के पश्चिमी भागों को एक प्रांत में बदलकर उसने निकोनोर को वहाँ का शासक नियुक्त किया। उसने पुष्कलावती में एक सैनिक दल तैनात कर दिया।
सिन्धु घाटी में सिकन्दर की स्थिति
सिकन्दर ने सिन्धु घाटी में प्रवेश से पहले ही अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली थी। उसने पुष्कलावती और सिन्धु के बीच के सभी छोटे प्रदेशों को जीतकर निचली काबुल घाटी में अपने पैर जमा लिए। सिन्धु नदी पार करने से पहले, स्थानीय सहायकों की मदद से उसने एओर्नोस (Aornos) के किले पर कब्जा कर लिया और वहाँ शशिगुप्त को शासक नियुक्त किया। इसके बाद वह सिन्धु नदी के तट पर स्थित ओहिन्द के पास पहुँचा, जहाँ उसके सेनापतियों ने पहले से ही नावों का पुल तैयार कर रखा था। एक महीने के विश्राम के बाद, 326 ईसा पूर्व के वसंत में, सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार कर भारत की धरती पर कदम रखा।
तक्षशिला के राजा आम्भी का आत्मसमर्पण
सिन्धु नदी पार करने के बाद, तक्षशिला के शासक आम्भी, जिसका राज्य सिन्धु तथा झेलम नदियों के बीच फैला था, ने अपनी सेना और प्रजा के साथ सिकन्दर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। आम्भी ने तक्षशिला में सिकन्दर का भव्य स्वागत किया और उसके समक्ष कई स्थानीय शासक भी बहुमूल्य उपहार लेकर आए। तक्षशिला में उत्सव मनाने के बाद, सिकन्दर ने झेलम और चिनाब के बीच स्थित पोरस (पुरु) से आत्मसमर्पण की माँग की, जिसे पोरस ने अस्वीकार कर दिया। उसने संदेश भेजा कि वह सिकन्दर का सामना रणक्षेत्र में ही करेगा।
झेलम(वितस्ता) का युद्ध: पोरस की चुनौती
पोरस और सिकन्दर की सेनाएँ झेलम नदी के दोनों किनारों पर तैनात थीं। वर्षा के कारण नदी में बाढ़ आ गई थी, जिससे सिकन्दर के लिए इसे पार करना मुश्किल हो गया। दोनों सेनाएँ कुछ दिनों तक अवसर की प्रतीक्षा करती रहीं। एक रात जब तेज वर्षा हो रही थी, सिकन्दर ने अपनी सेना को धोखे से नदी के पार उतार दिया। इस रणनीति ने भारतीय पक्ष को आश्चर्यचकित कर दिया। एरियन के अनुसार पोरस की सेना में चार हजार अश्वारोही, तीन सौ रथ, दो सौ हाथी और तीस हजार पैदल सैनिक थे। पोरस ने अपने पुत्र के नेतृत्व में 2000 सैनिक भेजे, लेकिन वे यूनानी सेना का सामना नहीं कर सके और उसका पुत्र मारा गया।
सिकन्दर और पोरस की सीधी भिड़ंत
पोरस ने अब अपनी पूरी सेना के साथ अंतिम लड़ाई के लिए कमर कस ली। बारिश के कारण झेलम का मैदान दलदली हो गया था, जिससे पोरस के सैनिकों के लिए विशाल धनुष चलाना कठिन हो गया। हाथियों का विशाल आकार यूनानी सेना के तेज घोड़ों के सामने कमजोर पड़ गया। युद्ध का नतीजा सिकन्दर के पक्ष में रहा, और पोरस की सेना तितर-बितर हो गई। फिर भी पोरस अपने विशाल हाथी पर सवार होकर अंत तक लड़ता रहा। जब उसे समझ आ गया कि जीत की कोई संभावना नहीं बची है, तो उसने पीछे हटने का निर्णय लिया।
पोरस का आत्मसमर्पण और सिकन्दर की उदारता
सिकंदर के सामने पोरस ने आत्मसमर्पण कर दिया
सिकन्दर ने तक्षशिला के राजा आम्भी को पोरस के पास आत्मसमर्पण का संदेश देने के लिए भेजा। आम्भी को देखकर पोरस क्रोधित हो उठा और उस पर भाले से हमला कर दिया, लेकिन आम्भी बच गया। इसके बाद, सिकन्दर ने पोरस को मनाने के लिए दूसरा दूत भेजा, जिसमें पोरस का मित्र मेरुस भी था। अंततः पोरस ने आत्मसमर्पण कर दिया। घायल अवस्था में उसे सिकन्दर के सामने लाया गया, उसके शरीर पर नौ घाव थे। जहाँ सिकन्दर ने उसकी वीरता की प्रशंसा की और पूछा, “तुम्हारे साथ कैसा बर्ताव किया जाए?” पोरस ने गर्व से उत्तर दिया, “जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है।” इस उत्तर से प्रभावित होकर, सिकन्दर ने न केवल पोरस को उसका राज्य लौटाया बल्कि उसके राज्य का विस्तार भी कर दिया। यूनानी लेखक प्लूटार्क के अनुसार इसमें 15 संघ राज्य, उनके पाँच हजार बड़े नगर तथा अनेक ग्राम थे।
युद्ध के बाद की घटनाएँ:
नगरों की स्थापना सिकन्दर ने युद्ध में मारे गए सैनिकों की अंतिम संस्कार क्रियाएँ कीं और यूनानी देवताओं की पूजा की। उसने दो नगरों को स्थापना की। उसने रणक्षेत्र में ही विजय के उपलक्ष्य में ‘निकैया‘ (विजयनगर) नामक नगर बसाया। इसके अलावा, झेलम के तट पर, जहाँ उसका प्रिय घोड़ा ‘बउकेफला‘ मरा था, ‘बउकेफला‘ नामक एक और नगर की स्थापना की।
झेलम के बाद के युद्ध और पोरस का विस्तार
‘ सिकंदर के सैनिक भारत से घर लौटने की विनती करते हैं,” एंटोनियो टेम्पेस्टा, फ्लोरेंस की कृति, 1608 की प्लेट 3 में।
झेलम के युद्ध के बाद, सिकन्दर ने चिनाब नदी के पश्चिमी तट पर स्थित ग्लौचुकायन राज्य पर हमला कर उसे पोरस के राज्य में मिला दिया। इसी बीच, अश्वकों के राज्य में विद्रोह भड़क उठा, जिसमें यूनानी क्षत्रप निकानोर मारा गया। सिकन्दर ने विद्रोह को कुचलने के लिए तक्षशिला के टाट्रेसपेस और फिलिप को भेजा, जिन्हें ईरान से आई ब्रेसीयन सेनाओं का समर्थन मिला।
व्यास नदी पर सेना का विद्रोह
व्यास नदी सिकन्दर के अभियान की चरम सीमा साबित हुई। यहाँ उसकी सेना ने आगे बढ़ने से मना कर दिया। सैनिकों का उत्साह खत्म हो चुका था और वे थक चुके थे। वे लंबे समय से अपने घरों से दूर थे और लगातार युद्धों के कारण बीमारियों और थकान से परेशान थे। सिकन्दर ने उन्हें प्रोत्साहित करने की बहुत कोशिश की, लेकिन उसकी सारी कोशिशें बेकार साबित हुईं। अंततः उसे सेना की वापसी का आदेश देना पड़ा।
महान सिकन्दर की वापसी यात्रा
सिकन्दर ने व्यास नदी के तट पर 12 वेदियों का निर्माण कराया, जो उसकी विजय की निशानी थीं। उसने झेलम और व्यास के बीच का पूरा क्षेत्र पोरस के अधिकार में छोड़ दिया और अन्य शासकों को भी उनके क्षेत्रों का नियंत्रण सौंप दिया। वापसी यात्रा में उसे मालव और क्षुद्रक गणों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, जहाँ उसे गंभीर चोटें आईं। इसके बाद सिकन्दर ने अपने सैनिकों के साथ भारत छोड़ने का निर्णय लिया।
सिकन्दर का भारतीय गणराज्यों से सामना
महान सिकन्दर ने भारतीय उपमहाद्वीप में कदम रखते ही कई गणराज्यों का सामना किया। मालवों का संघ बिखरने के बाद, क्षुद्रकों ने भी हथियार डाल दिए और उनकी एकता समाप्त हो गई। लेकिन सिकन्दर के सामने अकेले क्षुद्रक ही नहीं थे। व्यास और चिनाब नदियों के संगम पर रहने वाले शिवि और अगलस्स जातियों ने उसका प्रतिरोध किया। शिवियों ने बिना युद्ध किए आत्मसमर्पण कर दिया, पर अगलस्स जाति ने अपनी स्त्रियों और बच्चों को आग में झोंकते हुए पूरे साहस के साथ अंतिम सांस तक युद्ध किया।
दक्षिणी-पश्चिमी पंजाब के गणराज्य
दक्षिणी-पश्चिमी पंजाब में अम्बष्ठ, क्षतृ और वसाति नाम के छोटे-छोटे गणराज्य भी सिकन्दर के रास्ते में आए, लेकिन उन्होंने बिना संघर्ष के उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।
सिंधु नदी के निचले भागों में सिकन्दर की विजय
अपनी विजय के अंतिम चरण में, सिकन्दर ने सिंधु नदी के निचले भागों में स्थित क्षेत्रों पर कब्जा किया। यहाँ की राजनीतिक स्थिति राजतंत्रात्मक थी। सोग्डोई के राजा ने बिना युद्ध किए आत्मसमर्पण कर दिया। इसके बाद, मुषिक राज्य के राजा ने भी मामूली प्रतिरोध के बाद सिकन्दर के अधीनता को स्वीकार कर लिया।
ब्राह्मणों का विरोध
सिकन्दर के सबसे बड़े विरोधी निचली सिंधु घाटी के ब्राह्मण थे। उन्होंने अपनी जनता को विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ खड़े होने का संदेश दिया और उन राजाओं की आलोचना की जिन्होंने सिकन्दर के सामने झुक कर अधीनता स्वीकार कर ली थी। मुषिकनरेश मुषिकनोस और आक्सीकनोस ने भी ब्राह्मणों के आवाहन पर सिकन्दर के खिलाफ विद्रोह किया, लेकिन उनका अंत भी पराजय के रूप में हुआ।
पाटल की विजय और वापसी
सिकन्दर पाटल तक पहुँचा, जहाँ सिंधु नदी दो धाराओं में बँट जाती है। डियोडोरस के अनुसार, इस क्षेत्र में द्वैराज्य (दो राजा मिलकर शासन) की प्रणाली थी। स्थानीय लोगों ने सिकन्दर के भय से अपने नगर खाली कर दिए और सिकन्दर ने यहाँ एक नई क्षत्रपी की स्थापना की, जिसका शासक पिथोन को बनाया गया।
यूनान वापसी और मृत्यु
325 ईसा पूर्व के सितम्बर में, सिकन्दर ने पाटल से यूनान की ओर प्रस्थान किया। ज़ेड्रोसिया के रेगिस्तानी इलाकों से होकर वह बेबीलोन पहुँचा, और लगभग 323 ईसा पूर्व में वहीं उसका निधन हो गया।
सिकंदर के आक्रमण का भारत पर प्रभाव
भारत पर सिकंदर के आक्रमण के प्रभाव को लेकर विद्वानों में अलग-अलग विचार हैं। जबकि यूनानी लेखकों ने इस आक्रमण को बड़ी घटना माना, कई भारतीय विद्वानों का मानना है कि इसका भारत पर गहरा प्रभाव नहीं पड़ा। उनके अनुसार सिकन्दर आँधी की तरह आया और चला गया।
विन्सेन्ट स्मिथ का दृष्टिकोण
इतिहासकार विन्सेन्ट स्मिथ ने लिखा है कि भारत की जीवनशैली पर सिकंदर का आक्रमण कोई स्थायी प्रभाव नहीं डाल पाया। उनका कहना था कि युद्ध के घाव जल्दी भर गए, किसान फिर से अपने खेतों में काम करने लगे, और जिन स्थानों पर युद्ध में लाखों लोग मारे गए थे, वे फिर से जनसंख्या से भर गए। भारत का यूनानीकरण नहीं हुआ और देश अपने पारंपरिक जीवन में फिर से लौट आया। किसी भी भारतीय लेखक, चाहे वे हिन्दू, बौद्ध या जैन हों, ने सिकंदर के आक्रमण का उल्लेख नहीं किया।
आक्रमण के राजनीतिक प्रभाव
सिकन्दर के आक्रमण से भारतीय राजनीतिक संरचना में भी परिवर्तन हुआ। उसके आगमन के पूर्व पश्चिमोत्तर भारत कई छोटे-छोटे राज्यों में बँटा था। सिकन्दर ने इन राज्यों को चार प्रमुख प्रशासनिक इकाइयों में विभाजित किया:
1. सिन्धु के उत्तरी और पश्चिमी भागों का प्रांत : पहले इसका क्षत्रप निकानोर था, लेकिन उसकी हत्या के बाद सिकन्दर ने फिलिप को इसका शासक बना दिया।
2. सिन्धु और झेलम के बीच का क्षेत्र : इस क्षेत्र को तक्षशिला के शासक आम्भी को सौंपा गया।
3. झेलम के पूर्वी भाग से व्यास तक का क्षेत्र : यह सबसे बड़ा प्रांत था और इसे पोरस के अधीन रखा गया
4. सिन्धु नदी के निचले हिस्से का प्रांत : यहाँ पिथोन को क्षत्रप नियुक्त किया गया।
सिकंदर की इन प्रशासनिक व्यवस्थाओं ने अप्रत्यक्ष रूप से चन्द्रगुप्त मौर्य के लिए पश्चिमोत्तर भारत में एकीकृत शासन की स्थापना में मदद की। यदि चन्द्रगुप्त मौर्य ने पूर्व में मगध के सिंहासन पर विजय पाई, तो पश्चिम में सिकंदर ने उसके मार्ग को आसान कर दिया।
व्यापारिक संबंधों का विस्तार
“सिकंदर महान का विजय सिक्का,” जो लगभग 322 ईसा पूर्व बेबीलोन में भारतीय उपमहाद्वीप में उनके अभियानों के बाद ढाला गया था। आगे की ओर: नाइकी द्वारा ताज पहनते हुए सिकंदर। पीछे की ओर: सिकंदर राजा पोरस पर उनके हाथी के साथ हमला करते हुए। चांदी। ब्रिटिश संग्रहालय।
सिकन्दर के आक्रमण के बाद भारत और पश्चिमी देशों के बीच व्यापारिक संबंध मजबूत हुए। भारत में यूनानी उपनिवेशों की स्थापना के कारण, निकैया, बउकेफला, सिकन्दरिया, और सोण्डियन सिकन्दरिया जैसे नगर विकसित हुए। इनसे समुद्री और स्थलीय मार्ग खुले, जिससे दोनों क्षेत्रों के बीच व्यापारिक आदान-प्रदान बढ़ा और भौगोलिक ज्ञान विस्तृत हुआ। व्यापारिक आदान-प्रदान के साथ भारतीय व्यापारियों ने यूनान का दौरा किया और यूनानी व्यापारी भारत आए। इस व्यापारिक संबंध ने भारतीय मुद्रा निर्माण में भी नया योगदान दिया, जैसे ‘उलक शैली‘ के सिक्कों का निर्माण। इस प्रकार भारतीय मुद्रा-निर्माण कला का विकास हुआ।
आक्रमण का सांस्कृतिक प्रभाव
सिकन्दर के आक्रमण से भारतीय संस्कृति पर यूनानी शासन पद्धति का प्रभाव पड़ा। साम्राज्यिक शासन प्रणाली को भारतीय राज्यतंत्र में स्थायी स्थान मिला। कला एवं ज्योतिष के क्षेत्र में भारतीयों ने यूनानियों से बहुत कुछ सीखा। इतिहासकार निहार रंजन राय के अनुसार मौर्य कालीन स्तम्भों के शीर्षकों को मण्डित करने वाली पशु-आकृतियों पर यूनानी कला का ही प्रभाव था। कालान्तर में पश्चिमोत्तर प्रदेशों की गन्धार-कला शैली, यूनानी कला के प्रभाव से ही विकसित हुई थी। अनेक यूनानी दार्शनिक, भारतीय दार्शनिकों के सम्पर्क में आये तथा यहाँ के दर्शन से प्रभावित हुए। यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस पर भारतीय दर्शन का प्रभाव स्पष्ट है। सिकन्दर के अभियान से यूरोप में भारत के विषय में जानकारी अधिक हुई। सिकन्दर के साथ कई लेखक तथा इतिहासकार भारत आये। उन्होने तत्कालीन भारत की राजनैतिक दशा के विषय में लिखा। उनके ग्रन्थ कालान्तर में इतिहास के पुनर्निमाण में सहायक बने। रोमिला थापर के अनुसार “सिकन्दर के आक्रमण का सर्वाधिक उल्लेखनीय परिणाम न राजनीतिक था, न सैनिक। उसका महत्व इस बात में निहित है कि वह अपने साथ कुछ ऐसे यूनानियों को लाया या जिन्होंने भारत के विषय में अपने विचारो को लिपिबद्ध किया और वे इस काल पर प्रकाश डालने की दृष्टि से मूल्यवान है।”
भारतीय संस्कृति पर प्रभाव और उसकी आत्मनिर्भरता
हालाँकि सिकन्दर के आक्रमण का भारत पर कई प्रभाव पड़ा, लेकिन भारतीय सभ्यता और संस्कृति अपनी जड़ों में अपरिवर्तित रही। यूनानी संस्कृति का प्रभाव नगण्य था, और भारतीय संस्कृति ने विदेशी आक्रमण के बाद भी अपने विशिष्ट स्वरूप को बनाए रखा। अंग्रेजी कवि मैथ्यू आरनाल्ड ने इसे इस प्रकार वर्णित किया: “भारत ने विदेशी आक्रमण के सामने नतमस्तक होकर भी अपनी आत्मा को मुक्त रखा। जब युद्ध समाप्त हुआ, तो वह फिर से अपने विचारों में डूब गया।”
इस प्रकार, सिकन्दर का आक्रमण भारत की राजनीति, व्यापार, और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए महत्वपूर्ण रहा, लेकिन उसकी मूल संस्कृति पर इसका गहरा प्रभाव नहीं पड़ा।