1966 का संसद हमला: गोहत्या आंदोलन, हिंसा और भारतीय राजनीति में उथल-पुथल

भारत का संसद भवन
संसद भवन

1966 का संसद हमला: गोहत्या आंदोलन और भारतीय राजनीति का नाटकीय मोड़

भारत में 2001 का संसद हमला जनरल नॉलेज का आम सवाल बन गया है, जब लश्कर-ए-तैयबा के आतंकियों ने भारत की संसद पर हमला किया था। लेकिन इससे पहले, 7 नवंबर 1966 को संसद पर एक और हमला हो चुका था, जो किसी विदेशी आतंकी साजिश का हिस्सा नहीं, बल्कि देश के भीतर ही धार्मिक आस्था और राजनीतिक उठा-पटक के बीच हुआ था। यह हमला गाय की हत्या पर रोक लगाने की मांग के चलते हुआ, जिसने तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को हिला दिया। आइए इस ऐतिहासिक घटना को विस्तार से समझते हैं।

गोहत्या आंदोलन का उभार: धार्मिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि

भारत में गाय को धार्मिक आस्था का प्रतीक माना जाता है। संविधान के अनुच्छेद 48 में भी राज्य को गोवंश की हत्या रोकने का निर्देश दिया गया है, लेकिन 1966 तक राष्ट्रीय स्तर पर इस संबंध में कोई ठोस कानून नहीं था। गाय की रक्षा को लेकर विशेष रूप से हिंदू धार्मिक संगठन और जनसंघ जैसे राजनीतिक दल आंदोलन कर रहे थे। यह आंदोलन 1966 में चरम पर पहुंच गया, जब साधु-संतों और गो-रक्षा समर्थकों ने संसद पर अपना गुस्सा उतारा।
यह गो-रक्षा आंदोलन कोई साधारण विरोध प्रदर्शन नहीं था, बल्कि यह भारतीय राजनीति में शक्तियों के बीच गहरे टकराव की झलक भी पेश करता है। 11 जनवरी 1966 को प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। नेहरू के बाद, प्रधानमंत्री बनने से चूक गए मोरारजी देसाई, इस बार चूकने के मूड में नही थे। गद्दी पर उनका दावा पक्का था। 
सब कुछ सेट भी था, लेकिन कामराज एक बार फिर तुरुप का इक्का निकाल लाये। नेहरू की बेटी को सामने खड़ा कर दिया। 
गुलजारी नंदा रेस से हटे, तो मुकाबला सीधा हो गया। दस दिनों तक हाई वोल्टेज पॉलिटिक्स के बाद, अंततः सांसदों ने अपना मत दिया। 
कुल 361 सांसदों में 205 ने इंदिरा को चुना। 156 वोट मोरारजी को मिले। ताजपोशी इंदिरा की.. 
सत्ता कामराज की हो गई। 
लेकिन उनकी सरकार को कमजोर और दिशाहीन माना जा रहा था। कामराज और सिंडिकेट जैसे शक्तिशाली कांग्रेसी नेताओं के दबाव में इंदिरा की सरकार चल रही थी। इसी बीच, राजमाता विजयाराजे सिंधिया जैसे कांग्रेसी नेता भी कांग्रेस के खिलाफ सक्रिय हो गई थीं और जनसंघ को समर्थन देने लगी थीं। राजमाता देसाई कैम्प की थी। मध्यप्रदेश से कांग्रेस सांसद थी। 
वहां अपना वजन चाहती थी, लेकिन सीएम डीपी मिश्रा उनकी चलने न देते। खींचतान में नवंबर आ गया। चार माह के भीतर ही चुनाव था।
1966 को संसद भवन के सामने भीड़
7 नवंबर 1966 को संसद भवन के सामने उग्र भीड़

7 नवंबर 1966: भीड़ का संसद पर हमला

7 नवंबर 1966 को हजारों साधु-संत और गो-रक्षा समर्थक दिल्ली की सड़कों पर उतरे। उनका उद्देश्य संसद का शांतिपूर्ण घेराव करना था, ताकि गोहत्या पर राष्ट्रीय प्रतिबंध की मांग को लेकर सरकार पर दबाव डाला जा सके। इस आंदोलन का नेतृत्व स्वामी करपात्री महाराज और स्वामी रामेश्वरानंद जैसे संत कर रहे थे, जिन्होंने इस मुद्दे को एक धार्मिक कर्तव्य के रूप में देखा।
स्वामी रामेश्वरानंद ने भीड़ को उकसाया और कहा कि जब तक गो-हत्या पर कानून नहीं बनता, तब तक सांसदों को संसद से बाहर नहीं निकलने देना है। इस एक बयान ने भीड़ को हिंसा की ओर उकसा दिया। 
भीड़ ने “गाय हमारी माता है” और “गोहत्या बंद करो” के नारों के साथ संसद भवन की ओर मार्च किया। शुरू में यह प्रदर्शन शांतिपूर्ण था, लेकिन जैसे-जैसे भीड़ संसद भवन के निकट पहुंची, स्थिति बिगड़ने लगी। संसद भवन के बाहर जमा भीड़ हिंसक हो गई और पत्थरबाजी शुरू कर दी। 
भीड़ का गुस्सा तेजी से भड़क उठा। संसद के गेट की ओर बढ़ती भीड़ ने पहले तो शांतिपूर्ण तरीके से नारेबाजी की, लेकिन जल्द ही स्थिति बेकाबू हो गई। हाथों में त्रिशूल, तलवारें और लाठियाँ लिए प्रदर्शनकारी संसद के गेट को तोड़ने की कोशिश करने लगे। संसद भवन के गेट पर तैनात पुलिसकर्मियों ने पहले लाठीचार्ज किया, लेकिन यह प्रयास विफल रहा। 
भीड़ इतनी आक्रामक हो गई कि उन्होंने पुलिस की बैरिकेड्स को तोड़ दिया और संसद भवन के अंदर घुसने की कोशिश की। संसद के अंदर उस वक्त सत्र चल रहा था और बाहर हिंसा की खबर फैल चुकी थी। प्रदर्शनकारियों ने संसद भवन के बाहर खड़े वाहनों को निशाना बनाया, ट्रकों, बसों और कारों को तोड़फोड़ कर आग के हवाले कर दिया। 
भीड़ के एक हिस्से ने संसद भवन में घुसने की कोशिश की, जबकि कुछ प्रदर्शनकारियों ने मंत्रियों के बंगलों पर हमला किया। इस दौरान भीड़ ने केंद्रीय राज्यमंत्री रघुरामय्या के बंगले को आग लगा दी गई और भीड़ द्वारा कामराज के आवास पर भी हमला हुआ। भीड़ ने ट्रकों, बसों और गाड़ियों को रोककर उन्हें तोड़फोड़ का निशाना बनाया और आग लगा दी। त्रिशूल और तलवारें लहराते हुए प्रदर्शनकारियों ने एलान किया कि जब तक गोहत्या पर कानून नहीं बनता, सांसदों को बाहर नहीं निकलने देंगे।
दिल्ली की सड़कों पर उस दिन का दृश्य भयावह था। सैकड़ों की संख्या में प्रदर्शनकारी नारेबाजी करते हुए सड़कों पर निकल आए थे। उन्होंने जगह-जगह वाहनों को रोका और उन्हें तोड़फोड़ कर जला दिया। पुलिस द्वारा की गई लाठीचार्ज और चेतावनी के बावजूद, भीड़ पीछे हटने के बजाय और उग्र हो गई। 
भीड़ के उग्र होने के कारण कई निर्दोष लोग भी इस हिंसा की चपेट में आ गए। कई जगहों पर तलवारें और त्रिशूल लहराते हुए प्रदर्शनकारियों ने आम नागरिकों को भी धमकाया और मारपीट की। दिल्ली की सड़कों पर दहशत का माहौल था, जहां हर तरफ आग की लपटें और तोड़फोड़ का मंजर दिखाई दे रहा था।
1966 के संसद पर हमले की रिपोर्टिंग
संसद पर हमले की रिपोर्टिंग

हिंसा पर पुलिस की प्रतिक्रिया

स्थिति को बेकाबू होता देख, सुरक्षा बलों ने आंसू गैस के गोले छोड़े और लाठीचार्ज किया। लेकिन भीड़ का गुस्सा शांत नहीं हुआ, और हिंसा बढ़ती चली गई। जब हालात गंभीर हो गए, तब पुलिस ने गोलीबारी शुरू की, जिसमें 7 लोग मारे गए और 40 से अधिक लोग घायल हुए, जिनमें 19 पुलिसकर्मी भी शामिल थे। शाम तक 1500 से अधिक प्रदर्शनकारी गिरफ्तार किए गए, जिनमें जनसंघ, आर्य समाज और सनातन धर्म सभा जैसे संगठनों के लोग भी शामिल थे। इन गिरफ्तारियों में आंदोलन के नेता स्वामी करपात्री महाराज भी थे।

संघ और जनसंघ की भूमिका

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और जनसंघ इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। हालांकि संघ ने सीधे तौर पर इस हिंसा में अपनी भागीदारी को नकारा, लेकिन जनसंघ और संघ से जुड़े संगठन आंदोलन में सक्रिय थे। राजमाता विजयाराजे सिंधिया, जो पहले कांग्रेस की नेता थीं, जनसंघ के साथ मिलकर इस आंदोलन को समर्थन दे रही थीं। ग्वालियर से बसों में भरकर आए कार्यकर्ताओं ने आंदोलन को और अधिक उग्र बना दिया।
प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी
इंदिरा गांधी

राजनीतिक परिणाम: इंदिरा गांधी की परीक्षा

इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार इस घटना के बाद और अधिक दबाव में आ गई। इस आंदोलन के कारण गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा को इस्तीफा देना पड़ा, और यशवंतराव चव्हाण ने गृह मंत्रालय का कार्यभार संभाला। हालांकि नंदा का इस्तीफा बाद में नामंजूर कर दिया गया, लेकिन इस घटना ने इंदिरा की सरकार की कमजोरी को उजागर कर दिया।
इस हमले ने इंदिरा गांधी की सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी। यह इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के एक साल के भीतर हुआ था, और उस समय उनका नेतृत्व अभी पूरी तरह से स्थापित नहीं हुआ था। गो-रक्षा समर्थकों द्वारा उन पर अत्यधिक दबाव डाला जा रहा था कि वह गोहत्या पर तुरंत प्रतिबंध लगाएं। 
हालांकि, इंदिरा गांधी ने गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग को संविधान और कानून व्यवस्था के अनुसार ही संभाला। उन्होंने स्पष्ट किया कि सरकार धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बनाए रखते हुए ही कोई निर्णय लेगी। इसके बावजूद, इंदिरा गांधी को इस घटना के बाद राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ा, और सरकार ने कुछ राज्यों में गोहत्या पर रोक लगाने के कानून बनाए।
जयराम रमेश द्वारा लिखी गई इंदिरा गांधी पर आधारित पुस्तक इंदिरा गांधी – ए लाइफ इन नेचर में यह दावा किया गया है कि 1966 की घटना के बाद, इंदिरा गांधी ने गोहत्या पर एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी में कई प्रमुख हिंदू धार्मिक नेताओं को शामिल किया गया था। इस कमेटी के सदस्यों में RSS के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर और भारत में श्वेत क्रांति के जनक वर्गीज़ कुरियन भी शामिल थे।  
हालांकि, इस रिपोर्ट को समय पर तैयार नहीं किया जा सका, जिसके चलते 1979 में इस कमेटी को भंग कर दिया गया।
इंदिरा गांधी ने घटना के बाद देश को संबोधित करते हुए कहा, “हम एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हैं, और हमें सभी धार्मिक समूहों की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। परंतु कानून और व्यवस्था को बनाए रखना सरकार की पहली प्राथमिकता है।”

घटना के दूरगामी प्रभाव

इस हमले का भारतीय राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा। यह पहली बार था जब धार्मिक भावनाओं और आस्था के नाम पर संसद भवन पर हिंसक हमला हुआ था। इस घटना ने न केवल सरकार को झकझोरा, बल्कि इसने धार्मिक समूहों और संगठनों की शक्ति को भी उजागर किया, जो समय-समय पर अपने मुद्दों को उठाने के लिए आंदोलन करते रहे हैं।
इसके अलावा, इस घटना के बाद गोहत्या के मुद्दे पर कई राज्यों ने कानून पारित किए, जिनमें उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे राज्य शामिल थे। इसके बावजूद, राष्ट्रीय स्तर पर गोहत्या पर कोई पूर्ण प्रतिबंध लागू नहीं हो पाया। 
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने इस घटना पर टिप्पणी करते हुए कहा, “1966 का संसद हमला यह दर्शाता है कि किस तरह धार्मिक और राजनीतिक ताकतें भारतीय लोकतंत्र को प्रभावित कर सकती हैं। यह एक चेतावनी थी कि धार्मिक मुद्दों को अगर सही तरीके से नहीं संभाला गया, तो यह देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को खतरे में डाल सकता है।”

निष्कर्ष: संसद पर पहला हमला और उसकी ऐतिहासिक छाप

1966 का संसद हमला न केवल भारतीय राजनीति में एक बड़ा मोड़ था, बल्कि यह दर्शाता है कि धार्मिक आस्थाएं और राजनीतिक समीकरण किस तरह से एक-दूसरे से टकरा सकते हैं। इंदिरा गांधी की सरकार पर गोहत्या पर राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने का भारी दबाव था, लेकिन उन्होंने संविधान के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए इस पर कोई तत्काल कदम नहीं उठाया। बाद में कुछ राज्यों ने गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने के कानून बनाए।
यह घटना यह भी स्पष्ट करती है कि भारतीय राजनीति में धर्म और आस्था के मुद्दे किस प्रकार बड़े जन आंदोलनों का रूप ले सकते हैं। गो-रक्षा आंदोलन, संघ और जनसंघ की भागीदारी, और इंदिरा गांधी की सरकार की कमजोरियां—यह सब मिलकर 1966 के संसद हमले को भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय बनाते हैं।

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