अलाउद्दीन खिलजी के विजय अभियान को भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय माना जाता है। उनके सैन्य कौशल, युद्ध रणनीतियों और शाही महत्वाकांक्षाओं ने उन्हें भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे शक्तिशाली सुलतान के रूप में स्थापित किया। अलाउद्दीन खिलजी के विजय अभियान ने न केवल उनके साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि वह अपनी सैन्य रणनीतियों के लिए भी प्रसिद्ध हुए। इस लेख में हम अलाउद्दीन खिलजी के विजय अभियान के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे, जिसमें उनकी प्रमुख विजय, युद्ध की रणनीतियाँ और उनके शासनकाल के ऐतिहासिक महत्व का विश्लेषण किया जाएगा।
अलाउद्दीन खिलजी द्वारा दिल्ली सल्तनत का क्षेत्रीय विस्तार (1328 तक)
दिल्ली सल्तनत की स्थापना 1206 में हुई थी। इसके बाद, शुरुआती 85 वर्षों तक सल्तनत का मुख्य ध्यान अपनी सत्ता को बनाए रखने और विघटन को रोकने में रहा। इस दौरान सत्ता संघर्ष, मंगोल आक्रमण और भारतीय हिंदू राजाओं के प्रयासों ने सल्तनत को कमजोर किया। हालांकि, खिलजी वंश के सुल्तान बनने के बाद परिस्थितियां बदलने लगीं।
सल्तनत का आंतरिक पुनर्गठन और क्षेत्रीय विस्तार
खिलजी वंश के शासकों ने सत्ता में आते ही “खिलजी क्रांति” द्वारा दिल्ली सल्तनत का पुनर्गठन किया। इसके साथ ही प्रशासन में सुधार किया गया। भारतीय मुसलमानों और हिंदुओं को सल्तनत के प्रशासन, सैन्य और प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया गया। इसके परिणामस्वरूप, सल्तनत में स्थिरता आई और क्षेत्रीय विस्तार की संभावना बनी।
पहला चरण: गुजरात, राजस्थान और मालवा का समावेश
पहले चरण में दिल्ली सल्तनत ने अपने आसपास के क्षेत्रों, जैसे गुजरात, राजस्थान और मालवा, को अपने नियंत्रण में लिया। इन क्षेत्रों को सीधे दिल्ली सल्तनत के प्रशासन में लाया गया। इस प्रक्रिया में स्थानीय शासकों को पराजित किया गया और सल्तनत के अधीन कर लिया गया। इस दौरान, राज्य की शक्ति को मजबूत किया गया और एक सशक्त प्रशासनिक ढांचा खड़ा किया गया।
दूसरा चरण: महाराष्ट्र और दक्कन पर आक्रमण
दूसरे चरण में, महाराष्ट्र और दक्कन की राज्य प्रणालियों पर हमले किए गए। इन राज्यों को दिल्ली के अधीन लाने के लिए सैन्य अभियान चलाए गए। हालांकि, इस समय इन क्षेत्रों को सीधे दिल्ली के प्रशासन में लाने का प्रयास नहीं किया गया। बल्कि, इन राज्यों को दिल्ली सल्तनत के प्रति वफादार बनने के लिए मजबूर किया गया।
तीसरा चरण: दक्कन पर केंद्रीय नियंत्रण का विस्तार
तीसरे चरण की शुरुआत अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल के अंतिम वर्षों में हुई। बाद में गयासुद्दीन तुगलक (1320-1324) के शासनकाल में इस विस्तार ने चरमोत्कर्ष को प्राप्त किया। इस दौरान, दक्कन के अधिकांश हिस्सों पर दिल्ली सल्तनत का सीधा नियंत्रण स्थापित किया गया। बंगाल को भी एक बार फिर से दिल्ली के नियंत्रण में लाया गया।

30 वर्षों में दिल्ली सल्तनत का क्षेत्रीय विस्तार
इस प्रकार, केवल 30 वर्षों के भीतर दिल्ली सल्तनत की सीमा लगभग पूरे भारत तक फैल गई। इसका विस्तार कई चरणों में हुआ, जिनमें क्षेत्रीय और रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रदेश शामिल थे। यह एक दीर्घकालिक और लगातार विकसित होने वाली प्रक्रिया थी, जिसमें विभिन्न सुल्तान अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों के बजाय एक केंद्रीय साम्राज्य की स्थिरता को बढ़ावा देने की दिशा में काम कर रहे थे।
क्यों महत्वपूर्ण है यह कहानी?
दिल्ली सल्तनत का विस्तार न सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना है, बल्कि यह भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास को समझने की कुंजी भी है। इससे पता चलता है कि कैसे एक छोटा राज्य पूरे देश पर छा गया। दिल्ली सल्तनत का क्षेत्रीय विस्तार एक रोचक और महत्वपूर्ण अध्याय है। यह न सिर्फ सैन्य सफलता की कहानी है, बल्कि प्रशासनिक सुधार और रणनीतिक सोच का भी उदाहरण है। इसके बिना भारत के इतिहास को पूरी तरह समझना मुश्किल है।
गुजरात पर तुर्को का आक्रमण
गुजरात पर तुर्को के हमले की शुरुआत एक लंबे समय से चली आ रही कोशिश का हिस्सा थी। मोहम्मद गजनी के समय से ही तुर्को ने गुजरात को जीतने की कोशिशें की थीं, लेकिन गुजरात के चालुक्य शासकों ने इन हमलों को नाकाम कर दिया था। इसके बाद, मुइज़ुद्दीन मोहम्मद गोरी ने अंहिलवाड़ा पर आक्रमण किया और उसे अपने अधीन कर लिया, लेकिन वह इसे लंबे समय तक नहीं रख सका। फिर भी, गुजरात की महत्ता को देखते हुए तुर्को के लिए इसे नजरअंदाज करना मुश्किल हो गया था।
गुजरात की महत्ता
गुजरात सिर्फ एक उपजाऊ और जनसंख्या वाले क्षेत्र के रूप में नहीं, बल्कि यह वस्त्र उत्पादन और हस्तशिल्प के लिए भी प्रसिद्ध था। इसके प्रमुख बंदरगाह खम्बत (कम्बे) ने पश्चिम एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन के साथ व्यापार किया। खम्बत में जैन, हिंदू, बोहरा और अरबी व्यापारी बसे हुए थे। गुजरात के समृद्ध शासकों के पास सोना और चांदी की बड़ी मात्रा थी, जो उनके मंदिरों में सुरक्षित रखी जाती थी। इन सभी कारणों से, गुजरात पर नियंत्रण दिल्ली के सुलतान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण था।
मंगोल आक्रमणों का प्रभाव
दिल्ली सल्तनत के लिए गुजरात पर नियंत्रण प्राप्त करना एक और रणनीतिक कारण से आवश्यक था। मध्य और पश्चिम एशिया में मंगोलों का प्रभुत्व बढ़ रहा था, जिससे घोड़ों की आपूर्ति पर संकट पैदा हो गया था। बलबन को ज्यादातर भारतीय नस्ल के घोड़ों से काम चलाना पड़ता था। गुजरात पर नियंत्रण स्थापित करने से अरबी, इराकी और तुर्की घोड़ों की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित हो सकती थी। क्योंकि यह क्षेत्र लंबे समय से मध्य एशिया और इराक के साथ व्यापार करता था।
अलाउद्दीन खिलजी का गुजरात आभियान
1299 में, अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात पर आक्रमण करने का फैसला किया। इसका बहाना यह था कि गुजरात के शासक रायकरन ने अलाउद्दीन के प्रतिनिधि की पत्नी को बलपूर्वक छीन लिया था। अलाउद्दीन ने अपने दो जनरलों, उलुग खान और नुसरुल खान, को गुजरात के खिलाफ अभियान का नेतृत्व करने के लिए भेजा।
अलाउद्दीन ने अपने दो प्रमुख जनरलों, उलुग खान और नुसरुल खान को इस अभियान का नेतृत्व करने के लिए भेजा। उलुग खान ने सिंध से होते हुए जैसलमेर पर हमला किया और उसे लूट लिया। फिर दोनों सेनाओं ने चित्तौड़ होते हुए गुजरात की ओर मार्च किया। हालांकि, राणा ने विरोध किया, लेकिन तुर्कों ने गूहिलवाड़ा पर हमला किया और इसे पूरी तरह से लूट लिया।
गुजरात की लूट और तुर्कों का विजय
राय करन को तुर्कों की योजनाओं का अंदाजा नहीं था और वह आश्चर्यचकित हो गया। उसने देवगिरी की ओर भागने का निर्णय लिया। तुर्कों ने उसकी सभी महिलाएं और खजाने को कब्जे में लिया। इनमें उसकी प्रमुख रानी, कमला देवी भी शामिल थी। तुर्कों ने कमला देवी के साथ अच्छा व्यवहार किया और उसे दिल्ली ले गए, जहां अलाउद्दीन ने उसे अपने हरम में शामिल किया।
गुजरात के अन्य प्रमुख नगरों जैसे सूरत और कई मठों और मंदिरों को लूट लिया गया। पुनर्निर्मित सोमनाथ मंदिर भी तुर्कों के हमले से नहीं बच पाया। खम्बत में व्यापारियों, चाहे वे हिंदू हों या मुस्लिम, कोई भी नहीं बचा। यहीं पर मलिक काफूर, जिसे बाद में दक्कन अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी, को एक मुस्लिम व्यापारी से बलपूर्वक ले लिया गया।

राय करन की स्थिति और तुर्कों का कब्जा
राय करन के पास स्थानीय समर्थन की कमी थी, और वह तुर्कों के आक्रमण से बचने में असमर्थ था। उसने दक्षिण गुजरात के बगलाना क्षेत्र पर नियंत्रण बनाए रखा, लेकिन तुर्कों ने जल्द ही उसे परेशान करना बंद कर दिया। बाकी का गुजरात तुर्कों के नियंत्रण में आ गया और इसे प्रशासनिक रूप से दिल्ली सल्तनत के अधीन कर दिया गया। एक तुर्की गवर्नर को नियुक्त किया गया, जो गुजरात का प्रशासन संभालने के लिए जिम्मेदार था।
राजस्थान पर दिल्ली सल्तनत का प्रभुत्व
राजस्थान में तुर्कों का विस्तार काफी चुनौतीपूर्ण था। मुइज़ुद्दीन मोहम्मद गोरी के समय से अजमेर, नागौर और मदोर तुर्कों के अधीन थे। हालांकि, राजस्थान में रणथंभौर के किले को तुर्कों के लिए जीतना बहुत कठिन साबित हुआ। जलालुद्दीन खिलजी ने इसे घेरने की कोशिश की, लेकिन किले की ताकत और राणा के प्रतिरोध के कारण वह सफल नहीं हो सके।
गुजरात के बाद राजस्थान पर कब्जा
गुजरात पर कब्जा करने के बाद, अलाउद्दीन के लिए राजस्थान और मालवा को भी अपने नियंत्रण में लाना आवश्यक हो गया था। यह इसलिए क्योंकि, मेवाड़ के शासक ने तुर्की सेनाओं को अपने क्षेत्र से गुजरने से रोक दिया था। इसके बाद जालोर के शासक ने भी तुर्की सेनाओं को प्रवेश देने से इनकार कर दिया था।
रणथंभौर पर आक्रमण
1301 में, रणथंभौर में कुछ मंगोल अधिकारियों ने शरण ली थी। इन भगोड़ों को शासक हम्मीर देव ने देने से इनकार किया, और इस पर गर्व महसूस किया। यह एक सम्मान की बात बन गई थी। इस पर, अलाउद्दीन ने उलुग खान और नुसरत खान को रणथंभौर पर आक्रमण करने भेजा। किले की घेराबंदी के दौरान, नुसरत खान मारे गए। फिर, राणा ने किले से बाहर आकर उलुग खान को युद्ध में हराया।
रणथंभौर की घेराबंदी और जौहर
अलाउद्दीन ने रणथंभौर की घेराबंदी को और कड़ा किया। महीनों तक किले के भीतर खाने-पीने और पानी की कमी हो गई। राजपूतों ने डर के बजाय जौहर की रस्म अदा की। इस दौरान, सभी महिलाएं शमशान की चिता में कूद गईं, और पुरुष युद्ध करते हुए बाहर आए और मरे। मंगोलों ने भी राजपूतों के साथ मिलकर युद्ध किया और मरे। कवि अमीर ख़ुसरो ने अपनी रचनाओं में इस जौहर का उल्लेख किया है।
अलाउद्दीन खिलजी की चित्तौड़ की विजय
रणथंभौर की विजय के बाद, चित्तौड़ की बारी आई। चित्तौड़ को राजस्थान का सबसे मजबूत किला माना जाता था। चित्तौड़ का शासक रतन सिंह था, जो अपने पिता का उत्तराधिकारी बना था। अलाउद्दीन ने छः महीने तक किले की घेराबंदी की, और अंत में रतन सिंह ने आत्मसमर्पण किया। हालांकि, किले में शरण लिए 30,000 किसानों को मार दिया गया। ख़ुसरो ने चित्तौड़ में जौहर का कोई उल्लेख नहीं किया। चित्तौड़ की विजय के बाद, अलाउद्दीन ने अपने बेटे खिज्र खान को किले का गवर्नर नियुक्त किया।
राजपूतों का आत्मसमर्पण
चित्तौड़ की विजय के बाद, राजस्थान के अधिकांश राजाओं ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसमें मारवाड़ और हारौती (बुंदी) के राजा भी शामिल थे। जैसलमेर पहले ही गुजरात अभियान के दौरान तुर्कों के अधीन आ चुका था। सिवाना और जालोर, जो मजबूत किलेबंदी वाले थे, ने भी कड़ा प्रतिरोध किया, लेकिन 1308 और 1311 में तुर्कों ने इन्हें भी कब्जा कर लिया और लूटा।
राजस्थान पर तुर्कों का पूर्ण नियंत्रण
इस प्रकार, लगभग 10 वर्षों में राजस्थान के अधिकांश किलों और राज्यों पर तुर्कों का नियंत्रण स्थापित हो गया। हालांकि, अलाउद्दीन ने राजस्थान के राजपूत राज्यों पर सीधे शासन स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया। उसने कुछ राजपूत राजाओं के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने की कोशिश की।
अलाउद्दीन की राजपूत नीति का प्रारंभ
अलाउद्दीन ने राजपूतों के साथ मित्रवत संबंध स्थापित करने की नीति अपनाई। एक उदाहरण के रूप में, जालोर के शासक के भाई, मालदेव ने 5000 घोड़ों की एक सेना के साथ अलाउद्दीन की वफादारी से सेवा की। 1313 में, अलाउद्दीन ने मालदेव को चित्तौड़ का गवर्नर बना दिया।
यह नीति बाद में दक्कन के शासकों के साथ भी अपनाई गई। अलाउद्दीन दिल्ली सल्तनत के पहले शासक थे, जिन्होंने राजपूतों के साथ आपसी हितों के आधार पर संबंध बनाए।
लगभग 10 वर्षों के भीतर, राजस्थान के अधिकांश हिस्से को तुर्की शासन के तहत लाया गया। हालांकि, अलाउद्दीन ने सीधे शासन स्थापित करने की बजाय, राजपूत राजाओं के साथ मित्रवत संबंध बनाए।
मालवा पर दिल्ली सल्तनत का प्रभुत्व
चित्तौड़ की विजय के बाद, अलाउद्दीन ने मालवा पर ध्यान केंद्रित किया। मालवा एक समृद्ध और विस्तृत क्षेत्र था, जहाँ कई घनी आबादी वाले शहर थे। अमीर ख़ुसरो ने इसे इतना विस्तृत बताया कि विद्वान भूगोलज्ञ भी इसकी सीमाओं को सही से पहचान नहीं पाए। मालवा पर पहले भी इल्तुतमिश और बाद में जलालुद्दीन के शासनकाल में तुर्कों द्वारा आक्रमण किया गया था, लेकिन इसे पूरी तरह से अधीन करने के लिए कोई खास प्रयास नहीं किए गए थे।
मालवा का महत्व: क्यों था यह इतना खास?
मालवा न केवल एक समृद्ध क्षेत्र था, बल्कि यह गुजरात और दक्षिण भारत के बीच एक महत्वपूर्ण मार्ग भी था। इल्तुतमिश और जलालुद्दीन खिलजी ने पहले ही मालवा पर हमले किए थे और बहुत सा लूट प्राप्त किया था। हालांकि, इसे सीधे नियंत्रण में लाने के लिए कोई बड़ा प्रयास नहीं किया गया था।
अलाउद्दीन ने मालवा को जीतने का फैसला किया। इससे न केवल गुजरात जाने का मार्ग सुरक्षित होगा, बल्कि दक्षिण भारत की ओर बढ़ने का रास्ता भी खुलेगा। इसलिये 1305 में, ऐनुल मुल्क मुल्तानी को मालवा पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया।
1305 का मालवा अभियान: एक निर्णायक जीत
मालवा के शासक राय के पास 30 से 40 हजार घुड़सवार सेना थी। लेकिन वे तुर्की सेनाओं का सामना नहीं कर पाए। राय को उज्जैन से मंदसौर तक पीछा किया गया और अंत में उसे शरण लेने के लिए मजबूर कर दिया गया। वहाँ उसे हराया गया और मार डाला गया।
मालवा का तुर्की कब्जा
राजस्थान के विपरीत, सम्पूर्ण मालवा को तुर्की शासकों ने बिना किसी बड़ी मुश्किल के अपने नियंत्रण में ले लिया। मालवा को जीतने के बाद, ऐनुल मुल्क को मालवा का गवर्नर नियुक्त किया गया। इस प्रकार, मालवा को पूरी तरह से तुर्की साम्राज्य के अधीन कर लिया गया।
मालवा की विजय का महत्व
मालवा की विजय ने दिल्ली सल्तनत के लिए कई फायदे लाए। पहले, यह गुजरात और दक्षिण भारत के बीच संचार को सुरक्षित करता था। दूसरे, यह दक्षिण की ओर विस्तार के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था।
इसके अलावा, मालवा की समृद्धि ने सल्तनत को आर्थिक रूप से मजबूत किया। यहां के घने शहर और व्यापारिक केंद्र सल्तनत के लिए बहुत लाभदायक साबित हुए।
उत्तर भारत में तुर्की शासन का विस्तार
इस प्रकार, मालवा की विजय के बाद सम्पूर्ण उत्तर भारत दिल्ली सल्तनत के नियंत्रण में आ गया। इसके अलावा, बंगाल को छोड़कर, जो ग़ियासुद्दीन तुगलक के शासनकाल तक स्वतंत्र रहा, दिल्ली सल्तनत का अधिकार क्षेत्र फैल गया।
ओडिशा पर आक्रमण
ग़ियासुद्दीन तुगलक के शासनकाल में ओडिशा पर भी आक्रमण किया गया था। हालांकि, ओडिशा को पूरी तरह से अधिग्रहित नहीं किया गया, लेकिन यह क्षेत्र दिल्ली सल्तनत के अधीन आ गया था।

महाराष्ट्र और दक्षिण भारत पर दिल्ली सल्तनत का पहला चरण
मंगोल आक्रमणों से सफलतापूर्वक निपटने और अपनी सेना तथा प्रशासन को पुनर्गठित करने के बाद, अलाउद्दीन ने दक्कन राज्यों पर आक्रमण करने की योजना बनाई। यह एक बहुत ही साहसिक कदम था, जिसका उद्देश्य दक्षिण भारत और महाराष्ट्र को दिल्ली सल्तनत के अधीन लाना था।
दक्षिण भारत और महाराष्ट्र का समृद्धि का केंद्र
दक्षिण भारत, खासकर महाराष्ट्र, को खजाने और सोने की भूमि माना जाता था। यहाँ के प्रसिद्ध हस्तशिल्प, समृद्ध बंदरगाह और व्यापार ने इसे आर्थिक दृष्टि से बहुत मजबूत बना दिया था। इसके अलावा, यहां के मंदिर समृद्ध थे, जिनमें से कुछ विदेशी व्यापार और साहूकारी में भी शामिल थे। इस प्रकार, यह क्षेत्र अत्यधिक आकर्षक था क्योंकि यहाँ पर संपत्ति और प्रतिष्ठा दोनों ही प्राप्त की जा सकती थी।
दक्षिण भारत के राज्य और उनके संघर्ष
इस समय, दक्षिण भारत के राज्य आपस में युद्धों में व्यस्त थे। वे उत्तर भारत में हो रहे बदलावों और विकास से अनजान थे। उन्हें यह समझ नहीं था कि उत्तरी क्षेत्र में हो रहे इन विकासों से उनका क्या खतरा हो सकता है। यही कारण था कि दक्षिण भारत के राज्य कमजोर हो गए थे, और यह अलाउद्दीन के लिए एक आदर्श अवसर था।
अलाउद्दीन का दक्षिण भारत पर आक्रमण
जब अलाउद्दीन ने दक्कन राज्यों पर आक्रमण की योजना बनाई, तो यह एक ऐसा कदम था जिसने उसे भव्य विजय दिलाई। क्योंकि दक्षिण भारत के राज्यों के बीच आपसी संघर्ष और युद्ध चल रहे थे, इस कारण उन्हें एकजुट होने का समय नहीं मिला और इस पर विजय प्राप्त करना अलाउद्दीन के लिए अपेक्षाकृत आसान हो गया।
दक्षिण भारत की सफलता और प्रभाव
अलाउद्दीन की यह साहसिक योजना सफल रही। दक्षिण भारत और महाराष्ट्र के समृद्ध राज्य दिल्ली के अधीन आ गए। इस प्रकार, अलाउद्दीन ने न केवल दक्षिण भारत पर विजय प्राप्त की, बल्कि वहाँ की संपत्ति और समृद्धि को भी अपने नियंत्रण में किया।
महाराष्ट्र पर अलाउद्दीन खिलजी का प्रभुत्व
अलाउद्दीन का महाराष्ट्र से पहला संपर्क 1296 में हुआ था। उस समय उसने 8,000 घुड़सवार सेना के साथ देवगिरी पर अचानक आक्रमण किया। यह आक्रमण करा से शुरू होकर बुंदेलखंड के कठिन इलाकों से होते हुए देवगिरी के पास पहुँचा। इस आक्रमण में यादव राजा रामचंद्र और उनके पुत्र सिंहाना को हराया गया। इस युद्ध के बाद, अलाउद्दीन ने संपत्ति से लदी वापसी की और रामचंद्र से वार्षिक कर के भुगतान का वादा लिया।
मालवा और चित्तौड़ की विजय के बाद देवगिरी पर ध्यान
चित्तौड़ और मालवा की विजय के बाद, अलाउद्दीन ने एक बार फिर से देवगिरी की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया। इस बार, रामचंद्र द्वारा वार्षिक कर का भुगतान बंद कर दिया गया था, और इसे एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया गया। कुछ लोगों के अनुसार, इसका कारण रामचंद्र के पुत्र सिंहाना का दिल्ली के प्रति नाराजगी था, क्योंकि वह अपने पिता की अधीनता से खुश नहीं था।
1308 में देवगिरी के लिए दो सेनाओं का प्रक्षेपण
1308 में, अलाउद्दीन ने देवगिरी के खिलाफ दो सेनाएँ भेजी। एक सेना गुजरात के पूर्व शासक राय करन को बाहर करने के लिए थी, जिसे रामचंद्र ने अपने नियंत्रण में रखा था। कड़ी लड़ाई के बाद, रायकरन को हराकर उसे हरा दिया गया। इसके बाद दोनों सेनाएँ मलिक काफ़ूर से मिलीं, जिसे रामचंद्र को दंडित करने के लिए भेजा गया था। यादव शासक ने हल्की प्रतिरोध किया और काफ़ूर के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
मलिक काफ़ूर और रामचंद्र की सम्मानजनक वापसी
अलाउद्दीन ने मलिक काफ़ूर को आदेश दिया कि रामचंद्र और उनके परिवार को कोई नुकसान न पहुँचाया जाए। इसलिए, रामचंद्र और उनके परिवार को सम्मान के साथ दिल्ली ले जाया गया। देवगिर को उनके पुत्र सिंहाना के अधीन छोड़ दिया गया। दिल्ली में उनके स्वागत में मोती और बहुमूल्य रत्नों की वर्षा की गई। ख़ुसरो के अनुसार, “हर दिन उनका दर्जा और सम्मान बढ़ता गया।” फिर, उन्हें अपने परिवार के साथ देवगिरी लौटने की अनुमति दी गई।
रामचंद्र को उपहार और सम्मान
रामचंद्र को दिल्ली से एक लाख स्वर्ण टंके दिए गए। इसके अलावा, उन्हें राय रायन का खिताब दिया गया और एक स्वर्ण-रंगीन छत्र भी प्रदान किया गया, जो राजसीता का प्रतीक था। इसके साथ ही, गुजरात के एक जिले नवसारी को भी उपहार के रूप में उन्हें सौंपा गया।
अलाउद्दीन की राजपूत नीति: एक नई दिशा
इस समय, राम देव ने अपनी बेटी झाट्यपाली को अलाउद्दीन से विवाह के लिए दिया था। पहले, देवल देवी, जो गुजरात की रानी कमला देवी की बेटी थीं, को अलाउद्दीन के हरम में प्रवेश करने के बाद बहुत प्रभाव मिला था। कमला देवी के कहने पर, देवल देवी की शादी खिज्र खान से हुई, जो अलाउद्दीन के पुत्र और उत्तराधिकारी थे।
यहाँ पर हम अलाउद्दीन की राजपूत शासकों के साथ संबंध बनाने की नीति को देख सकते हैं। इस नीति का विस्तार धीरे-धीरे हुआ। खिज्र खान का अंत दुखद था, लेकिन इस विवाह ने अलाउद्दीन के शासन को मजबूत करने में मदद की।
दक्षिणी राज्यों पर अलाउद्दीन का आक्रमण
दक्षिण भारत में उस समय कई महत्वपूर्ण राज्य थे, जिनमें वारंगल (आधुनिक तेलंगाना) के काकतीय; और होयसल थे । दक्षिण में आगे माबार और मदुरै (तमिलनाडु) के पांड्य थे। इन राज्यों के बीच निरंतर युद्ध होते रहते थे। इन युद्धों में यादवों (देवगिरी) के साथ क्षेत्रीय विवाद भी शामिल थे। इन सभी राज्यों के पास संपत्ति और खजाने का भंडार था, जिससे अलाउद्दीन दिल्ली के साम्राज्य को और भी समृद्ध करना चाहता था।
दक्षिणी अभियानों की शुरुआत
1309 से 1311 के बीच, अलाउद्दीन ने मलिक काफ़ूर के नेतृत्व में दो अभियानों को भेजा। इन अभियानों का उद्देश्य दक्षिणी राज्यों से संपत्ति निकालना और उन्हें दिल्ली के साम्राज्य के तहत लाकर वार्षिक कर का भुगतान करवाना था। अलाउद्दीन का इन राज्यों को सीधे अपने प्रशासन में लेने का कोई इरादा नहीं था, क्योंकि वह जानते थे कि दूरी और विभिन्न परिस्थितियाँ इसे कठिन बना सकती थीं।
इसामी के अनुसार, जो बरनी के समकालीन थे, अलाउद्दीन ने मलिक काफूर को वारंगल के पहले अभियान का नेतृत्व करते समय निर्देश दिया था कि “यदि तेलंग का राय सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर लेता है, तो उसका राज्य उसे वापस कर दिया जाए, और खिलअत (वस्त्र) और छत्र (राजकीय छतरी) प्रदान करके सम्मानित किया जाए।” आगे बरनी कहते हैं कि अलाउद्दीन के निर्देश थे: “यदि राय अपना खजाना, हाथी और घोड़े छोड़ देता है, और भविष्य के लिए श्रद्धांजलि देने का वादा करता है, तो इस व्यवस्था को स्वीकार कर लिया जाए।” यही निर्देश द्वार समुद्र और माबार के खिलाफ दूसरे अभियान पर भी लागू माने जाने चाहिए।
वारंगल पर पहला अभियान (1309-10)
वारंगल के खिलाफ पहला अभियान छह महीने तक चला। काफ़ूर ने कठिन और कम पहुंच वाले मार्गों से मार्च करते हुए वारंगल के किले तक पहुँचने में सफलता प्राप्त की। किले की बाहरी दीवार बहुत मजबूत थी, लेकिन सख्त घेराबंदी के बाद, राय ने शांति की याचना की, जिसे स्वीकार कर लिया गया। राय ने अपना खजाना समर्पित किया और वार्षिक कर का भुगतान करने पर सहमति जताई। इस खजाने को दिल्ली तक एक हजार ऊंटों पर लाया गया।
द्वारसमुद्र और माबर पर आक्रमण
वारंगल की सफलता के बाद, अलाउद्दीन ने काफ़ूर को अगले वर्ष द्वारसमुद्र और माबर पर आक्रमण करने के लिए भेजा। पहले की तरह, काफ़ूर ने दूर-दराज़ मार्गों से यात्रा की। इस बार, काफ़ूर ने होयसल शासक बल्लाल देव को चौंका दिया और उसे वार्षिक कर देने पर मजबूर किया। बल्लाल देव ने अपना खजाना समर्पित किया और दिल्ली में पहुँचने पर उसे सम्मानित किया गया। उन्हें अलाउद्दीन के सामने 10 लाख टंके, एक ख़िलअत और एक छत्र दिया गया, और राज्य वापस लौटा दिया गया।
पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण
इसके बाद, काफ़ूर माबर (कोरोमंडल) की ओर चला , लेकिन पाण्ड्य भाइयों के बीच युद्ध के कारण उनसे संपर्क करना संभव नहीं था। काफ़ूर ने पाटन (मसुलीपट्टनम) पहुंचकर वहां मुस्लिम व्यापारियों के शहर को पूरी तरह से लूट लिया। इस लूट में पाण्ड्य भाइयों का खजाना और हाथी भी शामिल थे। काफ़ूर ने चिदम्बरम (मद्रास के पास) मंदिर को भी नष्ट किया और मदुरै में भी लूटपाट की। लेकिन उसे पांड्य भाइयों से संपर्क किए बिना, या उनके साथ कोई समझौता किए बिना लौटना पड़ा। यह अभियान एक साल तक चला।
दक्षिण भारत के अभियानों का प्रभाव और मलिक काफूर का उदय
इन दो अभियानों ने अलाउद्दीन को अपार संपत्ति दी, जिससे उसका सम्मान भी बढ़ा। मलिक काफ़ूर ने अपनी सैन्य नेतृत्व की क्षमता और साहस से जनता में बहुत सम्मान पाया। उसे “मलिक नायब” (सुलतान का प्रतिनिधि) का खिताब दिया गया। हालांकि, समय के साथ काफ़ूर के प्रभाव में वृद्धि हुई और दरबार में उसके खिलाफ एक लॉबी का निर्माण हुआ, जिसके कारण उसका पतन हुआ।
दक्षिणी अभियानों के परिणाम
इन अभियानों के तत्काल राजनीतिक लाभ सीमित थे। देवगिरी में रामदेव के जीवित रहने तक स्थिति मजबूत रही, लेकिन अन्य दक्षिणी राज्यों के साथ व्यवस्थाएँ नाजुक बनी रहीं। इन राज्यों द्वारा वादा किए गए वार्षिक कर का भुगतान बिना दबाव के सुनिश्चित करना मुश्किल था। इन अभियानों के परिणामस्वरूप व्यापार की संभावना भी नहीं बन पाई। हालांकि, इन अभियानों ने अलाउद्दीन को अगले कदम – अंक्षेषण के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
महाराष्ट्र और दक्षिणी राज्यों का अधिग्रहण: दूसरा चरण
अलाउद्दीन की दक्षिणी राज्यों के प्रति नीति ने समय के साथ बदलाव देखा। प्रारंभ में, उसने इन क्षेत्रों पर कब्जा करने का इरादा नहीं किया था। लेकिन कुछ घटनाओं ने उसे अपनी नीति में बदलाव करने के लिए मजबूर किया। 1315 में देवगिरी के राम देव का निधन हुआ, और उनके बेटे भिल्लमा ने अलाउद्दीन से वफादारी का इन्कार कर दिया। यह कदम अलाउद्दीन के लिए एक बड़ा झटका था।
भिल्लमा का विद्रोह और देवगिरी का अधिग्रहण
भिल्लमा के विद्रोह ने अलाउद्दीन को मजबूर कर दिया कि वह देवगिरी पर सीधा तुर्की नियंत्रण स्थापित करे। मलिक काफ़ूर को भिल्लमा को दंडित करने और राज्य को अधिग्रहीत करने के लिए भेजा गया। लेकिन भिल्लमा भाग गया। काफूर ने किले पर कब्जा कर लिया, और पुराने मराठा सरदारों को हटाए बिना राज्य पर शासन करने की कोशिश की। इसके बावजूद, राज्य का एक हिस्सा पुराने वंश के सदस्यों के नियंत्रण में रहा। यह परिवर्तन अलाउद्दीन की नीति में बदलाव का संकेत था।
अलाउद्दीन की नई नीति और कूटनीतिक दबाव
अलाउद्दीन का यह बदलाव, जिसमें उसने पहले दक्षिण में जमीन हासिल करने से इंकार किया था, फिर देवगिरी पर कब्जा करने की कोशिश की, कुछ समझाने की जरूरत है। भिल्लमा का विद्रोह इस बदलाव का एकमात्र कारण नहीं लगता। असल में, अलाउद्दीन ने महसूस किया कि दक्षिण के अन्य राज्यों को कूटनीतिक दबाव या सेना के जरिए नियंत्रण में रखने के लिए देवगिरि पर तुर्की सत्ता का सीधा नियंत्रण जरूरी था। इसका मतलब यह था कि उसने दक्षिण में अधिग्रहण न करने की अपनी पुरानी नीति में बदलाव किया, लेकिन पूरी तरह से इसे छोड़ने का फैसला नहीं किया।
मुबारक खिलजी का दक्षिणी अभियान
अलाउद्दीन के बाद, मुबारक खिलजी ने सत्ता संभाली और देवगिरी पर आक्रमण किया। यह अभियान भी कम विरोध का सामना करता हुआ सफल रहा। मुबारक ने वारंगल के खिलाफ भी एक अभियान भेजा, क्योंकि राय ने कई वर्षों से वार्षिक कर का भुगतान नहीं किया था। राय ने बाहरी किला कब्जा होने पर समर्पण किया और खजाना और हाथी भी समर्पित किए। इस प्रकार, वारंगल में भी अलाउद्दीन की नीति को लागू किया गया।
ग़ियासुद्दीन तुगलक और तेलंगाना का अधिग्रहण
दक्षिण में अलाउद्दीन की अधिग्रहण न करने की नीति का परित्याग वास्तव में गियासुद्दीन तुगलक और उसके पुत्र और उत्तराधिकारी, मुहम्मद बिन तुगलक को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।
ग़ियासुद्दीन तुगलक के शासनकाल में तेलंगाना को पूरी तरह से अधिग्रहित किया गया। उन्होंने अपने बेटे उलुग़ ख़ान को वारंगल पर आक्रमण करने का आदेश दिया। युद्ध के अंत में राय ने समर्पण किया, लेकिन मार्ग में उसकी मृत्यु हो गई। तेलंगाना अब दिल्ली के नियंत्रण में था और इसे नौ जिलों में बाँट दिया गया। वारंगल का नाम बदलकर सुलतानपुर रखा गया।
मदुरै और माबर का अधिग्रहण
तेलंगाना के बाद, माबर का अधिग्रहण हुआ। 1323 में, मदुरै को कब्जा कर लिया गया। इससे पहले, मलिक काफ़ूर ने मदुरै में मुस्लिम सैन्य टुकड़ी छोड़ने का प्रयास किया था, लेकिन उसकी प्रभावशीलता संदिग्ध है। ग़ियासुद्दीन तुगलक के शासन में एक और अभियान भेजा गया, जिससे माबर को दिल्ली के नियंत्रण में लाया गया। इस प्रकार, तमिल क्षेत्र में अव्यवस्था को समाप्त किया गया।
कर्नाटका का अधिग्रहण
1328 में, गुरशस्प के विद्रोह के बाद, मुहम्मद बिन तुगलक ने कर्नाटका को भी अधिग्रहित किया। गुरशस्प, जो मुहम्मद के चचेरे भाई था, दक्षिण कर्नाटका के कंपील के शासक के पास शरण लेने गया था। मुहम्मद ने एक सेना भेजी और कर्नाटका को अपने अधीन किया।
दक्षिण का समाकलन और नई चुनौतियाँ
अंततः, 1328 तक, पूरा दक्षिण, मलाबार की सीमा तक, दिल्ली के सीधे प्रशासन के तहत आ गया। केवल कुछ क्षेत्र, जैसे द्वारसमुद्र, अपने शासकों के नियंत्रण में रहे। घटनाओं ने जल्द ही साबित कर दिया कि यह जल्दबाजी में लिया गया कदम था। इतने बड़े क्षेत्र का समाकलन, जो दिल्ली से दूर था और जिसकी सांस्कृतिक और प्रशासनिक संरचना अलग थी, दिल्ली सल्तनत के संसाधनों पर भारी दबाव डाला। इसने जल्द ही विघटन की प्रक्रिया को जन्म दिया।
निष्कर्ष
अलाउद्दीन खिलजी का विजय अभियान न केवल उनके व्यक्तिगत सामर्थ्य का प्रतीक था, बल्कि यह भारतीय इतिहास में सैन्य और शाही महत्वाकांक्षाओं की नई दिशा भी स्थापित करता है। उनकी सैन्य रणनीतियाँ, जैसे कि नौसेना का उपयोग और नवीन युद्ध तकनीकों को अपनाना, उनके विजय अभियान को सफल बनाने में सहायक रही। उनके विजय अभियान ने उनके साम्राज्य का दायरा तो बढ़ाया ही, साथ ही यह ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। अलाउद्दीन खिलजी के विजय अभियान से जुड़ी घटनाओं ने भारतीय राजनीति और सामरिक दृष्टिकोण में स्थायी बदलाव किए।