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1991 का आर्थिक संकट |
1991 का वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इस वर्ष भारत ने एक गंभीर आर्थिक संकट का सामना किया, जिसने न केवल देश की आर्थिक स्थिति को हिला कर रख दिया, बल्कि एक नए युग की शुरुआत को भी प्रेरित किया। उस समय के आर्थिक संकट ने देश को आत्ममंथन करने पर मजबूर किया और यहीं से शुरू हुई उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्वीकरण (LPG) की नीतियों का सफर।
इन नीतियों ने भारत की आर्थिक व्यवस्था को जड़ से बदल दिया। जिस देश में पहले नियंत्रणवादी नीतियों और सार्वजनिक क्षेत्र के अधिपत्य का बोलबाला था, वह धीरे-धीरे एक खुली, प्रतिस्पर्धात्मक और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में बदल गया। यह परिवर्तन न केवल भारत की आर्थिक गति को तेज़ करने में सहायक साबित हुआ, बल्कि इसे वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी भी बना दिया।
इस लेख में हम उन आर्थिक सुधारों के प्रभावों, चुनौतियों और परिणामों का विस्तार से अध्ययन करेंगे, जिन्होंने भारतीय समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था को व्यापक रूप से प्रभावित किया। इन सुधारों के समकालीन प्रभावों का विश्लेषण करते हुए हम समझने का प्रयास करेंगे कि इन नीतियों ने न केवल तत्काल संकट से उबरने में मदद की, बल्कि दीर्घकालिक रूप से भारत के आर्थिक विकास की नींव भी रखी।
1. 1991 के आर्थिक संकट का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
1.1 1980 के दशक का आर्थिक संकट:
1980 के दशक का आर्थिक संकट भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक चुनौतीपूर्ण समय था, जिसने 1991 के व्यापक आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि तैयार की। इस अवधि में सरकार का राजकोषीय घाटा तेजी से बढ़ा, जो 1980 के दशक के अंत तक GDP के 7-8% के स्तर तक पहुंच गया। यह मुख्य रूप से कल्याणकारी योजनाओं, भारी सब्सिडी, और बड़े पैमाने पर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में निवेश के कारण था। इन योजनाओं और खर्चों का उद्देश्य आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना था, लेकिन इन्हें पर्याप्त वित्तीय संसाधनों के बिना चलाया गया। इस कारण सरकारी खर्चों और राजस्व के बीच बड़ा अंतर आ गया, जिससे राजकोषीय घाटा बढ़ता गया।इसके साथ ही, 1980 के दशक में भारत के भुगतान संतुलन पर भी भारी दबाव पड़ा। तेल की कीमतों में वृद्धि और आयातों पर निर्भरता के कारण चालू खाता घाटा भी बढ़ता गया। उदाहरण के लिए, भारत को अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए तेल आयात पर निर्भर रहना पड़ा, जो वैश्विक तेल कीमतों में उछाल के कारण महंगा होता गया। इसके परिणामस्वरूप, चालू खाता घाटा 3% तक पहुंच गया, जो उस समय की आर्थिक चुनौतियों को और बढ़ा गया।विदेशी ऋण का बढ़ता बोझ भी 1980 के दशक में भारत की आर्थिक स्थिति को कमजोर करता रहा। सरकार ने बढ़ते राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए बाहरी स्रोतों से उधार लेना शुरू किया। 1980 में भारत का कुल विदेशी ऋण $20 बिलियन था, जो 1990 के दशक की शुरुआत तक बढ़कर $70 बिलियन तक पहुंच गया। इस ऋण को चुकाने के लिए भारत की निर्यात आय का बड़ा हिस्सा विदेशी ऋण के ब्याज और मूलधन की अदायगी में चला गया। 1990-91 में, कुल निर्यात आय का 27% हिस्सा विदेशी ऋण की सेवा में खर्च हुआ, जिससे भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर भारी दबाव पड़ा।
1.2 वैश्विक आर्थिक परिवेश:
इस दौरान वैश्विक आर्थिक परिवेश भी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अनुकूल नहीं था। 1980 के दशक के उत्तरार्ध में वैश्विक आर्थिक मंदी और तेल की कीमतों में बढ़ोतरी ने भारत जैसे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। खाड़ी युद्ध के कारण तेल की आपूर्ति बाधित हो गई, जिससे कीमतों में और वृद्धि हुई। वैश्विक व्यापार में गिरावट ने भी भारत के निर्यात को प्रभावित किया। भारतीय निर्यात में कमी और आयात की बढ़ती लागत ने देश के विदेशी मुद्रा भंडार को और अधिक कमजोर कर दिया। 1980 के दशक के अंत तक, भारत के पास केवल कुछ हफ्तों के आयात के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार रह गया था, जो अर्थव्यवस्था के लिए एक गंभीर संकट का संकेत था।
इन सभी कारकों का सम्मिलित प्रभाव यह था कि भारत की अर्थव्यवस्था 1980 के दशक में स्थिर नहीं रह सकी और देश को एक बड़े आर्थिक संकट की ओर धकेल दिया। आर्थिक विकास दर धीमी हो गई, जो औसत वार्षिक GDP वृद्धि दर केवल 3-3.5% रही। इसे उस समय ‘हिंदू विकास दर’ के नाम से भी जाना जाता था। इस धीमी विकास दर के पीछे सरकारी विनियमन, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की अक्षमता, और आर्थिक सुधारों की कमी जैसे कारक थे। साथ ही, 1980 के दशक के उत्तरार्ध में राजनीतिक अस्थिरता ने भी आर्थिक नीति निर्धारण और निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित किया। 1989 में राजीव गांधी की हत्या और इसके बाद वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर की अस्थिर सरकारों ने स्थिति को और अधिक जटिल बना दिया।
1980 के दशक के अंत तक, भारत की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर हो गई थी कि 1991 में देश को बड़े आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस संकट से उबरने के लिए भारत ने उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्विकरण की नीतियाँ अपनाईं, जिसने देश की अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने में मदद की।
2. संकट के प्रमुख कारण
1991 के आर्थिक संकट के लिए कई कारक जिम्मेदार थे, जिनमें घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही कारक शामिल थे।
2.1 अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक कमजोरियाँ:
भारत की अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक कमजोरियों में उच्च राजकोषीय घाटा, बढ़ता व्यापार घाटा, और उत्पादन एवं निवेश के निम्न स्तर शामिल थे। 1980 के दशक के अंत तक, भारत का राजकोषीय घाटा गंभीर रूप से बढ़ गया था। इसके अलावा, भारत का व्यापार घाटा भी बढ़ रहा था, जो मुख्य रूप से आयात में वृद्धि और निर्यात में गिरावट के कारण था।
1980 के दशक के दौरान, भारतीय अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक समस्याओं का प्रभाव भी स्पष्ट होने लगा था। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की कार्यक्षमता में गिरावट आ रही थी और निजी क्षेत्र की भूमिका सीमित हो रही थी। इसके परिणामस्वरूप, आर्थिक विकास की गति धीमी हो गई और निवेश की दर में गिरावट आई।
2.2 राजनीतिक अस्थिरता:
1991 के आर्थिक संकट के दौरान भारत की राजनीतिक अस्थिरता एक महत्वपूर्ण कारक थी जिसने आर्थिक संकट को और गहरा कर दिया। 1980 के दशक के उत्तरार्ध और 1990 के प्रारंभिक वर्षों में, भारत की राजनीतिक परिदृश्य में अस्थिरता और अनिश्चितता का दौर था।
प्रधानमंत्री राजीव गांधी की 1989 में हत्या के बाद, राजनीतिक परिदृश्य में तेजी से बदलाव आया। 1989 के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को बहुमत नहीं मिला और वी.पी. सिंह के नेतृत्व में जनता दल की गठबंधन सरकार बनी। लेकिन यह सरकार भी ज्यादा समय तक स्थिर नहीं रही और उसे विभिन्न मुद्दों पर लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिए जाने के निर्णय से देश में भारी विरोध और सामाजिक असंतोष फैल गया। इसके परिणामस्वरूप, वी.पी. सिंह की सरकार गिर गई और चंद्रशेखर की अल्पकालिक सरकार बनी।
इन घटनाओं ने देश में राजनीतिक अस्थिरता को और बढ़ाया, जिससे आर्थिक नीति निर्माण और निर्णय लेने में अनिश्चितता आई। आर्थिक सुधारों की तत्काल आवश्यकता थी, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता के कारण इन सुधारों को लागू करना कठिन हो गया।
1991 में, जब पी.वी. नरसिम्हा राव की नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी, तब जाकर आर्थिक सुधारों की दिशा में निर्णायक कदम उठाए गए। इस राजनीतिक अस्थिरता ने देश की अर्थव्यवस्था को काफी प्रभावित किया और आर्थिक संकट को गहराने में योगदान दिया।
2.3 खाड़ी युद्ध और वैश्विक तेल संकट:
1990-91 का खाड़ी युद्ध एक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय घटना थी जिसने भारत की आर्थिक स्थिति को गहरा आघात पहुँचाया। इराक के कुवैत पर आक्रमण और इसके बाद पश्चिमी देशों द्वारा इराक पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के कारण तेल की कीमतों में भारी वृद्धि हुई। चूंकि भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए तेल आयात पर अत्यधिक निर्भर था, इसने विदेशी मुद्रा भंडार पर भारी दबाव डाला।
इस समयावधि में, भारत के आयात खर्च में तेजी से वृद्धि हुई, लेकिन निर्यात में गिरावट आई। निर्यात में गिरावट के कारण विदेशी मुद्रा का आगमन कम हो गया, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार में और कमी आई। इस संकट का प्रभाव केवल अर्थव्यवस्था तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इसका असर समाज और राजनीति पर भी पड़ा।
2.4 भुगतान संतुलन संकट:
1991 तक, भारत का भुगतान संतुलन संकट अपने चरम पर था। भारत के पास केवल तीन हफ्तों के आयात के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार बचा था, जो आर्थिक आपातकाल की स्थिति का संकेत था। इस संकट का मुख्य कारण आयात-निर्यात के बीच का असंतुलन और विदेशी ऋण की अदायगी में आ रही कठिनाइयाँ थीं।
अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेश की कमी और निर्यात की धीमी गति ने इस स्थिति को और भी गंभीर बना दिया। विदेशी मुद्रा भंडार की कमी के कारण, भारत को अपने आवश्यक आयात, विशेष रूप से तेल, के लिए भुगतान करने में कठिनाई हो रही थी।
3. संकट के प्रभाव का विस्तारित विश्लेषण
1991 के आर्थिक संकट का प्रभाव भारतीय समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर गहरा पड़ा। इस प्रभाव का विश्लेषण विभिन्न स्तरों पर किया जा सकता है।
3.1 सामाजिक प्रभाव:
1991 के आर्थिक संकट ने भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव डाला। सबसे बड़ा प्रभाव बेरोजगारी में वृद्धि के रूप में देखा गया। आर्थिक संकट के कारण सरकारी और निजी क्षेत्र में नए रोजगार के अवसरों की कमी हो गई, जिससे लाखों लोग बेरोजगार हो गए।
उदाहरण के लिए, 1991 के दौरान बेरोजगारी दर 4.3% थी, जो कि आर्थिक सुधारों के बाद भी बढ़कर 1992 में 4.5% हो गई। बेरोजगारी का यह प्रभाव विशेष रूप से निम्न और मध्यम वर्ग के परिवारों पर पड़ा, जो पहले से ही बढ़ती मुद्रास्फीति और खर्चों के बोझ से जूझ रहे थे।
संकट के कारण, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर भी असर पड़ा। कई परिवार अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने या चिकित्सा सेवाओं का लाभ उठाने में सक्षम नहीं थे, जिससे समाज में असमानता और बढ़ गई।
3.2 राजनीतिक प्रभाव:
1991 के आर्थिक संकट का राजनीतिक प्रभाव भी व्यापक था। जैसा कि पहले चर्चा की गई, इस अवधि में भारत की राजनीति अस्थिर थी। 1989 में जनता दल की सरकार बनने के बाद, मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने से देश में सामाजिक विभाजन और अस्थिरता बढ़ गई।
इसके साथ ही, भारत की राजनीतिक नेतृत्व की क्षमता पर भी सवाल उठने लगे। इस स्थिति ने भारतीय जनता का विश्वास सरकार और राजनीतिक प्रणाली पर से कम कर दिया।
उदाहरण के लिए, राजनीतिक अस्थिरता के कारण, सुधारात्मक नीतियों को लागू करने में देरी हुई और कई आवश्यक नीतिगत फैसले नहीं लिए जा सके। यह स्थिति तब बदली जब पी.वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनी और डॉ. मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधारों को लागू किया।
3.3 आर्थिक प्रभाव:
1991 के आर्थिक संकट का सबसे प्रत्यक्ष प्रभाव भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। राजकोषीय घाटा, भुगतान संतुलन की समस्या, और विदेशी मुद्रा भंडार में गिरावट ने अर्थव्यवस्था को अत्यधिक कमजोर कर दिया।
उदाहरण के लिए, 1991 में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार केवल $1.2 बिलियन रह गया था, जो मात्र तीन सप्ताह के आयात के लिए पर्याप्त था। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से $2.2 बिलियन का आपातकालीन ऋण लेना पड़ा, जिसके बदले में सरकार को अपने स्वर्ण भंडार का एक हिस्सा गिरवी रखना पड़ा।
इस संकट ने सरकार को आर्थिक सुधारों की दिशा में मजबूर कर दिया, जिसमें उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्विकरण की नीतियाँ शामिल थीं। इन सुधारों के परिणामस्वरूप, भारत की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे स्थिर हुई और भविष्य में तेजी से विकास की ओर बढ़ी।
3.4 वैश्विक प्रभाव:
1991 का आर्थिक संकट न केवल भारत के लिए महत्वपूर्ण था, बल्कि इसका वैश्विक प्रभाव भी पड़ा। संकट के दौरान, भारत की साख अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गिर गई, जिससे विदेशी निवेशकों का विश्वास कमजोर हुआ।
इसके बावजूद, आर्थिक सुधारों के बाद, भारत ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी स्थिति को मजबूत किया। भारत ने विश्व व्यापार संगठन (WTO) में अपनी भूमिका को और भी महत्वपूर्ण बना लिया और वैश्विक निवेशकों के लिए एक आकर्षक बाजार के रूप में उभरा।
उदाहरण के लिए, 1991 के बाद से भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) में तेजी से वृद्धि हुई। 1991 में FDI का प्रवाह केवल $132 मिलियन था, जो 2000 के दशक में बढ़कर $5 बिलियन से भी अधिक हो गया।
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भारत में उदारीकरण के नायक: पीवी नरसिम्हा राव और डा मनमोहन सिंह |
4. उपायों और सुधारों का विस्तारित विवरण
1991 के आर्थिक संकट से निपटने के लिए भारतीय सरकार ने व्यापक उपायों और सुधारों की एक श्रृंखला को लागू किया, जिसे “नई आर्थिक नीति” के नाम से जाना जाता है। इन सुधारों का उद्देश्य अर्थव्यवस्था को स्थिर करना, विकास को बढ़ावा देना, और भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ना था। इन उपायों का विस्तारित विवरण निम्नलिखित है:
4.1 उदारीकरण (Liberalization):
सरकार ने अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में सरकार के हस्तक्षेप को कम करने और अधिक प्रतिस्पर्धात्मकता और बाजार आधारित तंत्र को अपनाने के लिए कदम उठाए। उदारीकरण के तहत प्रमुख नीतिगत बदलावों में शामिल थे:
– औद्योगिक लाइसेंसिंग की समाप्ति: पहले, भारतीय उद्योगों को अपने परिचालन के लिए सरकार से लाइसेंस प्राप्त करना पड़ता था, जिसे “लाइसेंस राज” कहा जाता था। 1991 के सुधारों के तहत, अधिकांश उद्योगों के लिए लाइसेंसिंग की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई, जिससे उद्यमिता और निवेश को बढ़ावा मिला।
– विदेशी निवेश की अनुमति: विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) के लिए उद्योगों के दरवाजे खोले गए। 1991 में सरकार ने विभिन्न क्षेत्रों में 100% FDI की अनुमति दी, जिससे भारत में विदेशी निवेश में तेजी आई। उदाहरण के लिए, 1990 में FDI का प्रवाह मात्र $132 मिलियन था, जो 2000 तक बढ़कर $4 बिलियन तक पहुंच गया।
– नियामक नियंत्रण में कमी: सरकार ने कीमतों, उत्पादन, और वितरण पर नियामक नियंत्रण को कम कर दिया, जिससे कंपनियों को बाजार की परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लेने की स्वतंत्रता मिली।
4.2 निजीकरण (Privatization):
1991 के बाद, सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSUs) की भूमिका को कम करने के लिए निजीकरण की नीति अपनाई।
– विनिवेश: सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अपने हिस्से को बेचना शुरू किया, जिससे इन कंपनियों में निजी निवेश बढ़ा और उनकी कार्यक्षमता में सुधार हुआ। उदाहरण के लिए, भारत संचार निगम लिमिटेड (BSNL) और भारतीय एयरलाइंस जैसे PSUs में विनिवेश के कदम उठाए गए।
– प्रभाव: निजीकरण से न केवल सरकारी खजाने में धन की वृद्धि हुई, बल्कि इन कंपनियों की दक्षता और प्रतिस्पर्धात्मकता में भी सुधार हुआ। इसका सकारात्मक प्रभाव यह रहा कि निजी क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर पैदा हुए और सेवा क्षेत्र का विस्तार हुआ।
4.3 वैश्विकरण (Globalization):
वैश्विकरण के तहत, भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक बाजार के साथ जोड़ने के लिए कदम उठाए गए।
– व्यापार उदारीकरण: आयात शुल्क और निर्यात सब्सिडी में कटौती की गई, जिससे भारतीय कंपनियों को वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा करने का मौका मिला। उदाहरण के लिए, 1991 में भारत का औसत आयात शुल्क 85% था, जिसे 2000 तक घटाकर 30% कर दिया गया।
– मुद्रा विनियम दरों में सुधार: भारतीय रुपये को आंशिक रूप से परिवर्तनीय बनाया गया, जिससे मुद्रा विनिमय दरों का निर्धारण बाजार द्वारा किया जाने लगा। इससे विदेशी निवेशकों और निर्यातकों के लिए जोखिम कम हुआ और भारतीय निर्यात को बढ़ावा मिला।
– विश्व व्यापार संगठन (WTO) में शामिल होना: भारत ने 1995 में WTO का सदस्य बनकर अपने व्यापार संबंधों को और अधिक सुदृढ़ किया और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपने उत्पादों के लिए अवसरों को बढ़ाया।
4.4 वित्तीय क्षेत्र में सुधार:
वित्तीय क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर सुधार किए गए, जो आर्थिक सुधारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे।
– बैंकों का पुनर्गठन: बैंकों को अधिक स्वायत्तता दी गई और गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPA) को नियंत्रित करने के लिए कठोर कदम उठाए गए। इसके अलावा, नई निजी बैंकों की स्थापना की अनुमति दी गई, जिससे बैंकिंग क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा और सेवा गुणवत्ता में सुधार हुआ।
– पूंजी बाजार सुधार: भारतीय पूंजी बाजार को वैश्विक मानकों के अनुरूप बनाने के लिए सुधार किए गए। सेबी (Securities and Exchange Board of India) को पूंजी बाजार के विनियमन का जिम्मा सौंपा गया, जिससे निवेशकों के हितों की रक्षा हो सके और बाजार में पारदर्शिता बढ़ सके।
4.5 कर सुधार:
कर प्रणाली में सुधार भी आर्थिक सुधारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था।
– प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में सुधार: सरकार ने प्रत्यक्ष करों को सरल और न्यायसंगत बनाने के लिए कई कदम उठाए। इसके साथ ही, अप्रत्यक्ष करों की दरों को तर्कसंगत बनाने और उनकी संरचना को सरल बनाने के लिए GST (Goods and Services Tax) को 2017 में लागू किया गया।
– टैक्स आधार का विस्तार: टैक्स बेस को विस्तारित करने के लिए सरकार ने टैक्स प्रशासन में सुधार किए और कर चोरी को रोकने के लिए कड़े नियम लागू किए।
4.6 विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने के उपाय:
1991 के आर्थिक संकट के दौरान विदेशी मुद्रा भंडार की कमी एक बड़ी चिंता थी। इसे बढ़ाने के लिए कई उपाय किए गए:
– स्वर्ण भंडार गिरवी रखना: भारत सरकार ने 1991 में IMF से $2.2 बिलियन का आपातकालीन ऋण लेने के लिए अपने स्वर्ण भंडार का एक हिस्सा गिरवी रखा।
– विदेशी ऋण के पुनर्गठन: भारत ने अपने विदेशी ऋण का पुनर्गठन किया और नए ऋणों के माध्यम से विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने की कोशिश की।
– NRI (Non-Resident Indian) निवेश को आकर्षित करना: सरकार ने NRI निवेशकों के लिए विशेष प्रोत्साहनों की घोषणा की, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार को मजबूत किया जा सके।
4.7 औद्योगिक नीति में बदलाव:
औद्योगिक नीति में सुधार के तहत कई पुराने और अनावश्यक कानूनों को हटाया गया और नए उद्योगों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया गया।
– नई औद्योगिक नीति, 1991: इस नीति के तहत अधिकांश उद्योगों के लिए औद्योगिक लाइसेंसिंग की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया। इसके अलावा, विदेशी कंपनियों को भारतीय बाजार में निवेश की अनुमति दी गई, जिससे देश में नवीनतम तकनीक और प्रबंधन कौशल का आगमन हुआ।
4.8 कृषि और ग्रामीण विकास:
कृषि क्षेत्र और ग्रामीण विकास के लिए भी सुधार किए गए, ताकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जा सके और कृषि उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सके।
– हरित क्रांति का विस्तार: हरित क्रांति के तहत नई तकनीकों और फसलों की पैदावार को बढ़ाने के लिए कदम उठाए गए। इससे खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि हुई और देश में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हुई।
– ग्रामीण विकास योजनाएं: सरकार ने ग्रामीण विकास के लिए योजनाओं को लागू किया, जैसे कि प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना और ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत ढांचे और रोजगार के अवसरों में सुधार हुआ।
इन सुधारों के प्रभावों का आकलन करते हुए, यह कहा जा सकता है कि इन उपायों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को न केवल संकट से उबारा बल्कि उसे एक मजबूत और गतिशील अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित किया। 1991 के सुधारों के बाद, भारत की आर्थिक वृद्धि दर में तेजी आई, विदेशी निवेश में वृद्धि हुई, और भारत वैश्विक व्यापार में एक प्रमुख खिलाड़ी बन गया। यह सुधार भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुए।
5. दीर्घकालिक प्रभाव और आर्थिक विकास
1991 के आर्थिक सुधारों के बाद, भारत की अर्थव्यवस्था ने एक नई दिशा में प्रगति की। इन सुधारों ने न केवल आर्थिक संकट से उबरने में मदद की, बल्कि दीर्घकालिक आर्थिक विकास के लिए एक मजबूत नींव भी तैयार की। इन सुधारों के दीर्घकालिक प्रभाव और आर्थिक विकास को समझने के लिए विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है:
5.1 आर्थिक वृद्धि दर में वृद्धि:
1991 के सुधारों के बाद, भारत की GDP वृद्धि दर में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई। सुधारों से पहले, 1980 के दशक में भारत की औसत GDP वृद्धि दर लगभग 3-4% के आसपास थी, जिसे ‘हिंदू विकास दर’ कहा जाता था। लेकिन सुधारों के बाद, 1990 के दशक में यह वृद्धि दर बढ़कर 6% से अधिक हो गई।
उदाहरण के लिए, 2003 से 2008 के बीच, भारत की औसत GDP वृद्धि दर 8-9% तक पहुंच गई, जो उस समय की प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं में से एक थी। 2006-07 में, भारत की GDP वृद्धि दर 9.6% के उच्चतम स्तर पर पहुंची, जो यह दर्शाता है कि सुधारों के दीर्घकालिक प्रभाव ने देश की आर्थिक क्षमता को किस हद तक बढ़ाया।
5.2 विदेशी निवेश में वृद्धि:
सुधारों के बाद, भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) में भी लगातार वृद्धि हुई। 1990-91 में भारत में FDI का प्रवाह केवल $132 मिलियन था, जो 2000 तक बढ़कर $4 बिलियन हो गया। 2019-20 में, FDI का प्रवाह $74.39 बिलियन के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया।
यह वृद्धि विभिन्न क्षेत्रों में सरकार द्वारा उदारीकरण की नीतियों और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए उठाए गए कदमों का परिणाम थी। इससे भारतीय कंपनियों को वैश्विक तकनीक और प्रबंधन कौशल में सुधार करने का अवसर मिला, जिससे उनकी उत्पादकता और प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ी।
5.3 सेवा क्षेत्र का विस्तार:
सुधारों के बाद, भारत के सेवा क्षेत्र में तेज़ी से विकास हुआ। सूचना प्रौद्योगिकी (IT) और IT-सक्षम सेवाएं (ITES) इस विकास की प्रमुख धुरी बने। 1990 के दशक के उत्तरार्ध में, IT उद्योग ने भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्तर पर स्थापित किया।
उदाहरण के लिए, 1998-99 में IT और ITES का निर्यात $4 बिलियन था, जो 2019-20 में बढ़कर $147 बिलियन हो गया। आज, सेवा क्षेत्र भारत के GDP में लगभग 55% का योगदान देता है, और इस क्षेत्र में रोजगार के लाखों अवसर भी उत्पन्न हुए हैं।
5.4 गरीबी में कमी और सामाजिक सुधार:
आर्थिक सुधारों के बाद, भारत में गरीबी में उल्लेखनीय कमी देखी गई। 1993-94 में भारत की गरीबी दर लगभग 45% थी, जो 2011-12 में घटकर 22% रह गई। इस गिरावट का मुख्य कारण सुधारों के बाद आर्थिक विकास और रोजगार के नए अवसरों का सृजन था।
साथ ही, सरकार ने सामाजिक सुधारों के तहत शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में निवेश बढ़ाया, जिससे जीवन स्तर में सुधार हुआ। उदाहरण के लिए, 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (NREGA) लागू किया गया, जिसने ग्रामीण रोजगार में वृद्धि और गरीबी में कमी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
5.5 उद्योग और विनिर्माण क्षेत्र का विकास:
सुधारों के बाद, भारतीय उद्योग और विनिर्माण क्षेत्र में भी तेजी आई। निजीकरण और विनिवेश के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की कार्यक्षमता में सुधार हुआ, और निजी क्षेत्र को बढ़ावा मिला।
उदाहरण के लिए, 1991 के बाद भारत में ऑटोमोबाइल, फार्मास्यूटिकल्स, और टेक्सटाइल उद्योगों में तीव्र विकास हुआ। 2000-01 में भारत का कुल विनिर्माण उत्पादन $400 बिलियन था, जो 2019-20 में बढ़कर $2.6 ट्रिलियन हो गया। इससे न केवल घरेलू बाजार को फायदा हुआ, बल्कि भारतीय उत्पादों की वैश्विक स्तर पर मांग भी बढ़ी।
5.6 वैश्विक व्यापार में वृद्धि:
1991 के सुधारों के बाद भारत का वैश्विक व्यापार भी बढ़ा। आयात और निर्यात दोनों में वृद्धि हुई, और भारत ने वैश्विक बाजार में अपनी उपस्थिति को मजबूत किया।
1991 में भारत का कुल व्यापार (निर्यात + आयात) $44.83 बिलियन था, जो 2019-20 में बढ़कर $828 बिलियन हो गया। इसके साथ ही, भारत ने कई देशों के साथ द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर किए, जिससे व्यापार संबंधों में सुधार हुआ और भारतीय उत्पादों के लिए नए बाजार खुले।
5.7 वित्तीय क्षेत्र में स्थिरता और विकास:
सुधारों के बाद, भारत का वित्तीय क्षेत्र अधिक स्थिर और मजबूत हुआ। बैंकों का पुनर्गठन, गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPA) में कमी, और नई निजी बैंकों की स्थापना से वित्तीय प्रणाली में सुधार हुआ।
इसके साथ ही, भारतीय शेयर बाजार भी तेजी से विकसित हुआ। 1991 में, BSE सेंसेक्स लगभग 1000 अंक के आसपास था, जो 2020 में 40,000 अंकों के पार पहुंच गया। इससे भारतीय निवेशकों को बेहतर रिटर्न मिला और देश में पूंजी बाजार की संस्कृति का विकास हुआ।
5.8 मुद्रास्फीति और मुद्रास्फीति की स्थिरता:
सुधारों के बाद, भारतीय अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति दर को नियंत्रित किया गया। 1990-91 में मुद्रास्फीति दर 13.9% थी, जो 2000 के दशक में 4-5% के आसपास स्थिर हो गई।
मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने मौद्रिक नीति में सुधार किए और आपूर्ति श्रृंखला में सुधार कर मुद्रास्फीति के दबाव को कम किया। इससे देश में कीमतों की स्थिरता बनी रही, जो आर्थिक विकास के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करता है।
5.9 सामाजिक असमानता में बदलाव:
हालांकि सुधारों के बाद गरीबी में कमी आई, लेकिन सामाजिक असमानता एक चुनौती बनी रही। GINI कोइफिशिएंट, जो सामाजिक असमानता का मापक है, ने सुधारों के बाद भी असमानता में वृद्धि दर्शाई।
1983 में GINI कोइफिशिएंट 0.30 था, जो 2011-12 में बढ़कर 0.35 हो गया। यह दर्शाता है कि आर्थिक विकास के बावजूद आय वितरण में असमानता बनी रही, जो एक गंभीर सामाजिक मुद्दा है।
5.10 संरचनात्मक सुधार और नई चुनौतियाँ:
सुधारों के दीर्घकालिक प्रभावों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक बनाया, लेकिन नई चुनौतियाँ भी उत्पन्न हुईं।
– कृषि क्षेत्र की चुनौतियाँ: सुधारों के बाद, कृषि क्षेत्र में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में असंतोष बढ़ा। किसानों की आय में अपेक्षित वृद्धि न होने के कारण कृषि संकट गहराता गया।
–रोजगार सृजन की कमी: हालांकि आर्थिक वृद्धि दर में वृद्धि हुई, लेकिन रोजगार सृजन में अपेक्षित तेजी नहीं आई। इस कारण ‘जॉबलेस ग्रोथ’ का मुद्दा उठा, जिससे युवा आबादी में बेरोजगारी की समस्या बनी रही।
इन सुधारों के प्रभावों का समग्र आकलन यह दर्शाता है कि 1991 के आर्थिक सुधारों ने भारत की आर्थिक दिशा को बदल दिया। यह सुधार भारत को एक वैश्विक आर्थिक शक्ति बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुए, और इससे देश को दीर्घकालिक आर्थिक विकास का लाभ मिला। हालांकि, सामाजिक असमानता, रोजगार सृजन और कृषि क्षेत्र में सुधार जैसे मुद्दे अभी भी नीतिगत चुनौतियों के रूप में बने हुए हैं, जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
6. आर्थिक सुधारों के समकालीन प्रभाव
1991 के आर्थिक सुधारों के बाद, भारत की अर्थव्यवस्था ने एक नई दिशा में प्रगति की। इन सुधारों ने न केवल आर्थिक संकट से उबरने में मदद की, बल्कि दीर्घकालिक आर्थिक विकास के लिए एक मजबूत नींव भी तैयार की। इन सुधारों के दीर्घकालिक प्रभाव और आर्थिक विकास को समझने के लिए विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है:
6.1 आर्थिक वृद्धि दर में वृद्धि:
1991 के सुधारों के बाद, भारत की GDP वृद्धि दर में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई। सुधारों से पहले, 1980 के दशक में भारत की औसत GDP वृद्धि दर लगभग 3-4% के आसपास थी, जिसे ‘हिंदू विकास दर’ कहा जाता था। लेकिन सुधारों के बाद, 1990 के दशक में यह वृद्धि दर बढ़कर 6% से अधिक हो गई।
उदाहरण के लिए, 2003 से 2008 के बीच, भारत की औसत GDP वृद्धि दर 8-9% तक पहुंच गई, जो उस समय की प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं में से एक थी। 2006-07 में, भारत की GDP वृद्धि दर 9.6% के उच्चतम स्तर पर पहुंची, जो यह दर्शाता है कि सुधारों के दीर्घकालिक प्रभाव ने देश की आर्थिक क्षमता को किस हद तक बढ़ाया।
6.2 विदेशी निवेश में वृद्धि:
सुधारों के बाद, भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) में भी लगातार वृद्धि हुई। 1990-91 में भारत में FDI का प्रवाह केवल $132 मिलियन था, जो 2000 तक बढ़कर $4 बिलियन हो गया। 2019-20 में, FDI का प्रवाह $74.39 बिलियन के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया।
यह वृद्धि विभिन्न क्षेत्रों में सरकार द्वारा उदारीकरण की नीतियों और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए उठाए गए कदमों का परिणाम थी। इससे भारतीय कंपनियों को वैश्विक तकनीक और प्रबंधन कौशल में सुधार करने का अवसर मिला, जिससे उनकी उत्पादकता और प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ी।
6.3 सेवा क्षेत्र का विस्तार:
सुधारों के बाद, भारत के सेवा क्षेत्र में तेज़ी से विकास हुआ। सूचना प्रौद्योगिकी (IT) और IT-सक्षम सेवाएं (ITES) इस विकास की प्रमुख धुरी बने। 1990 के दशक के उत्तरार्ध में, IT उद्योग ने भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्तर पर स्थापित किया।
उदाहरण के लिए, 1998-99 में IT और ITES का निर्यात $4 बिलियन था, जो 2019-20 में बढ़कर $147 बिलियन हो गया। आज, सेवा क्षेत्र भारत के GDP में लगभग 55% का योगदान देता है, और इस क्षेत्र में रोजगार के लाखों अवसर भी उत्पन्न हुए हैं।
6.4 गरीबी में कमी और सामाजिक सुधार:
आर्थिक सुधारों के बाद, भारत में गरीबी में उल्लेखनीय कमी देखी गई। 1993-94 में भारत की गरीबी दर लगभग 45% थी, जो 2011-12 में घटकर 22% रह गई। इस गिरावट का मुख्य कारण सुधारों के बाद आर्थिक विकास और रोजगार के नए अवसरों का सृजन था।
साथ ही, सरकार ने सामाजिक सुधारों के तहत शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में निवेश बढ़ाया, जिससे जीवन स्तर में सुधार हुआ। उदाहरण के लिए, 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (NREGA) लागू किया गया, जिसने ग्रामीण रोजगार में वृद्धि और गरीबी में कमी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
6.5 उद्योग और विनिर्माण क्षेत्र का विकास:
सुधारों के बाद, भारतीय उद्योग और विनिर्माण क्षेत्र में भी तेजी आई। निजीकरण और विनिवेश के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की कार्यक्षमता में सुधार हुआ, और निजी क्षेत्र को बढ़ावा मिला।
उदाहरण के लिए, 1991 के बाद भारत में ऑटोमोबाइल, फार्मास्यूटिकल्स, और टेक्सटाइल उद्योगों में तीव्र विकास हुआ। 2000-01 में भारत का कुल विनिर्माण उत्पादन $400 बिलियन था, जो 2019-20 में बढ़कर $2.6 ट्रिलियन हो गया। इससे न केवल घरेलू बाजार को फायदा हुआ, बल्कि भारतीय उत्पादों की वैश्विक स्तर पर मांग भी बढ़ी।
6.6 वैश्विक व्यापार में वृद्धि:
1991 के सुधारों के बाद भारत का वैश्विक व्यापार भी बढ़ा। आयात और निर्यात दोनों में वृद्धि हुई, और भारत ने वैश्विक बाजार में अपनी उपस्थिति को मजबूत किया।
1991 में भारत का कुल व्यापार (निर्यात + आयात) $44.83 बिलियन था, जो 2019-20 में बढ़कर $828 बिलियन हो गया। इसके साथ ही, भारत ने कई देशों के साथ द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर किए, जिससे व्यापार संबंधों में सुधार हुआ और भारतीय उत्पादों के लिए नए बाजार खुले।
6.7 वित्तीय क्षेत्र में स्थिरता और विकास:
सुधारों के बाद, भारत का वित्तीय क्षेत्र अधिक स्थिर और मजबूत हुआ। बैंकों का पुनर्गठन, गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPA) में कमी, और नई निजी बैंकों की स्थापना से वित्तीय प्रणाली में सुधार हुआ।
इसके साथ ही, भारतीय शेयर बाजार भी तेजी से विकसित हुआ। 1991 में, BSE सेंसेक्स लगभग 1000 अंक के आसपास था, जो 2020 में 40,000 अंकों के पार पहुंच गया। इससे भारतीय निवेशकों को बेहतर रिटर्न मिला और देश में पूंजी बाजार की संस्कृति का विकास हुआ।
6.8 मुद्रास्फीति और मुद्रास्फीति की स्थिरता:
सुधारों के बाद, भारतीय अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति दर को नियंत्रित किया गया। 1990-91 में मुद्रास्फीति दर 13.9% थी, जो 2000 के दशक में 4-5% के आसपास स्थिर हो गई।
मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने मौद्रिक नीति में सुधार किए और आपूर्ति श्रृंखला में सुधार कर मुद्रास्फीति के दबाव को कम किया। इससे देश में कीमतों की स्थिरता बनी रही, जो आर्थिक विकास के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करता है।
6.9 सामाजिक असमानता में बदलाव:
हालांकि सुधारों के बाद गरीबी में कमी आई, लेकिन सामाजिक असमानता एक चुनौती बनी रही। GINI कोइफिशिएंट, जो सामाजिक असमानता का मापक है, ने सुधारों के बाद भी असमानता में वृद्धि दर्शाई।
1983 में GINI कोइफिशिएंट 0.30 था, जो 2011-12 में बढ़कर 0.35 हो गया। यह दर्शाता है कि आर्थिक विकास के बावजूद आय वितरण में असमानता बनी रही, जो एक गंभीर सामाजिक मुद्दा है।
6.10 संरचनात्मक सुधार और नई चुनौतियाँ:
सुधारों के दीर्घकालिक प्रभावों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक बनाया, लेकिन नई चुनौतियाँ भी उत्पन्न हुईं।
– कृषि क्षेत्र की चुनौतियाँ: सुधारों के बाद, कृषि क्षेत्र में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में असंतोष बढ़ा। किसानों की आय में अपेक्षित वृद्धि न होने के कारण कृषि संकट गहराता गया।
– रोजगार सृजन की कमी: हालांकि आर्थिक वृद्धि दर में वृद्धि हुई, लेकिन रोजगार सृजन में अपेक्षित तेजी नहीं आई। इस कारण ‘जॉबलेस ग्रोथ’ का मुद्दा उठा, जिससे युवा आबादी में बेरोजगारी की समस्या बनी रही।
इन सुधारों के प्रभावों का समग्र आकलन यह दर्शाता है कि 1991 के आर्थिक सुधारों ने भारत की आर्थिक दिशा को बदल दिया। यह सुधार भारत को एक वैश्विक आर्थिक शक्ति बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुए, और इससे देश को दीर्घकालिक आर्थिक विकास का लाभ मिला। हालांकि, सामाजिक असमानता, रोजगार सृजन और कृषि क्षेत्र में सुधार जैसे मुद्दे अभी भी नीतिगत चुनौतियों के रूप में बने हुए हैं, जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
1991 के आर्थिक सुधारों ने भारत की दिशा और दशा दोनों को बदल दिया। ये सुधार उस समय की जटिल और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में लाए गए थे, जब भारतीय अर्थव्यवस्था गंभीर संकट का सामना कर रही थी। सुधारों ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित किया, बल्कि इसे विश्व पटल पर मजबूती से स्थापित भी किया।
आर्थिक सुधारों ने देश में तेज़ी से विकास, विदेशी निवेश में बढ़ोतरी, उपभोक्ता बाजार के विस्तार और रोजगार के नए अवसरों का सृजन किया। वहीं, दूसरी ओर, इन सुधारों ने सामाजिक असमानता, क्षेत्रीय असंतुलन और राजनीतिक अस्थिरता जैसे चुनौतियों को भी जन्म दिया।
समग्र रूप से, 1991 के सुधारों ने भारत को एक नई पहचान दी—एक आत्मनिर्भर और उदारवादी अर्थव्यवस्था के रूप में। उन्होंने भारत को वैश्विक आर्थिक परिवेश में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया और भविष्य की संभावनाओं के लिए दरवाजे खोले।
आज, तीन दशकों बाद, इन सुधारों के दीर्घकालिक प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। भारत एक उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति के रूप में अपनी पहचान बना चुका है, और यह कहना गलत नहीं होगा कि 1991 के आर्थिक सुधारों ने इस सफर की नींव रखी। सुधारों की यह यात्रा आने वाले समय में भारत के विकास और समृद्धि के लिए प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी।