दादाभाई नौरोजी: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आदर्श नेता की जीवनी

दादाभाई नौरोजी की तस्वीर
दादाभाई नौरोजी

दादाभाई नौरोजी (4 सितंबर 1825 – 30 जून 1917), जिन्हें “Grand Old Man Of India” और “Unofficial Ambassador Of India” के नाम से भी जाना जाता है, एक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राजनीतिक नेता, व्यापारी, विद्वान और लेखक थे। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 2वें, 9वें, और 22वें अध्यक्ष के रूप में सेवा दी।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितंबर 1825 को  नवसारी में गुजराती बोलने वाले पारसी ज़ोरोअस्ट्रियन परिवार में हुआ था। उनका परिवार उस समय व्यापार और सामाजिक कार्यों में सक्रिय था। पारसी समुदाय का समाज में एक विशेष स्थान था, और उनके मूल्यों में शिक्षा, संस्कृति, और धर्म को महत्व दिया जाता था। इस पृष्ठभूमि ने नौरोजी के प्रारंभिक जीवन को गहराई से प्रभावित किया।
जब नौरोजी केवल चार वर्ष के थे, उनके पिता नौरोजी पलांजी डोरडी का निधन हो गया, जिससे उनका बचपन चुनौतियों से भरा रहा। उनकी मां, मनेखबाई, एक साधारण महिला थीं, लेकिन उन्होंने नौरोजी की शिक्षा को लेकर कभी समझौता नहीं किया। मनेखबाई ने अपने बेटे को यह सिखाया कि कठिनाइयों का सामना करना जीवन का हिस्सा है, और शिक्षा ही वह साधन है जिससे न केवल व्यक्तिगत उन्नति बल्कि सामाजिक उत्थान भी संभव है।
नौरोजी की प्रारंभिक शिक्षा बॉम्बे के एक पारसी स्कूल में हुई। जिसके लिए बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय ने उन्हें समर्थन प्रदान किया। स्कूल में उन्होंने गणित और विज्ञान में गहरी रुचि दिखाई। यह वह दौर था जब भारत में पारंपरिक शिक्षा का प्रभुत्व था, और पश्चिमी शिक्षा प्रणाली धीरे-धीरे भारत में अपनी जगह बना रही थी। दादाभाई ने इस नई शिक्षा प्रणाली को अपनाया और इसका लाभ उठाया। उनका झुकाव आधुनिक विज्ञान और गणित की ओर था, जो उन्हें पश्चिमी विचारधारा के प्रति आकर्षित करता था।
नौरोजी ने बचपन से ही पढ़ाई में असाधारण रुचि दिखाई। पारसी धर्म में ज्ञान को सर्वोच्च माना जाता है, और इसी परंपरा ने नौरोजी को भी प्रभावित किया। वे अक्सर अपने घर के पास के पुस्तकालय में जाकर किताबें पढ़ते थे और अपने शिक्षकों से लगातार सवाल पूछते रहते थे। एक कहानी है कि नौरोजी अपने स्कूल के दिनों में जब गणित के किसी जटिल सवाल को हल कर लेते थे, तो वे बहुत उत्साहित हो जाते थे। उनके शिक्षक उनकी इस लगन को देखकर कहते थे, “यह बच्चा एक दिन बड़ा काम करेगा।” कहा जाता है कि नौरोजी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा के दौरान कई बार आर्थिक कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन उनके जुनून और ज्ञान की प्यास ने उन्हें कभी हार नहीं मानने दी।

एल्फिंस्टन कॉलेज में गणित के पहले भारतीय प्रोफेसर

दादाभाई नौरोजी के जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब वे एल्फिंस्टन कॉलेज में गणित के पहले भारतीय प्रोफेसर बने। यह 1850 का दशक था, जब ब्रिटिश भारत में शिक्षा प्रणाली में भी अंग्रेजी का प्रभुत्व था। उस समय किसी भारतीय का प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थान में प्रोफेसर बनना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि थी। एल्फिंस्टन कॉलेज, बॉम्बे में स्थापित प्रमुख संस्थानों में से एक था, और यहां किसी भारतीय का प्रोफेसर बनना ब्रिटिश प्रशासनिक और सामाजिक संरचना के खिलाफ एक साहसिक कदम था।
उन्होनें,1 अगस्त 1851 को रहनुमाई मज़दायसन सभा की स्थापना की। इसका मुख्य उद्देश्य ज़ोरोअस्ट्रियन धर्म को उसकी मूल पवित्रता और सादगी में वापस लाना था। इसके साथ ही, 1854 में, उन्होंने गुजराती में एक पखवाड़ा पत्रिका, रस्त गोफ्तार (सत्य कथक), शुरू की। इस पत्रिका ने ज़ोरोअस्ट्रियन विचारों को स्पष्ट करने और पारसी सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देने का कार्य किया।
इस समय के आसपास, दादाभाई नौरोजी ने एक और समाचार पत्र, “द वॉयस ऑफ इंडिया,” भी प्रकाशित किया। दिसंबर 1855 में, उन्हें बॉम्बे के एल्फिंस्टन कॉलेज में गणित और प्राकृतिक दर्शन के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया, और वे इस अकादमिक पद पर नियुक्त होने वाले पहले भारतीय बने।
एल्फिंस्टन कॉलेज में नौरोजी की नियुक्ति ने कई सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाओं को तोड़ा। यह उस दौर की बात है जब अंग्रेज भारतीयों को शिक्षा के क्षेत्र में बराबरी का दर्जा नहीं देते थे। नौरोजी की इस नियुक्ति ने यह साबित कर दिया कि भारतीय भी पश्चिमी शिक्षा में माहिर हो सकते हैं और उच्च पदों पर आसीन हो सकते हैं। उन्होंने न केवल गणित और विज्ञान में अपनी विशेषज्ञता साबित की, बल्कि अपने शिक्षण कौशल से छात्रों और सहकर्मियों पर भी गहरा प्रभाव डाला।
एल्फिंस्टन कॉलेज में उनकी नियुक्ति ने न केवल शिक्षा के क्षेत्र में भारतीयों के लिए नए रास्ते खोले, बल्कि यह ब्रिटिश सत्ता को यह भी दिखाया कि भारतीय ज्ञान और योग्यता में किसी से कम नहीं हैं।
दादाभाई नौरोजी पर 1963 में जारी किया गया डाक टिकट
1963 में जारी किया गया डाक टिकट 

दादाभाई नौरोजी का व्यापारिक करियर और भारतीयों के हितों की रक्षा

दादाभाई नौरोजी का व्यापारिक करियर केवल आर्थिक सफलता की कहानी नहीं है, बल्कि इंग्लैंड में भारतीयों के हितों की रक्षा और भेदभाव के खिलाफ जागरूकता फैलाने के उनके प्रयासों की भी कहानी है। 

इंग्लैंड में कपास व्यापार में कदम रखना

1855 में, वे लंदन गए और Cama & Co में साझेदार बन गए। उन्होंने ब्रिटेन में पहली भारतीय कंपनी के लिए लिवरपूल में एक शाखा खोली। हालांकि, तीन वर्षों के भीतर, नैतिक कारणों के चलते उन्होंने इस साझेदारी से इस्तीफा दे दिया। 1859 में, नौरोजी ने अपनी खुद की कपास व्यापार कंपनी, दादाभाई नौरोजी एंड कंपनी, स्थापित की। दादाभाई नौरोजी ने इंग्लैंड में जब कपास व्यापार में कदम रखा, उस समय इंग्लैंड में कपास की मांग में वृद्धि हो रही थी, विशेषकर भारतीय कपास की। नौरोजी ने इंग्लैंड में भारतीय कपास की बिक्री को बढ़ावा देने के लिए कंपनी की स्थापना की, जो भारतीय कपास का निर्यात करती थी। उनके व्यापारिक प्रयासों ने भारतीय कपास को ब्रिटिश बाजार में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया। इसके साथ ही, 1861 में, उन्होंने मंछरजी होर्मुसजी कमा के साथ मिलकर “द ज़ोरोअस्ट्रियन ट्रस्ट फंड्स ऑफ यूरोप” की भी स्थापना की।
इंग्लैंड में अपने व्यापारिक अनुभव के दौरान, नौरोजी ने भारतीय व्यापारियों और श्रमिकों के खिलाफ भेदभाव का सामना किया। ब्रिटिश समाज में भारतीयों को बहुत सी सामाजिक और व्यावसायिक बाधाओं का सामना करना पड़ता था। नौरोजी ने इस भेदभाव को उजागर करने और भारतीय व्यापारियों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए कई सक्रिय कदम उठाए। 

भारतीयों के खिलाफ भेदभाव के खिलाफ जागरूकता फैलाना

नौरोजी ने इंग्लैंड में भारतीयों के खिलाफ भेदभाव को समाप्त करने के लिए कई प्रयास किए। उन्होंने भारतीय समाज की समस्याओं को ब्रिटिश समाज और सरकार के सामने लाने के लिए लेखन और सार्वजनिक भाषणों का उपयोग किया। 
1865 में, दादाभाई नौरोजी ने ‘ लंदन इंडियन सोसायटी ‘ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य भारतीय राजनीतिक, सामाजिक, और साहित्यिक मुद्दों पर चर्चा करना था। 1867 में, उन्होंने ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की भी स्थापना की, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पूर्ववर्ती संगठन था। इसका लक्ष्य था ब्रिटिश जनता के सामने भारतीय दृष्टिकोण को प्रस्तुत करना। इस संघ ने लंदन की एथनोलॉजिकल सोसाइटी द्वारा एशियाई लोगों की यूरोपियनों के मुकाबले नीचता साबित करने की कोशिश का प्रतिकार किया। संघ को जल्द ही प्रमुख अंग्रेजों का समर्थन मिला और इसका प्रभाव ब्रिटिश संसद में बढ़ने लगा। इसके शाखाएँ मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में भी खुल गईं।
1867 में, नौरोजी ने “लैंड एंड द ब्रिटिश इम्पायर” नामक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर भारतीयों के प्रति भेदभाव और शोषण की स्थिति का वर्णन किया। इस पुस्तक में उन्होंने भारतीयों के आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस सुझाव दिए। 

सामाजिक सुधार और भारतीय अधिकार

नौरोजी ने न केवल व्यापारिक सफलता प्राप्त की, बल्कि इंग्लैंड में भारतीयों के सामाजिक और व्यावसायिक अधिकारों की रक्षा के लिए भी काम किया। उन्होंने भारतीय समाज के लिए कई सुधार प्रस्तावित किए, जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में सुधार शामिल थे। उनका उद्देश्य था कि भारतीयों को समान अधिकार मिलें और उन्हें ब्रिटिश समाज में एक उचित स्थान प्राप्त हो।
ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स की तस्वीर
ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स

दादाभाई नौरोजी की ब्रिटिश संसद में सदस्यता

दादाभाई नौरोजी का ब्रिटिश संसद में सदस्यता प्राप्त करना भारतीय राजनीति के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। उनकी यह उपलब्धि भारतीयों के लिए एक नई आशा की किरण साबित हुई और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित हुई। 

पहले भारतीय के रूप में ब्रिटिश संसद में निर्वाचित होना

दादाभाई नौरोजी ने 1892 में ब्रिटिश संसद के लिए लिबरल पार्टी की ओर से चुनाव लड़ा और लंदन के फिन्सबरी क्षेत्र से निर्वाचित होकर हाउस ऑफ कॉमन्स में शामिल हुए। वे ब्रिटिश संसद में पहुंचने वाले पहले भारतीय थे, और इस समय भारतीय समाज में एक बड़ी उपलब्धि मानी गई। उनके निर्वाचित होने से न केवल भारतीयों का प्रतिनिधित्व बढ़ा, बल्कि यह भी दर्शाया गया कि भारतीय मुद्दे ब्रिटिश राजनीति में महत्वपूर्ण हो सकते हैं।
नौरोजी का संसद में प्रवेश भारतीय राजनीति की एक नई दिशा को इंगित करता है। उन्होंने न केवल भारतीय मुद्दों को ब्रिटिश संसद में उठाया, बल्कि उन्होंने ब्रिटिश समाज के भीतर भारतीयों के प्रति पूर्वाग्रह और भेदभाव को भी चुनौती दी। 

ब्रिटिश संसद में भारतीय मुद्दों को उठाना

नौरोजी ने ब्रिटिश संसद में कई बार भारतीय मुद्दों को उठाया, विशेष रूप से भारतीय समाज की आर्थिक स्थिति और उसके शोषण पर ध्यान केंद्रित किया। उनकी ‘ड्रेन थ्योरी’ (Drain Theory) – जिसमें उन्होंने बताया कि ब्रिटिश शासन के कारण भारतीय धन और संसाधन ब्रिटेन भेजे जा रहे थे – को संसद में प्रस्तुत किया और इसकी गंभीरता को उजागर किया। 

ब्रिटिश समाज में भारतीयों के प्रति पूर्वाग्रह को चुनौती देना

नौरोजी ने ब्रिटिश समाज में भारतीयों के प्रति पूर्वाग्रह को चुनौती दी और भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया। उन्होंने ब्रिटिश संसद में भारतीयों के सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की रक्षा के लिए कई याचिकाएँ प्रस्तुत कीं। उनके इस प्रयास ने भारतीय मुद्दों को ब्रिटिश समाज और सरकार के समक्ष प्रमुखता से पेश किया और भारतीयों के अधिकारों के लिए एक नई दिशा प्रदान की।

दादाभाई नौरोजी का ‘ड्रेन थ्योरी’ और ‘ब्रिटिश शासन के तहत भारत की दरिद्रता’

दादाभाई नौरोजी ने भारतीय आर्थिक स्थिति पर अपनी गहरी समझ और विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसे ‘ड्रेन थ्योरी’ (Drain Theory) के रूप में जाना जाता है। इस सिद्धांत ने ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की आर्थिक स्थिति को समझने में एक नई दिशा प्रदान की और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ड्रेन थ्योरी’ का प्रतिपादन

दादाभाई नौरोजी ने ‘ड्रेन थ्योरी’ का प्रारंभिक प्रतिपादन 1867 के आसपास किया। उन्होंने यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि ब्रिटिश शासन के दौरान भारत से ब्रिटेन की ओर निरंतर आर्थिक संसाधनों का प्रवाह हो रहा था, जिससे भारत की आर्थिक स्थिति कमजोर हो रही थी। नौरोजी ने यह तर्क किया कि ब्रिटिश प्रशासन ने भारतीय संसाधनों और धन का शोषण किया, जिससे भारतीय समाज की दरिद्रता बढ़ रही थी।
नौरोजी ने इस सिद्धांत को स्पष्ट करने के लिए कई सांख्यिकीय आंकड़े और आर्थिक विवरण प्रस्तुत किए। इसके अतिरिक्त, ब्रिटिश शासन के उच्च कर और व्यापारिक नीतियाँ भारतीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही थीं।
पावर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया
पावर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया का टाइटल पेज

ब्रिटिश शासन के तहत भारत की दरिद्रता’ पुस्तक का प्रकाशन

दादाभाई नौरोजी ने अपने ‘ड्रेन थ्योरी’ को विस्तृत रूप से स्पष्ट करने के लिए 1901 में ‘ब्रिटिश शासन के तहत भारत की दरिद्रता’ (Poverty and Un-British Rule in India) नामक पुस्तक प्रकाशित की। इस पुस्तक में नौरोजी ने ब्रिटिश शासन की नीतियों के आर्थिक प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया।
पुस्तक में नौरोजी ने ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की आर्थिक स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त की। उन्होंने दिखाया कि कैसे ब्रिटिश शासन ने भारतीय कृषि, उद्योग और व्यापार पर नकारात्मक प्रभाव डाला। भारतीय किसानों पर उच्च कर लगाए गए, जो उनकी आर्थिक स्थिति को कमजोर करने के लिए जिम्मेदार थे। उन्होंने यह भी तर्क किया कि ब्रिटिश व्यापार नीतियों ने भारतीय उद्योगों को असहाय किया और विदेशी उत्पादों को बढ़ावा दिया।

प्रस्तावित आंकड़े और विवरण

– ब्रिटिश शासन के तहत आर्थिक शोषण : 

नौरोजी ने दिखाया कि ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय धन का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटेन के लिए निर्यात किया जाता था। उन्होंने कहा कि इस शोषण की मात्रा लगभग 20 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष थी, जो भारत की आर्थिक स्थिति को कमजोर कर रही थी।

– भारतीय कृषि पर प्रभाव : 

नौरोजी ने बताया कि ब्रिटिश शासन ने भारतीय कृषि पर अत्यधिक करों और व्यापारिक बाधाओं को लागू किया, जिससे किसानों की आर्थिक स्थिति खराब हो गई। भारतीय कृषि उत्पादकता में कमी आई और खाद्य सुरक्षा संकट उत्पन्न हुआ।

– सार्वजनिक वित्त और व्यापारिक नीतियाँ : 

नौरोजी ने सार्वजनिक वित्त की स्थिति पर ध्यान केंद्रित किया और बताया कि ब्रिटिश प्रशासन की नीतियों के कारण भारत में सार्वजनिक सेवाओं के लिए आवंटित बजट में कमी आई। ब्रिटिश व्यापारिक नीतियों के तहत भारतीय उद्योगों को हतोत्साहित किया गया और विदेशी उत्पादों को बढ़ावा दिया गया।

पुस्तक का प्रभाव और महत्व

‘ब्रिटिश शासन के तहत भारत की दरिद्रता’ ने भारतीय समाज में जागरूकता बढ़ाई और ब्रिटिश शासन की नीतियों की आलोचना में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में काम किया। नौरोजी की पुस्तक ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक सैद्धांतिक आधार प्रदान किया और भारतीयों को ब्रिटिश शासन के आर्थिक शोषण के खिलाफ एकजुट होने की प्रेरणा दी।
पुस्तक का प्रकाशन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ, क्योंकि इसने ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सशक्त विचारधारा को जन्म दिया। नौरोजी की ‘ड्रेन थ्योरी’ ने भारतीय समाज को उनकी आर्थिक स्थिति को समझने और ब्रिटिश शासन की नीतियों के खिलाफ संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। 
दादाभाई नौरोजी की ‘ड्रेन थ्योरी’ और ‘ब्रिटिश शासन के तहत भारत की दरिद्रता’ पुस्तक ने भारतीय राजनीति और आर्थिक विचारधारा पर गहरा प्रभाव डाला। उनकी इस दृष्टिकोण ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की और ब्रिटिश शासन की नीतियों की आलोचना करने के लिए एक महत्वपूर्ण आधार तैयार किया। नौरोजी की विरासत आज भी भारतीय आर्थिक इतिहास और स्वतंत्रता संग्राम की अध्ययन में एक महत्वपूर्ण अध्याय के रूप में जीवित है।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में दादाभाई नौरोजी की भूमिका

दादाभाई नौरोजी का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में अत्यधिक महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1885 में स्थापित इस संगठन ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा और स्वरूप को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नौरोजी, जो भारतीय राजनीति के अग्रदूत थे, ने कांग्रेस की स्थापना और उसके विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना

1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पीछे कई प्रमुख विचारक और नेता शामिल थे, लेकिन दादाभाई नौरोजी ने विशेष रूप से इस संस्था की नींव को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य भारतीय समाज को एक राजनीतिक मंच प्रदान करना और ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक संगठित आंदोलन चलाना था। 
नौरोजी, जो उस समय लंदन में रहकर भारतीय समाज और राजनीति पर गहरी नजर रखे हुए थे, ने भारतीय नेताओं के एकत्र होने और एक साझा मंच पर चर्चा करने की आवश्यकता को महसूस किया। 28 दिसंबर 1885 को मुंबई में आयोजित कांग्रेस के पहले सत्र में नौरोजी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस सत्र की अध्यक्षता W.C. Bonnerjee ने की थी, लेकिन नौरोजी के योगदान और सुझावों ने इस संस्थान की दिशा को स्पष्ट करने में मदद की। 

कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर निर्वाचित होना

दादाभाई नौरोजी ने कांग्रेस के गठन के बाद संगठन को मजबूत बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। उन्होंने 1886 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर निर्वाचित होकर अपने नेतृत्व की छाप छोड़ी। यह उनका पहला कार्यकाल था, और उन्होंने इसे भारतीयों के राजनीतिक अधिकारों की रक्षा और ब्रिटिश शासन के आर्थिक शोषण की आलोचना में समर्पित किया। 
उनकी अध्यक्षता के दौरान, नौरोजी ने कांग्रेस के एजेंडे को स्पष्ट किया और भारतीय मुद्दों को ब्रिटिश शासन के सामने उठाने के लिए एक ठोस रणनीति तैयार की। उनकी अध्यक्षता में ही कांग्रेस ने आर्थिक सुधारों की मांग की और भारतीय समाज के सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न प्रस्ताव पास किए। 
नौरोजी के अध्यक्षता का एक महत्वपूर्ण क्षण 1887 में आया, जब उन्होंने दोबारा अध्यक्ष पद संभाला। इस समय उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने भारतीयों की बढ़ती राजनीतिक जागरूकता को ध्यान में रखते हुए, ब्रिटिश शासन की नीतियों के खिलाफ और अधिक तीव्र आवाज उठाई। 

राष्ट्रीय राजनीति में योगदान 

नौरोजी ने कांग्रेस के माध्यम से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा प्रदान की। उन्होंने कांग्रेस के मंच का उपयोग करके भारतीय समाज में राजनीतिक जागरूकता फैलाने का प्रयास किया। उनका दृष्टिकोण और विचार कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों को निर्धारित करने में सहायक रहे। 
दादाभाई नौरोजी की कांग्रेस की अध्यक्षता की एक प्रसिद्ध कहानी उनके अत्यंत प्रभावशाली भाषण से जुड़ी है, जो उन्होंने 1886 में कांग्रेस के सत्र में दिया था। इस भाषण में, नौरोजी ने भारतीयों के आर्थिक शोषण और राजनीतिक अधिकारों की कमी पर गहरा ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने स्पष्ट रूप से बताया कि कैसे ब्रिटिश शासन ने भारत की समृद्धि को निगल लिया था और भारतीय समाज को आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर कर दिया था। 
इस भाषण के बाद, कांग्रेस के सदस्यों ने नौरोजी की बातों को गंभीरता से लिया और ब्रिटिश शासन की नीतियों के खिलाफ एक संगठित आंदोलन शुरू किया। नौरोजी के प्रभावशाली नेतृत्व ने कांग्रेस को एक सशक्त राजनीतिक मंच बनाया और स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा दी।

स्वतंत्रता संग्राम में दादाभाई नौरोजी का योगदान

दादाभाई नौरोजी का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के महत्वपूर्ण अध्यायों में से एक है। उनकी विचारधारा और कार्यों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा और ऊर्जा प्रदान की। 

ब्रिटिश शासन के खिलाफ शांतिपूर्ण और संवैधानिक संघर्ष का समर्थन

दादाभाई नौरोजी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ शांतिपूर्ण और संवैधानिक संघर्ष का समर्थन किया। 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में, नौरोजी ने देखा कि ब्रिटिश शासन ने भारत के आर्थिक और सामाजिक ढांचे को गंभीर नुकसान पहुँचाया था। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को हिंसा से दूर, संविधानिक सुधारों और राजनीतिक गतिविधियों के माध्यम से आगे बढ़ाने की दिशा में कार्य किया।
नौरोजी के नेतृत्व में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ब्रिटिश शासन की नीतियों की आलोचना की और भारतीय समाज के अधिकारों की रक्षा के लिए संविधानिक उपायों की मांग की। उन्होंने अपने समय के प्रमुख राजनीतिक नेताओं के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार को भारतीयों के अधिकारों और स्वशासन की मांग को प्रस्तुत किया। उनके विचारों का प्रभाव यह था कि कांग्रेस ने एक संगठित और शांतिपूर्ण आंदोलन के रूप में स्वतंत्रता की दिशा में कदम बढ़ाया।

भारतीयों को आत्मनिर्भर बनने और स्वशासन के लिए प्रेरित करना

दादाभाई नौरोजी ने भारतीय समाज को आत्मनिर्भर बनने और स्वशासन के लिए प्रेरित किया। उन्होंने भारतीयों को शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता पर जोर देने की सलाह दी। नौरोजी ने यह महसूस किया कि जब तक भारतीय समाज अपनी आंतरिक ताकत और संसाधनों का सही तरीके से उपयोग नहीं करेगा, तब तक स्वतंत्रता की वास्तविक प्राप्ति संभव नहीं होगी।
उनके इस दृष्टिकोण का एक प्रसिद्ध उदाहरण 1903 में आया, जब उन्होंने भारतीय व्यापारियों और उद्योगपतियों के साथ एक बैठक आयोजित की। इस बैठक में, नौरोजी ने भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहित करने और विदेशी वस्त्रों के स्थान पर स्वदेशी वस्त्रों को अपनाने का सुझाव दिया। उन्होंने भारतीय व्यापारियों को एकजुट होकर स्वदेशी उद्योगों को समर्थन देने का आह्वान किया। इस बैठक से प्रेरित होकर, कई भारतीय व्यापारियों ने स्वदेशी उत्पादों की बिक्री और उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कदम उठाए।

ब्रिटिश शासन के आर्थिक शोषण की आलोचना

नौरोजी ने ब्रिटिश शासन के आर्थिक शोषण की आलोचना करते हुए ‘ड्रेन थ्योरी’ का प्रतिपादन किया। उन्होंने अपनी पुस्तक “पावर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया” (1901) में स्पष्ट किया कि ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीय धन-संपत्ति का निरंतर प्रवाह इंग्लैंड की ओर हो रहा था, जिससे भारत की आर्थिक स्थिति और भी कमजोर हो रही थी।
नौरोजी ने 1867 में लंदन में आयोजित एक सभा में यह सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने बताया कि ब्रिटिश शासन ने भारत की समृद्धि को अपने लाभ के लिए किस प्रकार उपयोग किया। उन्होंने आंकड़ों और आर्थिक डेटा के माध्यम से दिखाया कि कैसे ब्रिटिश नीतियों ने भारतीय समाज को गरीबी और असहायता की ओर धकेल दिया। उनकी इस विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण ने भारतीयों को अपने आर्थिक अधिकारों और स्वतंत्रता के प्रति जागरूक किया।

भारत के लिए स्वराज की मांग: दादाभाई नौरोजी का योगदान

दादाभाई नौरोजी का भारत के स्वराज की मांग में योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण था। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा दी और स्वतंत्रता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए।

स्वराज की मांग

दादाभाई नौरोजी ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में पहली बार स्वराज की मांग को प्रमुखता से उठाया। 1905 के कांग्रेस सत्र में, जब ब्रिटिश सरकार ने बंगाल का विभाजन किया, तो नौरोजी ने इसका कड़ा विरोध किया। उन्होंने यह तर्क किया कि यह विभाजन भारतीय एकता और स्वशासन के खिलाफ एक साजिश थी। इस समय तक, ब्रिटिश सरकार ने भारत में कुछ सुधार किए थे, लेकिन नौरोजी ने स्पष्ट किया कि ये सुधार अपर्याप्त थे और पूर्ण स्वराज की दिशा में एक निर्णायक कदम उठाने की आवश्यकता है।
उनके विचारों का यह प्रभाव था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1906 के कांग्रेस सत्र में पूर्ण स्वराज की मांग को अपनी प्राथमिकता बनाकर प्रस्तुत किया। नौरोजी ने स्वराज्य की इस मांग को प्रेरित करने के लिए अपने लेखों, भाषणों और सार्वजनिक अभियानों के माध्यम से एक मजबूत जनमत तैयार किया।

स्वराज्य के सिद्धांत को स्थापित करना

नौरोजी ने स्वराज्य के सिद्धांत को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीयों को आत्मनिर्भर बनने, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने और राजनीतिक संगठनों को सशक्त बनाने का आह्वान किया। उनकी प्रमुख पुस्तक “पावर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया” (1901) में उन्होंने ब्रिटिश शासन के आर्थिक शोषण और इसके कारण भारत की बिगड़ती स्थिति की विस्तृत व्याख्या की। 
इस पुस्तक में उन्होंने दिखाया कि ब्रिटिश शासन ने भारतीय संसाधनों और धन को कैसे शोषित किया और इससे भारत में गरीबी और आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ। नौरोजी के आंकड़े और विश्लेषण ने भारतीयों को स्वशासन की दिशा में एक संगठित संघर्ष की आवश्यकता को स्पष्ट किया।

प्रभावशाली व्यक्ति: दादाभाई नौरोजी का योगदान

दादाभाई नौरोजी, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी नेताओं में से एक, ने भारतीय राजनीति और समाज पर गहरा प्रभाव डाला। उनके विचार और संघर्ष स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बने, और उनकी विचारधारा ने आंदोलन की दिशा और रणनीति को आकार दिया।

गांधी और नौरोजी: एक आदर्श संबंध

महात्मा गांधी और दादाभाई नौरोजी के बीच एक गहरा आदर्श संबंध था। गांधीजी ने नौरोजी की ‘ड्रेन थ्योरी’ (धन का शोषण) को अपनाया और इसे अपने सत्याग्रह आंदोलनों में शामिल किया। गांधीजी के अनुसार, नौरोजी की आर्थिक शोषण पर चिंता ने उन्हें ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक संगठित संघर्ष की दिशा में प्रेरित किया। 
गांधीजी ने 1909 में अपने प्रसिद्ध “हिन्द स्वराज” में नौरोजी के विचारों का उल्लेख किया, और यह स्पष्ट किया कि भारत की आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता केवल ब्रिटिश शोषण की समाप्ति से ही संभव है। नौरोजी की आर्थिक शोषण की आलोचना ने गांधीजी को एक नई दिशा दी, और उन्होंने इसे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना दिया। गांधीजी का “स्वदेशी” आंदोलन और “नमक सत्याग्रह” नौरोजी की विचारधारा से प्रेरित थे।

नेहरू और नौरोजी: प्रेरणा का स्रोत

जवाहरलाल नेहरू, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महत्वपूर्ण नेता बने, ने दादाभाई नौरोजी के विचारों से गहरी प्रेरणा ली। नेहरू ने नौरोजी की ‘पावर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ (1901) की गहरी समीक्षा की और इसे भारतीय राजनीति और समाज के आर्थिक शोषण की सच्चाई को समझने में एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शक माना। 
नेहरू ने नौरोजी की चिंताओं को अपने राजनीतिक दृष्टिकोण में शामिल किया और स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति को उसी आधार पर तैयार किया। नेहरू के अनुसार, नौरोजी की आर्थिक और राजनीतिक चिंताओं ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक ठोस और विचारशील दृष्टिकोण प्रदान किया। 

अन्य प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी और नौरोजी का प्रभाव

नौरोजी के विचारों का प्रभाव केवल गांधी और नेहरू तक ही सीमित नहीं था। लोकमान्य तिलक ने नौरोजी की स्वतंत्रता की मांग और स्वशासन के सिद्धांतों को अपने आंदोलन में शामिल किया। तिलक ने नौरोजी की ‘ड्रेन थ्योरी’ को स्वीकार किया और इसे भारतीय जनता को जागरूक करने के लिए उपयोग किया। 
सुभाष चंद्र बोस, जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय सेना की स्थापना की, ने भी नौरोजी की विचारधारा को अपनाया। बोस ने नौरोजी की आर्थिक शोषण की आलोचना को समझा और इसे अपने स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति में शामिल किया। बोस ने नौरोजी की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए भारतीय समाज की समस्याओं के समाधान के लिए ठोस रणनीतियाँ तैयार कीं।

दादाभाई नौरोजी की विरासत

दादाभाई नौरोजी जिनका निधन 30 जून 1917 को मुंबई में 91 साल की उम्र में हुआ। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी और प्रभावशाली नेताओं में से एक थे। उनका योगदान न केवल स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महत्वपूर्ण था, बल्कि उनकी विचारधारा और कार्यों ने स्वतंत्रता के बाद के भारत पर भी गहरा प्रभाव डाला। उनकी विरासत भारतीय राजनीति, समाज, और विचारधारा के विभिन्न पहलुओं में देखने को मिलती है।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान का मूल्यांकन

दादाभाई नौरोजी के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। उनके विचारों और संघर्ष ने भारतीय राजनीति और सामाजिक आंदोलनों की दिशा को आकार दिया। 

1. ड्रेन थ्योरी’ और आर्थिक शोषण : 

नौरोजी की ‘ड्रेन थ्योरी’ (धन का शोषण) ने ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीय धन-संपत्ति के निरंतर शोषण को उजागर किया। उनकी इस थ्योरी ने भारतीय समाज को आर्थिक शोषण की वास्तविकता से परिचित कराया और स्वतंत्रता संग्राम को एक आर्थिक दृष्टिकोण प्रदान किया। नौरोजी की इस सोच ने भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष के लिए एक ठोस आधार प्रदान किया।

2. स्वराज की मांग : 

नौरोजी ने 1906 में स्वशासन की मांग की। उनका यह दृष्टिकोण स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख मुद्दों में शामिल हुआ और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसे स्वीकार किया। नौरोजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने स्वराज की मांग को अपने एजेंडे में शामिल किया, जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था।

3. ब्रिटिश संसद में सदस्यता : 

दादाभाई नौरोजी ने ब्रिटिश संसद में भारतीय मुद्दों को उठाया और भारतीयों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया। उनकी सदस्यता ने भारतीय मुद्दों को ब्रिटिश संसद में प्रतिनिधित्व प्रदान किया और भारतीयों की समस्याओं को उठाने के लिए एक मंच प्रदान किया।

स्वतंत्रता के बाद के भारत पर प्रभाव

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, दादाभाई नौरोजी की विरासत और विचारों ने स्वतंत्र भारत की राजनीति और समाज पर गहरा प्रभाव डाला।

a. आर्थिक नीतियों पर प्रभाव : 

नौरोजी की ‘ड्रेन थ्योरी’ ने स्वतंत्र भारत की आर्थिक नीतियों पर प्रभाव डाला। उनकी आर्थिक दृष्टिकोण ने भारतीय सरकार को आर्थिक शोषण की समस्या को समझने में मदद की और आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम उठाने के लिए प्रेरित किया।

b. स्वशासन और लोकतंत्र : 

नौरोजी ने स्वशासन और लोकतंत्र के सिद्धांतों को स्थापित किया। स्वतंत्रता के बाद, भारतीय संविधान और राजनीतिक ढांचा इन सिद्धांतों पर आधारित था। नौरोजी की विचारधारा ने भारतीय लोकतंत्र की नींव को मजबूत किया और स्वराज की अवधारणा को महत्वपूर्ण माना गया।

c. सामाजिक सुधार : 

नौरोजी की सामाजिक और राजनीतिक विचारधारा ने स्वतंत्र भारत में सामाजिक सुधारों की दिशा में मार्गदर्शन किया। उन्होंने भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को सुधारने के लिए विचारशील दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, जो स्वतंत्रता के बाद के समाज में महत्वपूर्ण रहे।

विरासत

मुंबई में दादाभाई नौरोजी रोड, कराची में दादाभाई नौरोजी रोड, और लंदन के फिंसबरी क्षेत्र में नौरोजी स्ट्रीट उनके नाम पर रखे गए हैं। दिल्ली के दक्षिण में केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों के लिए एक प्रमुख आवासीय क्षेत्र भी नौरोजी नगर के नाम से जाना जाता है। उनकी पोतियाँ, पेरिन और खुर्शेदबेन, स्वतंत्रता आंदोलन में भी शामिल थीं। 1930 में, खुर्शेदबेन को अहमदाबाद के एक सरकारी कॉलेज में भारतीय ध्वज फहराने के प्रयास में अन्य क्रांतिकारियों के साथ गिरफ्तार किया गया था। भारत सरकार ने 1963, 1993 और 2017 उनके स्मारक में डाक टिकट जारी किए।

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