नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ |
प्रारंभिक जीवन और सत्ता की चुनौतियाँ
नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ का जन्म 6 मार्च 1508 को काबुल में हुआ था। वह बाबर के चार पुत्रों में सबसे बड़ा था। बाबर ने अपनी मृत्यु से पहले हुमायूँ को अपना उत्तराधिकारी बनाया। 1530 में, बाबर की मृत्यु के बाद, हुमायूँ ने 22 वर्ष की आयु में मुगल साम्राज्य की गद्दी संभाली। उस समय साम्राज्य में अफगान और राजपूत राजाओं का दबदबा था, जो हुमायूँ की स्थिति को कमजोर करने का हर संभव प्रयास कर रहे थे।हुमायूँ का प्रारंभिक शासनकाल चुनौतियों से भरा रहा। बाबर की मृत्यु के बाद साम्राज्य में कई जगहों पर विद्रोह और अस्थिरता का माहौल था। बंगाल, बिहार, और गुजरात के क्षेत्र स्वायत्त शासकों के अधीन थे, जो अपनी स्वतंत्रता की पुनः स्थापना करना चाहते थे।
हुमायूँ और उसके भाइयों के बीच संबंध
हुमायूँ के तीन भाई थे – कामरान मिर्ज़ा, असकरी मिर्ज़ा, और हिन्दाल मिर्ज़ा। ये सभी बाबर की मृत्यु के बाद अपने-अपने क्षेत्रों में शक्तिशाली बन गए थे। हुमायूँ ने अपने भाइयों को साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों की जिम्मेदारी सौंपी थी।
° कामरान मिर्ज़ा को काबुल और कंधार की जिम्मेदारी दी गई थी। वह सबसे महत्वाकांक्षी था और उसने हुमायूँ के खिलाफ कई बार विद्रोह किया।
° असकरी मिर्ज़ा को गुजरात की देखभाल के लिए भेजा गया था, लेकिन वह भी हुमायूँ के साथ कभी स्थिर संबंध नहीं रख सका।
° हिन्दाल मिर्ज़ा को आगरा और आसपास के क्षेत्र की जिम्मेदारी दी गई थी, लेकिन वह भी अपने भाईयों के साथ मिलकर हुमायूँ के खिलाफ षड्यंत्र में शामिल हो गया।
हुमायूँ का साम्राज्य उत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों, पंजाब, दिल्ली, आगरा, और कुछ क्षेत्रों में फैला हुआ था। लेकिन उसके साम्राज्य की सीमाओं पर कई ताकतवर प्रतिद्वंद्वी थे। अफगान सरदार शेर शाह सूरी (तत्कालीन फ़रीद खान) उनमें सबसे प्रमुख था। इसके अलावा गुजरात के शासक बहादुर शाह और बंगाल के शासक, और राजस्थान के राजपूत भी हुमायूँ के लिए चुनौती थे।
शेर शाह सूरी का उदय और संघर्ष
शेर शाह सूरी, जो पहले हुमायूँ के पिता बाबर के अधीन एक सामान्य अधिकारी था, धीरे-धीरे बिहार और बंगाल के क्षेत्रों में अपनी स्थिति मजबूत कर रहा था। शेर शाह, जिसका असली नाम फ़रीद खान था, ने अपने कुशल प्रशासन और सैन्य रणनीतियों के माध्यम से बिहार और बंगाल में अपनी शक्ति को बढ़ाया। शेर शाह और हुमायूँ के बीच पहला बड़ा संघर्ष चौसा के युद्ध (26 जून 1539) में हुआ।
चौसा का युद्ध (1539)
1540 में, शेर शाह सूरी के साथ हुमायूँ की टकराव बढ़ती चली गई। शेर शाह ने बिहार और बंगाल में अपनी शक्ति को मजबूत किया और एक स्वतंत्र शासक के रूप में उभर आया। शेर शाह की रणनीति और कुशल प्रशासन ने उसे हुमायूँ के लिए एक गंभीर खतरा बना दिया।
चौसा का युद्ध (26 जून 1539) हुमायूँ और शेर शाह सूरी के बीच पहला बड़ा संघर्ष था। इस युद्ध का मैदान बिहार में स्थित चौसा (वर्तमान में बक्सर के पास) था। हुमायूँ ने इस युद्ध के लिए अपनी सेना को तीन भागों में विभाजित किया था: बायाँ मोर्चा, दायाँ मोर्चा, और केंद्र। हुमायूँ खुद केंद्र की सेना का नेतृत्व कर रहा था।
शेर शाह ने अपनी सेना को गंगा नदी के किनारे स्थित मजबूत मोर्चे पर तैनात किया। उसने इस युद्ध में एक बेहद कुशल योजना बनाई, जिसमें रात के समय एक आक्रमण की योजना बनाई गई थी। हुमायूँ की सेना को इस अचानक हुए हमले के लिए तैयार होने का मौका नहीं मिला, और उनकी पंक्तियाँ टूट गईं। हुमायूँ के पास कोई अन्य विकल्प नहीं था और वह गंगा नदी में कूद गया। उसकी जान बचाने के लिए एक पानी में तैरता हुआ व्यक्ति (जिसे एक पौराणिक कथा के अनुसार नाविक नट्टा कहा गया) ने उसे बचाया। इस हार के बाद, हुमायूँ को पश्चिम की ओर भागने पर मजबूर होना पड़ा।
कन्नौज का युद्ध (1540)
चौसा की हार के बाद, हुमायूँ के लिए स्थिति और भी खराब हो गई। वह पंजाब और आगरा के बीच फँसा हुआ था, जबकि शेर शाह ने अपनी स्थिति को मजबूत करते हुए मुगल साम्राज्य को पूरी तरह से गिराने की तैयारी शुरू कर दी थी। हुमायूँ ने अब एक अंतिम कोशिश के रूप में अपनी सारी बची-खुची शक्ति को एकत्र किया और शेर शाह के खिलाफ निर्णायक युद्ध की योजना बनाई।
कन्नौज का युद्ध (17 मई 1540) हुमायूँ और शेर शाह सूरी के बीच दूसरा निर्णायक संघर्ष था। इस बार हुमायूँ ने अपनी सेना को बेहतर रणनीति के साथ तैनात किया, लेकिन फिर भी उसकी सेना मनोबल में कमज़ोर थी। शेर शाह ने इस मौके का फायदा उठाया और युद्ध के दौरान हुमायूँ की सेना को घेरने की योजना बनाई। शेर शाह ने खुद को इस युद्ध में सीधे तौर पर शामिल नहीं किया, बल्कि उसने अपने जनरलों को युद्ध का नेतृत्व सौंपा।
युद्ध के दौरान, हुमायूँ की सेना के विभिन्न हिस्सों में समन्वय की कमी हो गई और उनकी पंक्तियाँ फिर से टूट गईं। हुमायूँ को एक बार फिर हार का सामना करना पड़ा और इस बार उसे दिल्ली और आगरा छोड़कर भागने के लिए मजबूर होना पड़ा।
हुमायूँ का निर्वासन
दिल्ली और आगरा से भागने के बाद हुमायूँ के सामने निर्वासन का कठिन दौर शुरू हुआ। उसके पास न तो पर्याप्त सेना बची थी और न ही कोई स्थायी आश्रय। इस दौरान उसे अपने परिवार और कुछ वफादार अनुयायियों के साथ संघर्ष करना पड़ा।
सिंध की ओर भागते समय, हुमायूँ को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसकी सेना टूट चुकी थी, और उसे न तो खाने की पर्याप्त व्यवस्था थी और न ही रहने की जगह। सिंध के शासकों ने उसे स्थायी शरण देने से इंकार कर दिया। सिंध में रहते हुए, उसने दुर्रानी (बलूचिस्तान) के शासकों से समर्थन की अपेक्षा की, लेकिन उसे वहाँ से भी निराशा ही हाथ लगी।
इस बुरे समय में हुमायूँ को अपने भाइयों से कोई मदद नहीं मिली।
कामरान मिर्ज़ा ने काबुल में अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया और हुमायूँ की मदद करने से इंकार कर दिया।
असकरी मिर्ज़ा और हिन्दाल मिर्ज़ा भी हुमायूँ के खिलाफ षड्यंत्र में शामिल हो गए थे और उन्होंने शेर शाह सूरी का समर्थन किया।
इस कठिन समय में, हुमायूँ की पत्नी हमीदा बानो बेगम ने उसका साथ दिया।
सिंध में कठिनाइयों के बीच, हुमायूँ की पत्नी हमीदा बानो बेगम ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम अकबर रखा गया। अकबर का जन्म अमरकोट के एक राजपूत राजा राणा वीरसाल के महल में हुआ था, जो हुमायूँ को थोड़े समय के लिए शरण देने के लिए सहमत हुए थे। इस दौरान, हुमायूँ को काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन उसने अपने संकल्प को नहीं छोड़ा।
बलूचिस्तान और मकरान में संघर्ष
हुमायूँ ने सिंध से भागकर बलूचिस्तान और मकरान की ओर प्रस्थान किया। इस यात्रा के दौरान उसे कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मकरान की सूखी और कठिनाइयों से भरी भूमि में, उसके सैनिक भूख और प्यास से मर रहे थे। हुमायूँ को इन कठिन परिस्थितियों में अपने अनुयायियों को जीवित रखने की जद्दोजहद करनी पड़ी।
इस क्षेत्र में शरण पाने के लिए हुमायूँ ने कई स्थानीय शासकों से संपर्क किया, लेकिन उसे कहीं से भी स्थायी समर्थन नहीं मिला। वह अब पूरी तरह से टूट चुका था और उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा था।
ईरान की यात्रा और शाह तहमास्प का समर्थन
सिंध और बलूचिस्तान में असफल होने के बाद, हुमायूँ ने ईरान की ओर प्रस्थान करने का निर्णय लिया। वह शाह तहमास्प प्रथम की शरण में पहुँचा, जो सफवी वंश का शासक था। शाह तहमास्प ने हुमायूँ का स्वागत किया और उसे शाही सम्मान दिया। हुमायूँ ने शाह तहमास्प के दरबार में कई महीनों तक शरण ली।
शाह तहमास्प ने हुमायूँ को एक बड़ी सेना और आर्थिक मदद दी। ईरान में हुमायूँ ने शिया इस्लाम को स्वीकार किया, जो उस समय के सुन्नी बहुल भारत में एक विवादास्पद कदम था। हुमायूँ ने यह फैसला शाह तहमास्प से पूर्ण समर्थन पाने के लिए लिया था।
हिंदुस्तान की वापसी और सूरी वंश का पतन
ईरान से सैन्य और आर्थिक मदद मिलने के बाद, हुमायूँ ने हिंदुस्तान वापस लौटने की योजना बनाई। 1555 में, शेर शाह सूरी की मृत्यु के बाद सूरी साम्राज्य कमजोर हो गया था। हुमायूँ ने इस अवसर का लाभ उठाया और अपनी सेना को लेकर पंजाब और दिल्ली की ओर बढ़ना शुरू किया।
पंजाब में हुमायूँ ने सिकंदर शाह सूरी को हराया और जल्दी ही दिल्ली और आगरा पर कब्ज़ा कर लिया। 1555 में, हुमायूँ ने एक बार फिर से दिल्ली की गद्दी पर अधिकार कर लिया। इस बार उसने सूरी वंश को पूरी तरह से समाप्त कर दिया और मुगल साम्राज्य को पुनः स्थापित किया।
हुमायूँ का अंतिम समय और उसकी विरासत
हालांकि हुमायूँ ने दिल्ली की गद्दी पुनः प्राप्त कर ली थी, लेकिन उसे स्थायित्व का समय नहीं मिल सका। 27 जनवरी 1556 को, वह अपनी लाइब्रेरी (शेर मंडल) की सीढ़ियों से गिर पड़ा और सिर में गंभीर चोट लगने के कारण उसकी मृत्यु हो गई। हुमायूँ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अकबर, जिसने आगे चलकर मुगल साम्राज्य को उसकी बुलंदियों पर पहुँचाया, सत्ता में आया।
निष्कर्ष
हुमायूँ का निर्वासन एक लंबी और कठिन यात्रा थी, जिसमें उसने अपने साम्राज्य को फिर से स्थापित करने के लिए कई संघर्ष किए। उसकी कहानी संघर्ष, धैर्य, और साहस की मिसाल है। हुमायूँ ने अपने जीवन में कई बार हार का सामना किया, लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी। उसकी यह यात्रा एक शासक की मनोवैज्ञानिक और सामरिक चुनौतियों का गहरा विश्लेषण प्रस्तुत करती है, जो इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए अंकित है।