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पहला कांग्रेस अधिवेशन, 1885 |
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना: पृष्ठभूमि
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई थी, लेकिन इसके पीछे एक लंबी और जटिल सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि थी, जिसने इस संगठन की नींव रखी। यह सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना नहीं थी, बल्कि औपनिवेशिक भारत में बदलावों की परिणति थी, जिनसे भारतीय जनता और बुद्धिजीवियों के बीच राजनीतिक चेतना जाग्रत हुई। इन कारकों को विस्तार से समझना जरूरी है, क्योंकि इन्हीं परिस्थितियों ने कांग्रेस के निर्माण को प्रेरित किया।
सामाजिक परिस्थिति: नवजागरण और नई चेतना
19वीं शताब्दी के मध्य तक भारत में सामाजिक सुधार आंदोलनों का उदय हो चुका था, जिसने समाज में नई चेतना का संचार किया। राजा राममोहन राय के नेतृत्व में बंगाल नवजागरण की शुरुआत हुई, जिसने सती प्रथा, बाल विवाह और जाति प्रथा जैसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। इसी दौर में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भी भारतीय समाज को गहराई से प्रभावित किया। मैकाले के मिनट्स ऑफ एजुकेशन (1835) के बाद से पश्चिमी शिक्षा और विचारधाराएँ भारतीयों के बीच फैलने लगीं। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीयों में एक अंग्रेजी शिक्षित वर्ग तैयार हुआ, जिसने भारतीय समाज और ब्रिटिश शासन के प्रति एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित किया।
इस नई शिक्षा और जागरूकता ने भारतीयों में राजनीतिक और सामाजिक रूप से एकजुट होने की भावना को बढ़ावा दिया। इस वर्ग के लोग अंग्रेजी भाषा में संवाद करने में सक्षम थे, जिससे वे ब्रिटिश नीतियों और अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक घटनाओं से भी अवगत हो सके। इन बौद्धिक नेताओं ने भारतीय समाज में सुधार के साथ-साथ एक संगठित राजनीतिक मंच की आवश्यकता को महसूस किया, जहाँ से भारतीयों की आवाज़ को प्रभावी ढंग से ब्रिटिश सरकार तक पहुँचाया जा सके।
राजनीतिक परिस्थिति: अंग्रेजों की विभाजनकारी नीतियाँ
19वीं सदी में भारतीय राजनीति ब्रिटिश सरकार की विभाजनकारी नीतियों से प्रभावित हो रही थी। अंग्रेजों ने “फूट डालो और राज करो” की नीति अपनाई, जिससे भारतीय समाज को धर्म, जाति और क्षेत्र के आधार पर विभाजित किया गया। 1857 के विद्रोह ने भारतीयों के मन में अंग्रेजों के प्रति असंतोष की गहरी भावना उत्पन्न की। इस विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत पर अपना नियंत्रण और अधिक कड़ा कर लिया, लेकिन भारतीयों के अधिकारों और उनकी समस्याओं के समाधान के प्रति कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाए गए।
इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने 1861 में इंडियन काउंसिल एक्ट और 1878 में वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट जैसे कानून बनाए, जिनका उद्देश्य भारतीयों की राजनीतिक स्वतंत्रता को सीमित करना था। यह नीतियाँ भारतीय बुद्धिजीवियों और नेताओं के लिए स्पष्ट संकेत थीं कि ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक संगठित राजनीतिक आंदोलन की आवश्यकता है। सुरेंद्रनाथ बनर्जी और अन्य नेताओं ने पहले से ही 1876 में भारतीय राष्ट्रीय संघ की स्थापना की थी, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ संगठित रूप से संघर्ष करना था। इन प्रारंभिक प्रयासों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
अर्थव्यवस्था: ब्रिटिश शोषण की नीतियाँ
भारतीय अर्थव्यवस्था ब्रिटिश शासन के तहत गहरे शोषण का शिकार हो चुकी थी। भारत को कच्चे माल का स्रोत और ब्रिटेन के लिए एक तैयार माल का बाजार बना दिया गया था, जिससे भारतीय कारीगरों और किसानों की स्थिति गंभीर रूप से प्रभावित हुई। ब्रिटिश नीतियों ने भारतीय उद्योगों, खासकर कपड़ा उद्योग, को बर्बाद कर दिया। इसके अलावा, भारतीय किसानों पर अत्यधिक कर लगाए गए, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और भी दयनीय हो गई।
दादाभाई नौरोजी ने ब्रिटिश शासन के तहत भारतीय अर्थव्यवस्था के शोषण को स्पष्ट रूप से उजागर किया और इसे “Drain of Wealth” कहा, जिसमें भारत से ब्रिटेन धन और संसाधनों का बड़े पैमाने पर हस्तांतरण किया गया। यह आर्थिक शोषण भारतीय समाज के हर तबके को प्रभावित कर रहा था, और इस कारण लोगों में अंग्रेजी शासन के प्रति असंतोष तेजी से बढ़ रहा था। आर्थिक समस्याओं ने भारतीय जनता को यह महसूस कराया कि ब्रिटिश शासन का अंत ही उनके लिए राहत का रास्ता हो सकता है।
शिक्षा और पश्चिमी विचारधाराओं का प्रभाव
अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों में पश्चिमी विचारधाराओं के प्रति एक गहरा आकर्षण पैदा किया। थॉमस मैकाले के एजुकेशन मिनट्स ने भारतीय शिक्षा प्रणाली को पूरी तरह से बदल दिया और इसका असर पूरे भारत में महसूस किया गया। भारतीयों के एक बड़े वर्ग ने पश्चिमी विचारों, जैसे कि स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र, को आत्मसात किया।
बाल गंगाधर तिलक, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और दादाभाई नौरोजी जैसे नेताओं ने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की और पश्चिमी दुनिया के राजनीतिक सिद्धांतों से प्रभावित हुए। इन नेताओं ने महसूस किया कि भारत को भी एक संगठित और प्रभावी राजनीतिक आंदोलन की जरूरत है, जो औपनिवेशिक शासन के खिलाफ आवाज उठा सके। इसी जागरूकता और शिक्षा के परिणामस्वरूप कांग्रेस की स्थापना हुई, जिसने राजनीतिक स्तर पर भारतीयों के अधिकारों और समस्याओं को ब्रिटिश सरकार के समक्ष प्रस्तुत करने का बीड़ा उठाया।
अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का प्रभाव
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर केवल घरेलू परिस्थितियाँ ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय घटनाएँ भी गहरा प्रभाव डाल रही थीं। 19वीं सदी के अंत तक दुनिया भर में कई स्वतंत्रता आंदोलनों का उदय हो चुका था, जिनसे भारतीय नेता प्रेरित हो रहे थे। फ्रांसीसी क्रांति और अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम जैसे घटनाक्रमों ने भारतीय नेताओं को दिखाया कि स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया जा सकता है और सफल भी हुआ जा सकता है। इसके साथ ही आयरलैंड के फेनी आंदोलन और इटली के एकीकरण जैसे उदाहरणों ने भी भारतीयों को औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संगठित होने की प्रेरणा दी।
भारतीय बुद्धिजीवियों ने महसूस किया कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष चल रहे हैं, और भारत को भी इसी दिशा में कदम बढ़ाने की आवश्यकता है। इस वैश्विक सोच के साथ ही भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ, जो कांग्रेस की स्थापना की दिशा में एक बड़ा कारक था।
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एलन ऑक्टेवियन ह्यूम , सीबी आईसीएस (1829-1912) |
ए.ओ. ह्यूम और कांग्रेस की उत्पत्ति का विवाद
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) की स्थापना पर चर्चा करते समय ए.ओ. ह्यूम की भूमिका को लेकर कई ऐतिहासिक विवाद सामने आते हैं। 1885 में स्थापित कांग्रेस, एक राजनीतिक मंच के रूप में विकसित हुई, लेकिन इसकी उत्पत्ति और उद्देश्य को लेकर सवाल उठाए जाते रहे हैं। इस बहस का मुख्य मुद्दा यह है कि कांग्रेस की स्थापना क्या भारतीय नेताओं की स्वतंत्र पहल थी, या यह ब्रिटिश सरकार द्वारा सोची-समझी रणनीति का हिस्सा थी, जिसके तहत ए.ओ. ह्यूम ने इसे एक ‘सेफ्टी वॉल्व’ (सुरक्षा वाल्व) के रूप में बनाया था?
ए.ओ. ह्यूम: एक ब्रिटिश अधिकारी और उनके उद्देश्यों की समीक्षा
एलेन ऑक्टेवियन ह्यूम (A.O. Hume) ब्रिटिश सिविल सेवक और भारत में एक उच्च पदस्थ अधिकारी थे। उनका जन्म 1829 में हुआ था, और वे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में कार्यरत थे। ह्यूम ने 1857 के विद्रोह के बाद भारतीय समाज में व्याप्त असंतोष और विद्रोह की भावना को नजदीक से देखा था। इस विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत में सत्ता का केंद्रीकरण किया और भारतीयों पर कड़े प्रतिबंध लगाए। ह्यूम, भारतीय समाज में बढ़ती राजनीतिक चेतना और असंतोष के प्रति सजग थे, और उन्होंने महसूस किया कि यदि भारतीयों को अपनी शिकायतें और विचार व्यक्त करने के लिए कोई मंच नहीं मिला, तो भविष्य में एक और बड़ा विद्रोह हो सकता है।
ह्यूम के अनुसार, भारतीय जनता को एक राजनीतिक मंच देने से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह की संभावना कम हो सकती थी। 1870 के दशक के अंत में, उन्होंने देखा कि भारतीय समाज में व्यापक असंतोष उभर रहा है, विशेष रूप से ब्रिटिश शासन के शोषणकारी नीतियों के कारण। 1878-79 के अकाल और ब्रिटिश सरकार की कठोर कर नीतियों ने जनता की हालत और खराब कर दी थी। ह्यूम ने इन मुद्दों को देखते हुए यह सुझाव दिया कि एक राजनीतिक संगठन बनाया जाए जो भारतीयों की मांगों को नियंत्रित तरीके से ब्रिटिश सरकार तक पहुँचा सके। इसे ‘सेफ्टी वॉल्व थ्योरी’ कहा गया, जिसका अर्थ था कि अगर भारतीयों को अपनी असंतुष्टियाँ शांतिपूर्ण और संगठित तरीके से व्यक्त करने का अवसर मिलेगा, तो विद्रोह की स्थिति नहीं बनेगी।
सेफ्टी वॉल्व थ्योरी: ह्यूम की सोच या ब्रिटिश नीति?
सेफ्टी वॉल्व थ्योरी के अनुसार, ए.ओ. ह्यूम और ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना इस उद्देश्य से की ताकि भारतीय समाज में बढ़ती असंतोष और राजनीतिक चेतना को एक नियंत्रित दिशा दी जा सके। ह्यूम ने स्वयं कई पत्रों में यह उल्लेख किया कि 1870 और 1880 के दशक के दौरान भारतीय समाज में एक और विद्रोह की आशंका थी। उन्होंने अपने पत्रों में ब्रिटिश सरकार को बार-बार आगाह किया कि अगर भारतीयों को एक मंच नहीं दिया गया, तो यह असंतोष बड़ा रूप ले सकता है।
इस सिद्धांत का समर्थन करने वाले तर्क देते हैं कि कांग्रेस की स्थापना केवल एक मंच के रूप में की गई थी, जहाँ भारतीय नेता अपनी शिकायतों और समस्याओं को ब्रिटिश सरकार के सामने रख सकें, लेकिन यह संगठन इस हद तक प्रभावी न हो कि वह ब्रिटिश शासन के लिए खतरा बने। लॉर्ड डफरिन, जो उस समय भारत के वायसराय थे, ने भी ह्यूम के विचारों का समर्थन किया और माना कि एक ऐसा संगठन होना चाहिए, जहाँ से भारतीय नेताओं को नियंत्रित किया जा सके।
सुरक्षा वाल्व की इस परिकल्पना को ऐतिहासिक प्रमाण बनाने में सात खंडों वाली उस ‘गोपनीय रिपोर्ट’ की अहम भूमिका रही, जिसके बारे में ह्यूम ने कहा था कि उन्होंने 1878 की गर्मियों में शिमला में इसे पढ़ा था। इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद उन्हें पूरी तरह यकीन हो गया था कि भारत में असंतोष उबल रहा है और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक बड़ी साजिश रची जा रही है। ह्यूम का मानना था कि निचले तबके के लोग ब्रिटिश शासन को हिंसा के जरिए उखाड़ फेंकने की तैयारी में हैं।
1857 के विद्रोह में भारतीय राजाओं, नवाबों, तालुकेदारों और जमींदारों का नेतृत्व था, लेकिन ह्यूम के अनुसार, इस नए विद्रोह में समाज का अंतिम व्यक्ति भी हिंसक आंदोलन के लिए तैयार हो रहा था।
यह जानना जरूरी है कि इन सात खंडों का रहस्य क्या है। ह्यूम की जीवनी, जो 1913 में प्रकाशित हुई थी, में पहली बार इस गोपनीय रिपोर्ट का जिक्र किया गया था। उसी के बाद सुरक्षा वाल्व सिद्धांत
का जन्म होता है। सिद्धांत यह मानता है कि ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना इस उम्मीद के साथ की थी कि यह भारतीयों के बीच बढ़ते असंतोष के लिए “सुरक्षा वाल्व” के रूप में काम करेगी। इस धारणा का समर्थन लाला लाजपत राय सहित चरमपंथी नेताओं ने किया था ।
रजनी पाल्मे दत्त को षड्यंत्र सिद्धांत की शुरुआत का श्रेय दिया जाता है, जो ‘सुरक्षा वाल्व’ अवधारणा से उभरा। दत्त के अनुसार, कांग्रेस का जन्म भारत में एक लोकप्रिय विद्रोह को दबाने की साजिश से हुआ था, और उनका मानना था कि भारत के बुर्जुआ (मध्यम वर्ग) नेता भी इस योजना में शामिल थे।
इस सिद्धांत के उलट गोपाल कृष्ण गोखले ने “लाइटनिंग कंडक्टर सिद्धांत” का प्रस्ताव रखा, जिसमें यह बताया गया कि कांग्रेस राजनीतिक रूप से जागरूक भारतीयों की इच्छाओं और उनकी राजनीतिक व आर्थिक मांगों का प्रतिनिधित्व करने वाली एक राष्ट्रीय इकाई के रूप में उभरी। आधुनिक भारतीय इतिहासकार मानते हैं कि प्रारंभिक कांग्रेस नेताओं ने ह्यूम को एक उत्प्रेरक के रूप में इस्तेमाल किया, जिससे राष्ट्रवादी शक्तियों को संगठित किया जा सके। भले ही उन्होंने “सेफ्टी वाल्व” का मुखौटा बनाए रखा, लेकिन उनका असली उद्देश्य राष्ट्रीय एकता और जागरूकता को बढ़ावा देना था।
भारतीय नेताओं की भूमिका: स्वतंत्र राजनीतिक जागरूकता
हालांकि ह्यूम और ब्रिटिश अधिकारियों की यह योजना थी कि कांग्रेस एक ‘सुरक्षा वाल्व’ की तरह कार्य करेगी, लेकिन भारतीय नेताओं ने इसे एक अलग दृष्टिकोण से देखा। दादाभाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, फिरोजशाह मेहता, और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं ने पहले ही विभिन्न संगठनों के माध्यम से भारतीय समाज को संगठित करना शुरू कर दिया था।
1883 में, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और आनंद मोहन बोस ने इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की, जो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ राजनीतिक अधिकारों की माँग करने वाला एक अग्रणी संगठन था। दादाभाई नौरोजी ने ब्रिटेन में रहते हुए ‘Drain of Wealth’ की अवधारणा पेश की, जिसमें उन्होंने दिखाया कि कैसे ब्रिटिश शासन भारत की संपत्ति और संसाधनों का शोषण कर रहा है। यह अवधारणा भारतीय नेताओं के बीच तेजी से फैल गई, और उन्होंने महसूस किया कि भारतीय जनता को एक संगठित राजनीतिक मंच की आवश्यकता है, जहाँ वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर सकें।
यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस की स्थापना भारतीय नेताओं की एक लंबे समय से चली आ रही राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता का परिणाम थी। दादाभाई नौरोजी और सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे नेताओं ने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों को एक साथ लाने और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करने की दिशा में पहले से ही कई प्रयास किए थे।
शुरुआत में कांग्रेस में न तो मजबूत एकजुटता थी, न ही नियमित सदस्यता या कोई केंद्रीय कार्यालय। इसके विचार भी काफी नरम और उदारवादी थे। लेकिन अगले साठ वर्षों में, कांग्रेस ने भारत की स्वतंत्रता, संप्रभुता और आत्मनिर्भरता की आकांक्षाओं को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ब्रिटिश सरकार और ह्यूम की योजना: द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण
इस विवाद का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि ब्रिटिश सरकार के भीतर भी ए.ओ. ह्यूम की पहल को लेकर मतभेद थे। कुछ ब्रिटिश अधिकारी यह मानते थे कि भारतीयों को राजनीतिक मंच देना भविष्य में ब्रिटिश शासन के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। लॉर्ड कर्ज़न जैसे अधिकारी इस विचार के खिलाफ थे कि भारतीयों को संगठित होने का कोई मंच दिया जाए। लेकिन दूसरी ओर, लॉर्ड डफरिन और अन्य अधिकारियों ने इसे एक आवश्यक कदम माना, जिससे भारतीय जनता के भीतर बढ़ते असंतोष को नियंत्रित किया जा सके।
ह्यूम ने अपने पत्रों में यह भी स्पष्ट किया कि ब्रिटिश सरकार की नीतियाँ भारतीय समाज के लिए कितनी हानिकारक साबित हो रही हैं, और उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से भारतीयों के साथ न्याय करने का आग्रह किया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विकास: भारतीय नेताओं का प्रभुत्व
कांग्रेस की स्थापना के बाद, भारतीय नेताओं ने इसे अपने हाथों में लेना शुरू किया। प्रारंभ में कांग्रेस एक शिष्टमंडल के रूप में कार्य करती थी, जो ब्रिटिश सरकार के साथ संवाद करती थी। वोमेश चंद्र बनर्जी को कांग्रेस का पहला अध्यक्ष बनाया गया, और इसके पहले अधिवेशन में 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। भारतीय नेताओं ने कांग्रेस को जल्द ही एक राष्ट्रवादी संगठन में बदल दिया।
1905 के बंगाल विभाजन के खिलाफ कांग्रेस ने व्यापक आंदोलन चलाया, जिसने इसे पूरी तरह से एक राष्ट्रवादी मंच बना दिया। इसके बाद, कांग्रेस ने धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ संघर्ष को तेज किया, और इसका नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, और बिपिन चंद्र पाल जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने संभाल लिया।
कांग्रेस की स्थापना पर विवाद: इतिहासकारों के मतभेद
इतिहासकारों के बीच इस विषय पर मतभेद रहे हैं। ब्रिटिश इतिहासकार मानते हैं कि कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्यवाद की एक सोच-समझी योजना थी, जो भारतीय नेताओं को नियंत्रित करने और असंतोष को शांत करने का एक तरीका था।
वहीं, भारतीय इतिहासकार जैसे बिपिन चंद्र और सुमित सरकार का मानना है कि कांग्रेस की स्थापना भारतीय राजनीतिक चेतना और स्वतंत्रता संग्राम की स्वाभाविक प्रक्रिया का परिणाम थी। कांग्रेस ने धीरे-धीरे एक राष्ट्रवादी आंदोलन का रूप लिया और भारतीय स्वतंत्रता की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से देखा जाए, तो कांग्रेस की स्थापना, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभिक और महत्वपूर्ण चरण था, जो ह्यूम की पहल से परे जाकर भारतीय नेताओं के नियंत्रण में आ गया।
बिपिन चंद्र के अनुसार, ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में एक तड़ित चालक या उत्प्रेरक की भूमिका निभाई। इसने राष्ट्रवादियों को एक मंच पर इकट्ठा होने में मदद की और कांग्रेस के गठन का मार्ग प्रशस्त किया। इसी प्रक्रिया के तहत ‘सेफ्टी वाल्व’ की अवधारणा का जन्म हुआ, जिसका उद्देश्य था कि भारतीय जनता के असंतोष और नाराजगी को एक संगठित मंच के माध्यम से ब्रिटिश सरकार तक पहुंचाया जा सके, ताकि हिंसक विद्रोहों से बचा जा सके और जनता की आवाज़ को नियंत्रित रूप से सुना जा सके।
इस प्रकार, ह्यूम की पहल ने न केवल कांग्रेस के गठन को संभव बनाया, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन को एक वैध और सुरक्षित मार्ग मिल सके, जिससे ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष को सही दिशा में मोड़ा जा सके।
1885 में, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की गई, तो इसका उद्देश्य भारतीयों के राजनीतिक अधिकारों को संरक्षित करना था। इसके पहले अधिवेशन में 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया, और इस संगठन का नेतृत्व प्रमुख भारतीय नेताओं के हाथ में था।
ब्रिटिश अधिकारियों ने कांग्रेस की स्थापना के समय इसे एक नियंत्रणाधीन संस्था के रूप में देखा, जो भारतीय असंतोष को शांतिपूर्ण तरीके से व्यक्त कर सके। लॉर्ड डफरिन, जो उस समय के वायसराय थे, ने ह्यूम के विचारों का समर्थन किया और इसे एक व्यावहारिक समाधान माना।
हालाँकि, कांग्रेस ने जल्द ही भारतीय नेताओं की स्वायत्तता और राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने का मार्ग अपनाया। 1905 में बंगाल विभाजन के खिलाफ कांग्रेस ने एक बड़ा आंदोलन शुरू किया, जिसमें बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, और बिपिन चंद्र पाल जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1909 के मिण्टो-मोरली सुधार और 1919 के रॉलेट एक्ट के खिलाफ कांग्रेस ने व्यापक विरोध प्रदर्शन किए। यह स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस केवल एक ब्रिटिश “सेफ्टी वॉल्व” नहीं थी, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण मंच बन गई थी।
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भारत के 8वें वायसराय लॉर्ड डफ़रिन |
कांग्रेस की प्रारंभिक नीतियाँ और उनके प्रभाव
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) की प्रारंभिक नीतियाँ और गतिविधियाँ संगठन के विकास और ब्रिटिश सरकार के साथ संबंधों को स्पष्ट करती हैं। इसके उद्देश्यों में भारत के सामाजिक और आर्थिक सुधार, और ब्रिटिश शासन के साथ बेहतर संवाद स्थापित करने की कोशिश शामिल थी।
कांग्रेस के उद्देश्यों और लक्ष्यों को उसके पहले अध्यक्ष डब्ल्यू.सी. बनर्जी ने बहुत साफ़ तरीके से परिभाषित किया था। उनके अनुसार, कांग्रेस के उद्देश्य इस प्रकार थे:
• देशवासियों के बीच व्यक्तिगत स्तर पर आपसी समझ और मित्रता को बढ़ावा देना।
• जाति, धर्म या प्रांत के आधार पर मौजूद सभी पूर्वाग्रहों को समाप्त करना।
• राष्ट्रीय एकता की भावना को मजबूत करना।
• समाज की ज्वलंत समस्याओं पर शिक्षित वर्ग के विचारों को एकत्रित और संरक्षित करना।
• जनहित के लिए भविष्य की कार्यवाहियों की योजना बनाना और उनके लिए रूपरेखा तैयार करना।
प्रारंभिक गतिविधियाँ और कार्यक्रम
प्रारंभिक वर्षों में, कांग्रेस ने अपनी नीतियों को लागू करने और सुधारात्मक कार्यक्रमों को अपनाने के लिए विभिन्न गतिविधियाँ कीं:
शिकायतें और रिपोर्ट:
कांग्रेस ने विभिन्न मुद्दों पर रिपोर्ट तैयार की और ब्रिटिश सरकार के सामने पेश की। उदाहरण के लिए, 1889 में कांग्रेस ने एक पिटिशन प्रस्तुत किया जिसमें भारतीय समाज की समस्याओं और सुधार की मांग की गई।
सामाजिक और आर्थिक सुधार:
कांग्रेस ने भारतीय समाज के सामाजिक और आर्थिक सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया। 1901 में दादाभाई नौरोजी द्वारा प्रस्तुत Drain of Wealth थ्योरी ने ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीतियों की आलोचना की और भारतीय संसाधनों के शोषण पर प्रकाश डाला।
सहयोग और प्रतिनिधित्व:
कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग की पेशकश की, जबकि उसने सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाने पर जोर दिया। 1905 में कांग्रेस ने बंगाल विभाजन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया, जो कि ब्रिटिश सरकार की एक विभाजनकारी नीति थी।
ब्रिटिश अधिकारियों की प्रतिक्रिया:
प्रारंभ में, ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस की सुधारात्मक मांगों को आंशिक रूप से स्वीकार किया। हालांकि, जैसे-जैसे कांग्रेस ने अधिक अधिकार और स्वायत्तता की मांग की, ब्रिटिश अधिकारियों ने इसे नियंत्रित करने की कोशिश की।
कांग्रेस की प्रारंभिक नीतियों के प्रभाव
कांग्रेस की प्रारंभिक नीतियों और गतिविधियों ने भारतीय राजनीति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला:
संविधानिक सुधार:
कांग्रेस की प्रारंभिक नीतियों में ब्रिटिश सरकार के साथ संवाद स्थापित करने, संवैधानिक सुधारों की मांग करने, और भारतीयों के राजनीतिक अधिकारों की रक्षा करने पर जोर था। इसके तहत 1892 के इण्डियन काउंसिल एक्ट और 1909 के मिण्टो-मोरली सुधार जैसे सुधारों की मांग की गई। ये सुधार भारतीयों को विधायिका में अधिक प्रतिनिधित्व और प्रशासन में भागीदारी प्रदान करते थे।
राष्ट्रीय जागरूकता:
कांग्रेस की गतिविधियों और कार्यक्रमों ने भारतीय समाज में राष्ट्रीय जागरूकता और राजनीतिक चेतना को बढ़ाया।
स्वतंत्रता संग्राम:
कांग्रेस के भीतर उत्पन्न हुए नए नेतृत्व और आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी और अंततः ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सशक्त आंदोलन का रूप लिया।